खेतों में लौटी खुशहाली

जिन्होंने अपनी भूमि गिरवी रखी थी, उनमें से कम से कम 386 परिवार दो साल से कम समय में ही ऋण चुकाने में सफल हुए। यह भारतीय कृषि के भविष्य का रोडमैप है। इससे न केवल पर्यावरण अनुकूल कृषि को बढ़ावा मिलेगा, बल्कि गरीबी और भूख को भी दूर किया जा सकेगा।

यहां हम ऐसे सुझावों की बात करेंगे, जिनको अपनाकर पर्यावरण को क्षति पहुंचाए बिना किसानों के चेहरे पर मुस्कान लौट सकती है और भूख के स्तर को शून्य तक पहुँचाया जा सकता है। बात शुरू करते हैं छह साल पहले के खम्मम जिले के एक अनाम से गांव की। यहां से जिस काम का सूत्रपात किया गया था, वह अब आंध्र प्रदेश के 21 जिलों की बीस लाख एकड़ भूमि तक फैल चुका है। मुझे अच्छी तरह याद है कि जब मैं आंध्र के पुन्नूकुला गांव में बिना रासायनिक कीटनाशक का इस्तेमाल किए खेती की बात करता था, तो कई लोग सोचते थे कि मैं काल्पनिक और अव्यावहारिक बात कर रहा हूं। लेकिन पुन्नूकुला गांव का प्रयोग अपनी छाप छोड़ता गया। अगले चार साल में ही आंध्र के 23 जिलों में से 21 जिलों के तीन लाख अठारह हजार किसानों ने काफी शीघ्रता से खेती में केमिकल का इस्तेमाल करना छोड़ दिया और आर्थिक रूप से व्यावहारिक और पारिस्थितिकी खेती की ओर उन्मुख हो गए। एक विलक्षण मूक क्रान्ति हुई। इतना ही नहीं, रासायनिक उर्वरकों का प्रयोग भी धीरे-धीरे कम होने लगा था।

यह सब बिना किसी सरकारी या निजी एजेन्सी के प्रोत्साहन के सम्भव हो गया। यह एक रिकॉर्ड है। मेरा विश्वास है कि यदि सरकार इस दिशा में गम्भीर हो, तो अगले दस सालों में पूरे देश में 200 लाख एकड़ में पर्यावरण को नुकसान पहुंचाए बिना खेती में फार्मर-फ्रेंडली व्यवस्था लागू की जा सकती है। आज से दस साल बाद यदि हम वर्ष 2020 को देखने की कोशिश करें, तो भारतीय कृषि का स्वरूप ही बदला नजर आएगा, जहां किसानों की आत्महत्या करने की घटनाएँ इतिहास में दर्ज मिलेंगी। दुख और निराशा उत्पन्न करने वाली खेती का काम गौरवपूर्ण हो जाएगा। किसान अब कम्पोस्ट खाद, वर्मी खाद का इस्तेमाल कर रहे हैं। इससे न केवल परम्परागत खेती को बढ़ावा मिला, बल्कि किसानों के जीवनयापन में भी स्थायित्व आया। खेती की जो भूमि बंजर हो गई थी, उसकी उत्पादन क्षमता भी बढ़ी। महत्वपूर्ण बात यह रही कि कीटनाशकों के प्रयोग से किसानों की स्वास्थ्य समस्याएं भी दूर हुई और स्वास्थ्य पर किया जाने वाला खर्च भी 40 फीसदी तक घट गया। इसके अलावा खेती की लागत भी 33 फीसदी तक कम हो गई।

एक बात गौर कीजिए कि जिन क्षेत्रों में गैर-कीटनाशक प्रबंधन व्यवस्था किसानों ने अपनाई थी उन इलाकों में किसान आत्महत्या की एक भी घटना प्रकाश में नहीं आई। किसानों का ऋण भी कम हुआ और उनके हाथ में पैसा भी आया। मैंने तीन दशकों में देश में ऐसा कोई इलाका नहीं देखा, जहां के किसान साहूकार से अपनी गिरवी रखी भूमि छुड़ा पाने में सफल हुए हों, वह भी मात्र तीन साल में गैर-कीटनाशक प्रबंधन अपनाकर लेकिन यह सब हुआ खम्मम जिले के गांव रामचन्द्रपुरम में। इतना ही नहीं, यहां के सभी 75 किसानों ने ब्याज की अग्रिम राशि भी चुकता कर दी। पांच जिलों में किए गए अध्ययन से यह भी पता चला कि 467 ऐसे परिवार, जिन्होंने अपनी भूमि गिरवी रखी थी, उनमें से कम से कम 386 परिवार दो साल से कम समय में ही ऋण चुकाने में सफल हुए। यह भारतीय कृषि के भविष्य का रोडमैप है। इससे न केवल पर्यावरण अनुकूल कृषि को बढ़ावा मिलेगा, बल्कि गरीबी और भूख को भी दूर किया जा सकेगा।
 

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