क्या अब बच पाएगी नदियों की जान

14 May 2017
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प्राकृतिक संसाधनों को मानवाधिकार तो दे दिए गए हैं, लेकिन उनके अधिकारों की रक्षा को लेकर संशय बरकरार है

उत्तराखंड हाईकोर्टप्रदूषण की भयावहता और उससे पर्यावरण को होने वाले नुकसान पर चर्चाएँ सुनते-सुनते कई दशक बीत गए। इस दौरान गंगा-यमुना की सफाई के नाम पर न जाने कितना धन पानी की तरह बहा दिया गया। हर नई सरकार ज्यादा जोर-शोर से पर्यावरण को बचाने की कसमें खाती रही, लेकिन धरातल पर कुछ भी देखने को नहीं मिला। अब पर्यावरण को बचाने के लिये असली कदम अदालत ने उठाया है। ऐसा कदम जिससे सचमुच नदियों, जंगलों, ग्लेशियरों समेत धरती को वास्तव में बचाने की दिशा में आगे बढ़ा जा सकता है।

नैनीताल हाईकोर्ट में एक जनहित याचिका पर सुनवाई करते हुए 21 मार्च को जस्टिस राजीव शर्मा और जस्टिस आलोक सिंह की संयुक्त खंडपीठ ने गंगा-यमुना समेत तमाम छोटी और सहायक नदियों को जीवित मनुष्य का दर्जा दे दिया। इससे पहले कि यह फैसला लोगों की समझ में आता, करीब एक हफ्ते के अन्तराल पर अदालत ने गंगोत्री-यमुनोत्री ग्लेशियर के साथ ही जंगल, झील, झरने, हवा, चारागाह जैसे तमाम प्राकृतिक संसाधनों को भी मनुष्य का दर्जा दे दिया। अदालत ने अपनी असाधारण शक्तियों का इस्तेमाल करते हुए कहा कि इन सभी को आम लोगों की तरह मूलभूत और कानूनी अधिकार, कर्तव्य, देनदारियाँ हासिल होंगी।

लेकिन इसका अर्थ क्या हुआ?


इस मामले के याचिकाकर्ता के वकील एमसी पन्त के मुताबिक इस फैसले के बाद अब नदियों, ग्लेशियरों या जंगलों आदि को नुकसान पहुँचाने पर मुकदमा चलाया जा सकता है। अब यदि कोई जंगल में पेड़ काटे या आग लगा दे तो उस पर हत्या तक का मुकद्मा दर्ज कराया जा सकता है। इसी तरह नदी में कचरा फेंकना किसी व्यक्ति पर कचरा फेंकने जैसा माना जाएगा और सम्बन्धित व्यक्ति पर आपराधिक मामला दर्ज हो सकता है। पन्त के मुताबिक नदियाँ अब जीवित मनुष्य हैं, नदियों का बहाव ही उनकी जीवन्तता है, यदि नदियों के बहाव को बाँधा जाता है तो अब यह भी एक अपराध होगा। नदियों के बहाव को बाँधने वाले बड़े-बड़े बाँधों पर भी अब मुकद्मे दर्ज करवाए जा सकते हैं।

देहरादून वाडिया इंस्टीट्यूट ऑफ हिमालयन जियोलॉजी में फ्लूवियल हाइड्रोलॉजी (नदी के बहाव से सम्बन्धित) पर काम कर रहे वैज्ञानिक संतोष राय अदालत के फैसले का स्वागत करते हुए कहते हैं कि नदियों का प्राकृतिक बहाव बना रहे तो वे मैली भी नहीं होंगी। मानसून में बारिश का पानी नदियों को प्राकृतिक तौर पर साफ कर देता है और सारी गन्दगी बहा देता है।

राय के मुताबिक इस फैसले के बाद बाँधों को भी न्यूनतम पानी छोड़ने का क्लॉज पूरा करना होगा, क्योंकि अमूमन बाँध तय मात्रा से कम पानी नदी में छोड़ते हैं। अदालत के इस फैसले के बाद बाँधों पर निगरानी और सन्तुलन बढ़ाया जा सकता है और उम्मीद की जा सकती है कि अब बड़े बाँधों को अनुमति न मिले।

