कृषि क्षेत्र में बदलाव


देश में कृषि के विकास पर व्यापक प्रभाव डालने वाले विभिन्न तत्वों का विश्लेषण करते हुए लेखक का कहना है कि भारत में वास्तविक बदलाव आजादी के बाद ही आया। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद खेती-बाड़ी करने वालों की दशा सुधारने के लिये योजनाबद्ध तरीके से प्रयास किए गए। इन प्रयासों के तहत भूमि सुधार की दिशा में कदम उठाए गए और सिंचाई, बिजली तथा कृषि सम्बन्धी टेक्नोलॉजी के विकास के लिये बड़े पैमाने पर पूँजी-निवेश किया गया। साथ ही किसानों को उनकी उपज का सही दाम दिलाने का भी प्रयास किया गया।

भारत एशिया के उन देशों में से है जहाँ कई शताब्दियों से कृषक समुदाय फलता-फूलता रहा है। खेती-बाड़ी पर आधारित इस व्यवस्था की अपनी अलग सांस्कृतिक परम्परा बन गई। जिसके संयोग से अपनी पूर्ववर्ती विरासत के साथ विविधताओं से भरी बहुआयामी परम्पराएँ तथा रीति-रिवाज विकसित हुए। इस तरह सुदृढ़ परम्पराओं वाले भारत को पहला जबरदस्त झटका मध्य युग के उन अनेक आक्रमणकारियों से नहीं लगा बल्कि ब्रिटिश साम्राज्यवादियों से लगा था और वह भी इंग्लैंड में औद्योगिक क्रांति के पूरा होने के बाद। भारत को महानगरीय सभ्यता से जोड़ने के ब्रिटेन के साम्राज्यवादी प्रयास से भारत की राजनीतिक अर्थव्यवस्था की जड़ें हिल गईं। दो शताब्दियों तक चले ब्रिटिश शासन के दौरान भारत में दूरगामी असर वाले परिवर्तन किए गए। कुछ बदलाव तो इतने जबरदस्त थे कि इनसे देश की आर्थिक व्यवस्था का नक्शा ही बदल गया। ब्रिटिश शासक अपने साथ पश्चिमी विज्ञान और बुद्धिवादी मानवीय मूल्य भी भारत लाए। हालाँकि उन्होंने ऐसा समझ-बूझकर नहीं किया, बल्कि अनजाने में ही ये बातें भारत पहुँची, लेकिन इनसे यहाँ आधुनिकीकरण की प्रक्रिया शुरू हो गई।

आधुनिकीकरण के मार्ग में दूसरा मील का पत्थर 1947 में भारत की आजादी थी। स्वतंत्रता के बाद तो कृषि पर आधारित सामाजिक ढाँचे, इसके स्वरूप तथा उत्पादन में इस्तेमाल की जाने वाली टेक्नोलॉजी में व्यापक गुणात्मक परिवर्तन हुए हैं। लेकिन इसके बावजूद, कुछ क्षेत्रों में अब भी उत्पादन का परम्परागत अर्द्ध-सामंती तरीका जारी है। इससे भी ज्यादा महत्त्वपूर्ण बात तो यह है कि अर्द्धसामंती मूल्यों पर आधारित पतनशील व्यवस्था अब भी ज्यों की त्यों बनी हुई है। जहाँ तक कृषि पर आधारित व्यवस्था में परिवर्तन का सवाल है ऐसा लगता है कि भारत, परम्परा से आधुनिकता की ओर के संक्रमण दौर से गुजर रहा है।

इस लेख में इन्हीं परिवर्तनों का संक्षिप्त विश्लेषण किया गया है। इसका उद्देश्य भारत में कृषि के क्षेत्र में बदलाव के स्वरूप को स्पष्ट करना तथा परम्परा और आधुनिकता के पारस्परिक प्रभाव का विश्लेषण करना है। यह दस्तावेज चार भागों में बँटा है। भूमिका के बाद पहले खण्ड में भारत में परम्परागत कृषक समाजों की मुख्य-मुख्य विशेषताएँ बताई गई हैं। इसके बाद दूसरे खण्ड में ब्रिटिश शासनकाल में देश की कृषि पर आधारित व्यवस्था में परिवर्तनों की चर्चा की गई है। तीसरे खण्ड में स्वतंत्रता के बाद कृषि सम्बन्धी बदलाव के उल्लेख के साथ-साथ परम्परा और आधुनिकता के एक-दूसरे पर असर की मुख्य विशेषताएँ भी बतलाई गई हैं। अंतिम हिस्से खण्ड चार में, उपसंहार दिया गया है।

खण्ड-1


भारत के कृषक समुदाय तथा भारतीय गाँवों को लेकर विद्वानों के बीच बहस होती रही है। इस लेख का उद्देश्य इस बात की जाँच पड़ताल करना नहीं है कि एशियाई देशों में उत्पादन की कोई विशेष प्रणाली अस्तित्व में रही है अथवा नहीं। इसका उद्देश्य मार्क्स द्वारा परिकल्पित भारतीय गाँव के बारे में छानबीन करना अथवा मध्यकालीन यूरोप के सामंतवाद से भारतीय सामंतवाद की भिन्नता स्पष्ट करना भी नहीं है। इसका उद्देश्य भारत में ब्रिटिश शासन से पहले मध्य युग में कृषक समाज की मुख्य-मुख्य विशेषताएँ बताना है। यह चर्चा दो भागों में विभक्त है- 1. उत्पादन टेक्नोलॉजी और 2. उत्पादन सम्बन्ध।

उत्पादन टेक्नोलॉजी


मध्ययुगीन टेक्नोलॉजी : मध्ययुगीन भारतीय कृषक समुदायों ने कई युगों के अनुभव से खेती बाड़ी की ऐसी प्रणालियाँ विकसित कर ली थीं जो क्षेत्र विशेष की जलवायु के अनुरूप थी। उन्होंने अपने इलाके को ध्यान में रखकर उपयुक्त टेक्नोलॉजी भी विकसित की। वे जहाँ एक ओर बारानी खेती वाले इलाकों में गेहूँ तथा अन्य मोटे अनाज पैदा करने में माहिर थे वहीं वे नदियों की घाटियों तथा समुद्र तटवर्ती डेल्टा क्षेत्र में धान और इसी तरह की अधिक पानी वाली फसलें उगाते थे। कृषक समुदायों ने सूखे और अकाल जैसी प्राकृतिक आपदाओं से निपटने के लिये आपदा प्रबंध की अपनी ही प्रणाली विकसित कर ली थी। हजारों वर्षों तक यह कौशल ज्यों का त्यों बना रहा और उत्पादन टेक्नोलॉजी की ही तरह इसमें भी कोई सुधार नहीं हो पाया। मार्क्स के अनुसार टेक्नोलॉजी के क्षेत्र में आए इस ठहराव का सबसे प्रमुख कारण आत्मनिर्भर ग्रामीण अर्थव्यवस्था का बरकरार रहना था। परिवर्तन की हवा से बेखबर और शासकों के बदलने से अनजान भारत के आत्मनिर्भर गाँव सदियों तक जैसे के तैसे बने रहे।

भूमि की उत्पादकता और जनसंख्या का दबाव


भारत और शायद समूचे एशिया में कृषि की एक विशेषता यह थी कि यहाँ जनसंख्या और जमीन की उपज के बीच संतुलन कायम रहता था। यह संतुलन देश के विभिन्न इलाकों में अपनायी गई फसल उत्पादन टेक्नोलॉजी की वजह से सम्भव हो पाता था। जिन इलाकों में जमीन की उत्पादकता अधिक होती थी वहाँ जनसंख्या का दबाव भी ज्यादा होता था नदियों की घाटियों और डेल्टा क्षेत्र में तो यह बात विशेष रूप से देखी जा सकती थी। दूसरी ओर भारत के पश्चिमोत्तर के अर्द्ध-शुष्क क्षेत्रों में जनसंख्या का दबाव कम था। प्राकृतिक आपदाओं और लोगों के एक स्थान से दूसरे स्थान पर बसने से जनसंख्या संतुलन स्वयं कायम हो जाता था। नतीजा यह होता था कि देश भर में किसानों का औसत अनाज उत्पादन लगभग एक समान बना रहता था। जैसा कि इशिकावा ने संकेत दिया है यहाँ एक तरह की संतुलनकारी प्रणाली कार्य करती थी, जिसकी वजह से जमीन की उत्पादकता की ऊँची दर का संतुलन जनसंख्या के ऊँचे दबाव के साथ बन जाता था। यही बात विपरीत स्थिति में भी लागू होती थी, यानी जनसंख्या का दबाव बढ़ने से उत्पादकता बढ़ जाती थी।

