कुछ रियायत लेकिन नीरस-सी

24 Dec 2018
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Global warming
Global warming

सम्मेलन आरम्भ होने से पूर्व माना जा रहा था कि जलवायु वित्त की गैर-मौजूदगी समझौते की राह में अड़चन बनेगी। अफ्रीका और छोटे द्वीपीय देशों को सम्मेलन आरम्भ होने से पूर्व इस बाबत समझौते की आस थी। लेकिन कमजोर पड़े गठबन्धनों तथा जी 77 की अन्दरूनी असहमतियों और चीन की आश्वस्ति के चलते उम्मीद थी कि सम्मेलन से जलवायु वित्त के मामले में इतना तो हासिल होने ही वाला है कि जिससे उकताहट नहीं होगी।

संयुक्त राष्ट्र के तत्वावधान में हर साल के आखिर में आयोजित होने वाले जलवायु सम्मेलन नाटकीय हुए बिना नहीं रहते। बीते सप्ताह कोताविसे, पोलैंड में हुआ सम्मेलन अपेक्षानुरूप सम्पन्न हुआ। पहली बात यह कि आईपीसीसी (इंटर-गवर्नमेंटल पैनल ऑन क्लाइमेट चेंज) की हालिया 1.4 डिग्री सेल्सियस सम्बन्धी विशेष रिपोर्ट को स्वीकार करने को लेकर छोटे राष्ट्रों और तेल निर्यातक देशों के बीच दो-मत हो गए। अनेक देशों को उम्मीद थी कि यह रिपोर्ट ‘पेरिस समझौते’ के तहत उत्सर्जन में कटौती सम्बन्धी दायित्वों को नए सिरे से परिभाषित करने का आधार बनेगी। लेकिन ऐसा नहीं होना था और रिपोर्ट का ‘सिर्फ संज्ञान’ लिया जा सका। बाद में ऐसे व्यग्र कर देने वाले क्षण भी आए जब ब्राजील ने बाजार प्रक्रिया को लेकर सख्त रुख अपना लिया। हालांकि विकसित देशों ने उसके रवैये को नरम करने के लिये तमाम कोशिशें कीं।

सम्मेलन आरम्भ होने से पूर्व माना जा रहा था कि जलवायु वित्त की गैर-मौजूदगी समझौते की राह में अड़चन बनेगी। अफ्रीका और छोटे द्वीपीय देशों को सम्मेलन आरम्भ होने से पूर्व इस बाबत समझौते की आस थी। लेकिन कमजोर पड़े गठबन्धनों तथा जी 77 की अन्दरूनी असहमतियों और चीन की आश्वस्ति के चलते उम्मीद थी कि सम्मेलन से जलवायु वित्त के मामले में इतना तो हासिल होने ही वाला है कि जिससे उकताहट नहीं होगी। कमजोर देशों को इतने से ही सन्तुष्ट रह जाना था कि वे वैश्विक जरूरतों के लिये कुछ वित्तीय समर्थन पा ही लेंगे। लेकिन न तो 2020 तक वित्त के प्रवाह के लिये कोई खाका खींचा जा सका और न ही 2025 तक के लिये दीर्घकालिक लक्ष्य तय करने के लिये प्रक्रिया विशेष की पहल हो सकी। यह प्रक्रिया ‘पेरिस समझौते’ के तहत वैधानिक अनिवार्यता है। अन्तरराष्ट्रीय प्रक्रिया के मद्देनजर विकसित देशों ने कोई प्रतिबद्धता तक नहीं जताई।

