कृषि उत्पादन के लाभों का समुचित उपयोग

17 Oct 2015
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किसानों, वैज्ञानिकों तथा प्रसार कार्यकर्ताओं की कठोर मेहनत की बदौलत हम ‘खाद्यान्न सुरक्षा’ का लक्ष्य हासिल कर पाए हैं और अब समय आ गया है कि हम ‘पोषाहार सुरक्षा’ की ओर ध्यान दें। लेखक का कहना है कि वर्तमान अनुसंधान तथा टेक्नोलॉजी हस्तांतरण पर हमारा भरोसा भविष्य के कृषि विकास का आधार है और वह मुक्त अर्थव्यवस्था और भूमंडलीकरण की किसी भी चुनौती का मुकाबला कर सकता है।

भारत ने पिछले 50 वर्षों के दौरान कृषि उत्पादन में बहुत प्रगति की है 1950-51 में खाद्यान्न उत्पादन 5.08 करोड़ टन था जो 1996-97 में बढ़कर 19.10 करोड़ टन तक पहुँच गया। इस तरह देश खाद्यान्न उत्पादन में आत्मनिर्भर हो गया है। 1951-61 के दौरान भारत की जनसंख्या 43.92 करोड़ थी जो 1991 में बढ़कर 84.63 करोड़ तक पहुँच गई। अनुमान लगाया गया है कि 1996-2001 और 2001-2006 में जनसंख्या क्रमशः 100.62 करोड़ तथा 108.598 करोड़ तथा 2006-2011 में 116.425 करोड़ तक हो जाएगी। 1941-51 के दशक में आबादी की स्वाभाविक वृद्धि दर मात्र 1.25 प्रतिशत वार्षिक थी लेकिन तत्पश्चात इसमें पर्याप्त वृद्धि हुई और 1971-81 के दशक में यह वृद्धि सर्वाधिक यानी 2.22 प्रतिशत रही। 1991 की जनगणना के अनुसार 1980 के समूचे दशक के दौरान जनसंख्या वृद्धि दर 2.10 प्रतिशत रही।

भारतीय अर्थव्यवस्था मुख्यतः कृषि प्रधान अर्थव्यवस्था है। इस समय फसल बुआई का वास्तविक क्षेत्र लगभग 14 करोड़ हेक्टेयर है और सकल बुआई क्षेत्र 17.80 करोड़ हेक्टेयर से 18.10 करोड़ हेेक्टेयर तक है। करीब 2.40 करोड़ हेक्टेयर भूमि बंजर या परती रहती है। लगभग 50 प्रतिशत भूमि क्षेत्र में किसी न किसी वजह से उत्पादन की दृष्टि से इस्तेमाल सीमित हो गया है। सकल घरेलू उत्पाद में कृषि क्षेत्र का हिस्सा (1993-94 में) 30.3 प्रतिशत था और जनसंख्या का 60 प्रतिशत भाग इस पर निर्भर था। देश के निर्यात का लगभग 19 प्रतिशत भाग इससे प्राप्त हुआ। भारत में जोत का औसत आकार केवल 1.69 हेक्टेयर है। 76 प्रतिशत से अधिक लोगों के पास 2 हेक्टेयर से भी कम जोत (जमीन) है। दस हेक्टेयर से अधिक जोत भूमि केवल 2 प्रतिशत है। 76 प्रतिशत जोत वाले लोग केवल 29 प्रतिशत क्षेत्र में कृषि करते हैं।

