खाद्य एवं पोषण सुरक्षा में वैज्ञानिक क्रान्तियाँ


इस वर्ष विश्व खाद्य दिवस हेतु चुना गया विषय ‘चेंज द फ्यूचर ऑफ माइग्रेशन-इन्वेस्ट इन फूड सिक्योरिटी एंड रूरल डेवलपमेंट’ है। देश की तेजी से बढ़ती जनसंख्या के लिये खाद्यान्न की आत्मनिर्भरता सुनिश्चित करन नितान्त आवश्यक है। जिससे कोई भी भारतीय भूखे पेट न सो सके। देश में समय-समय पर खाद्य, पोषण और आजीविका सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिये अनेक वैज्ञानिक क्रान्तियों जैसे हरित क्रान्ति, पीली क्रान्ति, नीली क्रान्ति, श्वेत क्रान्ति, ब्राउन क्रान्ति व सिल्वर क्रान्ति की शुरुआत की गई।

भारत की खाद्य, पोषण और आजीविका सुरक्षा के लिये कृषि आज भी महत्त्वपूर्ण बनी हुई है। पिछले दो दशकों से किसानों को फसलों की उपज में आए ठहराव, मृदा स्वास्थ्य में गिरावट, कृषि मदों की बढ़ती कीमतें और जलवायु परिवर्तन जैसी समस्याओं का सामना करना पड़ रहा है। इसके अलावा किसान घटती उत्पादकता, आधुनिक कृषि प्रौद्योगिकी की कमी, फसल विविधिकरण की कमी और खेती से कम मुनाफा आदि का सामना कर रहे हैं। साथ ही अनुकूल बाजार परिस्थितियों की कमी, प्रभावी न्यूनतम समर्थन मूल्य का अभाव, उचित खरीद व्यवस्था का अभाव एवं उत्पादन के लिये सरल ऋण प्रक्रिया का अभाव, उचित भण्डारण व्यवस्था की कमी एवं कटाई उपरान्त उपर्युक्त प्रसंस्करण तकनीकी व उन्नत मशीनों का अभाव आदि कारक भी फसलों के उत्पादन पर प्रतिकूल प्रभाव डालते हैं। सामाजिक आर्थिक कारण भी फसल उत्पादन को प्रभावित करते हैं। कृषि भारतीय अर्थव्यवस्था की आधारशिला है, यह न केवल देश की दो तिहाई आबादी की रोजी रोटी का साधन है, बल्कि हमारी संस्कृति, सभ्यता और जीवन शैली का आईना भी है।

देश के कुल निर्यात में 16 प्रतिशत हिस्सा कृषि से प्राप्त होता है। दूध और दुग्ध पदार्थ, फल एवं सब्जियों, चाय, जूट, आम, केला, गन्ना एवं नारियल आदि की दृष्टि से विश्व में हमारा पहला स्थान है। वर्ष 2020 तक देश की जनसंख्या के लिये 36 करोड़ टन अनाज की आवश्यकता होगी जो कि एक चुनौतीपूर्ण कार्य है। दलहन व तिलहन का उत्पादन बढ़ाने के लिये नये किसानों और क्षेत्रों की पहचान करनी होगी। कृषि उत्पादन मुख्यतः दलहन के उत्पादन को वर्ष 2020 तक 24 मिलियन टन तक पहुँचना होगा। जिससे खाद्य सुरक्षा के साथ-साथ लगातार बढ़ रही जनसंख्या का भरण-पोषण हो सके। संयुक्त राष्ट्र संघ के खाद्य एवं कृषि संगठन की स्थापना का स्मरण करने के लिये प्रत्येक वर्ष 16 अक्टूबर को विश्व खाद्य दिवस मनाया जाता है। इस दिवस को मनाने की मूलभूत अवधारणा सम्पूर्ण विश्व में भूखे और कुपोषित लोगों की दुर्दशा के बारे में जन जागरुकता पैदा करना और भुखमरी व कुपोषण की समस्या से निपटने के लिये सम्बन्धित व्यक्तियों/एजेन्सियों को ठोस कार्य करने के लिये प्रोत्साहित करना है।

