खाद्य और खेती

प्राकृतिक खेती के विषय पर लिखी गई इस पुस्तक में प्राकृतिक आहार पर भी विचार करना आवश्यक है। यह इसलिए कि खाद्य और खेती एक ही शरीर के आगे और पीछे के दो हिस्से हैं। यह दिन जैसी साफ बात है कि, यदि प्राकृतिक खेती को नहीं अपनाया जाता तो जनता को प्राकृतिक खाने नहीं प्राप्त हो सकते लेकिन यदि यह तय नहीं किया जाता कि, प्राकृतिक खाने क्या हैं तो किसान उलझन में ही पड़े रहेंगे कि वे खेती किस चीज की करें।

जब तक लोग प्राकृतिक जन नहीं बन जाते, तब तक न तो कोई प्राकृतिक कृषि होगी न प्राकृतिक खाने की चीजें पैदा होंगी। वहां पहाड़ी की एक कुटिया में अंगीठी पर लगी एक चीड़ की तख्ती पर मैंने ये शब्द लिख छोड़े हैं - ‘सही खाना, सही काम और सही ज्ञान’। इन तीनों को एक-दूसरे से अलग नहीं किया जा सकता। इनमें से एक के भी न होने से अन्य की अनुभूति नहीं हो सकती। यदि एक की भी अनुभूति हो जाती है तो सबकी हो जाती है।

लोग बड़ी तसल्ली के साथ सोच लेते हैं कि, दुनिया एक ऐसी जगह है जहां, ‘प्रगति’ अव्यवस्था और अशांति के बिना नहीं हो सकती। लेकिन उद्देश्यहीन तथा विनाशक विकास से अंततः मानव जाति का पतन और ध्वंस ही होता है। यदि इस बात को स्पष्ट रूप से नहीं समझा गया कि, इस सारी गतिविधि क्रिया-कलापों का स्रोत क्या है, प्रकृति क्या है - तब तक हम अपने खोए हुए स्वास्थ्य को फिर से प्राप्त नहीं कर पाएंगे।

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