भारत में कृषि अब भी मानसून की दशा पर निर्भर करती है। उसकी मात्रा और स्थानिक वितरण के सम्बन्ध में निकट भविष्य में भी यही स्थिति जारी रहेगी। कृषि योग्य क्षेत्र का लगभग 68 प्रतिशत वर्षा सिंचित क्षेत्र है। भारत में लगभग 40 करोड़ हेक्टेयर मीटर वार्षिक वर्षा होती है। इसके अलावा उसे हिमालय में जल संभरण क्षेत्रों में स्थित देशों से लगभग दो करोड़ हेक्टेयर मीटर जल प्राप्त होता है। भारत में वार्षिक वर्षा लगभग 88 से.मी. होती है जो विश्व में सबसे अधिक है लेकिन इसके आकार की तुलना में वर्षा का वितरण असमान है और वर्ष के 3-4 महीने के अंदर ही प्रायः यह वर्षा हो जाती है। कुल वर्षा का लगभग 73.7 प्रतिशत जल जून से सितम्बर के बीच दक्षिण-पश्चिम मानसून से प्राप्त होता है। अक्टूबर से फरवरी के दौरान करीब 16 प्रतिशत वर्षा होती है। वर्षा की स्थिति और विभिन्न क्षेत्रों के अन्तर्गत पड़ने वाले इलाके को ध्यान में रखते हुए मोटे तौर पर उसे निम्नलिखित समूहों में रखा जा सकता है।-

- 750 मिमी. से कम वर्षा क्षेत्र- कम वर्षा वाला प्रदेश 33 प्रतिशत; 750 मि.मी. से 1125 मि.मी. तक - मध्यम वर्षा वाला प्रदेश 35 प्रतिशत; 1125 मि.मी. से 2000 मि.मी. तक- अधिक वर्षा वाला प्रदेश 24 प्रतिशत; 2000 मि.मी. से अधिक- अत्यधिक वर्षा वाला प्रदेश 8 प्रतिशत।

इस प्रकार 68 प्रतिशत इलाका कम से कम लेकर मध्यम वर्षा वाले प्रदेशों में पड़ता है। इसके अलावा वर्षा में भिन्नता, शीतोष्ण, उष्ण, अर्द्ध-उष्ण और आर्द्र आदि जलवायवीय दशाओं और उर्वरा की व्यापक भिन्न-भिन्न दशाओं के अन्तर्गत कई तरह की मिट्टियाँ पाई जाती हैं। ये सारी बातें चावल, तिल, मक्का, बाजरा, ज्वार, दाल, तिलहन, कपास जैसी वर्षा-सिंचित फसलों की उत्पादकता के निम्न स्तर के लिए काफी हद तक जिम्मेदार हैं। यही बात चाय और कॉफी जैसी बागवानी फसलों और अनेक मसालों के सम्बन्ध में भी लागू होती है।

तेजी से बढ़ती आबादी एवं उद्योगों और शहरीकरण आदि के लिए ईंधन, रेशों और खाद्य पदार्थों की तेजी से बढ़ती मांगों के कारण हमारे देश की जमीन पर दबाव लगातार बढ़ता जा रहा है। इसके अलावा खनन, पानी का जमाव, लवणता, झूम खेती और भूमि का कटाव आदि कारणों से भी भूमि के संसाधनों का ह्रास होता जा रहा है। कृषि के लिए अभी तक जिस भूमि का इस्तेमाल नहीं किया जा सका उसके दोहन की सीमित गुंजाइश को देखते हुए मृदा और भूमि संसाधनों के संरक्षण की बहुत आवश्यकता है ताकि भावी पीढ़ियाँ उपयुक्त वातावरण में रह सकें।

अनेक प्राकृतिक दबावों और संभार संत्र की समस्याओं के बावजूद योजनाबद्ध कृषि विकास स्वतंत्र भारत की उपलब्धियों के इतिहास में एक गौरवपूर्ण अध्याय है। ये उपलब्धियाँ हमारे किसानों, उत्पादकों, मछुआरों की कठोर मेहनत तथा अनुसंधान, प्रसार और निवेश एवं सेवा एजेंसियों के आवश्यक सहयोग के साथ-साथ योजना और उत्पादन कार्यक्रमों के कार्यान्वयन का परिणाम हैं।

यह बहुत संतोष की बात है कि 1950-51 के मात्र 5.08 करोड़ टन खाद्यान्न के मुकाबले 1994-95 में 19.11 करोड़ टन का रिकार्ड उत्पादन किया गया। इसी प्रकार गन्ना, तिलहन, कपास, दूध, अंडा, चाय, रबर और मछली आदि का भी रिकार्ड उत्पादन किया गया।

