कृषि क्षेत्र की समस्याएं


उत्पादक अर्थव्यवस्था का आधार होने के नाते किसान के लिये 60 वर्ष की आयु के बाद अनिवार्य पेंशन का हकदार माना जाना चाहिए। यदि अनुत्पादक प्रशासनिक अमले का बोझ देश उठा सकता है तो उत्पादक किसान का क्यों नहीं। एक समय था, जब कहावत हुआ करती थी, ‘उत्तम खेती, मध्यम व्यापार; निकृष्ट चाकरी, करे गंवार।’ किन्तु आज स्थिति बदल चुकी है। उत्पादक अर्थव्यवस्था की रीढ़- किसान की हालत बद से बदतर होती जा रही है। आज किसान कहलाना सम्मान की बात नहीं रह गई है। भारत में आज भी 55 प्रतिशत आबादी कृषि पर निर्भर करती है। यानि यह अकेला क्षेत्र सबसे ज्यादा रोज़गार पैदा करता है। गलत कृषि नीतियों के कारण ही किसान बदहाल है। हालाँकि कृषि उपज बढ़ाने के लिये बेहतरीन वैज्ञानिक प्रगति हुई है। देश अनाज आयात करने की मजबूरी से निकल कर निर्यात करने की स्थिति में आ गया है। किंतु किसान की हालत नहीं सुधरी है।

इसके पीछे कई कारण हैं जिन्हें समझना होगा। सबसे बड़ा कारण तो किसान को उसकी उपज का लाभकारी मूल्य न मिलना है। किसान की उपज के मूल्यों में 1947 से अब तक 19 गुणा बढ़ोत्तरी हुई है। जबकि उसके निवेश की कीमतों में 100 गुणा से ज्यादा बढ़ोत्तरी हो गई है। इसके साथ ही नौकरी पेशा कर्मियों के वेतन में 150 से 320 गुणा तक वृद्धि हो गई है। इस तरह मजदूरी के स्तर की नौकरी करने वाले की स्थिति भी किसान से बेहतर है। यह व्यापारी, औद्योगिक और शहरी समझ पर आधारित नीतियों का ही दुष्परिणाम है कि कृषि को अकुशल व्यवसाय की तरह देखा जाता है। एक फैक्ट्री में काम करने वाला मजदूर तो कुशल मजदूर है किन्तु किसान नहीं। जबकि सदियों से संचित और आधुनिक ज्ञान पर आधारित उद्यमिता के बिना कृषि कार्य संभव ही नहीं।

एक ओर किसान को उसकी उपज का लाभकारी मूल्य नहीं मिलता दूसरी ओर लागत में लगातार वृद्धि होती जा रही है। मौसम पर निर्भरता में भी कोई खास कमी नहीं आई है। भंडारण की पर्याप्त सुविधा न होने के कारण भी किसान अपनी फसल को औने पौने दम पर बेचने को विवश रहता है। महँगी कृषि पद्धति स्थिति को और बिगाड़ने में मददगार साबित हो रही है। इन परिस्थितियों में किसान ऋण जाल में फँसता जा रहा है। आखिर किसान भी उसी समाज का हिस्सा है, उसे भी बीमारी- हारी और सामाजिक रस्मों रिवाज के बोझ को भी ढोना पड़ता है। समाज में विद्यमान प्रतिस्पर्धा का भी सामना करना पड़ता है। जब खेती के खर्च की ही भरपाई नहीं होगी तो बाकि सामाजिक खर्चों के साथ कैसे जूझे। इन हालात से तंग आकर किसान आज सड़कों पर उतरने को मजबूर है।

यह कहना अपनी जगह सही हो सकता है कि किसानों के आन्दोलन को हिंसक बनाने में कुछ राजनैतिक दलों का हाथ है। जिसमें कांग्रेस की भूमिका संदिग्ध लग रही है। हालाँकि आज़ादी के बाद 90% समय तो कांग्रेस और उसकी सहायक पार्टियों का ही शासन रहा है। इसलिए किसान की बदहाली के लिये भी उनकी ज़िम्मेदारी ज्यादा बनती है। इस सबके बावजूद इस सच्चाई को नकारा नहीं जा सकता है कि किसान की दशा वर्तमान शासन में भी सुधरी नहीं है। इसीलिए किसान अपनी आवाज़ बुलंद करने लगा है। किसानों द्वारा आत्महत्याओं का दौर पिछले दो दशकों से लगातार जारी है।

