खाद्य सुरक्षा पर हमला

29 Jul 2011
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किसानों को अपने पिछले उत्पादन के बराबर पाने के लिए रासायनिक उर्वरकों व कीटनाशकों को अधिक से अधिक उपयोग में लाना पड़ेगा, तो किसानों की मुश्किलें बढ़ेगीं, घटेंगी नहीं। जब किसान अपनी परम्पराओं को बिसरा चुका होगा व उनके बीजों के भंडार विलुप्त हो चुके होंगे और उनके लिए वे वर्ष प्रति वर्ष पूर्णतः बाजार पर निर्भर हो चुके होंगे, तब खेती उनके लिए एक कमरतोड़ बोझ के अलावा कुछ नहीं रहेगी और वे खेती से ही किनारा करने की राह देखेंगे।

उत्तराखण्ड, औपचारिक रूप से जैविक प्रदेश है लेकिन पिछले कुछ समय से राज्य का कृषि विभाग किसानों को रासायनिक उर्वरक मुफ्त में बांट रहा है। यह सब कुछ लगभग चुपके-चुपके हो रहा है, बगैर किसी सार्वजनिक चर्चा या सूचना के ही। रासायनिक उर्वरकों का यह प्रसाद ‘‘पोषक सुरक्षा हेतु तदन्य मोटा अनाज विकास पहल’’ का हिस्सा है, जो इस खरीफ मौसम से उत्तराखण्ड के छह जिलों- अल्मोड़ा, पौड़ी, टिहरी, उत्तरकाशी, रुद्रप्रयाग व चमोली में शुरु किया गया है। यूं तो इस पहल का तथाकथित उद्देश्य मंडुवा (कोदा) व झंगोरा का उत्पादन व उपभोक्ता मांग बढ़ाना है, पर उसकी परिकल्पना व स्वरूप को देखते हुए यह चिंता होती है कि इससे मिट्टी व पानी प्रदूषित होगी, लोगों के अपने संजोए पारम्परिक बीजों की विविधता व उत्पादकता का तथा उनकी इन फसलों पर अपनी आत्म निर्भरता व खाद्य सुरक्षा का ह्रास होगा और तो और, जिस खेती को किसान अब तक पूरी तरह नैसर्गिक तौर पर, लगभग बगैर किसी खर्च के करते आए हैं, और जो एकमात्र खेती उनके नियंत्रण में रह गई है, उस पर वे लागत खर्च करने को मजबूर होंगे। जाहिर तौर पर, यह सब कुछ होने के बाद उस पर उनका नियंत्रण भी जाता रहेगा।

मंडुवा-झंगोरा जैसे पोषक अनाजों के पुनरुत्थान के प्रयासों का स्वागत तो है, पर रासायनिक उर्वरकों व कीटनाशकों और हाईब्रिड बीजों के आधार पर नहीं। ‘‘मोटा अनाज विकास पहल’’ हूबहू हरित क्रान्ति के ही स्वरूप पर ढली हुई है। हरित क्रान्ति के दुष्प्रभाव व कटु अनुभव जगजाहिर हैं पर लगता है, हमारी सरकारें व कृषि विभाग ने उसका पाठ ठीक से समझा नहीं है, या किन्हीं भी कारणों से समझना नहीं चाह रहे हैं। 16 राज्यों व एक संघीय प्रदेश में चलाई जा रही राष्ट्रीय कृषि विकास योजना की ‘‘मोटा अनाज विकास पहल’’ चार पोषक अनाजों पर केन्द्रित है- ज्वार, बाजरा, मंडुवा व लघु अनाज जैसे झंगोरा, कुटकी, आदि। पहले साल 2011-2012 में इस योजना के लिये 300 करोड़ रुपये का प्रावधान रखा गया है। मुख्यतः यह कार्यक्रम उन जिलों में चलाया जाना है, जहां ये अनाज व्यापक क्षेत्र में उगाए तो जाते हैं पर वहां उनकी उत्पादकता औसत राष्ट्रीय उत्पादन से कम है। उत्तराखण्ड में यह पहल पौड़ी व अल्मोड़ा जिलों में मंडुवा (स्थानीय भाषा में कोदा) और अल्मोड़ा, चमोली, रुद्रप्रयाग, पौड़ी, टिहरी व उत्तरकाशी में झंगोरा पर की जा रही है। मंडुवा का औसत राष्ट्रीय उत्पादन 1226 किलो प्रति हेक्टेयर (आधार वर्ष 2006-2007) है, जो कि अल्मोड़ा (1200 किलो@हेक्टेयर) व पौड़ी (1068 किलो@हेक्टेयर) के औसत उत्पादन से कुछ ही अधिक है।