आठवीं पंचवर्षीय योजना में कृषि विकास के लिए जो नीति निर्धारित की गई थी उसका उद्देश्य खाद्यान्न उत्पादन के मामले में न केवल आत्मनिर्भरता हासिल करना था बल्कि निर्यात के लिए खास कृषि जिन्सों का अतिरिक्त उत्पादन भी करना था। हाल के वर्षों में कृषि की प्रगति हालाँकि बहुत संतोषजनक रही है लेकिन विभिन्न फसलों के उत्पादन एवं उत्पादकता में व्यापक क्षेत्रीय भिन्नताएँ भी रही हैं। पूर्वी और उत्तर-पूर्वी क्षेत्रों पर, जहाँ कृषि और विशेषकर बागवानी विकास के लिए अभी अत्यधिक अप्रयुक्त सम्भावनाएँ विद्यमान हैं, खासतौर पर ध्यान देना होगा। चूँकि दो-तिहाई फसल क्षेत्र वर्षा से प्राप्त जल पर निर्भर है, इसलिए विभिन्न क्षेत्रों के अपेक्षाकृत अधिक सन्तुलित और टिकाऊ विकास के लिए वर्षा-सिंचित कृषि और जल-संभरण विकास पर अधिक ध्यान देना होगा। आठवीं योजना के दौरान कृषि तथा अन्य सम्बद्ध गतिविधियों के अन्तर्गत मुख्य जोर निम्नलिखित कार्यों पर देना होगा:

जल संभरण अवधारणा पर बारानी भूमि/वर्षा सिंचित क्षेत्रों का विकास; पूर्वी क्षेत्र में त्वरित विकास; मूल्य और रोजगार-सृजन के लिए कृषि की विविधता; बागवानी विकास तथा फूलों की खेती जिसमें मसाले और औषधि उपयोगी पौधे शामिल हैं; समन्वित मात्स्यिकी विकास; फसलों की कटाई के बाद बुनियादी ढाँचा तथा पिछली और अग्रिम स्थिति को ध्यान में रखकर टेक्नोलॉजी का स्तर उन्नत करना; फसलों की कटाई के बाद का बुनियादी ढाँचा तथा पिछली और अग्रिम स्थिति को ध्यान में रखकर टेक्नोलॉजी का स्तर उन्नत करना; किसानों को समय पर पर्याप्त ऋण और कृषि उपकरण उपलब्ध कराना; पशुपालन और डेयरी विकास; विविधता और निर्यात के लिए कृषि उत्पादों की समर्थक प्रणाली का विकास; तिलहन और दलहन का उत्पादन बढ़ाना।

कृषि क्षेत्र में कुछ चुनौतियों को बहुत अधिक महसूस किया जाता है। वे इस प्रकार हैं:खाद्य सुरक्षा बनाए रखने में देश की सक्षमता; किसानों की आय में वृद्धि से उनकी बढ़ती मांगों को पूरा करने की क्षमता; ग्रामीण क्षेत्रों में बेरोजगारी और अल्प-रोजगार की समस्या और कृषि में पूँजी-निर्माण और निवेश की धीमी रफ्तार।

हमारे कृषक समुदाय के सामने बेरोजगारी और अल्प-रोजगार अन्य चुनौतियाँ हैं जिनके लिए खेतों के भीतर तथा बाहर से सहयोग की आवश्यकता है। कृषि विकास और टिकाऊपन के मसले इस बात से अत्यन्त गहराई से जुड़े हैं कि हम अपने प्राकृतिक संसाधनों का इस्तेमाल कितना क्षमतापूर्वक करते हैं। संसाधनों की बर्बादी से न केवल वर्तमान पीढ़ी को हानि होती है बल्कि आगामी पीढ़ी को भी नुकसान पहुँचता है। क्षमता में सुधार से न केवल समाज के लिए अपेक्षाकृत अधिक धन अथवा दूसरे शब्दों में निवेश पर अधिक लाभ प्राप्त होता है बल्कि हम दुर्लभ प्राकृतिक संसाधनों का इस्तेमाल भी समझदारी से करते हैं। पर्यावरण-संरक्षण और पारिस्थितिकीय सन्तुलन की दृष्टि से ये सब बातें अत्यधिक महत्त्वपूर्ण हैं। यह बात न केवल अर्थव्यवस्था पर बल्कि समूचे कृषि क्षेत्र पर समान रूप से लागू होती है।