हरित क्रान्ति


देश में 1960-1970 का समय एक चमत्कारी दशक के रूप में आया। इस दशक में कृषि क्षेत्र की तरक्की के लिये व्यापक स्तर पर अनेक कार्यक्रम बनाये गये। वर्ष 1960-65 के दौरान देश में खाद्यान्न उत्पादन निम्न स्तर पर चल रहा था। इस समय जो विदेशी गेहूँ भारत में मँगाया गया, वह बहुत ही निम्न गुणवत्ता वाला था। इसी समय देश के तत्कालीन प्रधानमंत्री श्री लाल बहादुर शास्त्री जी ने ‘जय जवान जय किसान’ का नारा दिया। जिससे इस कठिन समय में खाद्यान्न उत्पादन को बढ़ावा मिला। उसी समय मैक्सिको से गेहूँ की अधिक उपज देने वाली बौनी प्रजातियाँ देश में अनुसन्धान हेतु आ चुकी थीं। गेहूँ की इन बौनी किस्मों का भारतीय कृषि अनुसन्धान संस्थान, नई दिल्ली के अनुसन्धान फार्म पर परीक्षण व आकलन भी किया गया। इसी के साथ भारत में खाद्य सुरक्षा व खाद्यान्न आत्मनिर्भरता के आसार नजर आने लगे थे। वर्ष 1962-63 के दौरान विश्वविख्यात कृषि वैज्ञानिक व नोबेल पुरस्कार विजेता नारमन ई. बारलॉग ने मैक्सिकन गेहूँ की बौनी किस्मों पर भारतीय वैज्ञानिकों के साथ मिलकर विभिन्न अनुसन्धान केन्द्रों पर परीक्षण किये। भारतीय वैज्ञानिकों के अथक प्रयास से गेहूँ की अधिक उपज देने वाली कल्याण सोना एवं सोनालिका नामक किस्में विकसित की जो देश के कई प्रान्तों में काफी प्रचलित रहीं। इस प्रकार देशी गेहूँ की अपेक्षा उसी लागत पर दोगुनी उपज प्राप्त हुई। अतः यह निर्णय लिया गया कि अतिशीघ्र किसानों को इन बौनी किस्मों का बीज उपलब्ध कराया जाए। इसके बहुत अच्छे परिणाम प्राप्त हुए।

इस दौरान विश्व प्रसिद्ध कृषि वैज्ञानिक व राष्ट्रीय किसान आयोग के पूर्व अध्यक्ष डॉ. एम.एस. स्वामिनाथन हरित क्रान्ति अभियान के मार्गदर्शक बने। पन्तनगर कृषि विश्वविद्यालय तथा पंजाब कृषि विश्वविद्यालय ने भी बौने गेहूँ पर अनुसन्धान कार्य किये तथा अनेक प्रजातियाँ विकसित कीं। नवीनतम तकनीक व अधिक उपज देने वाली प्रजातियों के आने से गेहूँ का उत्पादन बढ़कर वर्ष 1967-68 में 27.5 मिलियन टन हो गया। इसी के साथ देश में खाद्यान्न उत्पादन के सम्बन्ध में आत्मनिर्भरता का संकेत नजर आया। इसी दशक में चावल की भी अधिक उपज देने वाली किस्में विकसित की गईं। जिसके कारण खाद्यान्न उत्पादन में बढ़ोत्तरी हुई। खाद्यान्न के क्षेत्र में आई इस लहर को भारत सरकार ने देश में हरित क्रान्ति के आगमन की घोषणा की। डॉ. एम.एस. स्वामिनाथन भारत में हरित क्रान्ति के जनक बने। हरित क्रान्ति के महानायक नारमन ई. बारलॉग का 95 वर्ष की अवस्था में 11 सितम्बर, 2009 को निधन हो गया। उन्हें वर्ष 1970 में विश्व शान्ति के नोबेल पुरस्कार से सम्मानित किया गया था।