जहाँ भी इस तरह के आन्दोलन चलते हैं वहाँ सब तरह के राजनैतिक निहित स्वार्थ घुसपैठ करके अपनी-अपनी वोट की राजनीति चमकाने के लिये पहुँच ही जाते हैं। इसमें कुछ हैरानी की बात नहीं होनी चाहिए। किन्तु आन्दोलन को यह समझना ज़रूरी है कि आन्दोलन को दिया जाने वाला कोई भी हिंसक मोड़ आन्दोलन को कमजोर करने का ही काम करेगा। हिंसक आन्दोलन में मुख्य मुद्दे तो गुम हो जाते हैं और वोट बैंक की राजनीति आन्दोलन को हाई जैक कर लेती है। किसान आन्दोलन को इस खतरे को भाँपते हुए सावधानी से आगे बढ़ना होगा। प्रशासनिक अमले के कार्य, जिनकी आय को आज़ादी के बाद 320 गुणा बढ़ाया गया अपनी जगह ज़रूरी है किंतु अधिकांशत: प्रत्यक्ष रूप से उत्पादक नहीं। अर्थव्यवस्था में उनका योगदान अप्रत्यक्ष होता है।

किंतु किसान तो प्रत्यक्ष उत्पादन कार्य में लगा है। उसका महत्त्व प्रशासनिक अमले से कम नहीं हो सकता। वह जीवन-यापन के लिये अन्न के साथ-साथ बहुत से उद्योगों के लिये कच्चे माल का भी उत्पादन करता है। इसलिये देश के औद्योगिक विकास में भी उसकी अहम भूमिका है। अत: उसकी आय को भी आज़ादी के बाद कम से कम 100 गुणा तक बढ़ाने का लक्ष्य सरकारों और किसान आन्दोलन के सामने होना चाहिए। ऋण माफ़ी तक ही किसान आन्दोलन सिमित नहीं हो सकता। असली प्रश्न तो यह है कि आखिर किसान ऋण ग्रस्त क्यों हुआ है। किसान को ऋण ग्रस्त बनाने वाले हालात पैदा करने का ज़िम्मेदार कौन है, इस बात का जवाब राजनितिक दलों को देना चाहिए। ऋण माफ़ी आपात स्थिति में तनिक राहत से ज्यादा कुछ नहीं है। राहत के रूप में इसका प्रयोग होना ही चाहिए।

कृषि उत्पाद को लाभकारी मूल्य तो मिलना ही चाहिए किंतु कृषि लागत को कम करना भी उतना ही ज़रूरी होता जा रहा है। अंधाधुंध मशीनीकरण और रासायनिक कृषि से किसान की कमाई कृषि मशीनें बनाने वाले उद्योगों और बैंक ब्याज के माध्यम से बैंकों की जेबों में जा रही है। कृषि पद्धति को वैज्ञानिक समझ से अनावश्यक मशीनीकरण से बचना होगा। छोटे किसान बैलों से खेती करें। बैलों से चलने वाले उन्नत उपकरण बनाए जाएँ जो किसान को ट्रैक्टर से खेती जैसी सुविधा दे सकें। बैल तो किसान ही पालेगा इससे बैल खरीदने बेचने पर पैसा तो किसान की ही जेब में जाएगा। रासायनिक कृषि पद्धति ने कृषि की लागत को बहुत बढ़ा दिया है। जैविक कृषि के माध्यम से किसान के खेतों के अपशिष्ट और गोबर एवं गोमूत्र से किसान की खाद और दवाई की अधिकांश जरूरतें पूरी हो सकती हैं। यह कार्य किसान स्वयं अपने श्रम से ही बिना ऋण लिये कर सकता है। इससे कृषि लागत में काफी कमी आ सकती है। रासायनिक कृषि को ज़रूरत से ज्यादा फ़ैलाने का कार्य करने वाले कृषि विश्व विद्यालयों को ही ‘कम लागत वैज्ञानिक कृषि’ का वाहक बनाया जाना चाहिए।

उत्पादक अर्थव्यवस्था का आधार होने के नाते किसान के लिये 60 वर्ष की आयु के बाद अनिवार्य पेंशन का हकदार माना जाना चाहिए। यदि अनुत्पादक प्रशासनिक अमले का बोझ देश उठा सकता है तो उत्पादक किसान का क्यों नहीं।

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