योजना का तात्पर्य है आम लोगों के जीवन स्तर में सुधार लाने के लिए दुर्लभ संसाधनों का अधिकतम उपयोग। योजना लोकतांत्रिक और विकेन्द्रित होनी चाहिए। विकेन्द्रीकृत योजना की प्रक्रिया में शामिल हैं- समस्या की पहचान, मूल्यांकन, विकल्प या -मेनू’ उपलब्ध कराना, प्राथमिकता निर्धारण, डिजाइन का चयन तथा योजना नीतियों का स्वरूप तैयार करना, योजनाएँ बनाना तथा उन पर कार्यान्वयन। सातवीं पंचवर्षीय योजना के मध्यावधि मूल्यांकन ने प्राथमिक क्षेत्र के लिए संशोधित ‘मैक्रो’ और ‘माइक्रो’ स्तर की प्रणाली की आवश्यकता पर जोर दिया है। विशेषकर जल के कुशल उपयोग के अनुमान, योजना तथा प्रबंधन, संसाधन आवश्यकता और यथार्थपरक आकलन, परियोजना तैयार करने में जिला-स्तर पर अपेक्षाकृत अधिक तालमेल, वैकल्पिक कृषि प्रणाली के लिए ऋण प्रावधान की बेहतर नीतियाँ तथा वैकल्पिक सुपुर्दगी प्रणाली को अल्पकालिक आवश्यकताओं के रूप में रेखांकित किया गया है। बाद में प्रत्येक कृषि-जलवायु क्षेत्र को टिकाऊ आधार पर कृषि उत्पादन में अधिकतम वृद्धि के लिए योजना तैयार करनी होगी। इस समस्या के समाधान के लिए 1988 में कृषि योजना के प्रति एक नया दृष्टिकोण-कृषि जलवायु क्षेत्रीय योजना (एसीआरपी) के जरिए अपनाया गया। मृदा, वर्षा और सिंचाई जैसे अन्य कई कृषि-जलवायु कारकों के आधार पर देश को मोटे तौर पर 15 कृषि-जलवायुवीय मण्डलों में विभाजित किया गया। यह विभाजन राष्ट्रीय कृषि आयोग तथा भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद समेत देश के कई अन्य क्षेत्रीयकरण के पूर्व प्रयासों की जाँच के बाद किया गया। यह दृष्टिकोण अब तक देश में प्रचलित कृषि-योजना के क्षेत्रीय दृष्टिकोण से हटकर है और अपेक्षाकृत अधिक व्यापक है। विस्तृत संचालनात्मक योजना के लिए और समान क्षेत्रीय आधार पर अधिक एक जैसे सामान्य गुणों को ध्यान में रखते हुए 15 मंडलों को 73 उप-मंडलों में विभाजित किया गया।