पीली क्रान्ति


आज पूरा विश्व खाद्य तेलों के गम्भीरतम संकट की चपेट में है। एक तरफ जहाँ खेती में फसल उत्पादों की गुणवत्ता में कमी, मौसम की विषमताएँ तथा उत्पादकता में कमी जैसी समस्याएँ सामने आ रही हैं तो दूसरी तरफ खाद्य तेलों की समस्या, भुखमरी व कुपोषण देशों और महाद्वीपों के दायरे को तोड़कर विश्वव्यापी समस्याएँ बन चुकी हैं। देश की जनसंख्या दिनों-दिन बढ़ती जा रही है। अतः इस विशाल जनसंख्या के लिये अतिरिक्त खाद्य तेल कहाँ से जुटाया जाए। आज हमारे सामने यह एक गम्भीर समस्या है। सीमित भूमि में मृदा उर्वरता और फसल प्रबन्धन जैसे महत्त्वपूर्ण संसाधनों का किस प्रकार बेहतर उपयोग करें। जिससे प्रति इकाई क्षेत्र तिलहन उत्पादन बढ़ाया जा सके, यही हमारा मुख्य लक्ष्य है।

हमारे देश में नौ प्रमुख तिलहनी फसलों की खेती की जाती है। इनमें मूँगफली, सोयाबीन, सूरजमुखी, अरंडी, तिल, सरसों, अलसी, रामतिल व कुसम प्रमुख हैं। इन नौ तिलहनी फसलों में सोयाबीन, मूँगफली, सूरजमुखी, सरसों और तिल से खाद्य तेल प्राप्त होता है। जबकि अरंडी व अलसी से प्राप्त अखाद्य तेल का प्रयोग उद्योगों और औषधियाँ बनाने में किया जाता है। लगभग 70 प्रतिशत तिलहनी फसलें खरीफ मौसम में उगाई जाती हैं। इनमें मूँगफली, सोयाबीन, सूरजमुखी, अरंडी और तिल प्रमुख हैं। गत दो वर्षों से सोयाबीन तिलहनी फसलों में नम्बर एक पर बनी हुई है। पैदावार एवं मूल्य की दृष्टि से खाद्यान्नों एवं दलहनों के बाद तिलहनी फसलों का भारत की कृषि अर्थव्यवस्था तथा उद्योग जगत में बड़ा महत्त्व है। भारत खाद्य तेलों का उत्पादन करता है परन्तु अपनी घरेलू माँग को पूरा करने के लिये अक्षम है। भारत दुनिया में खाद्य तेलों का सबसे बड़ा आयातक है। यहाँ हर वर्ष लगभग 16.6 मिलियन टन खाद्य तेल की खपत होती है। भारत अपनी खपत का लगभग आधा खाद्य तेल विदेशों से मँगाता है। इंडोनेशिया, मलेशिया, ब्राजील और अर्जेंटीना पाम ऑयल और सोया तेल का निर्यात करने वाले प्रमुख देश हैं। घरेलू बाजार में खाद्य तेलों की खपत सालाना 5 प्रतिशत की दर से बढ़ रही है। अतः हर वर्ष हमें 6-7 मिलियन टन खाद्य तेलों का आयात करना पड़ रहा है जिस पर हर वर्ष करोड़ों रुपये खर्च हो रहे हैं।

1980 के दशक में जब देश का खाद्य तेल आयात चिन्ताजनक स्तर पर पहुँच गया। तब तत्कालीन प्रधानमंत्री ने स्वयं हस्तक्षेप करके तिलहन पर तकनीकी मिशन शुरू कराया। इसके अन्तर्गत सिंचित क्षेत्रों में तिलहनों की खेती की प्राथमिकता दी गई। कई उन्नत/संकर तिलहन प्रजातियों का विकास किया गया। जिसके परिणामस्वरूप तिलहन उत्पादन में बढ़ोत्तरी दर्ज की गई। वर्ष 1986-87 में तिलहन उत्पादन 11 मिलियन टन था जो 1994-1995 में 22 मिलियन टन तक पहुँच गया, जो आज बढ़कर 28 मिलियन टन तक पहुँच गया। इस प्रकार खाद्य तेलों के मामले में भारत ने कुछ हद तक आत्मनिर्भरता हासिल कर ली। उप-उत्पाद खली आदि के निर्यात से विदेशी मुद्रा की कमाई भी होने लगी। इसे पीली क्रान्ति के नाम से जाना गया। देश में तिलहनों की खेती छोटे और सीमान्त किसानों द्वारा की जाती है। तिलहनों की बुवाई, कटाई, पेराई वर्ष भर चलती रहती है। जिसमें गाँव के अकुशल श्रमिकों को रोजगार मिलता रहता है। इस प्रकार लोगों को पौष्टिक खाद्य तेल भी मिलता रहता है। साथ ही उदारीकरण की नीतियों और आसियान देशों के साथ मुक्त व्यापार समझौतों के कारण भारत को सस्ते में पामोलिव तेल मिलने लगा तो उसने तिलहन उत्पादकों को नजरअन्दाज करना शुरू कर दिया। इसके साथ ही खाद्य तेल आयात में बढ़ोत्तरी होने लगी और देखते ही देखते भारत दुनिया का सबसे बड़ा खाद्य तेल आयातक देश बन गया। इस बदलाव में बहुराष्ट्रीय कम्पनियों की भी बड़ी भूमिका रही। उन्होंने अफ़वाह फैला दी कि सरसों के तेल में आर्जीमोन नामक खरपतवार के बीजों का तेल मिलाया जाता है, जो कि खाने योग्य नहीं है। अतः सरसों के तेल को शंका की दृष्टि से देखा जाने लगा।। इससे पामोलिव व सोयाबीन तेल के आयात को भी बढ़ावा मिला। आज कुल खाद्य तेल आयात में इनकी हिस्सेदारी 50 प्रतिशत हो गई।