12वीं सदी के आते-आते हमारी जनसंख्या एक अरब पहुँच जाएगी। यह सभी नागरिकों के लिये चिन्ता का विषय होना चाहिये। हमें अपनी बढ़ती हुई जनसंख्या की विशेष कर अन्य चारे ईंधन और कपड़े की माँग की चुनौतियों का सामना करने के लिये सामूहिक रूप से साधनों की तलाश करनी होगी और उन्हें विकसित करना होगा।

इस तरह की टेक्नोलॉजी का एक अन्य महत्त्वपूर्ण परिणाम यह होता था कि कुल जनसंख्या और कृषि उत्पादन में वृद्धि के बीच एक तरह का तालमेल बना रहता था। उत्पादन की शक्तियों की सीमित क्षमता के कारण उपज तेजी से नहीं बढ़ पाती थी और टेक्नोलॉजी भी ज्यों की त्यों बनी रहती थी इसलिये जनसंख्या में बढ़ोतरी भी अत्यंत सीमित रहती थी। प्रकृति के क्रूर हाथ भी संतुलन कायम करने में भूमिका निभाते थे। बाढ़, अकाल तथा अन्य आपदाएँ बड़ी संख्या में लोगों को लील जाती थीं और इनके साथ-साथ ऐसी बीमारियाँ भी फैलती थीं जिनका उस समय कोई इलाज नहीं था। इसका अर्थ यह हुआ कि टेक्नोलॉजी और उत्पादन-सम्बन्धों से उत्पादन तथा उस पर निर्भर जनसंख्या का निर्धारण होता था। उस युग के कृषक समुदाय के लोगों का जीवन स्तर इन्हीं पर निर्भर था।

उत्पादन-सम्बन्ध


ब्रिटिश शासन की शुरुआत से पहले भारत की अर्थव्यवस्था बुनियादी तौर पर कृषि पर आधारित थी। स्थानीय दस्तकारी सेवाएँ तथा व्यापारिक गतिविधियाँ सीधे कृषि से जुड़ी हुई थीं। गाँवों की बहुतायत वाले समाज के ऊपर एक छोटा सा शहरी ढाँचा था जो अपने अस्तित्व के लिये शासकों और न्याय प्रणाली पर निर्भर था। जहाँ तक कृषि के क्षेत्र में उत्पादन सम्बन्धों का सवाल है, विद्वान इस बारे में एकमत नहीं हैं। एक छोर पर मार्क्स हैं जिनका विश्वास है कि यूरोप के सामंतवाद के प्रभुत्व वाले समाज से भिन्न, भारतीय ग्रामीण समाज की विशेषता उत्पादन की वह प्रणाली है जो समूचे एशिया में विद्यमान थी। मार्क्स के अनुसार इस प्रणाली पर आधारित भारतीय ग्रामों की दो महत्त्वपूर्ण ख़ूबियाँ हैंः- पहला भूमि और सम्पत्ति पर साझा अधिकार तथा इस पर संयुक्त रूप से खेती-बाड़ी और दूसरा जाति प्रथा पर आधारित अपरिवर्तनीय श्रम विभाजन। कई विद्वानों ने इस एशियाई पद्धति के बारे में मार्क्स के दृष्टिकोण को अस्वीकार किया है। उनका विश्वास है कि यद्यपि भारत का कृषि पर आधारित ढाँचा यूरोप से काफी अलग है लेकिन इसकी विशेषता अपना अलग किस्म का सामंतवाद है।

ब्रिटिश शासन से पहले भारत में कृषि के क्षेत्र में उत्पादन सम्बन्धों का संक्षिप्त विवरण जिस पर सभी विद्वान एकमत हैं, इस प्रकार है:

(1) भूमि का स्वामित्व
हालाँकि सिद्धान्त रूप में तो सारी जमीन राजा की हुआ करती थी, लेकिन व्यवहार में जमीन का स्वामित्व काश्त करने वाले किसानों की कुछ उप-जातियों के हाथों में होता था। जागीरदारी प्रणाली के अंतर्गत आने वाले गाँवों में जागीरदार को जमीन के स्वामित्व के व्यापक अधिकार प्राप्त थे। काश्तकारों को अपनी उपज का एक हिस्सा लगान के रूप में शासन को देना पड़ता था। यह कुल उपज के आधे से एक तिहाई तक हो सकता था। कुछ मामलों में काश्तकारों को अपने ऊपर के बिचौलियों को भी लगान देना पड़ता था। वन तथा खाली पड़ी जमीन गाँव की साझा संपत्ति मानी जाती थी। सभी ग्रामवासियों को, जिनमें आर्थिक दृष्टि से पिछड़े वर्गों के लोग भी शामिल थे, संपत्ति सम्बन्धी एक जैसे अधिकार प्राप्त थे।

जमीन सम्बन्धी लेनदेन कम ही होते थे और जमीन एक व्यक्ति से दूसरे को नहीं दी जा सकती थी, लेकिन जमीन के बारे में निजी स्वामित्व की अवधारणा मौजूद थी। जमीन का वास्तविक मालिकाना हक काश्तकार तबके के ही लोगों का होता था। भू-सम्पत्ति के उत्तराधिकारी पुरुष सदस्यों की संख्या में भिन्नता के कारण समय के साथ-साथ जोतों के आकार में भारी अंतर आ जाता था। खेती-बाड़ी के अधिकतर तौर-तरीके एक जैसे थे लेकिन सारी जमीन पर एक ही जैसी खेती नहीं की जाती थी।

(2) कृषि और दस्तकारी
अधिकतर ग्रामीण समाजों में दस्तकारी से श्रमिकों को रोजगार और आमदनी बढ़ाने का अवसर मिलता था। दस्तकारी से उन्हें पूरे साल रोजगार मिलता रहता था। इससे गाँवों में कुछ हद तक आत्मनिर्भरता भी आई और यही वजह थी कि हमारे गाँवों के लिये अपना अस्तित्व बनाए रखना आसान हो गया।

(3) एक पक्षीय श्रम-विभाजन
भारतीय ग्रामीण समाज की एक विशेषता यह थी कि इसमें जाति प्रथा पर आधारित स्पष्ट श्रम-विभाजन था। इस श्रम विभाजन के अनुसार मेहनत-मजदूरी और हेय दृष्टि से देखे जाने वाले कार्य अक्सर नीची समझी जाने वाली जातियों को सौंप दिए गए थे। जिन इलाकों में हिन्दुओं से अलग धर्म मानने वालों, जैसे मुसलमानों और ईसाईयों का बहुमत था, वहाँ भी जातिगत आधार पर श्रम-विभाजन लागू होता था। जाति-प्रथा के अंतर्गत तथाकथित नीचे जातियों और अछूत समझे जाने वाले को जीवन के बुनियादी अधिकारों और मानवीय गरिमा तक से वंचित कर दिया जाता था। इन लोगों का भरपूर शोषण होता था। जाति प्रथा के कठोर बंधनों ने भारतीय गाँवों को अत्याचारी समाज में बदल दिया था।

कुल मिलाकर, जमींदारों द्वारा खेतिहर मजदूरों को, जो आमतौर पर अनुसूचित जातियों के लोग हुआ करते थे तथा बढ़ई, सुनार, नाई, ब्राह्मण आदि को जो पैसा दिया जाता था वह जजमानी प्रथा के अनुसार होता था। सेवाओं के एवज में चीजें दी जाती थी जो कुछ मामलों में उपज का एक निश्चित हिस्सा होती थी। इस वजह से गाँवों में रहने वाले सभी लोगों की खुशहाली इस बात पर निर्भर करती थी कि फसल कैसी हुई। खुशहाली का सीधा सम्बन्ध फसल के अच्छे या बुरा होने पर निर्भर रहता था। लेकिन इसके बावजूद उपज का समाज में वितरण एक समान नहीं था। यह बात भी ध्यान देने योग्य है कि जमींदार, यानी ताल्लुकदार या सूबेदार या राजा लगान के रूप में उपज के एक चौथाई से आधे हिस्से तक अनाज ले लिया करते थे जो निश्चित ही काफी बड़ा हिस्सा है और किसी भी लिहाज से बहुत ही अधिक है।