देश को प्रमुख कृषि-जलवायु मंडलों/क्षेत्रों तथा बाद में उप-मंडलों/क्षेत्रों के रूप में एक जैसी सामान्य बातों को ध्यान में रखते हुए विभक्त करके परियोजना शुरू की गई। इस उपक्षेत्रीयकरण के लिए जो सिद्धांत अपनाए गए वे मूलभूत कृषि अर्थव्यवस्था के स्वरूप से सम्बद्ध है। जैसे मृदा की किस्म, जलवायु, तापमान और इसकी भिन्नताएं, वर्षा तथा अन्य कृषि-मौसम सम्बन्धी विशेषताएँ, जल की मांग तथा विमोचन दशाएँ आदि। प्रत्येक व्यापक क्षेत्र के लिए उस इलाके के राज्य कृषि विश्वविद्यालय के वरिष्ठ कुलपति की अध्यक्षता में एक मंडलीय योजना दल (जेडपीटी) का गठन किया गया। इसका कार्य मण्डलीय योजना दलों की अधिकतम विकास नीति को आधार मानकर प्रत्येक क्षेत्र के लिए उपयुक्त कार्यक्रम तैयार करना, उसके लिए सुझाव देना और कार्यान्वयन के लिए कार्यबिंदुओं को तय करना था। इस क्रम में क्षेत्रीय संसाधनों, दवाओं, आवश्यकताओं, प्राथमिकता क्षेत्रों आदि की जानकारी और रूपरेखा तैयार करना जिससे योजनावधि तथा सम्भावित काल-दोनों ही समय कृषि के विकास के लिए स्थान की विशिष्टता योग्य नीतियों और कार्यक्रमों को चलाया जा सके। इन नीतियों तथा कार्यक्रमों को बाद में कृषि-जलवायु क्षेत्रों द्वारा राज्य योजनाओं में शामिल किया गया। किसी क्षेत्र विशेष में संसाधनों की उपलब्धता की स्थिति का अनुमान लगाने के लिए स्थापित आर्थिक संकेतकों पर मूल सूचना, भूमि तथा जल संसाधन, फसलें तथा फसल प्रणालियाँ, कृषि सहयोग प्रणालियाँ तथा बागवानी, मात्स्यिकी और कृषि प्रसंस्करण जैसे सहयोगी क्षेत्रों से प्रायः बुनियादी सूचना का संकलन तथा विश्लेषण किया गया। विश्लेषणात्मक चरण से किसी क्षेत्र के विकासात्मक मुद्दे निकलते हैं जिनसे उपयुक्त क्षेत्रीय विकास नीतियाँ तैयार की जाती है।

पिछले दो दशकों के दौरान उल्लेखनीय विकास देखा गया है। अंतरिक्ष अनुसंधान द्वारा विकसित प्रौद्योगिकियों का इस्तेमाल निम्नलिखित क्षेत्रों में किया जा रहा है- (1) जल संभरण की पहचान और प्राथमिकीकरण (2) जल-संसाधनों का दोहन, (3) क्षेत्र का अनुमान तथा पहचान की गई कुछ फसलों का उत्पादन तथा (4) समस्याग्रस्त मिट्टियों का सीमा-निर्धारण आदि। विभिन्न कृषि-जलवायु दशाओं आदि के लिए उपयुक्त पादप सामग्री के विकास में जैव-प्रौद्योगिकी और जैव-अभियांत्रिकी के उपयोग की भविष्य में प्रमुख भूमिका होगी। बागवानी-फलों, सब्जियों और फूलों की खेती के उभरते परिदृश्य से हमारे यहाँ के आम लोगों के पोषाहार में सुधार आएगा तथा हमारे कृषि-निर्यात को पर्याप्त प्रोत्साहन मिलेगा। इसी तरह टिकाऊ और बढ़िया उत्पादन के लिए मिट्टी की उर्वरा-शक्ति को बेहतर बनाने के वास्ते जैव तथा फर्टिलाइजरों का इस्तेमाल और कीटाणुओं तथा रोगों को नष्ट करने के लिए जैव-नियन्त्रण के उपायों का इस्तेमाल बढ़ाने से कृषि में हमारा भरोसा और बढ़ेगा। पशुपालन के क्षेत्र में भी (भ्रूण-हस्तांतरण टेक्नोलॉजी) (एम्रिब्यो-ट्रांसफर टेक्नोलॉजी) (ई.टी.टी.) से दूध, मांस और ऊन के उत्पादन में सुधार की पर्याप्त आशा मिल रही है। इस समय इस प्रौद्योगिकी में कुछ दबाव तथा सीमाएं हैं लेकिन त्वरित अनुसंधान प्रयासों से इन पर काबू पा लिया जाएगा। ‘हरित क्रांति’ और ‘श्वेत क्रांति’ के बाद समुद्री तथा खारे पानी सहित अंतर्देशीय जल में नई प्रौद्योगिकी के इस्तेमाल से मछलियों का उत्पादन बढ़ाकर ‘नील क्रांति’ लाने का प्रयास किया जा रहा है। कृषि तथा अन्य सम्बद्ध कार्यकलापों में अनुसंधान के ऐसे अनेक क्षेत्र हैं जो कृषक समुदाय की आय बढ़ाने तथा उत्पादन में सुधार लाने के लिए प्रौद्योगिकियों की विविधता तथा उच्च-स्तर बढ़ाने में बहुत मदद कर सकते हैं। वर्तमान अनुसंधान तथा टेक्नोलॉजी हस्तांतरण के प्रति हमारा भरोसा भविष्य के कृषि विकास के लिए आधार है जो मुक्त अर्थव्यवस्था और भूमंडलीकरण की किसी भी चुनौती का मुकाबला कर सकता है।

