कृृषि विकास : कुछ विचारणीय पहलू


राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था को मजबूत बनाने के उद्देश्य से कृषि उत्पादन और उत्पादकता में पर्याप्त वृद्धि की आवश्यकता पर जोर देते हुए लेखक ने इस उद्देश्य को प्राप्त करने के लिये विभिन्न उपायों के सुझाव दिए हैं। इन उपायों में क्षेत्रीय साधनों का वैज्ञानिक प्रबंधन, लघु जल-विभाजन प्रबंध, समेकित कीटाणु प्रबंधन, बहुत दिनों से बकाया बैंक ऋणों की वसूली, ग्राम तथा तालुका स्तर पर सहकारी विपणन का विकास, उन्नत औजारों का इस्तेमाल, खाद्य प्रसंस्करण उद्योग को प्रोत्साहन और किसानों को उनकी उपज के लाभकारी मूल्यों का प्रावधान शामिल है।

कृषि जलवायु सम्बन्धी क्षेत्र आयोजन का उद्देश्य प्राकृतिक संसाधनों और पर्यावरण की स्थिति पर विपरीत असर डाले बगैर वैज्ञानिक प्रबंध विधि से खाद्य पदार्थों, रेशे, चारे, ईंधन के लिये बढ़ती हुई माँग को पूरा करना है। कृषि विकास की प्रमुख नीति तैयार की जानी चाहिए और उसमें जल-विभाजन के आधार पर भूमि तथा जल-संसाधन प्रबंध को सम्मिलित किया जाना चाहिए। सूक्ष्म जल-विभाजन प्रबंध यानी माइक्रो वाटरशेड मैनेजमेंट में कुल संसाधन संरक्षण शामिल हैं जिनमें भूमि, जल, वन, चरागाह, बागवानी और कृषि पशु पालन को सम्मिलित किया जाता है।

कृषि आज भी देश के आर्थिक विकास का प्रमुख आधार है और लगभग दो-तिहाई श्रम शक्ति इसमें लगी हुई है। देश में खाद्यान्नों की खपत और गैर कृषि उपभोक्ता माल तथा सेवाओं की क्रयशक्ति का स्रोत भी कृषि ही है, अतः तीव्र कृषि विकास की आवश्यकता से इंकार नहीं किया जा सकता है।

भारत के कुल खाद्यान्न उत्पादन में हालाँकि 1950-55 से 1985-90 के बीच के वर्षों में 2.6 प्रतिशत वार्षिक वृद्धि हुई है परन्तु जनसंख्या में भी 2.2 प्रतिशत वार्षिक की वृद्धि हुई है। लेकिन इसके बावजूद खाद्यान्न उत्पादन के मामले में देश ने आत्मनिर्भरता प्राप्त की है जिसे मामूली उपलब्धि नहीं कहा जा सकता फिर भी जब प्रति व्यक्ति उपलब्धता को ध्यान में रखा जाता है तो यह उपलब्धि संतोषजनक नहीं है। क्योंकि 1989-90 में जब 17 करोड़ 30 लाख टन का शानदार रिकॉर्ड उत्पादन हुआ था तो प्रति व्यक्ति उपलब्धता 1971 के 469 ग्राम से घटकर अब 400 ग्राम हो गई, जो चिन्ता का विषय है। इसके अलावा 37 प्रतिशत आबादी गरीबी की रेखा से नीचे गुजर-बसर कर रही है और उनके पास आवश्यक क्रयशक्ति का अभाव है अतः ऐसी स्थिति में खाद्यान्न उत्पादन के आंकड़े शानदार लग सकते हैं, इसलिये तीव्र कृषि विकास को हासिल करने के लिये और भारत को आर्थिक दृष्टि से मजबूत बनाने के लिये राजनीतिक शक्ति और उसके साथ-साथ इच्छा शक्ति जरूरी है।

आर्थिक सुदृढ़ता हासिल करने के लिये जिन कुछ विशेष बातों की ओर तत्काल ध्यान दिए जाने की आवश्यकता है उन पर यहाँ प्रकाश डाला जा रहा है।

