कृषि विकास : केंद्र और राज्य सम्बन्धों के बरक्स


सर्वविदित है कि भारतीय संविधान एक संकेंद्रित संघीय ढाँचे का निर्माण करता है। यह कथन राजनीतिक शक्तियों तथा वित्तीय संसाधनों के विभाजन के सम्बन्ध में निर्विवाद है। तथापि संघीय ढाँचे के कार्यकरण के दौरान, स्वतंत्रता के लगभग चार दशकों के बाद से उपयुक्त संवैधानिक ढाँचे के बावजूद भारतीय संघ व्यवहारत: विकेंद्रित हो गया अर्थात राज्य सरकारों की राजनीतिक स्थिति केंद्र के मुकाबले काफी सशक्त हो गई। संघीय गठबंधन सरकारों के दौर में एक चरण ऐसा भी आ गया कि क्षेत्रीय संघीय सरकार के निर्माण और विघटन में निर्णायक भूमिका अदा करने लगे। ऐसा इस कारण हुआ कि कोई भी राष्ट्रीय दल इस स्थिति में नहीं रहा कि बहुमत सरकार का गठन कर पाए। इसके लिये क्षेत्रीय दलों का सहारा लेना आवश्यक हो गया।

फलस्वरूप, क्षेत्रीय दलों तथा मुख्यमंत्रियों की स्थिति बहुत मजबूत हो गई। 2014 के लोक सभा चुनावों में यह स्थिति किंचित बदल गई, जब 30 वर्षों के लंबे अंतराल के बाद नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) ने बहुमत सरकार बनाने में सफलता प्राप्त कर ली। हालाँकि, फिर भी इस दल ने गठबंधन सरकार की परंपरा जारी रखी। इस बदलते परिदृश्य में कृषि को लेकर प्राय: विवाद उठा है कि इस सेक्टर के विकास में गिरावट के लिये कौन उत्तरदायी है। कांग्रेस-वनाम गैर-कांग्रेस सरकारों के विवाद के अलावा एक दिलचस्प नया विवाद यह भी उभरा है कि कृषि की बदहालत के लिये केंद्र सरकार जिम्मेवार है अथवा राज्य सरकारें?

विवाद का कोण


विवाद का यह कोण इस परिस्थिति में उभरा है कि केंद्र में भाजपा के नेतृत्व वाली राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन की सरकार की मजबूत स्थिति के बावजूद कई राज्यों में गैर-भाजपा सरकारें सत्तारूढ़ रह गई हैं। उनमें कई सरकारें तो बाद के विधान सभा चुनावों में अपदस्थ होती गई हैं, पर क्षेत्रीय दलों की सरकारों में ओडिशा की बीजू जनता दल की सरकार तथा पश्चिम बंगाल की तृणमूल कांग्रेस की सरकार अपेक्षाकृत सशक्त स्थिति में रही हैं। 2016 के नवम्बर में बीजू जनता दल ने दावा किया कि उसकी सरकार ने 2003-2010 के दौरान कृषकों की आय में वृद्धि का अनुपम उदाहरण प्रस्तुत कर दिखाया है। हालाँकि इस दावे का खंडन भाजपा के राज्य नेतृत्व द्वारा किया गया है कि ओडिशा में कृषकों के मासिक आय का 1000 से 2000 रुपये का विकास इस सम्बन्ध में राष्ट्रीय आंकड़े की तुलना में कहीं नहीं टिकता क्योंकि औसत राष्ट्रीय आंकड़ा 6000 रुपये प्रति माह का है।

आकलन का अवसर


यह विवाद व्यापक संदर्भ में किया जाना चाहिए क्योंकि इससे केंद्रीय और राज्य सरकारों के कार्य-प्रदर्शन के तुलनात्मक आकलन का अवसर मिलेगा। भारतीय संविधान में कृषि राज्य सूची का विषय है। अत: इस सम्बन्ध में उनकी जिम्मेवारी ज्यादा है। पर यह भी ध्यातव्य है कि वित्तीय संसाधनों के वितरण में केंद्र सरकार की स्थिति अपेक्षाकृत बेहतर है। लेकिन 14वें वित्त आयोग (2015-20) की रिपोर्ट के आधार पर राज्यों की वित्तीय स्थिति में अभूतपूर्व बढ़ोतरी हुई है। विभाज्य वित्तीय कोष में उनकी पूर्वत: स्थिति केंद्र के मुकाबले 32 प्रतिशत से अब बढ़कर 42 प्रतिशत हो गई है। चौदहवें वित्तीय आयोग की रिपोर्ट पर एक आलेख में मैंने स्थापना की थी कि अब राज्यों के वित्तीय वयस्कता का चरण आरंभ होना माना जा सकता है। कई मामलों में राज्य सरकारों ने सुधारवादी नीतियों में पहल की है। रोजगार गारंटी योजना, सूचना के अधिकार एवं निर्धारित समय में नागरिक सेवा संपादन के सम्बन्ध में विधेयन इसके उदाहरण हैं। यह पहलकदमी आस जगाती है कि कृषि भी, जो उनकी प्राथमिक संवैधानिक जिम्मेवारी है, उनके एजेंडा पर आएगा। इस प्राथमिक संवैधानिक उत्तरदायित्व की सूची में मैं पुलिस रिफॉर्म को भी जोड़ना चाहता हूँ। उनकी पहलकदमी के सतप्रयास में, मैं विश्वास रखता हूँ कि केंद्र सरकार का सहयोग उन्हें मिलेगा।

लेखक इंस्टीटय़ूट ऑफ सोशल साइंसेज, नई दिल्ली के ऑनरेरी सीनियर फेलो हैं।

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