खेत से खाने की मेज तक
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खेत से खाने की मेज तक

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अरुण डिके, अमर उजाला, 24 फरवरी 2020

भारत जैसे देश की, जो सीधे खेती-किसानी से जुड़ा हुआ है, पहली प्राथमिकता किसान की समृद्धि ही होनी चाहिए। कम-से-कम लागत और अपने आस-पास बिखरी प्रकृति की सम्पदा से की गई खेती ही जैविक खेती कहलाती है। अपने खेत के एक छोटे भाग में सबसे पहले अपने घर के लिए रोटी, कपड़ा और मकान के लिए उपयुक्त फसलें पैदा करना हर किसान की पहली आवश्यकता होनी चाहिए। अनाज, दालें, तिलहनी फसलें, मसाले, ग्वारपाठा जैसे कुछ औषधीय र सौन्दर्य प्रसाधन देने वाले पौधे लगाकर किसान खेती कर सकता है, जिससे इन घरेलू उपयोग की वस्तुओं के लिए बाजार पर उसकी निर्भरता शून्य हो सकती है। फिर बाकी बचे खेतों में उपभोक्ताओं की मांग के अनुसार फसलें उगाकर सीधे आम ग्राहक तक पहुंचना ही ‘जैविक सेतु’ का उद्देश्य है। इसके जरिए किसान और उपभोक्ता आपस में एक-दूसरे से जुड़ेंगे।

‘जैविक सेतु’ का मतलब खेत से सीधे आपके खाने की मेज पर आने वाला खाद्यान्न ही है। जैविक खेती पर शिद्दत से कार्य कर रहे मालवा, निमाड़ के कुछ किसानों ने महाराष्ट्र के ‘सूर्य खेती’ करने वाले श्रीपाद अच्युत दाभोलकर की तर्ज पर इंदौर में वर्ष 2014 में ‘प्रयोग परिवार’ की स्थापना कर भिचोली मर्दाना गांव में किसानों और ग्राहकों को सीधे जोड़ने वाला ‘जैविक सेतु’ प्रारम्भ किया था। विगत पांच वर्षों से यह प्रयास फल-फूल रहा है। एक तरफ, किसानों की आमदनी बढ़ी है, तो दूसरी तरफ, उपभोक्ताओं के स्वास्थ्य में सुधार से दवाइयों पर उनकी निर्भरता कम हुई है। अब धार, खरगोन और भोपाल में भी ‘जैविक सेतु’ की तर्ज पर काम शुरू हो गया है। अमरिका में भी ‘सीबीए’ यानी ‘कम्युनिटी बेस्ड एग्रीकल्चर’ की शुरूआत हुई है, जिसमें मांग के अनुसार शहरी समुदाय किसानों को अग्रिम राशि देकर जैविक खाद्यान्न पैदा करवा रहा है।

जिन जैविक अर्थशास्त्रियों ने खेती-किसानों को प्राथमिकता देकर शोध किया है, उनका निष्कर्ष है कि दिन-रात मेहनत कर किसान जो फसलें उगाता है, उसका मात्र 19 प्रतिशत ही उसे मिल पाता है, शेष 81 प्रतिशत बिचौलिए, बाजार,परिवहन और विज्ञापन आदि हजम कर जाते हैं। ऐसे में किसान यदि खेती को राम-राम करें या आत्मघात कर लें, तो आश्चर्य नहीं होना चाहिए। दूसरी तरफ, यदि शुद्ध जैविक खाद्यान्न किसान से सीधे उपभोक्ता को प्राप्त हो और नतीजे में वह मोटापे, मधुमेह और यहाँ तक कि कैंसर जैसी घातक बीमारियों से बचे, तो आश्चर्य नहीं होना चाहिए।

यदि हम अपना नजरिया बदल लें, तो भारत के ग्रामीण इलाकों में आज भी यह सम्भव है। आंकड़े बताते हैं कि वर्ष 1945 में हमारी आबादी 35 करोड़ थी और इंसानों में औषधियों की खपत मात्र 12 करोड़ रुपए की थी। वर्ष 2009 में आबादी बढ़कर 105 करोड़ हो गई, तो दवाइयों की खपत में एक हजार गुना की बढोत्तरी हुई और वह खर्च बढ़कर 13 हजार करोड़ रुपए हो गया। लगता है कि आज दवाओं का खर्च 20 हजार करोड़ रुपयों को पार कर गया होगा। क्या यह स्वस्थ समाज का लक्षण है? आधुनिकता की फूहड़ विदेशी नकल करते हुए हमने खेतों के उत्पादों को बढ़ावा देने के बजाय उद्योगों से उत्पादों को प्रोत्साहित करना प्रारम्भ किया। नतीजतन गांवों में खेती हतोत्साहित होती गई और किसान खेती छोड़ शहरों में मजदूरी करने के ले मजबूर हो गए।

जिन महान विभूतियों ने इस देश की नींव पक्की की थी, वे सभी ग्रामीण भारत के पक्षधर थे। महात्मा गांधी और विनोबा भावे भी उन्हीं में से थे। सौभाग्य से हाल में गांधी जी की 150 वीं जयंती मनाई गई और यह विनोबा जी की 125 वीं जयंती वर्ष है। खेती पर विनोबा के विचार न केवल ग्रामवासी, अपितु शहरी लोगों के लिए भी पठनीय हैं। वह कहते हैं, खेत से मिली थोड़ी ‘लक्ष्मी’ भी विपुल है, क्योंकि भले ही यह थोड़ी हो, लेकिन नई पैदावार की है। अपनी बुद्धि बेचने का व्यवसाय कर बटोरा हुआ धन कमाई नहीं है।

गांवों और शहरों की लक्ष्मी का जो विश्लेषण विनोबा जी ने किया है, वह रेखांकित करता है कि मशीनों के बजाय मानव एवं पशुओं के श्रम से मिली लक्ष्मी को हमें इसलिए भी स्वीकार करना चाहिए, क्योंकि वह ऊर्जा का संरक्षण भी करती है और चिरायु भी है। खेती में हर चीज का आसानी से विघटन होकर प्रदूषण शून्य रह जाता है, जबकि उद्योगों से प्राप्त किसी भी वस्तु का विघटन नहीं होता। ऊर्जा संरक्षण तो दूर, शोषण ज्यादा होता है और अविघटित वस्तुएं वातावरण में प्रदूषण फैलती हैं, चाहे वह उद्योगों से निकला धुंआ हो या प्लास्टिक। विनोबा की तरह गांधीजी की स्वदेशी की बात आज भी प्रासंगिक है। स्वदेशी का मतलब केवल देश में पैदा माल नहीं, अपितु अपने आस-पास के 50 मील के दायरे में उपलब्ध प्राकृतिक संसाधनों का दोहन कर किया हुआ निर्माण है।

गांधीजी ही नहीं, भारत की खेती-किसानी पर 26 साल शोध करने वाले अंग्रेज कृषि वैज्ञानिक सर अलबर्ट हॉवर्ड ने भी कहा था कि भारत का मौसम फूड प्रोसेसिंग याना डिब्बा-बंद खाद्यान्नों के अनुकूल नहीं है। यहां खेतों, बागानों से निकला हुआ ताजा अन्न ही खाना और खिलाना चाहिए। यही समय है, जब हमें खेती-बाड़ी और उससे उपजी चिरायु जीवन-शैली दुनिया को सिखाना प्रारम्भ करना चाहिए।

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