उधर झंगोरा के औसत राष्ट्रीय उत्पादन 475 किलो@हेक्टेयर की तुलना में अल्मोड़ा की उत्पादकता 996 किलो@हेक्टेयर, चमोली 1372 किलो@हेक्टेयर, रुद्रप्रयाग 1146 किलो@हेक्टेयर, पौड़ी 1072 किलो@हेक्टेयर, टिहरी 1250 किलो@हेक्टेयर व उत्तरकाशी की 1245 किलो@हेक्टेयर है। ऐसे में, जब उत्तराखण्ड में सभी जगह झंगोरा की उत्पादकता औसत राष्ट्रीय उत्पादन से लगभग दो से तीन गुणा है, तो इस ‘‘मोटा अनाज विकास पहल’’ कार्यक्रम चलाने की क्यों जरूरत पड़ी? आदि काल से अब तक लोग बगैर किसी सरकारी मदद, हस्तक्षेप व लब्बो-लुबाव के इन अनाजों में अच्छी उत्पादकता लेते आए हैं, जो यह भी दर्शाता है कि झंगोरा उगा रहे समुदायों की कृषि विविधता उत्कृष्ट है व लोग उसमें पूर्णतः आत्मनिर्भर हैं और जिसे जितना कम छेड़ा जाए, बेहतर होगा। देखा जाए तो उत्तराखण्ड में मंडुवा की उत्पादकता भी विशेष कम नहीं है और वह औसत राष्ट्रीय उत्पादन से अंश भर ही कम इसलिए है कि पिछले पांच-एक दशकों में शहरी प्रभावों के चलते मंडुवा खाना हीन माना जाने लगा था, जिस वजह से वह क्रमशः कम उगाया जाने लगा लेकिन इधर कुछ सालों से मंडुवा की पौष्टिकता को लेकर लोगों में पुनः जागरुकता आई है, जिसे देखते हुए उसे बस जरा-सा प्रोत्साहन व सहारा देने की जरूरत है।

ऐसे में ‘‘तदन्य मोटा अनाज विकास’’ पहल को लेकर संशय होना जायज है कि वास्तव में यह पहल राज्य में पोषण सुरक्षा के कथित उद्देश्य से नहीं, बल्कि निर्यात की दृष्टि से की जा रही है, खासकर जब से जापान व अन्य देशों में मंडुवा के प्रति रुचि बढ़ी है। उसके लिए रासायनिक उर्वरकों, कीटनाशकों व संकर बीजों का एक ऐसी खेती में जबरन पदार्पण कराना आवश्यक लग रहा है, जो आजन्म इससे अछूती रही है। इस मकसद के पीछे हो न हो रासायनिक उर्वरक व बीज कंपनियों का ही हाथ हो, जो हरित क्रान्ति की ही तर्ज पर इस कृषि क्षेत्र में खुला बाजार व असीम मुनाफा देख रहे हैं। पर निर्यात का लालच इन अनाजों में स्थानीय लोगों की आत्मनिर्भरता व खाद्य सुरक्षा के लिए बड़ा खतरा साबित होगा। ‘‘तदन्य मोटा अनाज विकास’’ पहल के तहत किसानों को तकनीकी प्रदर्शन के तौर पर रासायनिक उर्वरकों जैसे डी.ए.पी., यूरिया, जिंक के मिनीकिट मुफ्त दिए जा रहे हैं। 2011-2012 के लिए पूरे उत्तराखण्ड में मंडुवा के 3 लाख रुपये (प्रति हेक्टेयर 3000 रुपये) व झंगोरा के 13.60 लाख रुपये (प्रति हेक्टेयर 2000 रुपये) मूल्य के मिनीकिट दिए जाने हैं।

हरित क्रान्ति, केवल सिंचित खेती की लिए ही नियोजित थी और अपने सर्वोत्तम दिनों में भी उसने वहीं अपनी सर्वाधिक सफलता भी पाई। पर मंडुवा-झंगोरा तो सदा से ही असिंचित खेतों में ही उगाए जाते रहे हैं और यही उनकी खासियत भी है कि वे कम से कम पानी में भी उग जाते हैं। इतना ही नहीं, वे सबसे हाशिए में पड़ी, कमजोर जमीन पर, जिसमें शायद ही कभी रासायनिक उर्वरक व कीटनाशक डाला गया होगा, उसमें भी बगैर या अति कम बाहरी निवेश के भी अच्छी पैदावर दे जाते हैं। अब इस ‘‘तदन्य मोटा अनाज विकास’’ पहल के अंतर्गत उन असिंचित खेतों में रासायनिक उर्वरकों व कीटनाशकों को डालने का हश्र यह होगा कि जमीन और मिट्टी अकथित रूप से दुष्प्रभावित होगी, और उनके भीतर सूक्ष्म-पोषण तत्वों का प्राकृतिक संतुलन बिगड़ेगा। कुल मिलाकर, जमीन की उर्वरता का तीव्र गति से ह्रास होगा। पंजाब से लेकर तमिलनाडु तक, हरित क्रान्ति की जमीनों पर बिल्कुल यही तो हुआ है। जमीन जैविक तत्वों से विहीन हुई है। उत्तराखण्ड के उपजाऊ मंडुवा-झंगोरा के खेतों का भी वही हाल होने वाला है।