किसानों, वैज्ञानिकों तथा प्रसार कार्यकर्ताओं की कठोर मेहनत ने खाद्यान्न सुरक्षा के लक्ष्य को हासिल करने में हमारी मदद की है और ‘पोषाहार सुरक्षा’ की ओर ध्यान देने के लिए अब उपयुक्त समय आ पहुँचा है। बागवानी की फसलें खासतौर पर फल और सब्जियाँ न केवल खनिजों और विटामिनों के समृद्ध भंडार हैं बल्कि अत्यधिक पौष्टिक हैं और इनमें रोजगार उपलब्ध कराने की अत्यधिक सम्भावनाएँ हैं, इनसे और अधिक आमदनी तथा और अधिक खाद उपलब्ध हो सकती है। फलों-सब्जियों, मसालों, काजू तथा फूलों सहित इन सभी फसलों के निर्यात की अत्यधिक सम्भावनाएँ हैं जिससे देश के लिए बहुत जरूरी दुर्लभ विदेशी मुद्रा प्राप्त होती रहेगी।

बागवानी, विशेषकर फलदान वृक्षों से वन क्षेत्र के विस्तार में पर्याप्त योगदान मिलता है, साथ ही इनसे नियमित रूप से आर्थिक लाभ भी होता रहता है। इससे पर्यावरण संरक्षण के हमारे प्रयासों में लोगों की भागीदारी भी सुनिश्चित होती है। फलदार वृक्षों का लगाना पर्यावरण की दृष्टि से बहुत उपयुक्त है और वृक्षों के क्षेत्र का विस्तार करने की जब भी आवश्यकता होती है, सामाजिक-वानिकी कार्यक्रम के अन्तर्गत भी फलदार वृक्षों को प्राथमिकता मिलनी चाहिए।

‘हरित क्रांति’ और ‘श्वेत क्रांति’ के बाद समुद्री तथा खारे पानी सहित अंतर्देशीय जल में नई प्रौद्योगिकी के इस्तेमाल से मछलियों का उत्पादन बढ़ाकर ‘नील क्रांति’ लाने का प्रयास किया जा रहा है। कृषि तथा अन्य सम्बद्ध कार्यकलापों में अनुसंधान के ऐसे अनेक क्षेत्र हैं जो कृषक समुदाय की आय बढ़ाने तथा उत्पादन में सुधार लाने के लिए प्रौद्योगिकियों की विविधता तथा उच्च-स्तर बढ़ाने में बहुत मदद कर सकते हैं।

