कश्मीर, हिमाचल में बाढ़ का जिम्मेवार कौन

जलवायु परिवर्तन के कारण बढ़ता बाढ़ का खतरा
जलवायु परिवर्तन के कारण बढ़ता बाढ़ का खतरा
जलवायु परिवर्तन के कारण बढ़ता बाढ़ का खतरा (फोटो साभार - राज एक्सप्रेस)केरल, पूर्वोत्तर के बाद बाढ़ ने जम्मू-कश्मीर तथा हिमाचल प्रदेश में तबाही मचाई।

जम्मू-कश्मीर पिछले वैसे तो एक हफ्ते से रह-रहकर बाढ़ की विभीषिका झेल रहा है, लेकिन यहाँ इस साल पहली बाढ़ सितम्बर महीने के पहले हफ्ते में आई थी।

बताया जाता है कि दो हफ्तों से लगातार हो रही बारिश के कारण जम्मू डिविजन के कई इलाकों में अचानक बाढ़ का कहर बरपना शुरू हो गया।

जानीपुर, पालौरा, न्यू प्लॉट, तालाब तिल्लो, शक्ति नगर आदि इलाकों में सड़कें और मकान क्षतिग्रस्त हो गए थे। पानी की रफ्तार तेज होने के कारण कई पुल भी टूट गए और भूस्खलन भी हुआ।

धीरे-धीरे हालात सामान्य की तरफ बढ़ रहे थे। लोगों का जीवन पटरी पर लौट रहा था कि एक बार फिर बाढ़ ने अपना भयावह रूप दिखाया। इस बार बाढ़ लौटी दो हफ्ते बाद।

स्थानीय सूत्रों का कहना है कि जम्मू में बाढ़ को लेकर अलर्ट जून से ही जारी हो रहा था। स्थानीय प्रशासन ने 29 जून को मध्य कश्मीर में बाढ़ आने का अन्देशा जताया था। भारी बारिश के मद्देनजर एहतियात के तौर पर कुछ वक्त के लिये अमरनाथ यात्रा भी रोक दी गई थी।

वहीं, जम्मू में बारिश के चलते हुए हादसे में तीन लोगों की मौत हो गई थी। बारिश को लेकर अलर्ट भी जारी कर दिया गया था, लेकिन बाद में बारिश कम हो गई और नदियों व नालों में जलस्तर भी घटने लगा, तो प्रशासन को लगा कि बाढ़ का खतरा टल गया।

लेकिन, 22 सितम्बर को दोबारा अचानक बाढ़ का पानी कई इलाकों में घुस गया। कठुआ जिले में बाढ़ का असर सबसे अधिक देखा गया। वहाँ से तकरीबन दो दर्जन लोगों को सुरक्षित स्थानों पर पहुँचाया गया। पुलिस सूत्रों के अनुसार नागरी, चब्बे चाक, जाखोल और बिलावर आदि इलाकों में राहत कार्य चलाना पड़ा और लोगों को सुरक्षित निकाला गया।

कठुआ के अलावा डोडा जिले में भी बाढ़ का असर देखा गया। एहतियाती तौर पर स्कूल-कॉलेज बन्द करने पड़े। जिला प्रशासन ने कंट्रोल रूम स्थापित किया, ताकि बाढ़ में फँसने वाले लोगों को तुरन्त मदद पहुँचाई जा सके। भूस्खलन व सड़कों पर पत्थरों के आ जाने से कई सड़कों पर वाहनों की आवाजाही पर भी रोक लगा दी गई थी, जिस वजह से कई वाहन बीच सड़क पर फँसे रहे।

बताया जाता है कि कुछ दिनों से लगातार बारिश के कारण अचानक बाढ़ आ गई। हालांकि, रविवार से हालात में सुधार हुआ और कई मार्ग को आवाजाही के लिये खोल दिया गया।

स्थानीय लोगों का कहना है कि भारी बारिश होने से नीरू जलमार्ग और अन्य नालों में पानी भर गया, जिससे बाढ़ आई।

जम्मू-कश्मीर में चार साल पहले भी भयावह बाढ़ आई थी। महीना भी सितम्बर का ही था। 2014 की उस बाढ़ में जम्मू-कश्मीर में 2 सौ से अधिक लोगों की मौत हो गई थी। दरअसल वह बाढ़ मानसून सीजन के आखिरी वक्त में यानी सितम्बर के शुरू से भारी बारिश के कारण आई थी। बाढ़ की वजह से भारी पैमाने पर भूस्खलन हुआ था।

