क्यों शोक का कारण बन जाती हैं उत्तर बिहार की नदियाँ

19 Sep 2015
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विश्व नदी दिवस 27 सितम्बर 2015 पर विशेष


मीठे जल के स्रोत के रूप में अनादि काल से इंसानों को हर तरह की सुविधा उपलब्ध कराने वाली नदियाँ क्या किसी मानव समूह के लिये निरन्तर दुख की वजह बन सकती हैं? जिस नदियों के किनारे दुनिया भर की सभ्यताएँ विकसित हुई हैं, उद्योग-धंधे पाँव पसारने को आतुर रहते हैं, खेती की फसलें लहलहाती हैं, उन्हीं नदियों के किनारे बसी उत्तर बिहार की एक बड़ी आबादी गरीबी और लाचारी भरा जीवन जीने को विवश है।

दुनिया भर में नदियों के किनारे बसे लोग लगातार समृद्ध होते रहे हैं, मगर इन इलाकों के लोग आज भी अठारहवीं सदी वाला जीवन जी रहे हैं। आखिर इसकी वजह क्या है? कहा जाता है कि सालाना बाढ़ की वजह से ऐसा होता है, मगर क्या बात इतनी सरल है?

नेपाल की सीमा से सटे उत्तर बिहार के तराई इलाकों से होकर बिहार में सात बड़ी नदियाँ गुजरती हैं। ये नेपाल के पहाड़ों से निकलती हैं और उत्तर बिहार के इलाकों में डेल्टानुमा संरचनाएँ बनाती हुईं गंगा नदी में अलग-अलग जगह मिलती हैं।

इनका फैलाव पश्चिम चम्पारण से लेकर किशनगंज तक है और ये उत्तर बिहार के तकरीबन बीस जिलों से होकर गुजरती हैं। इन नदियों में क्रमशः गंडक, बूढ़ी गंडक, बागमती, अवधारा समूह की नदियाँ, कमला, बलान, कोसी और महानन्दा। इसके अलावा कई छोटी नदियाँ हैं मगर ये इन नदियों की सहायक नदियाँ ही हैं।

कई वजहों से ये नदियाँ बरसात के मौसम में बाढ़ का तांडव रचती रही हैं। इसकी सबसे बड़ी वजह है ये नदियों हिमालय की अलग-अलग चोटियों से निकलती हैं। हिमालय चूँकि विकसित होता पहाड़ है और यहाँ की मिट्टी काफी भुरभुरी है। सो ये नदियाँ काफी मात्रा में गाद लेकर आती हैं।

फिर गंगा की तरह इन्हें गाद फैलाने के लिये लम्बा इलाका नहीं मिलता है सो ये अपने छोटे से रास्ते में ही गाद को गिराती रहती हैं। इस वजह से इन नदियों का बेड बहुत जल्द भर जाता है और फिर या तो इन्हें रास्ता बदलना पड़ता है या कोई और रास्ता अपनाना पड़ता है।

इन नदियों में साल के दूसरे मौसम में अमूमन बहुत पानी नहीं होता, मगर बारिश के मौसम में एकाएक काफी पानी आ जाता है, जिस वजह से पहले से ही गाद से भरा इनका बेड पानी की अत्यधिक मात्रा को सम्भाल नहीं पाता और बाढ़ का पानी पूरे इलाके में फैल जाता है।

हालांकि बाढ़ की समस्या पहले इतनी भयावह नहीं थी जितनी हाल के वर्षों में हुई है। उसकी वजह इन नदियों के किनारे बने तटबन्ध हैं। बाढ़ नियंत्रण के नाम पर इन तमाम नदियों को तटबन्धों से घेर दिया गया है। यह सोचे बगैर कि तटबन्धों से इन नदियों के किनारे बसे लोगों को लाभ कम नुकसान ज्यादा हुआ है।

तटबन्धों से सबसे बड़ा नुकसान यह है कि ये नदियाँ अब जो गाद और पानी ला रही हैं, उन्हें फैलने का मौका नहीं मिलता। तटबन्धों के बीच गाद भरता रहता है और नदियों को बहने के लिये जगह कम पड़ने लगती है। ऐसे में अक्सर वह तटबन्धों पर हमलावर होती हैं।

बाढ़ की स्थिति को गहराई से समझने वाले लोग जानते हैं कि जब भी कोई बाढ़ तटबन्धों को तोड़ कर गाँवों पर हमलावर होती है तो उसकी मारक क्षमता अधिक होती है, क्योंकि पानी वेग के साथ बहता है और अपने सामने पड़ने वाले हर चीज को ध्वस्त कर देता है।