नीली क्रान्ति


हमारी देश की समुद्री तटरेखा की लम्बाई 8118 किलोमीटर है। जबकि जलाशयों का क्षेत्रफल 29.3 लाख हेक्टेयर है। देश में मौजूद विभिन्न मात्स्यिकी संसाधनों जैसे तालाबों, टैंकों, आर्द्रभूमियों, खारा जल, शीत जल, झीलों, नदियों, नहरों और समुद्र में मछली पालन किया जाता है। सरकार ने मात्स्यिकी क्षेत्र को आगे ले जाने के लिये नीली क्रान्ति प्रारम्भ की है। इससे मछुआरों, महिला मछुआरों व जल कृषि किसानों की आजीविका में सुधार होगा। इसके अलावा कुपोषण से निपटने के लिये अधिक ऊर्जा वाली प्रोटीन प्रदान करने, ओमेगा-3 युक्त तेल, पैकेजिंग, प्रसंस्करण इत्यादि उद्योगों के माध्यम से रोजगार का सृजन होता है। मौजूदा परिदृश्य में भारत दुनिया का दूसरा बड़ा मछली उत्पादक देश है। इस क्रान्ति में सरकार ने खाद्य एवं पोषण सुरक्षा, रोजगार और बेहतर आजीविका उपलब्ध कराने का उद्देश्य सुनिश्चित किया है ताकि मछली उत्पादन की रफ्तार तेज व लगातार हो। देश के कई भागों में मछली बड़े पैमाने पर भोजन के रूप में प्रयोग की जाती है। चूँकि पानी के लिये नीला रंग पर्याय है इसलिये देश में मछली पालन की मुहिम को दुग्ध व्यवसाय के लिये प्रयुक्त होने वाली श्वेत क्रान्ति की तर्ज पर नीली क्रान्ति का नाम दिया गया। भारत में मछलियों की 2200 प्रजातियाँ हैं, जोकि विश्व स्तर पर उपलब्ध प्रजातियों की 11 प्रतिशत हैं।