पारदर्शी फ्रेमवर्क

लेकिन सम्मेलन का मर्म कहीं और था। पारदर्शी फ्रेमवर्क, जिसके तहत प्रत्येक देश को अपने वादे के अनुसार कार्रवाई के लिये जवाबदेह बनाना है, को लेकर रूप-रेखा, प्रक्रियाएँ और दिशा-निर्देश (एमपीजी’ज) तैयार करने को लेकर गहन चर्चा हुई। ‘पेरिस समझौते’ के तहत प्रत्येक देश, चाहे विकसित हो या विकासशील, अपने यहाँ की वस्तु-स्थिति पेश करने को बाध्य है यानी उत्सर्जन की कटौती में अपने राष्ट्रीय प्रतिबद्ध सहयोग की बाबत जानकारी देना उसके लिये जरूरी है। यह भी अनिवार्य है कि एमपीजी’ज को जल्द से जल्द अन्तिम रूप दिया जाए ताकि पारदर्शिता बनी रहे और सदस्य देशों के लक्ष्यों या कार्रवाइयों की प्रगति के बारे में जाना जा सके। बढ़ते वैश्विक उत्सर्जन के मद्देनजर देशों से अपेक्षा है कि अपने यहाँ उत्सर्जन को कम-से-कम करने की दिशा में सक्रिय भूमिका निभाएँगे ताकि भारत जैसे देश के समक्ष जो चुनौती है, उसे लेकर राष्ट्रीय विकास की जरूरतों और उत्सर्जन सम्बन्धी अन्तरराष्ट्रीय दायित्वों के बीच स्वस्थ सन्तुलन बनाए रखा जा सके। ‘पेरिस समझौता’ विकासशील देशों के लिये उनकी क्षमता के अनुरूप थोड़ी राहत सुनिश्चित करता है, जिन्हें इसकी जरूरत है। अलबत्ता, कोताविसे में लिये गए दो निर्णय भारत को उपलब्ध ऐसी राहत की सीमा तय करेगा।

पहला फैसला उस वर्ष से सम्बद्ध है, जब से सभी देश नई व्यवस्था के तहत उत्सर्जन से जुड़ी अपनी वस्तु-स्थिति और तत्सम्बन्धी कार्रवाई के बारे में जानकारी देना आरम्भ करेंगे। कोताविसे में इसके लिये वर्ष 2024 को चुना गया है। भारत के लिये नई व्यवस्था के तहत जरूरी है कि 2022 में उत्सर्जन सम्बन्धी अपनी वस्तु-स्थिति को 2024 में पेश करने के लिये तैयार रखे। दूसरा फैसला, जो ज्यादा महत्त्वपूर्ण है, विकसित देशों के सन्दर्भ में है। उनसे अपेक्षा है कि अन्तरराष्ट्रीय समीक्षा के लिये अपनी कार्रवाइयों में लोच बनाए रखें। कोताविसे में करीब-करीब सभी विकासशील देशों ने लोच को लेकर सीमा बाँधने से बचने का तर्क रखा जिसकी भारत जैसे देशों को दरकार है। कारण, नेशनल इनवेंटरी मैनेजमेंट सिस्टम तैयार करने के लिये इन देशों को कुछ समय लग सकता है।

प्रतिकूल पारदर्शिता

जहाँ अर्थव्यवस्थाएँ अपनी क्षमतानुसार इनवेंटरीज तैयार करने के लिये आईपीसीसी 2006 के दिशा-निर्देशों का अनुपालन करने में थोड़ी ढील दे सकती हैं, वहीं उन पर एक दायित्व भी आयद किया गया है कि इस व्यवस्था का इस्तेमाल करने में समय-सीमा का भी संकेत दें। इतना ही नहीं, प्रतिकूल पारदर्शिता सम्बन्धी निष्कर्षों से किसी देश पर अनुपालन सम्बन्धी कार्रवाई भी सम्भव है। गनीमत है कि किसी देश की सहमति को इस प्रकार की कार्यवाहियों से पूर्व आवश्यक बनाया गया है। तय हो चुका है कि 2023 में एनडीसी का पहला वैश्विक स्टॉक-टेक होगा। दूसरा ग्लोबल स्टॉक-टेक 2028 में आना है। विकासशील देशों को बिना समय गँवाए इसके लिये तैयार हो जाना चाहिए ताकि एनडीसी का संज्ञान लिया जा सके और निम्न-कार्बन वृद्धि को बनाए रखा जा सके।

2023 में ग्लोबल स्टॉक-टेक (जीएसटी) विश्व के भावी वैश्विक जलवायु और दायित्वों के अगले चक्र का निर्धारण करेगा। यहीं विकासशील देशों को जलवायु में अपनी भागीदारी के पिछले अवशेष की संरक्षा करनी होगी। कोताविसे में जो भाषा इस्तेमाल की गई है, वह पोस्ट-जीएसटी कार्रवाइयों के आधार पर उपलब्ध तकनीक और भागीदारी अनुमत करती है। लेकिन इससे भिन्न देशों में विशेष अन्तर भी देखने को मिलता है। नियम पुस्तिका के तहत भागीदारी का उल्लेख स्व-निर्धारण का संकेत है। देखा जाना है कि क्या उभरती अर्थव्यवस्थाएँ पूरी तरह से 2023 या उसके बाद वैश्विक जलवायु व्यवस्था को बिना किसी भेदभाव के स्वीकार करती है या नहीं।

(लेखक जलवायु विमर्श पर भारत सरकार के वार्ताकार हैं)


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