किसानों का शोषण दो स्तरों पर होता था। एक स्तर पर काश्तकारों का सीधा शोषण होता था क्योंकि शासन और उसके एजेंट उपज का एक हिस्सा हड़प जाते थे। दूसरे स्तर पर, ऊँची जातियों के किसान जजमानी प्रथा के जरिए खेतिहर मजदूरों और अन्य लोगों का शोषण करते थे।

खण्ड-दो
ब्रिटिश काल


भारत के सभी विदेशी शासकों में से ब्रिटिश शासकों का भारतीय अर्थव्यवस्था और समाज पर सबसे अधिक असर पड़ा। इसका बुनियादी कारण यह है कि भारत में ब्रिटिश शासन की शुरुआत उस समय हुई जब इंग्लैंड में औद्योगिक क्रांति का सूत्रपात होने वाला था। इसके अलावा भारत पर आक्रमण करने वाले अनेक लोगों की तरह ब्रिटिश लोग यहाँ रहने या भारत में अपना घर बसाने के इरादे से नहीं आए थे। यहाँ आने का उनका उद्देश्य भारत पर शासन करना, यहाँ के लोगों का भरपूर शोषण करना और अधिक से अधिक दौलत बटोरना था।

आधुनिकता और परम्परा के बीच क्रिया-प्रतिक्रिया से भारत में कृषि के क्षेत्र में परिवर्तन की प्रक्रिया में नाटकीय संघर्ष की जैसी स्थितियाँ उत्पन्न हुई हैं और सुलह-समझौते तथा समन्वय की जो जटिल प्रणाली तैयार हुई है वैसा दुनिया में कहीं और नजर नहीं आता।

रजनी पामदत के अनुसार ब्रिटिश लोगों ने भारतीय अर्थव्यवस्था को नष्ट करने के लिये कई हथकंडे अपनाए। इन हथकंडों के तहत 16वीं से 18वीं शताब्दी तक ईस्ट इंडिया कम्पनी ने भारत में खूब लूट-खसोट की। अति प्राचीन काल से पूर्ववर्ती सरकारों द्वारा उचित रख-रखाव के जरिए सुरक्षित रखी गई सिंचाई प्रणालियों तथा सार्वजनिक निर्माण कार्यों के प्रति औपनिवेशिक शासकों ने घोर उपेक्षा दिखाई। जमीन सम्बन्धी एक ऐसी प्रणाली की शुरुआत की गई जिसमें न सिर्फ जमीन के निजी स्वामित्व और उसकी बिक्री तथा बँटवारे की इजाजत थी, बल्कि कृषि के व्यवसायीकरण के माध्यम से इसे बढ़ावा दिया गया। भारत को आयात किए जाने वाले माल पर या तो सीधी रोक लगा दी गई या फिर उस पर भारी कर लगा दिए गए। ये प्रतिबंध पहले इंग्लैंड और बाद में यूरोप में भी लागू कर दिए गए। लेकिन भारतीय आर्थिक ढाँचे को तहस-नहस करने का अंतिम फैसला तो इंग्लैंड में औद्योगिक क्रांति की शुरुआत के बाद 1913 में उस समय किया गया जब पूरे सोच-विचार के बाद भारतीय अर्थव्यवस्था का साम्राज्यवादी अर्थव्यवस्था के साथ मालमेल बैठाने के प्रयास किए गए।

इसी साजिश के तहत भारत को कच्चे माल का निर्यात तथा तैयार माल का आयात करने वाला देश बना दिया गया। भारतीय बाजारों में इंग्लैंड के सस्ते औद्योगिक उत्पादों का हमला भारतीय वस्तुओं और हस्तशिल्प, विशेष रूप से हथकरघे पर बने कपड़े तथा ढाका और अन्य शहरों की मलमल के लिये बड़ा घातक सिद्ध हुआ। हस्तशिल्प की वस्तुएँ बनाने वाले तथा उन पर निर्भर शहर दीवालिये हो गए। बुनकरों को मजबूर होकर गाँवों को लौटना पड़ा। इससे कृषि और उद्योग के बीच अभिन्न सम्बन्ध टूट गया तथा देश में जमीन पर अनावश्यक बोझ बढ़ता चला गया।

पुनरुद्धारकारी भूमिका


किसी उपनिवेश का महानगरीय अर्थव्यवस्था के साथ तब तक सार्थक तालमेल नहीं बैठ सकता जब तक कच्चे माल के निर्यात के क्षेत्र में सुधार न कर लिये जाएँ। चाहे कृषि हो या उद्योग अथवा संसाधनों के उपयोग से संबद्ध कोई अन्य उद्योग, सभी में निर्यात की दृष्टि से सुधार करने आवश्यक हैं और ये सुधार विज्ञान और टेक्नोलॉजी के उपयोग से ही किए जा सकते थे। औपनिवेशिक सम्बन्धों को बनाए रखने के लिये रेल, सड़क और सिंचाई प्रणालियों का विकास भी आवश्यक था। यही नहीं यूरोपीय वैज्ञानिक ज्ञान से सम्पन्न शिक्षित भारतीयों का एक वर्ग तैयार करना भी जरूरी था। यह बात अलग है कि यह कार्य बड़े बेमन से और छुटपुट तौर पर ही किया गया।

मार्क्स ने इस बात का स्पष्ट अनुमान लगा लिया था कि विभिन्न क्षेत्रों में नए वैज्ञानिक तौर-तरीकों को अपनाने से भारत में ऐतिहासिक परिवर्तन आना निश्चित था। इससे न सिर्फ भारतीय अर्थव्यवस्था के बुनियादी ताने-बाने और पुराने पड़ चुके सामाजिक संगठन का छिन्न-भिन्न हो जाना स्वाभाविक था, बल्कि इससे अंततः अर्थव्यवस्था का पुनरुद्धार होकर उसे नया जीवन मिलना भी तय था। परिवर्तन की इस प्रक्रिया से भारत में औद्योगिक उत्पादन की नींव तैयार होने तथा बुद्धिवादी वैज्ञानिक जीवन-दृष्टि को बढ़ावा मिलने का पुर्वानुमान भी मार्क्स ने पहले ही लगा लिया था। मार्क्स के अनुसार, ‘‘........इंग्लैंड के अपराध चाहे जो रहे हों, इस क्रांति को सफल बनाने में उसने अपनी ऐतिहासिक भूमिका अनायास निभाई’’।

लेकिन कुछ विचारक मार्क्स के इस दृष्टिकोण की आलोचना करते हैं। उनके अनुसार औपनिवेशिक उत्पादन-प्रक्रिया ने भारतीय अर्थव्यवस्था को नया जीवन देने की बजाय यहाँ ऐसे ढाँचे खड़े कर दिए जिनकी वजह से भारतीय अर्थव्यवस्था अब तक अल्प विकसित हालत में है। हमारे विचार से ब्रिटिश शासकों ने कई ढाँचों को जानबूझकर नष्ट किया। लेकिन भारतीय अर्थव्यवस्था पर ब्रिटिश शासन के अच्छे असर की भी उपेक्षा नहीं की जा सकती।

ब्रिटिश शासनकाल में हुए जिन मुख्य परिवर्तनों का देश में कृषि के क्षेत्र में व्यापक बदलाव के साथ सीधा संबंध है उनकी निम्नलिखित दो शीर्षकों के अंतर्गत चर्चा की गई है। (1) संस्थागत ढाँचे में परिवर्तन और (2) कृषि क्षेत्र में टेक्नोलॉजी सम्बन्धी सुधार।

संस्थागत ढाँचे में परिवर्तन


ब्रिटिश शासनकाल में जमीन के बंदोबस्त की औपचारिक तौर पर तीन प्रणालियाँ थीं। जमींदारी, यानी, भूमि का स्थायी बंदोबस्त रैयतबाड़ी और महालवाड़ी। ब्रिटिश शासकों ने 1773 में बंगाल प्रेसीडेंसी में बड़े सोच-विचार के बाद जमीन का स्थायी बन्दोबस्त किया। जमींदारी वाले इलाकों में बेनामी जमींदारों को लगान वसूल करने का अधिकार सौंपा गया। सोचा यह गया था कि जमींदारों का यह नया वर्ग खेती के आधुनिक तौर-तरीके अपनाएगा और कृषि का पुनरुद्धार करेगा, लेकिन व्यवहार में बिल्कुल उलटा हुआ। जमींदारों ने काश्तकारों से भारी लगान वसूल कर उन्हें तो कंगाल बना दिया जबकि वे खुद शहरों में विलासिता का जीवन बिताते थे। काश्तकारों की अनेक गलतियों की वजह से जमींदार उनकी जमीन पर कब्जा कर लेते थे। बिचौलिये रखने का प्रचलन बहुत बढ़ गया था। ज़मीन का जमींदार से काश्तकार और बंटाईदारों को पट्टे पर देना बड़ी आम बात थी। काश्तकारों के कोई निश्चित अधिकार नहीं थे। शेष भारत के ब्रिटिश शासकों के अधिकार में आ जाने के बाद उन्होंने इस तरह का बन्दोबस्त बाकी देश में लागू नहीं किया। दक्षिणी और उत्तर-पश्चिमी भारत में भू-स्वामित्व की उस समय की प्रणाली ही जारी रखी गई।