बताया जाता है कि भारी बारिश के कारण झेलम और चेनाब नदी का जलस्तर खतरे के निशान से काफी ऊपर चला गया था।

गृह मंत्रालय के आँकड़ों पर गौर करें, तो उस बाढ़ में करीब 390 गाँव बुरी तरह प्रभावित हुए थे जबकि 2000 से ज्यादा गाँव पर आंशिक असर पड़ा था।

अगर हम जम्मू-कश्मीर के इतिहास को देखें, तो यहाँ बाढ़ का लम्बा इतिहास मिलता है। जम्मू-कश्मीर 19 शताब्दी के उत्तरार्द्ध से ही बाढ़ की विभीषिका झेल रहा है। हालांकि, कुछ दस्तावेज यहाँ बड़ी बाढ़ का साल 1841 दर्ज करता है, लेकिन 1893 में आई बाढ़ का जिक्र कुछ ज्यादा ही मिलता है।

कहते हैं कि 1893 में आई बाढ़ का कारण 52 घंटे तक लगातार बारिश थी। इस बाढ़ में 25 हजार 4 सौ एकड़ में फैली फसल और 2 हजार से ज्यादा घरों के क्षतिग्रस्त होने की बात दर्ज है।

इस बाढ़ के 10 साल बाद ही एक और भयावह बाढ़ जम्मू-कश्मीर के सामने आ गई थी जिसे अब तक का सबसे प्रलयंकारी माना जाता है। बताया जाता है कि 1903 में आई उस बाढ़ का असर ऐसा था कि पूरा श्रीनगर शहर किसी तालाब की मानिंद लगने लगा था। 1903 की बाढ़ के करीब 25 साल बाद यानी 1929 में भी यहाँ बाढ़ की दस्तक हुई थी, लेकिन उस बाढ़ का सबसे ज्यादा असर पाकिस्तान के कब्ज़े वाले कश्मीर में हुआ था।

इसके बाद भी जम्मू-कश्मीर में बाढ़ का आना जारी रहा था। 1929 के बाद 1948, 1950, 1957, 1959 और 1992 में भी बाढ़ ने कोहराम मचाया था।

जम्मू-कश्मीर में बाढ़ की मुख्य रूप से तीन वजहें बताई जाती हैं। पहली वजह भारी बारिश और भूस्खलन है। दूसरी वजह बादल का फटना और तीसरी वजह बारिश के चलते ग्लेशियर पर असर है। ऊपर में बाढ़ की जितनी घटनाएँ गिनवाई गई हैं, उनमें से सभी मानसून की बारिश के चलते नहीं आई। कुछ में ग्लेशियर का रोल रहा, तो कुछ बाढ़ बादल फटने से आई। हाँ, ये जरूर है कि इनमें अधिकांश बाढ़ की वजह भारी बारिश ही थी।

जम्मू कश्मीर की तरह ही हिमाचल प्रदेश भी बाढ़ की चपेट में है। पिछले दस दिनों से हिमाचल प्रदेश पर बाढ़ का खतरा बना हुआ है। मानसून की सक्रियता के चलते हिमाचल प्रदेश में भी जोरदार बारिश हुई, जिससे कई जिलों में बाढ़ का पानी घुस गया।

हिमाचल के कांगड़ा, कुल्लु और चंबा जिलों में बाढ़ से काफी नुकसान हुआ है। कई घर क्षतिग्रस्त हो गए है। बाढ़ के कारण भूस्खलन भी हुआ जिससे स्थिति नाजुक हो गई। बताया जाता है कि मानसूनी बारिश के कारण कई नदियों का जलस्तर खतरे के निशान से ऊपर चला गया था, जिस कारण प्रशासन को अलर्ट जारी करना पड़ा।

बाढ़ के पानी में फँसे लोगों को सुरक्षित निकालने के लिये बचाव अभियान भी शुरू किया गया था।

हालांकि, अब बारिश में कमी आने से लोगों को राहत मिली है। हजारों लोगों को सुरक्षित स्थान पर पहुँचा दिया गया है। प्रशासनिक अधिकारियों ने बताया है कि राहत कार्य अब अपने अन्तिम चरण में है। हालांकि कुछ जगहों पर बर्फबारी होने से राहत कार्य में मुश्किल भी आई।

