क्या है किसानी के संकट का समाधान

17 Aug 2015
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Subhash palekar
Subhash palekar

इन दिनों खेती- संकट और किसान आत्महत्या का मुद्दा गरम है। किसानों की मुसीबतें कम होने की बजाय बढ़ती जा रही हैं। बेमौसम बारिश ने गेहूँ की फसल चौपट कर दी थी। किसान अपनी जान देने पर मजबूर हैं। एक के बाद एक किसानों की खुदकुशी की घटनाएँ सामने आ रही हैं। दो दशकों में अब तक 3 लाख किसान आत्महत्या कर चुके हैं। इस बीच खेती के संकट के समाधान के रूप में कई छोटे-छोटे रचनात्मक विकल्प सामने आए हैं जिन पर गौर करना जरूरी है। खेती के संकट में कम खर्च और कम कर्ज करना जरूरी है, जिससे किसान चिन्तामुक्त होकर खेती पर ध्यान दे सके।

देश में जीरो बजट प्राकृतिक खेती के प्रणेता सुभाष पालेकर ने आधुनिक रासायनिक कृषि पद्धति का विकल्प पेश कर रहे हैं, जिससे न केवल किसान अपनी खेती को सुधार सकते हैं बल्कि इससे उनकी खेती व गाँव आत्मनिर्भर बन सकेंगे। वे अमरावती महाराष्ट्र निवासी सुभाष पालेकर मशहूर कृषि वैज्ञानिक हैं और उनकी अनूठी कृषि पद्धति की चर्चा देश-दुनिया में हो रही है।

पिछले कुछ सालों से पालेकर जी ने एक अनूठा अभियान चलाया हुआ है- जीरो बजट प्राकृतिक खेती का। इस अभियान से प्रेरित होकर करीब 40 लाख किसान इस पद्धति से खेती कर रहे हैं।

पालेकर कहते हैं कि हम धरती माता से लेने के बाद उसके स्वास्थ्य के बारे में भी हमें सोचना होगा। यानी बंजर होती ज़मीन को कैसे उर्वर बनाएँ, इस पर ध्यान देना जरूरी है। उपज के लिये मित्र जीवाणुओं की संख्या बढ़ाना चाहिए। खेतों में नमी बनी रहे, इसके लिये ही सिंचार्इ करें। हरी खाद लगाएँ। देशी बीजों से ही खेती करें। इसके लिये बीजोपचार विधि अपनाएँ। फसलों में विविधता जरूरी है। मिश्रित खेती करें।

द्विदली फसलों के साथ एकदली फसलें लगाएँ। खेत में आच्छादन करें, यानी खेत को ढँककर रखें। खेत को कृषि अवशेष ठंडल व खरपतवार से ढँक देना चाहिए। खेत को ढँकने से सूक्ष्म जीवाणु, केंचुआ, कीड़े-मकोड़े पैदा हो जाते हैं और ज़मीन को छिद्रित, पोला और पानीदार बनाते हैं। इससे नमी भी बनी रहती है। खेत का ढकाव एक ओर जहाँ ज़मीन में जल संरक्षण करता है, उथले कुओं का जल स्तर बढ़ता है।

वहीं दूसरी ओर फसल को कीट प्रकोप से बचाता है क्योंकि वहाँ अनेक फसल के कीटों के दुश्मन निवास करते हैं। जिससे रोग लगते ही नहीं है। इसी प्रकार रासायनिक खाद की जगह देशी गाय के गोबर-गोमूत्र से बने जीवामृत व अमृतपानी का उपयोग करें। यह उसी प्रकार काम करता है जैसे दूध को जमाने के लिये दही। इससे भूमि में उपज बढ़ाने में सहायक जीवाणुओं की संख्या बढ़ेगी और उपज बढ़ेगी। एक गाय के गोबर-गोमूत्र से 30 एकड़ तक की खेती हो सकती है।

सुभाष पालेकर की खेती पद्धतियानी जीरो बजट खेती से भूमि और पर्यावरण का संरक्षण होगा। जैव विविधता बढ़ेगी, पक्षियों की संख्या बढ़ेगी भूमि में उत्तरोतर उपजाऊपन बढ़ेगा। किसानों को उपज का ऊँचा दाम मिलेगा और जो आज ग्लोबल वार्मिंग हो रही है, जिसमें रासायनिक खेती का योगदान बहुत है, उससे निजात मिल सकेगी।

इसी प्रकार उत्तराखण्ड के बीज बचाओ आदोलन ने बदलते मौसम में किसानों को राह दिखाई है। पिछले कुछ सालों से बदलते मौसम की सबसे बड़ी मार किसानों पर पड़ रही है। इससे किसानों की खाद्य सुरक्षा और आजीविका पर इसका प्रतिकूल प्रभाव पड़ रहा है। यह एक बड़ी समस्या है। लेकिन उत्तराखंड के किसानों ने अपनी परम्परागत पहाड़ी खेती व बारहनाजा (मिश्रित) फसलों से यह खतरा काफी हद तक कम कर लिया है।