इन प्रजातियों में 24.7 प्रतिशत गर्म मीठे पानी में, 3.3 प्रतिशत ठंडे पानी में, 6.5 प्रतिशत नदी मुहाने पर व शेष 65.5 प्रतिशत समुद्र में पायी जाती हैं। वर्तमान स्थिति की बात करें तो मछली पालन की देश के सकल घरेलू उत्पाद में करीब एक प्रतिशत की हिस्सेदारी है। वर्ष 2015-16 में मछलियों का कुल उत्पादन 1.08 करोड़ टन था। जल प्रदूषण और कई कारणों से मछली के उत्पादन को लेकर सवाल उठते रहे हैं। फिर भी इससे मछली उत्पादन की सम्भावनाओं पर ज्यादा असर नहीं पड़ा। इसके दो कारण हैं, एक प्रोटीन का बेहतर स्रोत होने की वजह से मछली की खपत बढ़ रही है। दूसरा गत कई वर्षों में मछली के निर्यात में भी काफी तेजी आयी है। कृषि एवं किसान कल्याण मंत्रालय के आँकड़ों के अनुसार देश के ग्रामीण क्षेत्रों में औसतन प्रति व्यक्ति मछली की खपत 269 ग्राम है। जबकि शहरी क्षेत्रों में यह आँकड़ा 238 ग्राम है। वर्ष 2009-10 में कुल मछली निर्यात 10 हजार करोड़ रुपये के करीब था। जो आज बढ़कर 20 हजार करोड़ रुपये के पार जा पहुँचा है। सरकार नीली क्रान्ति के तहत मछली का उत्पादन व उत्पादकता बढ़ाना चाहती है। वर्ष 2020 तक 8 प्रतिशत की दर से बढ़ोत्तरी के साथ कुल उत्पादन 1.5 करोड़ टन तक पहुँचाने का लक्ष्य है।

वर्तमान परिदृश्य को देखते हुए केन्द्र और राज्य सरकारें मछली उत्पादन बढ़ाने के लिये जरूरी बुनियादी सुविधाएँ विकसित करने पर जोर दे रही हैं। जिससे मछलियों के भंडारण और विपणन में आसानी हो और मत्स्य पालन एक फायदे का सौदा साबित हो सके। मत्स्य पालन में सबसे बड़ी चुनौती जल में बढ़ता प्रदूषण है। जिससे मछलियों के प्रजनन पर असर पड़ रहा है। यही नहीं जो मछलियाँ पकड़ी जा रही हैं उनमें से कई दूषित हो जाती हैं। अतः जल प्रदूषण को कम करने के उपाय किये जाने चाहिए। मत्स्य उत्पादन का देश के सामाजिक व आर्थिक विकास में बेहद महत्त्वपूर्ण स्थान है। चिकनी मिट्टी वाली भूमि के तालाब में मत्स्य पालन सर्वथा उपयुक्त होता है। क्योंकि इस मिट्टी में जलधारण क्षमता अधिक होती है।

श्वेत क्रान्ति


भारत आज विश्व का सबसे बड़ा दुग्ध उत्पादक देश है। इसका सबसे बड़ा श्रेय श्वेत क्रान्ति को जाता है। जिससे देश में दूध की किल्लत कम हो गई है। वर्ष 2015-16 में देश का दुग्ध उत्पादन 146.31 मिलियन टन तक पहुँच गया है। आज देश में प्रति व्यक्ति दूध की उपलब्धता 337 ग्राम प्रतिदिन हो गई है। जो विश्व स्वास्थ्य संगठन द्वारा निर्धारित न्यूनतम मात्रा से भी ज्यादा है। भारत में वर्ष 1923 में इम्पीरियल इंस्टीट्यूट ऑफ एनीमल हस्बैंड्री एवं डेयरिंग की स्थापना बंगलुरु में हुई थी। डेयरी विकास के विस्तार के साथ-साथ वर्ष 1936 में इसका नाम इम्पीरियल डेयरी इंस्टीट्यूट रख दिया गया। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद इसे राष्ट्रीय डेयरी अनुसन्धान संस्थान (एनडीआरआई) के नाम से जाना जाने लगा। इसके बाद वर्ष 1955 में राष्ट्रीय डेयरी अनुसन्धान संस्थान का मुख्यालय बंगलुरु से करनाल (हरियाणा) में स्थानान्तरित कर दिया गया। वर्ष 1970 से एनडीआरआई, भारतीय कृषि अनुसन्धान परिषद के अधीन कार्य कर रहा है। इसके बाद हर पंचवर्षीय योजना में दुग्ध उत्पादन प्रौद्योगिकी के विकास और प्रसार को महत्त्व दिया गया।