बागवानी, फसलों, विशेषकर फलों-सब्जियों तथा फूलों की एक सबसे प्रमुख समस्या यह होती है कि देश के अधिकांश भाग में उष्ण-कटिबंधीय जलवायु होने तथा नमी की मात्रा ज्यादा होने के कारण उनके खराब या नष्ट हो जाने की आशंका ज्यादा रहती है। इससे फसल तैयार होने के बाद की स्थिति के लिए बुनियादी ढाँचे का विकास करने की अनिवार्यता और बढ़ जाती है। फलों और सब्जियों को जीवित प्राणियों की तरह हवादार जगह की आवश्यकता होती है, खेतों में गर्मी कम करने और शीत भंडारों की पर्याप्त व्यवस्था करने, फल उत्पादन क्षेत्रों में पूर्व-प्रशीतन तथा शीत भंडारण सुविधाओं आदि के माध्यम से फसल तैयार होने के बाद की भारी क्षति से बचा जा सकता है तथा उत्पाद की गुणवत्ता को बनाए रखा जा सकता है। तथा सही समय पर उसे बगीचों तथा खेतों से बाहर से जाकर टर्मिनल मंडियों तक पहुँचाया जा सकता है। प्रशीतित परिवहन व्यवस्था विकसित करने की तत्काल आवश्यकता है। उत्पादन को शीघ्रता से और कुशलता से परिवहन के जरिए (एक स्थान से दूसरे स्थान तक) भेजना जरूरी होता है इसके लिए सड़क और रेल की प्रणालियों में सुधार तथा सड़कों की हालत में पर्याप्त सुधार आवश्यक होता है।

बागवानी फसलों के महत्व की उपेक्षा नहीं की जा सकती। विश्व में ब्राजील और चीन को छोड़कर हमारा देश फलों और सब्जियों का सबसे बड़ा उत्पादक देश है। हमारे देश में आम और केले का सबसे अधिक उत्पादन होता है और प्याज, टमाटर तथा आलू आदि के उत्पादन में हमारा बहुत बड़ा हिस्सा है। भारत में मसालों और काजू का परंपरागत निर्यातक देश रहा है। हमारे यहाँ से फूूलों की सम्पदा विशेषकर उष्ण कटिबंधीय आर्किड और ‘कट फ्लावर’ के निर्यात की भारी सम्भावनाएँ हैं। इसके अलावा मशरूम, बटन, मार्सेला (गुच्छी), साइस्टर, ओकवुड आदि के निर्यात की भी पर्याप्त गुंजाइश है।

भारतीय फलों विशेषकर लीची, सपोटा और अनार जैसे स्वादिष्ट फलों के निर्यात को प्राथमिकता देकर भारतीय बागवानी समुदाय निर्यात की सम्भावनाओं का भली-भांति उपयोग कर सकता है। कुछ इलाकों में ऐसी पट्टियाँ हैं जहाँ उत्कृष्ट किस्म के फलों का उत्पादन पहले ही किया जा रहा है और कटाई बाद की व्यवस्था तथा बिक्री के ढाँचे का विकास करके निर्यात में भारी सफलता हासिल की जा सकती है। महाराष्ट्र का ‘महाग्रेप’ इसका शानदार उदाहरण है।

बागवानी उत्पादों का निर्यात कम मात्रा में किया जाता है लेकिन इससे कृषि क्षेत्र को अधिक आमदनी और रोजगार उपलब्ध कराने में मदद मिलती है। हमारे यहाँ कृषि-जलवायु में बड़ी विविधता है। जिसके फलस्वरूप हम निर्यात के लिए साल भर फलों-फूलों और सब्जियों का उत्पादन कर सकते हैं।

विकसित देशों में फल-सब्जी का प्रसंस्करण उद्योग फसलों की कटाई के समय मूल्यों को स्थिर रखने तथा अतिरिक्त उत्पाद के उपयोग के मामले में उत्प्रेरक का कार्य करता है। लेकिन हमारे देश में यह उद्योग कई रुकावटों के कारण अभी ज्यादा विकसित नहीं हो पाया है और बाधाओं को दूर करके इसका सुव्यवस्थित विकास किया जाना बहुत आवश्यक है।

(लेखक योजना आयोग के भूतपूर्व सदस्य हैं।)

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