हिमाचल प्रदेश सरकार के अफसरों ने कहा है कि 24 सितम्बर को बाढ़ आने के बाद से अब तक 2 हजार लोगों को सुरक्षित निकाला गया है, जिनमें 30 विदेशी सैलानी हैं। इनमें से 211 लोगों को हवाई मार्ग और बाकी को सड़क मार्ग से राहत शिविरों तक पहुँचाया गया।

कुल्लू के डिप्टी कमिश्नर युनूस खान के अनुसार तीन तरह से बचाव कार्य चलाया गया। खतरनाक जगहों पर हवाई मार्ग द्वारा बचाव कार्य चलाया गया। इसके अलावा सड़क मार्ग से भी लोगों को निकाला गया।

बताया जाता है कि 22 से 24 सितम्बर के बीच बर्फबारी के साथ ही भारी बारिश और बादलों के फटने से बाढ़ के हाताल बन गए।

अब दोनों ही राज्यों में बाढ़ की स्थिति नियंत्रण में है और आने वाले कुछ दिनों में जनजीवन सामान्य पटरी पर लौटने भी लगेगा। लेकिन, एक अहम सवाल बना ही रहेगा कि आखिर बाढ़ क्यों बार-बार यहाँ दस्तक देकर बनी-बनाई दुनिया उजाड़ देती है। हिमाचल प्रदेश में तो खैर बाढ़ उतनी नियमित नहीं है, लेकिन जम्मू-कश्मीर के सन्दर्भ में यह सवाल बहुत मौजूं है कि फिरदौस का दर्जा पा चुका यह भूखण्ड हर बार क्यों जेर-ए-आब हो रहा है।

बाढ़ तात्कालिक नुकसान जो करती है, सो तो करती ही है, इसके दूरगामी परिणाम ये होते हैं कि इससे प्रभावित क्षेत्रों में रहने वाले लोगों की माली हालत कमजोर हो जाती है। उनकी कमर टूट जाती है और उन्हें अपनी माली हालत सुधारने में वर्षों लग जाते हैं।

जम्मू-कश्मीर में बाढ़ की बढ़ी आवाजाही के कारणों की पड़ताल करें, तो पता चलता है कि भारत के शेष सूबों की तरह ही यहाँ भी शहरीकरण की अन्धी दौड़ चली है। बारिश जब होती है, तो उसका पानी नदियों, तालाब, झील आदि में जमा हो जाता है। कुछ झील-तालाब प्राकृतिक हैं और कुछ मानव निर्मित। इनका निर्माण सदियों पहले हुआ और निर्माण का उद्देश्य था बारिश के पानी का संग्रह करना।

लेकिन, पिछले कुछ दशकों में यह देखा जा रहा है कि झील, तालाब व जलाशयों को बेतरह पाटा जा रहा है। बतौर मिसाल जम्मू-कश्मीर की डल लेक को ही ले लें, तो 13वीं शताब्दी में इसका क्षेत्रफल 75 वर्ग किलोमीटर था, जो अभी घटकर छठवें भाग से भी कम रह गया है। इसकी गहराई की बात करें, तो इसमें 12 मीटर की कमी आई है।

डाल लेक की तरह ही दूसरी झीलों व तालाबों को भी पाटा गया और साथ ही यहाँ की नदियों का भी अतिक्रमण किया गया, जिससे उनकी जल संग्रह क्षमता में भारी कमी आ गई।

पर्यावरण विशेषज्ञ भी मानते हैं कि जम्मू कश्मीर में बाढ़ की बढ़ती विभीषिका के पीछे मुख्य वजह जलाशयों का अतिक्रमण ही है।

एन्वायरनमेंट एंड रिमोट सेंसिंग डिपार्टमेंट की एक रिपोर्ट के मुताबिक जम्मू में 150, कश्मीर में 415 और लद्दाख में करीब 665 जलाशय हैं। इनमें से कई बड़े जलाशय अतिक्रमण की मार झेल रहे हैं। इण्डियन नेशनल ट्रस्ट फॉर आर्ट एंड कल्चरल हेरिटेज के प्रधान सलाहकार मनु भटनागर के अनुसार, ‘भारी अतिक्रमण के कारण ही तालाबों का आकार सिकुड़ गया है।’