रैयतवाड़ी और महालवाड़ी वाले इलाकों में ग्रामीण-इलाकों के काश्तकारों को जमीन सम्बन्धी अधिकार प्राप्त थे और बिचौलिये नहीं थे। लेकिन इन क्षेत्रों में भी जमीन का लेनदेन बड़े पैमाने पर होता था और कर्ज तथा अन्य कारणों से जमीन ऐसे लोगों के पास पहुँच जाती थी जो खुद खेती नहीं करते थे। भारत के रजवाड़ों में भी कुल मिलाकर जमींदारी प्रथा अपने क्रूरतम रूप में मौजूद थी जिसके अंतर्गत कई तरह की पट्टेदारियाँ होती थीं और काश्तकारों को कोई निश्चित अधिकार प्राप्त नहीं थे। ब्रिटिश शासकों ने राजनीतिक कारणों से भूमि-सम्बन्धों के क्षेत्र में बहुत ही पुरानी प्रणाली अपनाई और उसे बढ़ावा दिया। जमीन से जुड़े निहित स्वार्थों ने ब्रिटिश राज के लिये अत्यंत शक्तिशाली आधार तैयार किया। बेनामी-जमींदारी, बंटाईदारी, अर्ध सामंती व्यवस्था, जमीन के स्वामित्व में भारी असमानता और किसानों पर कर्ज के बढ़ते बोझ ने काश्ताकारों ने कंगाल ही नहीं बनाया बल्कि देश में कृषि के पुनरुत्थान में बड़ी बाधा उत्पन्न कर दी।

टेक्नोलॉजी सम्बन्धी बदलाव


ब्रिटिश काल में दूसरा बदलाव कृषि के क्षेत्र में उत्पादन टेक्नोलॉजी में छिटपुट परिवर्तनों के रूप में सामने आया। सिंचाई के जरिए टेक्नोलॉजी सम्बन्धी जो थोड़े बहुत सुधार किए गए वे बुनियादी तौर पर उन्नीसवीं शताब्दी के अंत में तथा 20वीं शताब्दी के शुरू के वर्षों में कई बार पड़े अकालों से निपटने के लिये देर से उठाए गए कदम थे।

किसान और मजदूर ही भारत के निर्माता हैं। इनका गरीब होना इनपर जुल्म है और यह भारत के लिये अभिशाप है। केवल इनकी सम्पन्नता ही भारत को रहने योग्य देश बना सकती है। - महात्मा गाँधी

ब्रिटिश सरकार ने सिंचाई के क्षेत्र में काफी बड़े पैमाने पर पूँजी निवेश किया। सन 1920 तक पंजाब, सिंध और उत्तर प्रदेश में नई नहरों का काफी अच्छा जाल बिछाया जा चुका था। दक्षिण में नहरों के जरिए सिंचाई की प्रणाली सफलतापूर्वक बहाल की जा चुकी थी। सन 1924 तक भारत में कृषि योग्य करीब 24 प्रतिशत जमीन पर सिंचाई की व्यवस्था हो चुकी थी। लेकिन इसमें से अधिकांश क्षेत्र भारत के पश्चिमोत्तर तथा दक्षिण भाग में था।

टेक्नोलॉजी सम्बन्धी विकास का दूसरा पहलू 20वीं शताब्दी के प्रारम्भ में कृषि सम्बन्धी अनुसंधान के लिये रॉयल काउंसिल ऑफ एग्रीकल्चरल रिसर्च की स्थापना के रूप में सामने आया। इस दौरान कुछ कृषि विश्वविद्यालय स्थापित किए गए और अनुसंधान को बढ़ावा दिया गया। कृषि के क्षेत्र में अनुसंधान और विकास की वैज्ञानिक प्रणाली विकसित करने के प्रयास किए गए और इसके अंतर्गत अच्छी किस्म के बीज विकसित किए गए तथा विदेशों से नई प्रजातियों का आयात किया गया। यहाँ यह बताना भी उचित होगा कि पर्याप्त पूँजी निवेश की कमी की वजह से उपलब्धियाँ अधिकांशतः व्यापारिक फसलों तक सीमित रहीं। लेकिन इस सबके बावजूद यह कहना गलत नहीं होगा कि ब्रिटिश शासनकाल में ही कृषि के क्षेत्र में अनुसंधान और वैज्ञानिक विकास की नींव पड़ी।

सारांश में कहा जा सकता है कि ब्रिटिश काल में कृषि के व्यवसायीकरण और इसे ब्रिटिश साम्राज्य की अर्थव्यवस्था के साथ समन्वित करने के प्रयासों के कारण भारतीय कृषि और भारतीय गाँवों के आत्मनिर्भर स्वरूप में कुछ महत्त्वपूर्ण परिवर्तन हुए। उन्नीसवीं शताब्दी के अंत के वर्षों और बीसवीं शताब्दी के प्रारम्भ में नहरों के जरिए सिंचाई करने की परियोजनाओं में पूँजी निवेश के कारण ये परिवर्तन हुए। कृषि के वैज्ञानिक तौर-तरीकों को अपनाने से परिवर्तन की शुरुआत हुई और भारत के कुछ भागों में तो इसका स्पष्ट प्रभाव दिखाई दिया। लेकिन पुराने पड़ चुके अर्द्ध सामंती भूमि-सम्बन्धों के रहते इन परिवर्तनों से भारतीय कृषि में ज्यादा गतिशीलता नहीं आ पाई। नतीजा यह हुआ कि कृषि के क्षेत्र में विकास कुल मिलाकर निराशाजनक ही रहा।

सामाजिक क्षेत्र में भी सामान्य कानून पर आधारित व्यापक न्यायिक व्यवस्था के बावजूद सदियों से चले आ रहे साम्प्रदायिक और जातिगत पूर्वाग्रह तथा सामाजिक उत्पीड़न ज्यों-का-त्यों बना रहा। इसका कारण यह था कि हमारी ग्रामीण अर्थव्यवस्था में गतिशीलता का अभाव था। स्वतंत्रता प्राप्ति के लिये छेड़े गए राष्ट्रीय आंदोलन ने धीरे-धीरे समानता और मानवीय गरिमा के बारे में लोगों में चेतना जगाई। इसी संदर्भ में गाँधीजी की भूमिका, विशेष रूप से हरिजनों के उत्थान के उनके प्रयास अत्यंत महत्त्वपूर्ण है। राष्ट्रीयता की भावना के जगने से भी जातीय, साम्प्रदायिक और क्षेत्रीय पहचान कायम करने की लोगों की आकांक्षाओं को बढ़ावा मिला।

आजादी के समय भारत के कृषि पर आधारित बुनियादी ढाँचे में कई समस्याएँ और बाधाएँ विद्यमान थीं। अगले खण्ड में हम स्वतंत्रता के बाद भारत में कृषि में आए बदलाव की चर्चा करेंगे।

खण्ड-तीन
स्वातंत्र्योत्तर युग


स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद ही, भारत में कृषक समुदाय के लोगों की दशा सुधारने के उद्देश्य से कृषि क्षेत्र में बदलाव लाने के योजनाबद्ध प्रयास शुरू हुए। कृषि में नयी जान फूँकने के इरादे से नीति निर्माताओं ने दोहरी नीति अपनाई। इसकी पहली विशेषता यह थी कि कृषि के विकास में संस्थागत बाधाओं को दूर करने के लिये भूमि सुधारों को लागू किया गया। चूँकि किसान आंदोलन हमारे राष्ट्रीय आंदोलन का ही एक हिस्सा था और इस आंदोलन से राष्ट्रीय आंदोलन को जोरदार समर्थन मिला, इसलिये हमारे राष्ट्रीय नेता आजादी मिलने के बाद व्यापक भूमि सुधार लागू करने के बारे में वचनबद्ध थे। हमारी राष्ट्रीय नीति का दूसरा पहलू यह रहा कि हमने सिंचाई, बिजली और ग्रामीण क्षेत्रों में बुनियादी ढाँचे के विकास में बड़े पैमाने पर पूँजी निवेश किया। साठ के दशक के मध्य में एक अन्य महत्त्वपूर्ण नीतिगत प्रयास के तहत कृषि मूल्य नीति लागू की गई जो काफी उपयोगी सिद्ध हुई।