‘‘तदन्य मोटा अनाज विकास’’ पहल में ही किसानों को इन अनाजों की तथाकथित अधिक उपज व संकर किस्मों के बीज भी दिए जाएंगे। उत्तराखण्ड में 34 लाख रुपये मूल्य के 3370 क्विंटल ऐसे ही बीज तैयार करने की योजना है। संकर के लिए 3000 रुपये प्रति क्विंटल व अधिक उपज किस्म के लिए 1000 रुपये प्रति क्विंटल प्रोत्साहन देने का भी प्रावधान है, जिसमें 75 प्रतिशत किसानों को व 25 प्रतिशत बीज उत्पादक एजेंसियों को दिया जाएगा। इसका सीधा-सीधा मतलब है किसान किसी तरह इन बीजों को लेना तो शुरु करे। उत्तराखण्ड में किसान आदिकाल से ही मंडुवा-झंगोरा उगाते आए हैं और पीढ़ी दर पीढ़ी उनकी उत्पादकता बनाई रखी है। कालांतर में उन्होंने स्थानीय स्तर पर उनकी बेहतर प्रजातियां भी विकसित की हैं। बीज बचाओ आंदोलन ने स्थानीय बीज किस्मों को बचाने के अपने प्रयासों में राज्य के विभिन्न भागों से एकत्रित कर मंडुवा की 12 किस्में और झंगोरा की 8 प्रजातियां संरक्षित की हैं, जिन्हें किसान आज भी अपने खेतों में उगाते आ रहे हैं। ये सभी किस्में बेहद उत्कृष्ट हैं।

‘‘तदन्य मोटा अनाज विकास’’ पहल के तहत हालांकि टिहरी जिले में झंगोरा के अभी कोई बीज नहीं दिए जा रहे हैं क्योंकि विभाग के पास अभी बीज हैं ही नहीं, पर राज्य का प्रमुख संस्थान, पंत कृषि व तकनीकी विश्वविद्यालय ने नैनीताल जिले में अपने मझेरा फील्ड स्टेशन में झंगोरा की एक प्रजाति विकसित की है, जिसे वह पिछले पांच-छह सालों से प्रदर्शन के तौर पर लोगों में बांटता रहा है पर लोगों में उस प्रजाति को लेकर विशेष उत्साह नहीं है। एक तो इसलिए कि लोगों की स्थानीय किस्मों की तुलना में उसमें स्वाद कम है और दूसरा सबसे महत्त्वपूर्ण कारण है कि उसमें चारा कम है, जो कि लोगों के लिए फसल का एक मुख्य उत्पाद है। ऐसे में ‘‘तदन्य मोटा अनाज विकास’’ पहल में संकर व अन्य किस्मों के बीजों का बांटा जाना अति चिंताजनक है क्योंकि यह हूबहू वही रणनीति है, जो व्यापारिक हरित क्रान्ति कृषि में अपनाई जाती रही है और जिसका मुख्य उद्देश्य आज भी लोगों की बीज संपदा व संप्रभुता को खत्म करना व कृषि-रासायन कंपनियों व बाजारु हितों को असीमित व अनंत मुनाफा देना है। यह चिरपरिचित है कि इन तथाकथित अधिक उपज किस्म व संकर बीजों में दीर्घकालीन सक्षमता नहीं है, वे निर्बीज होते हैं, उनकी फसल उत्पादकता प्रति वर्ष घटती है, उनसे चारा कम मिलता है और वे न सिर्फ मंहगे होते हैं बल्कि किसानों को खरीदने और निरंतर खरीदते रहने के कुचक्र में फंसाते हैं।