नैनीताल हाईकोर्ट ने अपने फैसले में गंगोत्री और यमुनोत्री ग्लेशियर का खासतौर पर जिक्र किया है। गंगोत्री हिमालय के सबसे बड़े ग्लेशियर में से एक है और पिछले 25 वर्षों से यह तेजी से घट रहा है। गंगोत्री ग्लेशियर करीब 850 मीटर तक घट चुका है। यमुनोत्री ग्लेशियर भी तेजी से पिघल रहा है। पहाड़ों में बन रही सड़कों, हाइड्रो पावर प्रोजेक्ट आदि के लिये विस्फोट किए जाते हैं, जिससे पूरी पर्वत श्रृंखला हिल जाती है। इसके साथ ही गंगोत्री, यमुनोत्री, बदरीनाथ, केदारनाथ समेत तमाम संवेदनशील जगहों पर बड़ी संख्या में पर्यटकों के आने से भी नुकसान हो रहा है।

वाडिया इंस्टीट्यूट में ग्लेशियर पर काम कर रहे वैज्ञानिक समीर तिवारी बताते हैं कि धरती पर 97 फीसदी खारा पानी है। पीने योग्य ताजा पानी सिर्फ तीन फीसदी ही है, उसमें भी 2-2.7 फीसदी तक फ्रोजन वाटर यानी ग्लेशियर में जमा पानी है। मनुष्य की वजह से ग्लेशियर को अगर एक फीसदी भी नुकसान पहुँचता है तो यह बड़ा नुकसान है। तिवारी के अनुसार ग्लेशियर के आस-पास ऐसे कई कारक हैं जो उसे नुकसान पहुँचा रहे हैं। वायु प्रदूषण, पर्यटन, ग्लेशियर पर क्लाइम्बिंग, फॉसिल फ्यूल बर्निंग यानि जीवाश्म ईंधन का जलना, केदारनाथ जैसे संवेदनशील क्षेत्र में हेलिकॉप्टर से आवाजाही इन कारकों में शामिल हैं, जिनका अध्ययन किया जा सकता है। अदालत के आदेश के मुताबिक अब यदि वैज्ञानिक समुदाय यह कह दे कि जीवाश्म ईंधन से ग्लेशियर को नुकसान पहुँच रहा है तो इसे रोकना होगा। ग्लेशियर ही गंगा, यमुना, सिंधु, ब्रह्मपुत्र जैसी अधिकांश नदियों का मुख्य स्रोत हैं। ग्लेशियर नहीं रहेंगे तो ये नदियाँ बरसाती रह जाएँगी। ग्लेशियर अब मनुष्य हैं इसलिये इनके अधिकारों की रक्षा होनी चाहिए।

नदियों, ग्लेशियरों की तरह जंगल भी अब मनुष्यों की श्रेणी में आ गए हैं। लेकिन ऐसा लगता है कि राज्य में इंसान ने जंगल को दुश्मन समझ लिया है या उसे इसकी कोई परवाह नहीं रही। आर्मी की फायरिंग रेंज के चलते पिछले वर्ष दिसम्बर में जंगल में आग लगी, जिसके बाद वन विभाग ने आर्मी के सूबेदार मेजर अभय सिंह के खिलाफ वन अधिनियम के तहत मुकद्मा दर्ज कराया। पिछले साल ही जुलाई में जंगल की वजह से गाँवों तक सड़क नहीं पहुँच पाने से नाराज ग्रामीणों ने पेड़ काट दिए, जिसके बाद 66 ग्रामीणों पर वन विभाग ने मुकद्मा दर्ज कराया। ये दो घटनाएँ बताती हैं कि जंगलों के प्रति इंसान कितना असंवेदनशील है। उत्तराखंड में हर साल ही कई हेक्टेयर जंगल आग की भेंट चढ़ जाते हैं। पिछले साल जंगलों का लगभग 4,443 हेक्टेयर हिस्सा आग की चपेट में आ गया था। यह नुकसान बीते वर्षों की जंगल की आग से कहीं ज्यादा था।