भूमि सुधार


भारत में आजादी के बाद मोटे तौर पर चार चरणों में भूमि सुधार सम्बन्धी कानून बनाए गए। सबसे महत्त्वपूर्ण कानून, जो बेनामी जमींदारियाँ समाप्त करने और भू-स्वामित्व प्रणाली में सुधार से सम्बन्धित थे, 1950 के दशक के मध्य में बनाए गए। जमीन की अधिकतम सीमा निर्धारित करने और फालतू जमीन को भूमिहीनों तथा छोटे काश्तकारों में बाँटने सम्बन्धी अधिनियम सबसे पहले 1950 के दशक के मध्य में और फिर 1960 के दशक के मध्य में पारित किए गए। 20 सूत्री कार्यक्रम के अंतर्गत आपातकाल के दौरान भी इस बारे में कानून बनाए गए।

भूमि सुधारों को लागू करने के कार्य की समीक्षा से यह बात साफ हो जाती है कि लक्ष्य आंशिक रूप से ही पूरा हो पाया है। जहाँ तक कृषि के क्षेत्र में बिचौलियों को दूर करने का सवाल है देश के अधिकांश भागों में इस लक्ष्य को प्राप्त करने में हम काफी हद तक सफल रहे हैं। करीब 20 करोड़ काश्तकारों को सीधे सरकार के सम्पर्क में लाया गया है। बिचौलियों को 6 अरब 70 करोड़ रुपये का जो भुगतान किया जाना था, उसमें से करीब आधा पाँचवीं पंचवर्षीय योजना के शुरू में दिया जा चुका था। लेकिन यह बात भी ध्यान देने की है कि देश के कई भागों में जमींदार स्थानीय अफसरशाही के साथ सांठ-गांठ करके बड़ी संख्या में काश्तकारों को जमीन से बेदखल करने और खुद खेती करने के लिये उस पर कब्जा करने में कामयाब हो गए। बिहार, उड़ीसा, राजस्थान, मध्य प्रदेश और पश्चिम बंगाल जैसे राज्यों में जमींदारों ने अपनी ताकत और असर के जोर पर बड़ी-बड़ी जोतों पर कब्जा जमाए रखने का रास्ता निकाल लिया है। मोटे तौर पर यह कहा जा सकता है कि जमींदारी उन्मूलन के कार्य में सफलता इस बात पर निर्भर करती है कि हमारा किसान आंदोलन कितना सशक्त है।

इन असफलताओं के बावजूद, ऊपर बताए गए राज्यों को छोड़कर देश के अन्य भागों में बिचौलियों को समाप्त करने सम्बन्धी कानून काफी सफलता के साथ लागू किए गए। बिचौलियों को समाप्त करने का एक अच्छा परिणाम यह हुआ कि बटाईदारी में काफी कमी आ गई और भारत के अधिकतर भागों में अपनी जमीन पर स्वयं खेती करने वाले काश्तकारों का बोलबाला हो गया अगर समूचे भारत में पट्टेदारी की स्थिति पर विचार करें तो पता चलेगा कि 1953-54 में पट्टेदारी पर दिए गए इलाके का क्षेत्रफल देश के कुल कृषि क्षेत्र का पाँचवाँ हिस्सा था, जो 1960-61 में घटकर दसवें हिस्से के बराबर रह गया।

जमीन की अधिकतम सीमा निर्धारित करने सम्बन्धी कानून सीमा से अधिक जमीन के मालिक किसानों और राजस्व अधिकारियों की भारी सांठ-गांठ नीति निर्माताओं में इच्छाशक्ति के अभाव और किसान आंदोलन की अपेक्षाकृत कमजोरी की वजह से बुरी तरह असफल हो गए। नतीजा यह हुआ कि जमीन वितरण में असमानता बनी रही और इसमें कोई महत्त्वपूर्ण परिवर्तन नहीं हो सका।

अगर पचास के दशक के प्रारम्भिक वर्षों (1953-54) से विचार करना शुरू करें तो उस समय जमीन का वितरण काफी असमान था। दो हेक्टेयर से कम जमीन वाले सीमांत और छोटे काश्तकारों की संख्या कृषक समुदाय के लोगों की कुल संख्या के 60 प्रतिशत के बराबर थी लेकिन उनकी कुल जमीन देश में कुछ भूमि का 15.4 प्रतिशत थी। 1981-82 तक सीमांत और छोटे किसानों की संख्या बढ़कर 75.3 प्रतिशत और उनके पास कृषि योग्य जमीन 28.1 प्रतिशत हो गई थी। भारत के नए कृषि ढाँचे के अंतर्गत खेतिहर मजदूरों के साथ-साथ छोटे और सीमांत किसानों की संख्या में जो भारी बढ़ोत्तरी हुई है वह काफी महत्त्वपूर्ण है और इसके काफी अच्छे परिणाम सामने आ सकते हैं। जम्मू-कश्मीर, केरल और पश्चिम बंगाल को छोड़कर अन्य सभी राज्यों में काश्तकारों की जमीन की पट्टेदारी की सुरक्षा और जमीन के लिये उचित लगान के निर्धारण सम्बन्धी कानून कमोबेश कागज पर ही रहे हैं। वास्तविकता यह है कि काश्तकारों को इस तरह की कोई भी सुरक्षा प्राप्त नहीं है। जमीन को पट्टे पर देने की शर्तें बाजार-शक्तियों द्वारा तय होती हैं। देश के अधिकांश भागों में जमीन के मालिक द्वारा खुद खेती करने के प्रचलन से कई संस्थागत बाधाएँ दूर हो गई हैं और कृषि के विकास के लिये अनुकूल स्थितियाँ पैदा कर दी गई हैं। यह अलग बात है कि ऐसा पूँजीवादी नमूने पर किया गया है।

विकास का स्वरूप


स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद का समय भारतीय कृषि के विकास के इतिहास में एक महत्त्वपूर्ण मोड़ है। आँकड़ों से यह बात एकदम साफ है कि 1950 से पहले, भारत में कृषि की विकास-दर सिर्फ 0.5 प्रतिशत वार्षिक से भी कम थी जबकि आजादी के बाद के वर्षों में कृषि उत्पादन 2.6 प्रतिशत वार्षिक की अभूतपूर्व दर से बढ़ा। हालाँकि जनसंख्या में भारी वृद्धि और बढ़ती हुई प्रति व्यक्ति आय को देखते हुए कृषि की विकास दर आवश्यकता से काफी कम है, फिर भी इससे पहले के युग के मुकाबले यह काफी महत्त्वपूर्ण है।

हालाँकि शुरू में यह टेक्नोलॉजी देश के कुछ उत्तर-पश्चिमी राज्यों में सिर्फ गेहूँ के उत्पादन में इस्तेमाल की गई लेकिन शीघ्र ही यह देश के अन्य भागों और अन्य फसलों के लिये भी उपयोग में लाई जाने लगी। कृषि और वैज्ञानिक अनुसंधान के क्षेत्र में बड़े पैमाने पर पूँजी निवेश के परिणामस्वरूप नई नीति की सफलता सामने आने लगी।