मंडुवा की फसलमंडुवा की फसलसरकारी योजनाओं के कारण मन में कई सवाल उपजते हैं, क्या ये संकर व अधिक उपज किस्म के बीज, मंडुवा-झंगोरा की वर्तमान वर्षा आधारित खेती को सिंचित खेती पद्धति में बदल देंगे? क्या ये नए बीज, धान के ऐसे बीजों की तरह ही जलखोर होंगे? तो यह अधिक जल दोहन यानी शोषण को बढ़ावा देकर हमारे लिए अभी ही समस्याग्रस्त जल परिदृश्य को और संकटमय करेगा, जो वैसे ही, जलवायु परिवर्तन व अन्य विकासात्मक गतिविधियों से विकट हो रहा है और हमारी सरकार ऐसा पूरे होशो-हवास में होने देगी! जाहिर है, संकट इस बात का भी है कि हम हरित क्रान्ति व अन्य सभी बाजार प्रेरित सरकारी कार्यक्रमों के अनुभवों को कैसे दरकिनार कर दें, जिनमें किसानों को शुरु में सभी कुछ मुफ्त में बांटा जाता है। ‘‘तदन्य मोटा अनाज विकास’’ पहल भी सरकार का एक समयबद्ध कार्यक्रम है और जब तक वह पूरा होगा, किसानों को मुफ्त में बांटने के लिए कुछ नहीं रहेगा। तब किसानों को सभी कुछ क्रमशः मंहगी दरों पर खरीद कर लगाना पड़ेगा। वह उनकी मजबूरी होगी क्योंकि तब तक वे अपने बीजों की तोमड़िया व विरासत खो चुके होंगे और उनके खेतों को रासायनों की लत लग चुकी होगी। हरित क्रान्ति की तर्ज पर ही ‘‘तदन्य मोटा अनाज विकास’’ पहल हमारी बची-खुची जैवविविधता व मिश्रित खेती प्रणालियों को खत्म करेगा।

जब उत्तराखण्ड के खेत रासायनों के आदि हो चुके होंगे और किसानों को अपने पिछले उत्पादन के बराबर पाने के लिए रासायनिक उर्वरकों व कीटनाशकों को अधिक से अधिक उपयोग में लाना पड़ेगा, तो किसानों की मुश्किलें बढ़ेगीं, घटेंगी नहीं। जब किसान अपनी परम्पराओं को बिसरा चुका होगा व उनके बीजों के भंडार विलुप्त हो चुके होंगे और उनके लिए वे वर्ष प्रति वर्ष पूर्णतः बाजार पर निर्भर हो चुके होंगे, तब खेती उनके लिए एक कमरतोड़ बोझ के अलावा कुछ नहीं रहेगी और वे खेती से ही किनारा करने की राह देखेंगे। कृषि रासायन कंपनियां शायद उसी समय के इंतजार में हैं, जब खेत-दर-खेत बंजर पड़े होंगे, जिन्हें वे सस्ते भाव से हथिया सकेंगे- अपनी मनमर्जी मुनाफा की खेती करने, खनिज खोदने, सड़क अथवा नगर निर्माण करने या बांध बनाने के लिए। इन सब बातों पर विश्वास करने का मन भले न हो, लेकिन कंपनी- प्रेरित, बाजार नियंत्रित खेती और विकास का हाल का इतिहास तो हमें यही बताता है। क्या हम उस इतिहास को नजरअंदाज कर सकते हैं?

पोषक अनाजों का संकरण और एकल खेतीकरण के मायने होंगे, अपने कुल खाद्य व आहार में कमी लाना। तब हो सकता है निर्यात के लिए कंपनियों को ज्यादा मंडुवा-झंगोरा मिले जाए, पर यह स्थानीय लोगों के खाने व पोषण के लिए नहीं होगा। बीज बचाओ आंदोलन के विजय जड़धारी कहते हैं, ‘‘यह विकास पहल लोगों की खाद्य सुरक्षा को सशक्त व सुदृढ़ तो क्या बनाएगा, उल्टा उसे खतरे में डाल देगा।’’ अभी तक, मंडुवा-झंगोरा और अन्य पारम्परिक पोषक अनाजों की खेती ही एकमात्र ऐसी खेती बची है, जो किसान पूरी तरह स्वतंत्र रूप से, बगैर किसी बाहरी हस्तक्षेप के करते आए हैं और जिस पर पूरा उनका अपना नियंत्रण है। ‘‘तदन्य मोटा अनाज विकास’’ पहल से उनका यह नियंत्रण जाता रहेगा। जाहिर है, यह किसानों की संप्रभुता से भी जुड़ा हुआ मामला है लेकिन सरकार के लिये निजी कंपनियों का मुनाफा, शायद सबसे बड़ा मुद्दा है। कम से कम किसान तो उसके बेहतरी के एजेंडे में नहीं हैं।
 

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