खेती बचेगी तो हम बचेंगे

28 Oct 2016
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अपनी परम्परागत फसलों की तो खूब समझ किसानों को थी किन्तु इन नई किस्मों को जो नए तरह के रोग लग रहे थे, उसके उपचार के लिये वे क्या करें उन्हें पता नहीं था। कभी कोई महंगी रासायनिक दवा का नाम उन्हें बता दिया जाता था तो कभी किसी दूसरी का। इस चक्कर में तो वे ऐसे फँसे कि अन्धाधुन्ध पैसा खर्च डाला पर फिर भी बीमारियों व कीड़ों के प्रकोप को सन्तोषजनक ढंग से कम नहीं कर पाये। जहाँ एक ओर जमीनी स्तर पर किसान इन अनुभवों से गुजर रहे थे, वहीं दूसरी ओर बड़ी-बड़ी बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के स्तर पर ऐसे प्रयास चल रहे थे कि किसानों पर अपना नियंत्रण और बढ़ा लिया जाये। हाल के वर्षों में किसानों के संकट का एक बड़ा कारण यह है कि उनकी आत्मनिर्भरता और स्वावलम्बिता में भारी गिरावट आई है। वे कृषि की नई तकनीकों को अपनाने के साथ रासायनिक कीटनाशक, खरपतवारनाशक, रासायनिक खाद, बाहरी बीजों व उपकरणों पर बहुत अधिक निर्भर हो गए हैं। उन्होंने यह निर्भरता स्वीकार तो इस उम्मीद से की थी कि यह उन्हें आर्थिक समृद्धि की ओर ले जाएगी।

आरम्भिक कुछ वर्षों की सफलता के बावजूद कुछ ही वर्षों में भूमि के उपजाऊपन पर इन रसायनों का प्रतिकूल असर नजर आने लगा व महंगी तकनीक का बोझ परेशान करने लगा। विशेषकर छोटे किसान तो कर्ज की मार से परेशान रहने लगे। फसलों की नई किस्मों को लगने वाली नई तरह की बीमारियों व कीड़ों ने विशेष रूप से परेशान किया।

अपनी परम्परागत फसलों की तो खूब समझ किसानों को थी किन्तु इन नई किस्मों को जो नए तरह के रोग लग रहे थे, उसके उपचार के लिये वे क्या करें उन्हें पता नहीं था। कभी कोई महंगी रासायनिक दवा का नाम उन्हें बता दिया जाता था तो कभी किसी दूसरी का। इस चक्कर में तो वे ऐसे फँसे कि अन्धाधुन्ध पैसा खर्च डाला पर फिर भी बीमारियों व कीड़ों के प्रकोप को सन्तोषजनक ढंग से कम नहीं कर पाये।

जहाँ एक ओर जमीनी स्तर पर किसान इन अनुभवों से गुजर रहे थे, वहीं दूसरी ओर बड़ी-बड़ी बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के स्तर पर ऐसे प्रयास चल रहे थे कि किसानों पर अपना नियंत्रण और बढ़ा लिया जाये। इस नियंत्रण को बढ़ाने का प्रमुख साधन बीज को बनाया गया क्योंकि बीज पर नियंत्रण होने से पूरी खेती-किसानी पर नियंत्रण सम्भव है।

अतः बड़ी कम्पनियों ने बीज क्षेत्र में अपने पैर फैलाने आरम्भ किये। पहले बीज के क्षेत्र में छोटी कम्पनियाँ ही अधिक नजर आती थीं परन्तु अब विश्व स्तर की बड़ी बहुराष्ट्रीय कम्पनियों ने छोटी-छोटी कम्पनियों को खरीदना आरम्भ किया। जो बड़ी कम्पनियाँ इस क्षेत्र में आई, वे पहले से कृषि रसायनों व विशेषकर कीटनाशकों, खरपतवारनाशकों आदि के उत्पादन में लगी हुई थीं।