मोटे तौर पर कहा जा सकता है कि आजादी के बाद की अवधि में विकास के दो स्पष्ट दौर दिखाई देते हैं जिनकी विशेषता यह है कि उनमें कृषि के विकास की अलग-अलग नीतियाँ अपनाई गईं। पहला दौर- 1951 से 1961 तक का है। इस दौरान संस्थागत परिवर्तन, भूमि सुधार और सिंचाई की सुविधा के विस्तार पर विशेष जोर दिया गया। इस दौर में सामुदायिक विकास कार्यक्रमों के जरिए विकास का फायदा देश भर में पहुँचाने का प्रयास किया गया। अर्द्ध सामंती जमींदारों की ताकत घटा दिये जाने के बाद, अपनी खुद की जमीन पर खेती करने वाले बहुसंख्यक काश्तकारों को सिंचाई के साथ खेती-बाड़ी के बेहतर तौर-तरीकों की जानकारी देने का प्रयास किया गया। इस अवधि में कृषि उत्पादन 3.1 प्रतिशत वार्षिक की औसत दर से बढ़ा। इसी तरह कृषि-भूमि में 58 प्रतिशत वृद्धि हुई और कृषि पदार्थों की पैदावार में 42 प्रतिशत बढ़ोत्तरी हुई।वर्ष 1960-61 से आगे के दूसरे दौर में सघन क्षेत्र विकास कार्यक्रमों के जरिए देश के चुने हुए क्षेत्रों में खेती का आधुनिक साज-सामान और सुधरी हुई विधियाँ अपनाकर उपज बढ़ाने की ओर विशेष ध्यान दिया गया।

इस दौर में कृषि में टेक्नोलॉजी को एक महत्त्वपूर्ण निवेश के रूप में स्पष्ट रूप से मान्यता मिली। शुरू में नयी टेक्नोलॉजी कोई ज्यादा प्रभावशाली सिद्ध नहीं हुई और 1960 के दशक के शुरू में कृषि की हालत काफी बिगड़ गई। नतीजा यह हुआ कि देश को बड़े पैमाने पर अनाज विदेशों से मँगाना पड़ा। कृषि के क्षेत्र में नई टेक्नोलॉजी का अच्छा असर 1960 के दशक के मध्य में दिखाई देने लगा। यह वह समय था जब हरित क्रांति की टेक्नोलॉजी अपनाई गई। हालाँकि शुरू में यह टेक्नोलॉजी देश के कुछ उत्तर पश्चिमी राज्यों में सिर्फ गेहूँ के उत्पादन में इस्तेमाल की गई, लेकिन शीघ्र ही यह देश के अन्य भागों और अन्य फसलों के लिये भी उपयोग में लाई जाने लगी। कृषि और वैज्ञानिक अनुसंधान के क्षेत्र में बड़े पैमाने पर पूँजी निवेश के परिणामस्वरूप नई नीति की सफलता सामने आने लगी। इसके अलावा 1960 के दशक के मध्य में कृषि मूल्य आयोग के गठन के बाद जब कृषि उपज के लिये अत्यंत उपयोगी मूल्य नीति लागू कर दी गई तो किसानों को नई टेक्नोलॉजी बड़े पैमाने पर अपनाने की पर्याप्त प्रेरणा मिली।

1949-50 से 1964-65 के दौरान 3.1 प्रतिशत की विकास दर के मुकाबले 1966-67 से 1984-85 की अवधि में कृषि उत्पादन 2.6 की दर से बढ़ा। इस दौरान उत्पादकता में वृद्धि से उत्पादन में करीब 75 प्रतिशत बढ़ोत्तरी हुई जबकि इससे पहले की अवधि में यह सिर्फ 43 प्रतिशत बढ़ी थी। इसी तरह कृषि क्षेत्र में बढ़ोत्तरी 58 प्रतिशत से घटकर 25 प्रतिशत रह गई।

भारत में कृषि के विकास की विशेषता यह है कि देश के अलग-अलग भागों में विकास दर की दृष्टि से व्यापक क्षेत्रीय असमानताएँ हैं। पंजाब, हरियाणा और उत्तर प्रदेश जैसे उत्तर-पश्चिम राज्यों में विकास की दर एक समान रूप से ऊँची बनी रही है। इसके अलावा 1970 के दशक में भी आंध्र प्रदेश में विकास दर काफी ऊँची रही। यह बात बड़ी दिलचस्प है कि जहाँ एक ओर गुजरात और महाराष्ट्र जैसे राज्यों में 1970 के दशक में उत्पादन में सुधार हुआ वहीं आंध्र प्रदेश के अपवाद को छोड़कर, जहाँ विकास दर 4.32 प्रतिशत रही, अन्य दक्षिणी राज्यों का प्रदर्शन निराशाजनक रहा। तमिलनाडु और केरल की स्थिति तो विशेष रूप से असंतोषजनक रही। लेकिन कृषि उत्पादन में वृद्धि के लिहाज से पूर्वी भारत के राज्यों की हालत अब भी नाजुक बनी हुई है। असम को छोड़कर सभी पूर्वी राज्यों, जैसे उड़ीसा, बिहार और पश्चिम बंगाल का कार्य बहुत ही निराशाजनक रहा है। इन राज्यों में कृषि के क्षेत्र में धीमी गति से विकास का सामान्य कारण सिंचाई और जल प्रबंध के क्षेत्र में कम पूँजी निवेश और संस्थागत कमियाँ रही हैं।

विकास-दर में विभिन्न राज्यों में जो अंतर रहा है उससे देश के विभिन्न क्षेत्रों में रहने वाले कृषक समुदाय के जीवन स्तर में अंतर उत्पन्न हो गया। जिन राज्यों में विकास दर ऊँची थी वहाँ उत्पादन में वृद्धि के साथ-साथ श्रमिकों की उत्पादकता में भी तेजी से बढ़ोत्तरी हुई। दूसरी ओर पूर्वी राज्यों में ग्रामीण जनसंख्या और श्रम शक्ति में वृद्धि की दर कृषि उत्पादन में वृद्धि की दर से अधिक रही। जिन इलाकों में पुरुष श्रमिकों की वृद्धि दर उत्पादन में वृद्धि की दर से अधिक होती है वहीं यह समस्या उत्पन्न होती है। यह माना जा सकता है कि इसी वजह से व्यापक गरीबी और कंगाली पैदा होती है।

कृषि के विकास के स्वरूप की दूसरी प्रमुख विशेषता यह है कि इससे विभिन्न वर्ग के काश्तकारों के बीच आपसी असमानता का सिलसिला बढ़ता गया है। समय के साथ-साथ कृषि जोतों के औसत आकार में काफी अंतर आ गया है। वर्ष 1953-54 में जोतों का औसत आकार प्रति परिवार 3.1 हेक्टेयर था जो 1981-82 में घटकर 1.7 हेक्टेयर रह गया। इसके अलावा यह बात भी ध्यान देने की है कि अगर अखिल भारतीय स्तर पर विचार करें तो छोटे और सीमांत किसानों की कुल संख्या 1981-82 में बढ़कर 75.3 प्रतिशत हो गई है जबकि 1953-54 में यह 60 प्रतिशत थी।

छोटे और सीमांत किसानों की अधिक संख्या का नतीजा यह हुआ है कि कृषि की दृष्टि से विकसित क्षेत्रों में भी छोटे काश्तकार नई टेक्नोलॉजी का पूरा-पूरा फायदा नहीं उठा पाए हैं। उनमें से काफी बड़ा हिस्सा गरीबी और कंगाली का शिकार है। कृषि उत्पादन की दृष्टि से ठहराव की स्थिति में पहुँच गए क्षेत्रों में यह बात विशेष रूप से देखने में आई है। भारत के विकसित और अविकसित इलाकों में अलग-अलग प्रकार की राजनीतिक प्रक्रिया शुरू हुई है। कृषि की दृष्टि से समृद्ध क्षेत्रों में आमदनी में बढ़ोत्तरी से औद्योगिक उत्पादों की मांग भी बढ़ी है जिससे औद्योगीकरण को बढ़ावा मिला है। अक्सर प्रशासनिक, सांस्कृतिक और आधारभूत ढाँचे सम्बन्धी बाधाओं के कारण इन इलाकों में भी औद्योगीकरण तथा विविधता लाने के प्रयास असफल हो गए हैं। राजनीतिक क्षेत्र में समृद्ध किसानों की ताकत और दबदबा बहुत अधिक बढ़ गया है। इसके साथ-साथ मजदूरों की माँग में बढ़ोतरी से अपनी मजदूरी के बारे में मोल-तोल करने की मजदूरों की क्षमता बढ़ी है। एक संगठित ताकत के रूप में (मार्क्स के अनुसार एक वर्ग के रूप में) ग्रामीण सर्वहारा के उदय से देहाती इलाकों में संस्थागत ढाँचे में दूरगामी प्रभाव पड़ना स्वाभाविक है।