वर्ष 1970 में पहली ऑपरेशन फ्लड परियोजना आरम्भ हुई। जिससे हुए लाभ से कई राज्यों में डेयरी विकास परियोजना आरम्भ की गई। तत्पश्चात वर्ष 1978 में दूसरी ऑपरेशन फ्लड परियोजना और तृतीय चरण में वर्ष 1986 तक ऑपरेशन फ्लड परियोजना से बड़े स्तर पर डेयरी विकास एवं प्रसार हुआ। वर्ष 1970 में राष्ट्रीय डेयरी विकास बोर्ड (एनडीडीबी) की स्थापना हुई। जो देश में डेयरी विकास के क्षेत्र में विश्व का बहुत बड़ा कार्यक्रम था। एनडीडीबी की सफलता ने दूध की कमी से जूझ रहे राष्ट्र को विश्व का सर्वाधिक दुग्ध उत्पादक देश बना दिया। इस उपलब्धि के पीछे एक सहकारी डेयरी अमूल व पशुपालकों का योगदान भी सराहनीय रहा। राष्ट्रीय डेयरी विकास बोर्ड के पहले अध्यक्ष डॉ. वर्गीज कुरियन को भारत में ‘मिल्क मैन ऑफ इंडिया’ के नाम से जाना जाता है। इसी के साथ देश में श्वेत क्रान्ति का आगाज हुआ। इस महान वैज्ञानिक के जन्म दिन 26 नवम्बर को प्रत्येक वर्ष राष्ट्रीय दुग्ध दिवस के रूप में मनाया जाता है। हमारे देश में दूध प्रसंस्करण के तकनीकी ज्ञान और दक्षता की कमी है।

भारत दुनिया में दूध का सबसे बड़ा उत्पादक है। लेकिन हम मात्र दो प्रतिशत प्रसंस्करण कर पाते हैं। भविष्य में दूध की समस्या के समाधान हेतु हमें दूध प्रसंस्करण पर भी जोर देना होगा। फार्म पर धान्य फसलों के साथ पशुपालन को भी अपनाया जाये। जिससे पशुपालन व डेयरी उद्योग किसानों की आमदनी का स्रोत बन सके।

भारतीय पशुधन ऊर्जा, खाद्य एवं पौष्टिक सुरक्षा में योगदान कर राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था को स्थिरता प्रदान करता है। आज के युग में स्वास्थ्य के प्रति जागरूक लोगों के लिये दूध अधिक गुणकारी है। इसके अलावा दूध एक सन्तुलित आहार भी है। जो कुपोषण जैसी विश्वव्यापी समस्या को दूर करने में भी सहायक है। दूध में आयरन के अलावा सभी पोषक तत्व जैसे कैल्शियम व फॉस्फोरस पर्याप्त मात्रा में पाये जाते हैं जो बढ़ते बच्चों के लिये एक अच्छा पूरक आहार है। दूध में प्राकृतिक रूप से पाया जाने वाला एंटीऑक्सीडेंट टोकोफोरोल भी अधिक मात्रा में होता है। यदि पशुपालन में नवीनतम तकनीकें अपनायी जायें तो हम खाद्य एवं पौष्टिक सुरक्षा में भी सफल हो सकते हैं।

सिल्वर क्रान्ति


सिल्वर क्रान्ति से तात्पर्य अंडा उत्पादन से है। यानि अंडा उत्पादन के क्षेत्र में हुई प्रगति को सिल्वर क्रान्ति के रूप में जाना जाता है। कुक्कुट पालन में भारत विश्व में सातवें स्थान पर है। जबकि अंडा उत्पादन में भारत का चीन और अमेरिका के बाद विश्व में तीसरा स्थान है। चिकन, मांस व अंडों की उपलब्धता के लिये व्यावसायिक स्तर पर मुर्गी और बत्तख पालन को कुक्कुट पालन कहा जाता है। भारत में गत कई वर्षों से खेती बाड़ी के साथ कुक्कुट पालन व बत्तख पालन आमदनी बढ़ाने का एक अहम हिस्सा बनता जा रहा है। भारत में विश्व की उच्च गुणवत्ता वाली कुक्कुट नस्लें हैं। अधिकांश कुक्कुट आबादी छोटे, सीमान्त और मध्यम वर्ग के किसानों के पास है। भूमिहीन पशुपालकों और किसानों के लिये मुर्गीपालन रोजी-रोटी का मुख्य आधार है।