कृषि जलवायु की दशाओं और भूमि की विशेषताओं में अंतर होने के कारण खादों के इस्तेमाल और अन्य निवेशों से विभिन्न स्थानों पर फसल उत्पादन भिन्न-भिन्न हो सकता है। इसी प्रकार उतने ही निवेशों का उतनी ही मात्रा में इस्तेमाल करने पर फसल के उत्पादन में हर साल अंतर पाया जाता है। इसलिये देश को विभिन्न क्षेत्रों में बाँटते समय यह ध्यान देना आवश्यक है कि एक क्षेत्र के अन्दर विभिन्नताएँ कम हों। पिछले वर्षों के दौरान देश को विभिन्न क्षेत्रों में विभाजित करने के कई प्रयास किए गए। इनमें राष्ट्रीय कृषि आयोग (1976) और भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद शामिल हैं। योजना आयोग ने भौतिक दशाओं, भौगोलिक स्थिति, मिट्टी की किस्मों, भूगर्भिक संरचना, वर्षा, फसल चक्र और सिंचाई के विकास तथा देश के खनिज साधनों के आधार पर देश को 15 कृषि-जलवायु में बाँटा है।

कृषि जलवायु सम्बन्धी क्षेत्र आयोजन का उद्देश्य प्राकृतिक संसाधनों और पर्यावरण की स्थिति पर विपरीत असर डाले बगैर वैज्ञानिक प्रबंध विधि से खाद्य पदार्थों, रेशे, चारे, ईंधन के लिये बढ़ती हुई माँग को पूरा करना है। मोटे तौर पर कृषि-जलवायु के अलावा इन क्षेत्रों के विभाजन के लिये आयोजना और संचालन सुविधा प्रमुख सिद्धांत थे। प्रशासकीय तथा संचालनात्मक सुविधा के लिये क्षेत्रीय सीमाओं के सीमांकन के लिये जिले को न्यूनतम इकाई के रूप में इस्तेमाल किया गया। बाद में यह महसूस किया गया कि मोटे तौर पर ये 15 क्षेत्र विशेष कृषि जलवायु दशा का प्रतिनिधित्व करते हैं परन्तु जब विस्तृत संचालनात्मक आयोजना के उद्देश्य के लिये विचार किया जाता है तो एकरूपता की जाँच पर यह खरा नहीं उतरता इसलिये 15 क्षेत्रों का और विभाजन किया गया और उन्हें 73 उपक्षेत्रों या उप प्रदेशों में बाँटा गया। एकरूपता वाले योजना आधार को तैयार कर लेने पर इनमें से प्रत्येक उप क्षेत्र के लिये विस्तृत संसाधन सूची बनाने का प्रस्ताव किया गया। इस प्रकार तैयार की गई संसाधन सूची का उपयोग विकास के वर्तमान स्तर और उपलब्ध तकनीकी जानकारी पर विचार करते हुए उपयुक्त विकास नीतियों को तैयार करते समय किया गया। कृषि-जलवायु क्षेत्रीय आयोजना दृष्टिकोण के संचालनात्मक पहलू के रूप में विभिन्न क्षेत्रीय योजना दलों द्वारा जिला आयोजना का कार्य हाथ में लिया गया। इसके लिये संबद्ध राज्य सरकारों द्वारा कार्यक्रम तैयार करना तथा अमल में लाया जाना आवश्यक है।

सूक्ष्म जल-विभाजक प्रबंध


भारत में कृषि योग्य भूमि का लगभग 70 प्रतिशत (यानी लगभग 14 करोड़ 40 लाख हेक्टेयर) भूमि वर्षा सिंचित है और फसल उगाने के लिये प्राकृतिक जल पर निर्भर रहती है। अनुमान लगाया गया है कि देश में सारी सिंचाई क्षमता के दोहन के बाद भी 2020ई. तक लगभग 50 प्रतिशत कृषि योग्य भूमि वर्षा पर ही निर्भर रहेगी। ऐसा देखा गया है कि वर्षा पर आधारित क्षेत्रों में कृषि उत्पादन प्रायः कम होता है क्योंकि मौसम की दशाएँ और मिट्टी से सम्बन्धित कुछ समस्याएँ प्रायः वहाँ पाई जाती हैं, इसलिये वातावरण तथा भौगोलिक दशाओं और संसाधन के आधार को देखते हुए कृषि विकास की प्रमुख नीति तैयार की जानी चाहिए और उसमें जल-विभाजन के आधार पर भूमि तथा जल-संसाधन प्रबंध को सम्मिलित किया जाना चाहिए। सूक्ष्म जल-विभाजन प्रबंध यानी माइक्रो वाटरशेड मैनेजमेंट में कुल संसाधन संरक्षण शामिल हैं जिनमें भूमि, जल, वन, चरागाह, बागवानी और कृषि पशु पालन को सम्मिलित किया जाता है।