राज्य में 15 फरवरी से जून 15 तक फायर सीजन माना जाता है। वन विभाग के अधिकारी कहते हैं कि कई बार ये आग प्राकृतिक कारणों से भी लगती है, लेकिन उत्तराखंड के पूर्व प्रमुख वन संरक्षक श्रीकांत चंदोला इसे गलत बताते हैं। वह कहते हैं कि जंगल में आग मैन मेड यानी मनुष्य द्वारा लगाई गई होती है। प्राकृतिक वजहों से आग बहुत कम लगती है। वन अधिनियम हमारे पास पहले से मौजूद है। हाईकोर्ट के फैसले के बाद जंगल को मानवाधिकार भी हासिल हो गए हैं तो सम्भव है कि कानून का सख्ती से पालन करवाने पर लोगों में डर पैदा हो। हालाँकि चंदोला लोगों को डराकर नहीं बल्कि मित्र बनाकर जंगल की सुरक्षा पर जोर देते हैं। पूर्व प्रमुख वन संरक्षक के मुताबिक सख्त कानून ने लोगों को जंगल से दूर किया है और जंगलों के नुकसान की एक वजह यह भी है।

दरअसल हाईकोर्ट के इस फैसले को लागू करना सरकार के लिये बड़ी चुनौती होगी और नई सरकार अभी इस पर कुछ कहने की स्थिति में नहीं है। उत्तराखंड के मुख्य सचिव एस रामास्वामी का कहना है कि अदालत के इस फैसले का अध्ययन किया जा रहा है कि इसे कैसे लागू किया जाए।

राज्य के मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र सिंह रावत इस फैसले को लेकर अधिक सतर्क हैं। उन्होंने डाउन टू अर्थ से कहा, “अदालत के इस आदेश का अध्ययन किया जाएगा। इस फैसले को लागू करना सरकार के लिये तो मुश्किल होगा ही और आमजन को भी इससे दिक्कतें होंगी। लोगों का जीना मुश्किल हो जाएगा। राज्य सरकार इस फैसले की समीक्षा करेगी। पर्यावरण हमारी प्राथमिकता है, लेकिन इस फैसले से अगर उत्तराखंड के हितों को चोट पहुँचती है, यहाँ के नागरिकों को चोट पहुँचती है, तो हम सुप्रीम कोर्ट भी जाएँगे।”

दरअसल इस फैसले से सरकार पर दोहरा दबाव पड़ने वाला है। नदियों, जंगलों को इंसान का दर्जा हासिल होने का अर्थ है कि उन्हें संवैधानिक अधिकार तो हासिल होंगे ही, इन पर संवैधानिक कर्तव्य भी लागू होंगे। पंत कहते हैं कि अब यदि नदी की बाढ़ के चलते किसी को नुकसान पहुँचता है, तो नदियों पर भी केस दर्ज किया जा सकता है। जंगल की आग से गाँव प्रभावित होते हैं, तो जंगल को भी दोषी ठहराया जा सकता है और मुआवजे की माँग की जा सकती है।

जाहिर है न नदी मुआवजा देगी, न जंगल। इसलिये सरकार और इसके मुखिया अदालत के इस फैसले को आशंका की नजर से देख रहे हैं।

“इस फैसले को लागू करना सरकार के लिये तो मुश्किल होगा ही और आम आदमी को भी इससे दिक्कतें होंगी” -त्रिवेंद्र सिंह रावत, मुख्यमंत्री, उत्तराखंड

“अदालत के इस फैसले के बाद बाँधों पर निगरानी और सन्तुलन बढ़ाया जा सकता है और उम्मीद है कि अब बड़े बाँधों को अनुमति न मिले” -संतोष राय, वैज्ञानिक, वाडिया इंस्टीट्यूट ऑफ हिमालयन जियोलॉजी

“हाईकोर्ट के फैसले के बाद जंगल को मानवाधिकार भी हासिल हो गए हैं तो सम्भव है कि कानून का सख्ती से पालन करने पर लोगों में डर पैदा हो” -श्रीकांत चंदोला, पूर्व प्रमुख वन संरक्षक

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