भारत के ग्रामीण क्षेत्रों में कुक्कुट पालन से अनेक फायदे हैं जैसे किसानों की आय में बढ़ोत्तरी, देश के निर्यात व जीडीपी में अधिक प्रगति तथा देश में पोषण व खाद्य सुरक्षा की सुनिश्चितता आदि। देश में प्रति व्यक्ति 180 अंडों की वार्षिक आवश्यकता के मुकाबले केवल 63 अंडे प्रति व्यक्ति उपलब्ध हैं। कुक्कुट पालन का उद्देश्य पौष्टिक मांस व अंडों का प्रबन्धन करना है। मुर्गी पालन बेरोजगारी घटाने के साथ देश की पौष्टिकता बढ़ाने का भी बेहतर विकल्प है। क्योंकि वर्तमान बाजार परिदृश्य में कुक्कुट उत्पाद उच्च जैविकीय मूल्य के प्राणि प्रोटीन के सबसे सस्ते उत्पाद हैं। लेकिन देश में अभी इनका सर्वथा अभाव प्रकट हो रहा है। क्योंकि माँग के अनुपात में इनकी उपलब्धता बहुत कम है। निरन्तर बढ़ती आबादी, खाद्यान्न आदतों में परिवर्तन, औसत आय में वृद्धि, बढ़ती स्वास्थ्य सचेतता व तीव्र शहरीकरण कुक्कुट पालन के भविष्य को स्वर्णिम बना रहे हैं।

 

ऑक्सीटोसिन का दुरुपयोग


देश के विभिन्न इलाकों मुख्यतः कस्बाई व ग्रामीण क्षेत्रों में दुधारू पशुओं में दूध की मात्रा बढ़ाने के लिये ऑक्सीटोसिन इंजेक्शन का प्रयोग किया जा रहा है। जिसका मानव व पशुओं के स्वास्थ्य पर प्रतिकूल असर पड़ रहा है। ऑक्सीटोसिन एक प्राकृतिक हार्मोन है। इसका प्रयोग प्रसव के दौरान गर्भाशय को सिकोड़ने के लिये किया जाता है। ताकि प्रसव आसानी से हो जाए। इसे प्रसव के बाद रक्त रोकने के लिये भी दिया जाता है। इसका इस्तेमाल बहुत से किसान व पशुपालक लम्बे अर्से से पशुओं में दूध की मात्रा बढ़ाने के लिये अवैध रूप से कर रहे हैं।


ऑक्सीटोसिन का निर्माण सिर्फ इसके लिये लाइसेंस प्राप्त कम्पनियाँ ही कर सकती हैं, मगर देश के विभिन्न भागों में इसे चोरी छिपे बनाया व बेचा जा रहा है। इससे निकाले गये दूध से एलर्जिक क्रिया हो सकती है। साँस लेने में दिक्कत व गला बन्द हो सकता है। आजकल पशुओं में दूध की मात्रा बढ़ाने के लिये उनमें ऑक्सीटोसिन इंजेक्शन लगाने के मामले सामने आते रहते हैं। इससे डेयरी मालिक व पशुपालक तो फल फूल रहे हैं, परन्तु उपभोक्ता की सेहत पर इसका प्रतिकूल असर पड़ रहा है। इसके अलावा ऑक्सीटोसिन गिद्धों के लिये भी जानलेवा साबित होता है। इस दवा से उपचारित जानवरों के शव को खाने से गिद्धों के स्वास्थ्य पर प्रतिकूल असर पड़ता है।


गिद्ध प्रकृति के सफाई कर्मी हैं, जो पशुओं के मृत शरीर को खाकर पर्यावरण को साफ-सुथरा रखने का काम करते हैं। पर्यावरण के सन्तुलन में इनका खासा महत्त्व है। इनके कम होने से फूड चेन की एक अहम कड़ी समाप्ति के कगार पर पहुँच गई है। अतः इसके दुरुपयोग को रोकने की सख्त जरूरत है। पशुपालकों को समय-समय पर ऑक्सीटोसिन के प्रयोग के लिये उचित परामर्श देकर भी इसके दुरुपयोग को कम किया जा सकता है।

 

लेखक परिचय


डॉ. वीरेन्द्र कुमार
जल प्रौद्योगिकी केन्द्र, भारतीय कृषि अनुसन्धान संस्थान, नई दिल्ली-110 012
(मो. : 9868332491; ई-मेल : v.kumardhama@gmail.com)

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