प्रारम्भ में इन किसानों ने खेती में बड़े पैमाने पर पूँजी निवेश किया और नई टेक्नोलॉजी अपनाने में पहल की। इसके लिये कुछ पैसा किसानों ने अपनी बचत से जुटाया और कुछ सरकारी एजेंसियों से उधार लिया गया। इसलिये कृषि उपज में भारी वृद्धि का श्रेय कुछ हद तक किसानों की पहल और उद्यमिता को दिया जा सकता है। लेकिन एक बार आवश्यक साज-सामान प्राप्त कर लेने के बाद पूँजी निवेश की दर में गिरावट शुरू हो गई। किसान कृषि से इतर औद्योगिक गतिविधियों में पूँजी निवेश की ओर आकृष्ट नहीं हुये। इन गतिविधियों के बारे में उनकी जानकारी बहुत कम थी। किसानों ने कृषि से होने वाली अतिरिक्त आमदनी का इस्तेमाल अपनी खुशहाली के प्रदर्शन में किया है। आलीशान मकान बनाने, शादी-विवाह और इसी तरह के सामाजिक आयोजना में जमकर फिजूलखर्ची होती है।

यही नहीं, राजनीतिक दृष्टि से ताकतवर हो जाने के कारण धनी किसान, बिजली, उर्वरक और सिंचाई में दी जा रही रियायतों को कम करने या कृषि आय पर करों के जरिए संसाधन जुटाने के सरकार के प्रयासों का जमकर विरोध करते हैं। प्रमुख फसलों के सरकारी खरीद मूल्य बढ़ाने के लिये भी इन किसानों की ओर से जबरदस्त दबाव रहता है। इस तरह देश में उभरकर आ रही यह कुलक ताकत अतिरिक्त पूँजी जुटाने की सरकार की कोशिशों के रास्ते में बड़ी बाधा बनती जा रही है।

जैसी कि उम्मीद थी, पूँजीवादी तरीके से कृषि के विकास की वजह से इन क्षेत्रों में जो विरोधाभास की स्थिति उत्पन्न हुई है उसने खेतिहर मजदूरों और पूँजीपति किसानों को आमन-सामने खड़ा कर दिया है। इसके अलावा, चूँकि सीमांत और छोटे किसानों को भी नयी टेक्नोलॉजी का कुछ-न-कुछ फायदा हुआ है, इसलिये छोटे काश्तकारों और धनी किसानों में राजनीतिक आधार पर कोई अंतर नहीं है। लेकिन जहाँ तक नई टेक्नोलॉजी के फायदे का सवाल है छोटे और बड़े किसानों के बीच भारी अंतर है जो और बढ़ता जा रहा है।

इसके विपरीत भारत के अन्य भागों में, जहाँ कृषि अभी भी पिछड़ी हालत में है, अधिकतर छोटे और सीमांत किसानों तथा खेतिहर मजदूरों की हालत बहुत ही दयनीय है। कृषि उत्पादन में ठहराव की वजह से गतिशीलता में आई गिरावट ने बाजार सम्भावनाओं को अत्यंत सीमित कर दिया है। इन इलाकों में औद्योगीकरण की प्रक्रिया शुरू करने के लिये आधार तैयार करना सम्भव नहीं हो पाया है।

इनमें से अधिकतर इलाकों में अलग-अलग तरह के विरोधाभास सामने आए हैं। इसका कारण यह है कि जो भूमि सुधार किए गए उनसे बिचौलियों को समाप्त नहीं किया जा सका। नतीजा यह हुआ है कि जमींदारों और काश्तकारों के बीच प्रतिद्वंद्विता की स्थिति उत्पन्न हो गई है। इसी के साथ-साथ जातिगत संघर्ष भी पैदा हुआ है जिसमें एक ओर अनुसूचित जातियों के भूमिहीन और खुद खेती-बाड़ी करने वाले मध्यम वर्ग किसान हैं तो दूसरी ओर परम्परागत ब्राह्मण ठाकुर और जमींदार हैं।

ये परस्पर विरोधी और संघर्षपूर्ण प्रक्रियाएँ हैं जो भारतीय कृषि की राजनीतिक अर्थव्यवस्था के वर्तमान स्वरूप को उजागर करती हैं।

खण्ड-चार
सारांश


आधुनिकता और परम्परा के बीच क्रिया-प्रतिक्रिया से भारत में कृषि के क्षेत्र में परिवर्तन की प्रक्रिया में नाटकीय संघर्ष जैसी स्थितियाँ उत्पन्न हुई हैं और सुलह-समझौते तथा समन्वय की जो जटिल प्रणाली तैयार हुई वैसी दुनिया में कहीं और नजर नहीं आती।

भारत में आधुनिक टेक्नोलॉजी का कृषि पर भारी असर पड़ा है। पुराने समय से ही भारतीय किसानों को सिंचाई टेक्नोलॉजी की काफी अच्छी जानकारी थी। ब्रिटिश शासनकाल में सिंचाई वाले क्षेत्र में काफी बढ़ोत्तरी हुई हालाँकि ब्रिटिश शासकों ने बार-बार पड़ने वाले अकालों को ध्यान में रखकर काफी देरी से सिंचाई की सुविधा में विस्तार के कदम उठाए। सिंचाई की सुविधाएँ बढ़ने से उपज बढ़ी, विशेष रूप से वाणिज्यिक फसलों का उत्पादन बढ़ा ब्रिटिश शासनकाल में ही 20वीं शताब्दी के प्रारम्भ में रॉयल कृषि अनुसंधान परिषद के गठन और कई कृषि महाविद्यालयों के खुलने से कृषि के क्षेत्र में वैज्ञानिक ज्ञान की नींव पड़ी। इन संस्थानों ने बेहतर किस्म के बीज विकसित किए तथा फसलों की अदला-बदली करके बोने जैसे कई वैज्ञानिक तौर-तरीकों का प्रचार कर बड़ी अच्छी शुरुआत की।

लेकिन इस पहल के बावजूद इन सब प्रयासों के व्यापक और दूरगामी परिणाम सामने नहीं आए। कारण यह था कि औपनिवेशिक सरकार ने कृषि अनुसंधान के क्षेत्र में पर्याप्त पूँजी निवेश नहीं किया। जो भी अनुसंधान हुआ वह वाणिज्यिक महत्त्व की फसलों पर हुआ और वह भी सिंचाई वाले इलाकों तक सीमित रहा। आधारभूत ढाँचे वाले और टेक्नोलॉजी सम्बन्धी इन कमियों की वजह से ही कृषि के क्षेत्र में विकास का स्तर नीचा रहा। लेकिन इस क्षेत्र में गतिशीलता की कमी का प्रमुख कारण संस्थागत बाधाएँ भी थीं, जिनकी वजह से नई टेक्नोलॉजी का प्रसार अवरुद्ध हो गया। इन बाधाओं में खेती की पट्टेदारी प्रथा, बेनामी-जमींदारों की जकड़न और काश्तकारों पर कर्ज के बढ़ते बोझ की समस्या सबसे ज्यादा हानिकारक साबित हुई। कृषि के क्षेत्र में पूरी तरह विकास न हो पाने का एक अन्य कारण सिंचाई की सुविधा वाले क्षेत्र का बहुत कम होना भी था। इसके अलावा साधन विहीन बंधुआ खेतिहर मजदूरों की वजह से कृषि के क्षेत्र में पूँजी निवेश की कमी रही। इसी तरह बाजार और ऋण सम्बन्धी बुनियादी ढाँचे में कमियों ने कृषि क्षेत्र का पर्याप्त विकास नहीं होने दिया।

आजादी के बाद इन समस्याओं के समाधान के लिये गम्भीरता से प्रयास किए गए। हालाँकि भूमि-सुधार की दिशा में प्रयास पूरे मन से नहीं किए गए लेकिन इनसे देश के कुछ इलाकों को छोड़कर अधिकतर भागों में बिचौलियों को समाप्त करने में काफी मदद मिली। अधिकतम भूमि सम्बन्धी कानूनों पर अमल न होने पाने से जमीन का एक समान वितरण भी सम्भव नहीं हो सका है। फिर भी बिचौलियों के समाप्त हो जाने से कृषि के विकास के रास्ते में एक सबसे बड़ी बाधा दूर हो गई है। भूमि के वितरण की कमियों के कारण कृषि के पूँजीवादी तरीके से असमान विकास की पृष्ठभूमि भी तैयार हुई है। टेक्नोलॉजी सम्बन्धी बाधाओं को दूर करने सम्बन्धी नीति की दूसरी महत्त्वपूर्ण बात यह है कि सिंचाई, बिजली तथा आधारभूत ढाँचे से सम्बन्धित अन्य क्षेत्रों में बड़े पैमाने पर पूँजी निवेश किया गया। एक तरह से यह ब्रिटिश शासकों द्वारा शुरू किए कार्य को ही आगे बढ़ाने का प्रयास था। लेकिन योजना में बड़े पैमाने पर पूँजी निवेश के कारण ग्रामीण आधारभूत ढाँचे, विशेष रूप से बिजली की उपलब्धता में गुणात्मक सुधार हुआ और सिंचित क्षेत्र में भी बढ़ोत्तरी हुई।