इस तरह बीज उद्योग व कृषि रसायन उद्योग एक ही तरह की कम्पनी के हाथ में केन्द्रीकृत होने लगा। इससे यह खतरा उत्पन्न हुआ कि ये कम्पनियाँ ऐसे बीज तैयार करेंगी जो उनके रसायनों के अनुकूल हों अथवा बीज को वे अपने रसायन की बिक्री का माध्यम बनाएँगी। इस तरह बीज उद्योग का अपना जितना मूल्य था, उससे कहीं अधिक बिक्री रसायनों आदि के माध्यम से हो सकती थी। इसी कारण अनेक बड़ी रासायनिक कम्पनियाँ इस उद्योग की ओर आकर्षित हुईं।

इसी समय के आसपास जेनेटिक इंजीनियरिंग में कुछ महत्त्वपूर्ण अनुसन्धान हो रहे थे व वैज्ञानिक विशिष्ट गुणों वाले जीन को एक जीव से दूसरे जीव में प्रवेश दिला कर जीवन के विभिन्न रूपों को एवं उनके गुणों को बदलने की क्षमता प्राप्त कर रहे थे। कुछ ही वर्षों में यह कृषि विज्ञान का सबसे चर्चित व तेजी से बढ़ने वाला क्षेत्र बन गया।

अनेक बड़ी कम्पनियों को लगा कि अपने विभिन्न उद्देश्यों की प्राप्ति के लिये, जैसे कि ऐसे बीज बनाना जो उनके रसायनों की बिक्री के अनुकूल हो, उन्हें जेनेटिक इंजीनियरिंग से अधिक मदद मिल सकती है। अतः इन कम्पनियों ने जेनेटिक इंजीनियरिंग में बड़े पैमाने पर निवेश करना आरम्भ किया। इस तरह जिन कम्पनियों के हाथ में बीज उद्योग और रसायन थे, उन्हीं के पास कृषि कार्य से सम्बन्धित जेनेटिक इंजीनियरिंग भी पहुँचने लगी। इस तकनीक ने जो नई सम्भावनाएँ उपस्थित कीं, उनसे इन कम्पनियों की खेती-किसानी को प्रभावित करने वाली क्षमता बहुत बढ़ गई।

इसके साथ ही कृषि अनुसन्धान भी सार्वजनिक क्षेत्र से निकलकर निजी क्षेत्र में अधिक पहुँचने लगा। हालांकि सार्वजनिक क्षेत्र के कृषि अनुसन्धान संस्थान भी पहले की तरह चलते रहे, पर उनसे अधिक आर्थिक संसाधनों वाले अनुसन्धान कार्यक्रम बड़ी कम्पनियों ने विकसित कर लिये। अपनी आर्थिक शक्ति के बल पर बड़ी कम्पनियों ने सार्वजनिक क्षेत्र के कृषि संस्थानों में दखलन्दाजी करनी आरम्भ की व उनके अनेक वैज्ञानिकों को अपनी ओर आकर्षित भी कर लिया।

जिन अन्तरराष्ट्रीय संस्थानों में बड़े-बड़े जीन बैंक बने हुए थे व जहाँ विभिन्न फसलों की तरह-तरह की किस्मों के बीज एकत्र किये गए थे, वहाँ भी बड़ी निजी कम्पनियों का दखल बढ़ गया। यहाँ से वे अपने अनुसन्धान व उत्पाद विकसित करने के लिये विविध प्रकार की पौध सम्पदा प्राप्त करने लगे। इसके अतिरिक्त उन्होंने विभिन्न उपायों से अपने विस्तृत जीन बैंक भी विकसित कर लिये।

इसके बाद उनका अगला कदम यह था कि पौधे की किस्म के लिये पेटेंट के अधिकार की माँग की जाये ताकि अपने विशिष्ट बीजों के आधार पर ये बड़ी कम्पनियाँ भारी मुनाफा कमा सकें। गौरतलब है जीवन के किसी रूप का भी क्या पेटेंट हो सकता है? यह बात आज से मात्र दो दशक पहले तक बहुत अजीब और विकृत लगती थी। परन्तु इसके लिये जबरदस्त दबाव डाला गया तथा कुछ ही वर्षों में वह पेटेंट होने लगा।