जल-विभाजन की व्यवस्था के लिये भौगोलिक दृष्टि से ऊँचाई-निचाई को ध्यान में रखकर बाँध बनाने, मिट्टी का तल तैयार करने और नालियों की प्रणाली, सीढ़ियाँ बनाने, जमीन को समतल करने, भूमि के आकार को ठीक करने, नालों के किनारे बाँध बनाने तथा नियंत्रक बाँध बनाने जैसी संरचना तैयार करने, भूमि संरक्षण के ढाँचे तैयार करने जैसे खाली स्थान बनाने जैसी संरचना तैयार करने, भूमि की ऊँचाई-निचाई के अनुसार बाँध बनाने और बीहड़ को रोकने के लिये आवश्यक कार्रवाई करने आदि जैसी बातें शामिल हैं। बिना जोती हुई भूमि जिसमें जुताई करने योग्य बंजर तथा बेकार पड़ी हुई भूमि को अलग प्रकार से खेती योग्य बनाने की आवश्यकता होती है। इसमें सामाजिक वानिकी, कृषि वानिकी, बारानी भूमि, बागवानी फसलें, चारा विकास और वनोद्यान शामिल हैं।

इनमें से कुछ कार्यक्रम विभिन्न योजनाओं, जैसे-भूमि संरक्षण, व्यापक जल-विभाजक विकास कार्यक्रम, रोजगार गारण्टी कार्यक्रम, आर.एल.ई.जी.पी, डी.पी.ए.पी., जैसे कार्यक्रमों में शामिल योजनाओं की विविधता दृष्टिकोण के प्रभावी अमल में व्यवधान हैं। इस दृष्टिकोण पर अमल करने में सामुदायिक सहभागिता भी आवश्यक है। अदगाँव, पलासखेड़ा और नया गाँव (महाराष्ट्र राज्य) जैसे गाँवों में स्वयंसेवी संगठनों की सफलता इस तथ्य का पर्याप्त प्रमाण है। लक्ष्य को हासिल करने के लिये इस कार्यक्रम को प्राथमिकता और उसमें पर्याप्त निवेश की आवश्यकता पड़ती है। इसी प्रकार एक दीर्घकालिक योजना तैयार करने की भी आवश्यकता है।

समेकित कीट नियंत्रण कार्यक्रम


वास्तव में हानि को न्यूनतम करना, खाद्यान्न उत्पादन में वृद्धि करने का एक तरीका है। विभिन्न कीटाणुओं और रोगों से फसल को क्षति पहुँचती है। केवल भारत में ही कीटों और बीमारियों के कारण 6 हजार करोड़ रुपये से लेकर 7 हजार करोड़ रुपये तक वार्षिक फसलों की क्षति होने का अनुमान है। हालाँकि अन्य विकसित देशों की तुलना में भारत में प्रति व्यक्ति कीटनाशक दवाओं का इस्तेमाल कम है, लेकिन कुछ स्थान ऐसे हैं जहाँ अपेक्षाकृत अधिक मात्रा में कीटनाशक दवाओं का इस्तेमाल किया जाता है। इस प्रकार प्रयोग में लाई गई कीटनाशक दवाओं के अवशेष पर्यावरण में रह जाते हैं जो खाद्य पदार्थों को प्रदूषित करते हैं। अतः कीटनाशकों का अधिक मात्रा में इस्तेमाल पर्यावरणीय खतरे की सम्भावना से भरा पड़ा है। नई जानकारी और नए दबावों के आधार पर कीटनाशकों से होने वाले नुकसान का समाधान करने पर जोर देते हुए एक कार्यक्रम चलाने की आवश्यकता है। अब यह महसूस किया गया है कि कीट नियंत्रण का कोई एक तरीका समस्या का स्थायी समाधान नहीं हो सकता।