सेंटर फॉर साइंस एंड एन्वायरनमेंट (सीएसई) की एक रिपोर्ट के मुताबिक, पिछले 100 सालों में श्रीनगर के 50 से ज्यादा झील, तालाब व जलाशयों का अतिक्रमण कर रोड व बिल्डिंगें बनाई जा चुकी हैं। झेलम नदी के साथ भी ऐसा ही हुआ है। नदी के किनारों का अतिक्रमण कर लिया गया है जिससे नदी की ड्रेनेज क्षमता में काफी गिरावट आ गई है।

सीएसई की डायरेक्टर सुनीता नारायण ने 2014 में कश्मीर में आई भयावह बाढ़ के बाद एक कार्यक्रम में स्पष्ट तौर पर माना था कि अप्रत्याशित बारिश, ड्रेनेज का कुप्रबन्धन, बेतरतीब शहरीकरण व तैयारियों की कमी के गठजोड़ से ये हो रहा है।

अतिक्रमण के अलावा बाढ़ में एक बड़ा किरदार जलवायु परिवर्तन को भी माना जा रहा है।

सीएसई के डिप्टी डायरेक्टर जनरल चंद्रभूषण ने एक इंटरव्यू में कहा था, ‘कश्मीर में बाढ़ इस बात की याद दिला रही है कि जलवायु परिवर्तन अब भारत पर बड़ा असर डालने लगा है। पिछले 10 वर्षों में कई दफे भारी बारिश हुई है जिससे भारत पर असर पड़ा है। कश्मीर में बाढ़ इसी की एक कड़ी है।’

कुल मिलाकर यह स्पष्ट तौर पर दिख रहा है कि इस बाढ़ में जलवायु परिवर्तन, बेतहाशा बारिश के साथ ही मानवीय चूक या यों कह लीजिए कि मानवीय लालच की भी अहम भूमिका है। सीएसई की रिपोर्ट बताती है कि श्रीनगर के ही 50 प्रतिशत जलाशयों का अतिक्रमण कर लिया गया है, तो समझा जा सकता है कि इसका प्रभाव क्या पड़ेगा।

जलाशय-तालाब जल संग्रह का काम करते हैं जबकि नदियाँ जल निकासी में अहम किरदार निभाती हैं। अगर इन माध्यमों का अतिक्रमण कर लिया जाये, तो जाहिर सी बात है कि बारिश का पानी शहरों में और घरों में घुसेगा।

जलवायु परिवर्तन कोई स्थानीय मुद्दा नहीं है। इस पर विश्व भर में माथापच्ची हो रही है। यह वैश्विक मामला है। जलवायु परिवर्तन का असर हर जगह दिख रहा है और कश्मीर में भी। कई बार सूखा पड़ जा रहा है, तो कभी भारी बारिश हो जा रही है। भारी बारिश होगी, तो पानी निकालने के लिये व्यवस्था भी होनी चाहिए। नदी, तालाब व जलाशय की भूमिका यहीं आती है। जलाशय व तालाब होंगे, तो पानी उसमें संग्रह होगा और नदियों के रास्ते पानी बाहर निकलेगा। जलाशयों व तालाबों में संग्रहित पानी का इस्तेमाल उस वक्त किया जा सकता है, जब पानी की किल्लत होगी। लेकिन, इन माध्यमों को ही जब खत्म कर दिया जाएगा, तो बाढ़ आनी तय है और फिर ऐसे हालात में यह जरूरी भी नहीं है कि बहुत बारिश होगी, तभी बाढ़ आएगी।

जलाशयों की जल संग्रह क्षमता कम हो जाएगी और नदियों का फैलाव क्षेत्र सिकुड़ जाएगा, तो सामान्य बारिश की सूरत में भी बाढ़ का दंश झेलना होगा।

अतः बाढ़ की समस्या के समाधान के लिये नदी-तालाब व जलाशयों से इसके सम्बन्ध को समझना जरूरी है और जरूरी है नदियों व जलाशयों का संरक्षण। प्रशासनिक स्तर पर यह प्रयास किया जाना चाहिए कि नदियों व जलाशयों का अतिक्रमण न किया जाये और इसके साथ ही नए जलाशय व तालाब भी खोदे जाने चाहिए।

प्रशासनिक कार्रवाई के साथ ही आम लोगों को भी जागरूक होना होगा। क्योंकि कोई भी सरकारी प्रयास तभी सफलता के सोपान चढ़ सकता है, जब उसमें आम लोगों की भागीदारी हो।


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