वर्ष 1985 में सबसे पहले संयुक्त राज्य अमेरिका ने पौधे का पेटेंट दिया और इसी देश में सन 1988 में पशु का पहला पेटेंट भी में दे दिया गया। यूरोप के अनेक देशों में भी इसके अनुकूल माहौल बनाया जाने लगा।

किन्तु विकासशील देशों में माहौल इसके अनुकूल न था। यहाँ के बहुत से लोग समझ रहे थे कि यह सौदा खेती-किसानी के लिये बहुत महंगा सिद्ध होगा। अब अमीर देशों व वहाँ की कम्पनियों के लिये एक बड़ा सवाल यह था कि सौ से भी अधिक विकासशील देशों में इस बौद्धिक सम्पदा अधिकार की बात को स्वीकृति कैसे दिलवाएँ। वहीं उनके अपने ही देश के कई किसान और जनसंगठन इसका विरोध कर रहे थे। इसका उन्हें एक ही आसान व असरदार उपाय नजर आया कि इस मुद्दे को अन्तरराष्ट्रीय व्यापार के किसी ऐसे मंच में ले जाओ जहाँ एक ही झटके में विश्व के सब देशों से इसे स्वीकार करवा लिया जाये।

अतः गेट वार्ता के उरुग्वे दौर में इस मुद्दे को जोर जबरदस्ती से सम्मिलित करवाया गया, जबकि इससे पहले की गेट वार्ताओं में यह मुद्दा था ही नहीं। साथ ही कृषि को गेट वार्ता के इस दौर में पहले से कहीं अधिक महत्त्वपूर्ण स्थान दिया गया, ताकि कृषि आधारित अन्तरराष्ट्रीय समझौते हो सकें।

अन्त में वही हुआ जो अमीर देश और उनकी कम्पनियाँ चाहती थीं। गेट वार्ता के उरुग्वे दौर में व्यापार से जुड़े बौद्धिक सम्पदा अधिकार (ट्रिप्स नाम से प्रचलित) को बहुत महत्त्व दिया गया व इसे कृषि व पौध सम्पदा पर भी लागू कर दिया गया। सभी देशों से अपने प्रचलित पेटेंट कानूनों में संशोधन कर उसे गेट समझौते के अनुकूल बनाने के लिये कहा गया।

भारत में पहले के पेटेंट कानून में जीवन के किसी रूप को इस परिधि में नहीं लाया गया था। परन्तु अब भारतीय सरकार ने भी अब अपना पेटेंट कानून गलत दिशा में बदल दिया है। गेट के उरुग्वे दौर के बाद अन्तरराष्ट्रीय व्यापार नियमन के लिये विश्व व्यापार संगठन की स्थापना हुई व इसके दबाव में ही अधिकांश विकासशील देशों ने अपने पेटेंट कानूनों को बदला।

इस तरह कदम-दर-कदम ऐसे प्रयासों की शृंखला है जिससे विकासशील देशों की खेती-किसानी पर अमीर देशों व वहाँ की बड़ी कम्पनियों का नियंत्रण बढ़ाया जा सके तथा इस आधार पर उनके मुनाफे, बिक्री, रॉयल्टी आदि को बढ़ाया जा सके। अब इस शृंखला को आगे बढ़ाते हुए जिस तरह अरबों डालर के समझौते हो रहे हैं जिससे चन्द बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के हाथों में बीज व कृषि रसायनों का नियंत्रण बहुत बढ़ जाएगा। तो इस स्थिति में किसानों व खेती-किसानी की रक्षा के प्रयासों को बढ़ाना और भी जरूरी हो गया है।

भारत डोगरा प्रबुद्ध एवं अध्ययनशील लेखक हैं।

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