इसी प्रकार यह भी देखा गया है कि जब बड़े क्षेत्र में प्रतिरोधी किस्में उगाई जाती हैं तो वे अच्छा उत्पादन देती हैं। हाल में यह महसूस किया गया है कि कीट-नियंत्रण के लिये एक सुनियोजित प्रबंध कार्यक्रम चलाने की आवश्यकता है जो पर्यावरण की दृष्टि से सुरक्षित हो और क्षति को नियंत्रित करने में सक्षम हो। इसी चिन्ता को लेकर समन्वित कीट प्रबंध (आई.पी.एम.) शुरू किया गया है। समेकित कीट प्रबंध की अवधारणा का तात्पर्य यह है कि सभी उपलब्ध विकल्पों का इस्तेमाल इतना सही ढंग से किया जाए कि कीटों की आबादी आर्थिक देहरी के स्तर को पार न करने पाए। विकल्पों के सबसे प्रमुख घटकों में जैविक नियंत्रण, फसलों के चक्र में परिवर्तन या सामंजस्य तथा सूक्ष्म जीवाणुओं का रोगमूलक इस्तेमाल शामिल है। कीट नियंत्रण प्रबंध उपायों पर अमल तभी सम्भव है जब उपयुक्त फैसले के लिये आवश्यक विचारों को विकसित कर लिया जाए।

इस मामले में प्रगति मुख्य रूप से आर्थिक देहरी अवधारणा की व्यापक अनुप्रयोग पर निर्भर करती है जिसके लिये उचित और प्रभावी अनुश्रवण तथा कीटाणुओं की आबादी के विकास के पूर्वानुमान और कीटाणुओं पर नियंत्रण रखने के प्रयासों और फसल की परिणामित क्षति के बीच सम्बन्धों के बारे में सही-सही जानकारी शामिल है। इसलिये जटिल सम्बन्धों को और स्पष्ट रूप से अभिव्यक्त करने तथा व्यावहारिक उद्देश्यों के लिये उपयोगी कार्यों में वर्णित करने के लिये मूलभूत आंकड़े विकसित करने की आवश्यकता है और समूची व्यवस्था के लिये प्राथमिकता के आधार पर पर्याप्त धन के आवंटन की आवश्यकता है। श्रम शक्ति और बुनियादी ढाँचे के सम्बन्ध में उपलब्ध आवश्यकता के लिये अनुसंधान आधार को मजबूत बनाने की आवश्यकता है।

ऋणों की वसूली


इस मजबूत और शानदार बुनियादी ढाँचे के बावजूद कृषि ऋण के क्षेत्र में सहकारियों का हिस्सा 1969 में 80 प्रतिशत से कम होकर 1987 में 42 प्रतिशत हो गया और अगले पाँच वर्षों में इसके और नीचे खिसक कर 40 प्रतिशत हो जाने की सम्भावना है। रकम का पुनर्चक्रण करने के लिये वसूली की स्थिति में सुधार करने के साथ-साथ वित्तीय स्थिति में सुधार लाना और सहकारी ऋण संस्थाओं की ऋण खपाने की क्षमता में भी सुधार लाना आवश्यक है।

महँगे निवेशों वाली आधुनिक कृषि में धन की आवश्यकता से इंकार नहीं किया जा सकता। भारतीय रिजर्व बैंक द्वारा नियुक्त अखिल भारतीय ग्रामीण ऋण सर्वेक्षण समिति की सिफारिशों के आधार पर ग्रामीण वित्त में सहकारियों की भूमिका का विस्तार करने के लिये देश में ग्रामीण ऋण की एक समेकित योजना शुरू की गई जिसके परिणामस्वरूप 1954 में सहकारी ऋण आंदोलन को भारी प्रोत्साहन मिला। अखिल भारतीय ग्रामीण ऋण सर्वेक्षण समिति का एक प्रमुख निष्कर्ष था कि भारतीय दशाओं में कृषि ऋण के चंगुल में न फँसने के लिये सहकारी प्रणाली सबसे उपयुक्त है। इससे सहकारी ऋण संस्थाओं के विकास को और गति देने के लिये केन्द्र और राज्य सरकारों को प्रोत्साहन मिला। इसके परिणामस्वरूप सहकारी ऋण ढाँचे का अब एक मजबूत ढाँचा तैयार हो गया है जिसमें प्राथमिक कृषि ऋण समितियाँ, जिला केन्द्रीय सहकारी बैंक और राज्य सहकारी बैंक तथा उनके साथ ही साथ सदस्यों को अल्पकालिक मंझोले तथा लम्बी अवधि के ऋण देने के लिये राज्य कृषि एवं ग्रामीण विकास बैंकों का एक तंत्र बन चुका है।