नीति-निर्माताओं ने इन बाधाओं को दूर करने के लिये तीसरी जिस बात पर जोर दिया वह थी- बड़े पैमाने पर टेक्नोलॉजी के क्षेत्र में पूँजी निवेश। नीति-निर्माताओं ने ब्रिटिश शासकों द्वारा निर्मित अनुसंधान सम्बन्धी छोटे ढाँचे से शुरुआत की और बड़े पैमाने पर पूँजी निवेश तथा प्रयासों से इसका विस्तार किया। भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद को (जिसका पुरातन नाम रॉयल काउंसिल ऑफ एग्रीकल्चरल रिसर्च था) ऊँचा दर्जा दिया गया और बड़ी संख्या में कृषि विश्वविद्यालय खोले गए। बीजों की नई प्रजातियों के विकास और फसलों की बीमारियों की रोकथाम की दिशा में सार्थक अनुसंधान कार्य किया गया। यहाँ पर इस बात का विशेष रूप से उल्लेख करना जरूरी है कि आधारभूत ढाँचे के विकास और टेक्नोलॉजी में गुणात्मक सुधार सिंचित इलाकों तक सीमित रहे। साठ के दशक के मध्य में बीज और उर्वरक सम्बन्धी नई टेक्नोलॉजी के सफल उपयोग से इस पूँजी निवेश के फायदे सामने आने लगे।

नई नीति की एक अन्य विशेषता यह थी कि इसके तहत 1965 में कृषि मूल्य आयोग का गठन कर किसानों को उनकी फसल का उचित मूल्य दिलाने के लिये अनुकूल माहौल तैयार किया गया। मूल्य नीति तथा नई टेक्नोलॉजी के बीच तालमेल से उत्पादन में व्यापक बढ़ोत्तरी हुई। लेकिन इस विकास का लाभ कुछ उत्तर-पश्चिमी राज्यों तक सीमित रहा। समय के साथ-साथ देश के पूर्वी तथा दक्षिणी इलाकों में भी इसका प्रसार हुआ। लेकिन सिर्फ उत्तर-पश्चिमी राज्यों में ही नई टेक्नोलॉजी से किसानों की आमदनी और जीवन-स्तर में महत्त्वपूर्ण सुधार हो सका। कृषि के क्षेत्र में व्यापक क्षेत्रीय असमानताओं तथा किसानों के बीच बढ़ते अंतर से इस क्षेत्र के पूँजीवादी तरीके से विकसित होने का पता चला है। साठ के दशक के मध्य में तो यह बात विशेष रूप से देखी जा सकती है।

परम्परा और आधुनिकता के बीच क्रिया-प्रतिक्रिया को उत्पादन के तरीके से निर्धारित होने वाले बुनियादी ढाँचे और नई मूल्य व्यवस्था के क्रमिक विकास से निर्धारित व्यापक ढाँचे के संदर्भ में देखा जाना चाहिए। जहाँ तक उत्पादन के तरीके का सम्बन्ध है यह कहा जा सकता है कि देश में जहाँ एक ओर उत्पादन का पूँजीवादी तरीका प्रचलित हो रहा है वहीं कुछ भागों में अर्द्धसामंत उत्पादन सम्बन्धों के अवशेष अब भी विद्यमान हैं। जैसा कि स्वाभाविक है इन इलाकों में ग्रामीण समाज में तनाव और वर्ग संघर्ष काफी मुखर होकर उभरा है। जैसा कि पहले भी उल्लेख किया जा चुका है, विकास की दूसरी विशेषता यह है कि आधुनिक टेक्नोलॉजी देश के सभी क्षेत्रों तक नहीं पहुँच पाई है। कृषि के विकास में क्षेत्रीय असमानताओं के गम्भीर परिणाम सामने आए हैं। जिन इलाकों में कृषि विकास तीव्र और एक समान रहा है वहाँ ग्रामीण क्षेत्रों में गरीबी मिटाने की दिशा में अच्छी सफलता मिली है। दूसरी ओर देश के अधिकांश भागों में जहाँ यह बदलाव नहीं आया है। ग्रामीण आबादी का काफी बड़ा हिस्सा गरीबी की रेखा से नीचे जीवन-यापन कर रहा है।

इस लेख का उद्देश्य परम्परा और आधुनिकता के बीच क्रिया-प्रतिक्रिया के समाज वैज्ञानिक पहलुओं की पड़ताल करना नहीं है। फिर भी यह बात माननी पड़ेगी कि आजादी के बाद भारत दुनिया के उन चंद देशों में एक हो गया है जिन्होंने पश्चिमी तरह की उदार लोकतांत्रिक प्रणाली को अपनाया है और जो धर्मनिरपेक्ष, लोकतांत्रिक और समतामूलक (समाजवादी) समाज के निर्माण की बात करते हैं। भारत को सत्ता और शासन की परम्परागत प्रणाली विरासत में मिली है, इनमें से अधिकांश अवधारणाएँ विदेशी हैं। हजारों वर्षों के अर्द्ध-सामंती दौर में कला, संस्कृति, वास्तुशिल्प और दर्शन शास्त्र जैसे क्षेत्रों में महान उपलब्धियों के बावजूद भारत बुनियादी तौर पर बहुत ही अलोकतांत्रिक और निरंकुश समाज भी रहा है। हालाँकि भारत में ग्राम पंचायत प्रणाली रही है, लेकिन पंचायतों के अधिकार तथा उनकी भूमिका काफी सीमित रही है। जाति-प्रथा की वजह से ग्राम पंचायतों के अधिकार और उनकी भूमिका और भी सीमित हो गई है। वयस्क मताधिकार की अवधारणा सीखने में भी हमें काफी समय लगा है। भारत की अनेक समस्याएँ हैं। जात-पात और धर्म जैसी बातें चुनावों में बड़ा असर डालती हैं। अक्सर अपने कबीले और जाति के प्रति परम्परागत प्रतिबद्धताएँ लोकतांत्रिक व्यवहार के बुनियादी तौर तरीकों के आड़े आती हैं।

अन्य मूल्यों के बारे में भी परम्परा और आधुनिकता के बीच क्रिया-प्रतिक्रिया से संघर्ष की गम्भीर स्थिति उत्पन्न होती है। सदियों तक भारतीय समाज पितृ सत्तात्मक रहा है लेकिन अब महिलाएँ समान अधिकारों की माँग कर रही हैं। इससे समाज में कई तरह के तनाव उत्पन्न हुए हैं। यही बात अनुसूचित जातियों और जनजातियों के बारे में भी सच है। हालाँकि संविधान ने उन्हें अन्य नागरिकों के समान अधिकार प्रदान किए हैं। लेकिन अक्सर न सिर्फ उनका शोषण किया जाता है बल्कि उन्हें अपमान जनक जीवन जीते रहने को मजबूर किया जाता है।

ये समस्याएँ और तनाव परम्परा और आधुनिकता के बीच क्रिया-प्रतिक्रिया की स्वाभाविक परिणति है। लेकिन सत्ता से जुड़े विशिष्ट वर्ग के कुछ लोगों के सड़े-गले विचारों की वजह से यह कटुता बढ़ती ही जा रही है। अगर हम कट्टरपन, धर्मान्धता, साम्प्रदायिकता, रुढ़िवादी सोच आदि की ताकतों पर नजर डालें तो जो तस्वीर उभरती है वह बड़ी ही चिंताजनक है। लेकिन हमें जनता, विशेष रूप से युवाओं, कामगारों, अनुसूचित जातियों के लोगों और महिलाओं में उभर रही नई चेतना की जबरदस्त ताकत को कम करके नहीं आंकना चाहिए। ये लोग इस ताकत के बल पर समान अधिकार, लोकतंत्र और समतामूलक समाज के बुनियादी मूल्यों पर आधारित नए समाज के निर्माण के लिये प्रयत्नशील हैं।

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