करीब तीन दशक पहले शुरू हुआ बीज बचाओ आन्दोलन अब पहाड़ में फैल गया है। महिलाएँ गाँवों में बैठक कर इस चेतना को बढ़ा रही हैं। पहाड़ में लोग अपने पारम्परिक बीजों से बारहनाजा की फसलें उगाते हैं। शुद्ध खानपान और पोषण की दृष्टि से जैव विविधता का संरक्षण भविष्य की आशा है।

लेकिन मौसम परिवर्तन से किसान कुछ सीख भी रहे हैं। और उसके हिसाब से वे अपने खेतों में फसल बोते हैं। जहाँ जलवायु बदलाव का सबसे ज्यादा असर धान और गेहूँ की फसल पर हुआ है वहीं बारहनाजा की फसलें सबसे कम प्रभावित हुई हैं।

मंडुवा, रामदाना, झंगोरा, कौणी की फसलें अच्छी हुईं। 2009 में सूखे के बावजूद रामदाना की अच्छी पैदावार हुई और मंडुवा, झंगोरा भी पीछे नहीं रहे। मध्यम सूखा झेलने में धान और गेहूँ की अनेक पारम्परिक किस्में भी धोखा नहीं देती हैं।

उत्तराखण्ड के टिहरी गढ़वाल इलाके में किसान और खास कर महिला किसान अपने परम्परागत देशी बीजों से बारहनाजा की फसलें उगाते हैं। बारहनाजा यानी बारह अनाज। लेकिन इसमें अनाज ही नहीं बल्कि दलहन, तिलहन, शाक-भाजी, मसाले व रेशा वाली फसलें शामिल हैं। ये सभी मिश्रित फसलें ही बारहनाजा है।

यहाँ बीज बचाओ आन्दोलन के प्रमुख विजय जड़धारी बताते हैं कि बारहनाजा में 12 फसलें ही हों, यह जरूरी नहीं। भौगोलिक परिस्थिति, खान-पान की संस्कृति के आधार पर इसमें 20 से अधिक फसलें भी होती हैं। जिनमें कोदा (मंडुवा), मारसा (रामदाना), ओगल (कुट्टू), जोन्याला (ज्वार ), मक्का, राजमा, गहथ (कुलथ ), भट्ट (पारम्परिक सोयाबीन), रैंयास नौरंगी, उड़द, सुंटा लोबिया, रगड़वास, गुरूंष, तोर, मूंग, भगंजीर, तिल, जख्या, भांग, सण (सन), काखड़ी खीरा इत्यादि फसलें हैं।

आज जहाँ पारम्परिक बीज ढूँढने से नहीं मिलते वहीं बीज बचाओ आन्दोलन के पास उत्तराखण्ड की धान की 350 प्रजातियाँ, गेहूँ की 30 , जौ 4, मंडुआ 12, झंगोरा 8, ज्वार 3, ओगल 2, मक्की 10, राजमा 220, गहथ 3, भट्ट 5, नौरंगी 12, सुंटा 8, तिल 4, भंगजीर 3 प्रजातियाँ हैं। इनकी समस्त जानकारी है। उनके पास जिन्दा जीन बैंक है। इसके अलावा दुर्लभ चीणा, गुरूश, पहाड़ी काखड़ी, जख्या सहित दर्जनों तरह की साग-सब्जी के बीज उगाए जा रहे हैं और किसानों को दिये जा रहे हैं।

बारहनाजाउत्तराखण्ड जैव विविधता के मामले में और जगहों से आज भी अच्छा है। यहाँ सैकड़ों पारम्परिक व्यंजन हैं। फल, फूल, पत्ते और कन्द-मूल हैं, जो लोगों को निरोग बनाते हैं। पानी के स्रोत सूख न जाएँ इसलिये जंगल बचाने का काम किया जा रहा है।

कुल मिलाकर, यह कहा जा सकता है कि मौसमी बदलाव के कारण जो समस्याएँ और चुनौतियाँ आएँगी, उनसे निपटने में बारहनाजा खेती और जीरो बजट प्राकृतिक खेती कारगर है। कम बारिश, ज्यादा गर्मी, पानी की कमी और कुपोषण बढ़ने जैसी स्थिति में सबसे उपयुक्त है। ऐसी खेती में मौसमी उतार-चढ़ाव व पारिस्थितिकी हालत को झेलने की क्षमता होती है। इसमें कम खर्च और कम कर्ज होता है। लागत भी कम लगती है। इस प्रकार सभी दृष्टियों, खाद्य सुरक्षा, पोषण सुरक्षा, स्वास्थ्य सुरक्षा, जैव विविधता और मौसम बदलाव में उपयोगी और स्वावलम्बी है।
 

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