इस मजबूत और शानदार बुनियादी ढाँचे के बावजूद कृषि ऋण के क्षेत्र में सहकारियों का हिस्सा 1969 में 80 प्रतिशत से कम होकर 1987 में 42 प्रतिशत हो गया और अगले पाँच वर्षों में इसके और नीचे खिसक कर 40 प्रतिशत हो जाने की सम्भावना है। ऋण में सहकारियों के हिस्से में इस कमी का मुख्य कारण बहुमाध्यम प्रणाली की नीति का अमल में आना है जिसमें कृषि तथा सम्बद्ध कार्यों के लिये ऋण देने के मामले में राष्ट्रीयकृत वाणिज्यिक बैंकों और क्षेत्रीय ग्रामीण बैंकों को शामिल किया गया। इसके परिणामस्वरूप ग्रामीण इलाकों में वाणिज्यिक बैंकों के संजाल का शानदार विस्तार हुआ है। बैंकों की शाखाओं में अभूतपूर्व वृद्धि के बावजूद तीनों ही प्रकार के बैंकों में अतिदेयता (ओवरड्यूज) की समस्या बनी रही। बैंकों की शाखाओं के तेजी से विस्तार तथा वाणिज्यिक बैंकों द्वारा ऋण आपूर्ति और गरीबी उन्मूलन कार्यक्रमों में शामिल होने का सिलसिला जारी रहा क्योंकि नीति योजना और कारगर ढंग से प्रबंध करने में उनकी विफलता की वजह से वाणिज्यिक बैंकों की अतिदेयता वर्ष 1986 तक 43 प्रतिशत हो गई। क्षेत्रीय ग्रामीण बैंकों और प्राथमिक कृषि ऋण समितियों की अतिदेयता वर्ष 1986 में क्रमशः 51 प्रतिशत तथा 41 प्रतिशत हो गई।

सहकारियों की अतिदेयता का बढ़ता हुआ स्तर बहुत चिन्ता का कारण रहा है जिससे सहकारी ऋण ढाँचा पंगु हो गया। ऋण आवेदन पत्रों के दोषपूर्ण आकलन और ऋण उपयोग की अपर्याप्त निगरानी के अलावा और कई कारण थे जैसे दैवी आपदाओं का असर, जानबूझकर अदायगियाँ न करना, ऋणों का दुरुपयोग और वसूली की प्रक्रिया में खामियों की वजह से यह स्थिति आई। यह अत्यन्त आवश्यक है कि अतिदेयता की समस्या को दृढ़ता के साथ हल किया जाए। रकम का पुनर्चक्रण करने के लिये वसूली की स्थिति में सुधार करने के साथ-साथ वित्तीय स्थिति में सुधार लाना और सहकारी ऋण संस्थाओं की ऋण खपाने की क्षमता में भी सुधार लाना आवश्यक है। यह भी सुझाव दिया गया है कि जानबूझकर अदायगी से बचने वालों को न केवल सामाजिक दृष्टि से गलत व्यक्ति समझा जाए बल्कि उसे अपराध माना जाए और उन्हें दंडित किए बगैर न जाने दिया जाए।