वहीं जब पानी की अधिकता के कारण बाढ़ आती है और बिना तटबन्ध वाले इलाके में गाँव पहुँचती है तो उसमें वेग बहुत कम होती है। पानी धीरे-धीरे गाँवों में घुसता है, लोगों को सम्भलने और बचाव का इन्तजाम कर लेने का भरपूर मौका देता है।

उत्तर बिहार की नदियों पर लम्बे समय से शोध कर रहे दिनेश मिश्र जी बताते हैं कि तटबन्धों की वजह से जितनी ज़मीन को बाढ़ से बचाने का लक्ष्य रखा गया था, उससे कई गुना अधिक ज़मीन आज स्थायी जलजमाव का शिकार हो गई है। इस जमीन में खेती नहीं हो सकती है, लोगों के लिये यह जमीन किसी काम की नहीं। मगर इस स्थिति पर विचार करने की नीति-नियन्ताओं को फुरसत नहीं है। ऐसा नहीं है कि बाढ़ सिर्फ नुकसान ही करता है, इससे लाभ भी होता है।दूसरी बात, बिना तटबन्धों वाले इलाके में जब बाढ़ आती है तो उसका फैलाव व्यापक होता है। पानी ज्यादा-से-ज्यादा डेढ़-दो फुट की ऊँचाई में गावों में घुसता है और हफ्ते भर में घट जाता है।

साल में हफ्ते भर का कष्ट लोग आसानी से झेल लेते हैं। मगर जब तटबन्ध तोड़कर किसी खास इलाके में पानी घुसता है तो वह अमूमन गहरे इलाके में जाता है और लम्बे समय तक टिकता है, कई दफा महीनों। ऐसे मामले में पानी कई बार पाँच-पाँच फुट की ऊँचाई में गाँवों में पहुँचता है। क्योंकि पूरी नदी के पानी को एक जगह से निकलने का मौका मिलता है।

तटबन्धों की वजह से एक जो तीसरा नुकसान है वह स्थायी किस्म का है। इन नदियों की तमाम सहायक नदियों और बारिश का पानी अब तटबन्ध के बाहर के इलाके से अन्दर नहीं जा पाता। लिहाजा तटबन्धों के किनारे-किनारे एक बड़ा इलाका स्थायी जलजमाव का शिकार हो जाता है।

उत्तर बिहार की नदियों पर लम्बे समय से शोध कर रहे दिनेश मिश्र जी बताते हैं कि तटबन्धों की वजह से जितनी ज़मीन को बाढ़ से बचाने का लक्ष्य रखा गया था, उससे कई गुना अधिक ज़मीन आज स्थायी जलजमाव का शिकार हो गई है। इस जमीन में खेती नहीं हो सकती है, लोगों के लिये यह जमीन किसी काम की नहीं। मगर इस स्थिति पर विचार करने की नीति-नियन्ताओं को फुरसत नहीं है।

ऐसा नहीं है कि बाढ़ सिर्फ नुकसान ही करता है, इससे लाभ भी होता है। बाढ़ का पानी अपने साथ गाद के रूप में उपजाऊ मिट्टी को भी पूरे इलाके में फैलाता है। खेतों में अगर यह मिट्टी पहुँच जाती है तो उस ज़मीन पर बिना खाद के लोग बम्पर पैदावार हासिल करते हैं। इसका नमूना तटबन्धों के बीच बसे खेतों में नजर आता है, जहाँ खेती करने के लिये लोग लड़ने-भिड़ने को उतारू रहते हैं।

इस तरह देखा जाये तो उत्तर बिहार की बड़ी आबादी नदियों से कम बाढ़ नियंत्रण के नाम पर बने तटबन्धों की वजह से अधिक परेशान है। नदियों के साथ सहजीवन एक कला है। साल में एक हफ्ते के लिये आने वाले बाढ़ की भय से लोगों ने जो खुद को नदियों से दूर कर लिया है वह लाभदायक होने के बदले नुकसानदेह ही साबित हो रहा है। बाढ़ आना बंद नहीं हुआ है, वह तो हर दूसरे-तीसरे साल तटबन्धों को तोड़ कर आ ही जाता है।

जल-जमाव की वजह से बड़ी आबादी आजीविका से विहीन हो गई है, पूरे इलाके में कालाजार समेत कई बीमारियों का प्रकोप बढ़ा है। खेतों की उर्वरकता घटी है और लोगों का विकास अवरुद्ध हुआ है।

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