आपराधिक कानून के अंतर्गत उन्हें कड़ी सजा दी जानी चाहिए। इससे ऋण संस्थाओं की क्षमता में सुधार लाने और ऋण के भुगतान के मामले में किसानों को जिम्मेदारी के साथ कार्य करने में सुधार आएगा और इस पर दृढ़ता के साथ अमल करने की आवश्यकता है। यह भी आवश्यक है कि इन संस्थाओं के कामकाज और प्रबंध को राजनीतिक हस्तक्षेप तथा दबाव या दबदबे से मुक्त रखा जाए। सरकार ने दस हजार रुपये तक के ऋण माफ कर देने की नीति बनाई है। दीर्घकालिक प्रभावों को ध्यान में रखते हुए इस पर सावधानी से विचार करने की आवश्यकता है।

विपणन


विपणन किसानों की समृद्धि की कुँजी है। केवल अधिक उत्पादन कर लेना ही जरूरी नहीं होता बल्कि सही समय और सही स्थान पर उपज को बाजार तक पहुँचाना भी आवश्यक है। आमतौर पर लोग यह जानते हैं कि जब बाजार में मंदी का दौर चलता है तो कीमतें गिरती हैं तो उससे अंततः किसानों को नुकसान उठाना पड़ता है। यह भी सब जानते हैं कि उत्पादक और उपभोक्ता के बीच एक बड़ी शृंखला है और उपभोक्ता जो कीमत अदा करते हैं उसका एक बड़ा हिस्सा बिचौलिये हड़प जाते हैं इसलिये आवश्यक है कि उत्पादक की बिक्री योग्य अतिरिक्त उपज को बाजार में ले जाने के लिये और उसकी उपज को उचित कीमत दिलाने और बिचौलियों के बगैर काम चला लेने के लिये ग्राम तथा तालुका स्तरों पर सहकारी मंडियों का मजबूत आधार बनाया जाए।

उन्नत औजार


उत्पादन बढ़ाने, संचालन की लागत कम करने और अन्य महँगे निवेशों का उचित और सामयिक अनुप्रयोग करके तथा कृषि कार्यों में तंगी को कम करके और अधिक आय बढ़ाने की कुशलता को अधिक से अधिक करने के लिये उन्नत कृषि औजार, उपकरण और मशीनें खेती में प्रमुख निवेश हैं। भारत में अधिकतर किसान सीमान्त और लघु श्रेणी में आते हैं और उनके पास दो हेक्टेयर से भी कम जोत है और वे इस तरह छोटे-छोटे टुकड़ों में बँटी हैं कि उनमें मशीनों का इस्तेमाल दुष्कर हो जाता है। यदि फसल से खरपतवार को समय पर न निकाला जाए तो फसलों के उत्पादन पर 25-27 प्रतिशत तक असर पड़ता है। इसलिये यह आवश्यक है कि किसानों द्वारा कृषि औजारों का और व्यापक इस्तेमाल किए जाने के लिये निम्नलिखित उपाय किए जाएँ :

1. किसानों को सुदृढ़ प्रसार तंत्र के जरिए इस बारे में जानकारी दी जाए।

2. संचालन, मरम्मत और रखरखाव के मामले में किसानों, गाँव के कारीगरों और मिस्त्रिओं के लिये प्रशिक्षण कार्यक्रम चलाए जाएँ।

3. किसानों को ऋण और रियायतें उपलब्ध कराई जाएँ और इनकी बिक्री के बाद सेवा भी उपलब्ध कराई जाएँ।

4. उधार पर उपकरण प्राप्त करने के लिये केन्द्र कायम किए जाने चाहिए ताकि छोटे किसान इन उपकरणों को भाड़े पर ले सकें।

5. उपकरणों के हिस्से-पुर्जे आसानी से उपलब्ध कराए जाने चाहिए।

खाद्य पदार्थों का प्रसंस्करण


देश में खाद्य प्रसंस्करण उद्योगों की वृद्धि की अत्यधिक सम्भावनाएँ हैं और इस क्षेत्र में भारत विश्व में अग्रणी देश के रूप में उभर सकता है। भारत के पास विशाल समुद्री सीमा और समुद्री संसाधन हैं, पर्याप्त मात्रा में फलों और सब्जियों तथा खाद्यान्नों के उत्पादन के लिये उपयुक्त जलवायु है और माँस उत्पादन के लिये सबसे अधिक पशुधन है। फलों के उत्पादन में भारत दुनिया में दूसरे स्थान पर है और सब्जियों के उत्पादन में केवल चीन ही भारत से आगे है। इसलिये निर्यात के उद्देश्य से भारी मात्रा में खाद्य पदार्थों की संसाधित किस्में तैयार करने के लिये इस स्थिति का लाभ उठाना चाहिए और उससे बहुमूल्य विदेशी मुद्रा अर्जित करनी चाहिए तथा रोजगार के विशाल अवसर पैदा करने चाहिए। इस समय विभिन्न संसाधित खाद्य पदार्थों की मात्रा यहाँ उपलब्ध सम्भावनाओं की तुलना में नगण्य जैसी है इसलिये यह आवश्यक है कि इस क्षेत्र में विकास के लिये निम्नलिखित कदम उठाए जाएँ :

1. प्रसंस्करण किए गए खाद्य पदार्थों पर प्रत्यक्ष तथा अप्रत्यक्ष करों, शुल्कों और अन्य उपकरों को कम किया जाए अथवा समाप्त कर दिया जाए क्योंकि इससे माँग को प्रोत्साहन मिलेगा।

2. दर्जा निर्धारण करने (ग्रेडिंग) के मानक तैयार किए जाएँ।

3. डिब्बाबंदी उद्योग को आधुनिक बनाने के लिये कदम उठाए जाएँ।

4. बड़े पैमाने पर शीत भण्डारण सुविधाएँ कायम की जाएँ।

5. प्रभावी बाजार प्रोत्साहन को प्राथमिकता दी जाए।

6. पर्याप्त परिवहन सुविधाएँ उपलब्ध कराने की तत्काल आवश्यकता है।

लाभकारी मूल्य


भारतीय कृषि में तेजी से परिवर्तन आ रहा है। पहले उत्पादन परम्परागत रूप से गुजारे लायक होता था परन्तु अब दिनों-दिन किसानों की जरूरतों से अधिक उत्पादन होने लगा है। इसलिये किसानों को उनकी उपज के रूप में प्रोत्साहन दिए जाने चाहिए क्योंकि अधिक अनाज उत्पादन के लिये उनको प्रेरित करने तथा कारोबार में दिलचस्पी बनाए रखने के लिये यह आवश्यक है। इस तथ्य से कोई इंकार नहीं कर सकता कि कृषि उत्पादन और उत्पादकता में पर्याप्त वृद्धि के लिये यह सुनिश्चित किया जाना चाहिए कि किसानों को अपनी उपज के लिये लाभकारी कीमतें मिलें। इस नीति का किसानों की आय पर निर्णायक प्रभाव पड़ेगा। इतना ही नहीं उन्नत टेक्नोलॉजी को अपनाने, उत्पादन बढ़ाने और ग्रामीण पूँजी निर्माण के लिये नीति तैयार की जानी चाहिए।

किसानों को लागत पर पर्याप्त लाभ सुनिश्चित कर बड़े पैमाने पर बाजार के उतार-चढ़ाव से सुरक्षा दी जानी चाहिए। कीमतों को ऐसे स्तर पर बनाए रखा जाए जिससे संसाधन इस्तेमाल की क्षमता बढ़े। खेती की उपज के लिये कम कीमतों को उचित ठहराने के लिये प्रायः तर्क दिया जाता है कि सार्वजनिक धन द्वारा पर्याप्त निवेश के कारण कृषि उत्पादन बढ़ा है और अधिक उत्पादन का लाभ गैर-कृषकों को भी दिया जाना चाहिए। परन्तु एक विश्लेषण से यह बात पर्याप्त स्पष्ट हो जाती है कि वास्तव में मुद्रा-स्फीति और समायोजित कुल मूल्य के बाद किसान और ज्यादा गरीब हो गया है इसलिये यह आवश्यक है कि कृषि उत्पादन और निवेश के लिये सूझ-बूझ के साथ मूल्य नीति अपनाई जाए जिससे किसान बचत कर सकें और उत्पादकता बढ़ाने के लिये अपनी भूमि में निवेश कर सकें।

वन सम्पदा उष्ण कटिबंधीय देशों की एक सबसे बड़ी परिसंपत्ति है फिर भी हाल में देश के वन क्षेत्र में लगातार कमी आई है जिससे पर्यावरण ह्रास समेत कई समस्याएँ खड़ी हो गई हैं। भारत में वन क्षेत्र कुल भौगोलिक क्षेत्र का लगभग बीस प्रतिशत है। पर्यावरण विशेषज्ञों के अनुसार विभिन्न आवश्यकताओं को देखते हुए इसे 33 प्रतिशत होना चाहिए। इसलिये पर्यावरण प्रणाली और जीवों के महत्त्व, इमारती लकड़ी, ईंधन की लकड़ी, चारे तथा वन उत्पादों की आवश्यकताओं को देखते हुए कृषि वानिकी के विकास को उच्च प्राथमिकता दी जानी चाहिए। इस मामले में पर्याप्त धनराशि का आवंटन उचित है:

अधिक आवंटन


देश के सामने क्षेत्र, धर्म, जाति और भाषा, नदी जल आवंटन, परियोजना प्रभावित लोगों के पुनर्वास जैसी अनेक गम्भीर समस्याएँ हमेशा रही हैं इसलिये इस सूची में ग्रामीण-शहरी टकराव के रूप में एक और समस्या इस सूची में जोड़ना देश के लिये वांछनीय नहीं होगा। कुछ लोगों के मन में एक आम गलत धारणा यह है कि सार्वजनिक धन का एक बड़ा हिस्सा कृषि और ग्रामीण विकास में निवेशित कर दिया गया है और जिसके कारण कृषि क्षेत्र को काफी हद तक लाभ पहुँचा है और उससे ग्रामीण लोगों के जीवन-स्तर में सुधार आया है परंतु कुल पूँजी के बार में सूचना तथा कृषि में कुल पूँजी निर्माण से यह दावा चकनाचूर हो जाता है।

कृषि में पूँजी निर्माण का हिस्सा 1970-80 के 17.2 प्रतिशत से घटकर 1988-89 में 12.3 प्रतिशत हो गया है। विभिन्न पंचवर्षीय योजनाओं में योजना व्यय पर अगर सरसरी तौर पर देखा जाए तो ग्रामीण कार्यक्रमों जैसे कृषि, कृषि विकास और सिंचाई के व्यय में कमी आई है। प्रथम योजना के 37 प्रतिशत से घटकर यह छठी योजना में 23.9 प्रतिशत और सातवीं योजना में 21.2 प्रतिशत हो गई है। भारत जैसे देश में जहाँ 75 प्रतिशत लोग अपनी आजीविका के लिये कृषि पर निर्भर रहते हैं योजना के लक्ष्यों को हासिल करने के लिये कृषि और ग्रामीण विकास की उपेक्षा बर्दाश्त नहीं कर सकते इसलिये यह आवश्यक है कि इन क्षेत्रों के लिये और अधिक योजना राशि आवंटित की जाए।

भारत की समृद्धि विशाल जनशक्ति और समृद्ध प्राकृतिक संसाधनों में निहित है। योजना के लक्ष्यों को तेजी से हासिल करने के लिये इन दोनों संसाधनों का पूरा-पूरा दोहन आवश्यक है। विभिन्न राज्यों में कृषि और सम्बद्ध क्षेत्रों में सुप्रशिक्षित स्नातक और स्नातकोत्तर छात्रों को तैयार करने में कृषि विश्वविद्यालय सक्रिय रूप से जुड़े हैं जो ग्रामीण विकास क लिये अनुसंधान तथा विस्तार के कार्यकलापों को तेजी से आगे बढ़ाएँगे, इसलिये राज्य सरकारों पर यह जिम्मेदारी है कि वे पर्याप्त धनराशि और बुनियादी सुविधाएँ उपलब्ध कराकर इन कृषि विश्वविद्यालयों को मजबूत बनाएँ। यदि तीव्र गति से आर्थिक विकास को प्राप्त करना है तो केवल मात्र अपने अनुभवों के आधार पर किसान पर्याप्त सफल उत्पादक की भूमिका नहीं निभा सकता है। उसे पूरे पैमाने पर एक कृषि प्रबंधक के रूप में उभरना होगा जो उद्यमशीलता की क्षमताओं और कौशल के साथ सुसज्जित हो।

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