खतरनाक रूप लेती एंटीबायोटिक के प्रति दीवानगी

10 Jun 2011
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अस्सी वर्ष पहले कई बीमारियों के इलाज के लिए कोई कारगर दवा नहीं थी। लेकिन एंटीबायोटिक की खोज जीवाणुओं के संक्रमण से निपटने में जादू की छड़ी की तरह काम करने लगी। वक्त गुजरने के साथ एंटीबायोटिक का प्रचलन तेजी से बढ़ा है। हाल ही में भारत के संबंध में डब्ल्यूएचओ ने एक अध्ययन कराया है, जिसमें यह बात सामने आयी है कि यहां के आधे से अधिक लोग दवाओं के नकारात्मक पक्ष को दरकिनार करते हैं और बिना डॉक्टरी परामर्श के एंटीबायोटिक का सेवन करते हैं।

इन दवाओं के लगातार सेवन से जीवाणु अब इतने ताकतवर हो गये हैं कि उन पर कई एंटीबायोटिक दवाओं की मारक क्षमता कम होने लगी है। इसकी भयावहता को देखते हुए भारत में भी एंटीबायोटिक के बिना सोचे-समङो इस्तेमाल को रोकने की कवायद तेज हो गयी है।

जब 1928 में अलेक्जेंडर फ्लेमिंग ने पहली एंटीबायोटिक पेनिसिलिन का अविष्कार किया था, तो दुनिया में खुशी फ़ैली कि चलो कुछ मिला, जिससे बैक्टीरिया के संक्रमण से लड़ा जा सकता है। लेकिन वक्त गुजरने के साथ, एंटीबायोटिक दवा खा-खाकर बैक्टीरिया अब इतना ताकतवर हो गया है कि उस पर कई एंटीबायोटिक दवाओं की मारक क्षमता कम होने लगी है। सुपरबग इसका उदाहरण है। सुपरबग ऐसा बैक्टीरिया है, जिसपर एंटीबायोटिक का प्रभाव नहीं पड़ता।

आम लोगों की धारणा है कि एंटीबायोटिक दवाओं से कोई नुकसान नहीं है। इसीलिए जरा-सी सर्दी-जुकाम या मामूली दर्द होने पर भी एंटीबायोटिक ले लेते हैं। विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) के एक अध्ययन में कहा गया है कि 53 फ़ीसदी भारतीय बिना डॉक्टरी सलाह के एंटीबायोटिक लेते हैं।

अध्ययन में कहा गया है कि अगर सर्दी जुकाम जैसी मामूली बीमारी में डॉक्टर एंटीबायोटिक नहीं लिखता है, तो भारत में 48 फ़ीसदी लोग डॉक्टर बदलने की सोचने लगते हैं। यही नहीं 25 फ़ीसदी डॉक्टर बच्चों के लिए बुखार में एंटीबायोटिक लिखते। 52 फ़ीसदी डॉक्टर मानते हैं कि सेहत बेहतर महसूस होते ही एंटीबायोटिक लेना नहीं छोड़ना चाहिए।

देश में डॉक्टर, बुखार और खांसी के लिए भी एंटीबायोटिक दवाएं लिखते हैं। इस रिपोर्ट में दवाओं की रोग प्रतिरोधक क्षमता में कमी होने पर चिंता जतायी गयी है। डब्लूएचओ के मुताबिक, 63 प्रतिशत लोग बची एंटीबायोटिक्स का इस्तेमाल पारिवारिक सदस्यों के लिए नहीं करते हैं। इस प्रकार एंटीबायोटिक्स के बढ़ते चलन व धड़ल्ले से हो रहे इसके प्रयोग से कई दवाओं को लगातार चुनौती मिल रही है।

स्थिति यह है कि कई बीमारियों में एंटीबायोटिक्स का असर धीरे-धीरे कम होता जा रहा है। विश्व स्वास्थ्य दिवस पर डब्ल्यूएचओ ने रोगाणुरोधी प्रतिरोधकता (एंटीबायोटिक्स रेजिस्टेंस) को इस वर्ष विश्व स्वास्थ्य दिवस की थीम घोषित की है। आज पूरी दुनिया में हजारों एंटीबायोटिक्स हैं, जिसमें कई बेअसर होने की कगार पर हैं। हर वर्ष करीब पांच दवाओं के प्रभाव खोने के संकेत सामने आ रहे हैं।

इस विषय पर डॉक्टरों का शोध जारी है। लेकिन जिस रफ्तार से यूरोपीय और ऐशयाई देशों में एंटीबायोटिक दवाओं का असर कम होता जा रहा है, वह चिंता का विषय है। देश में अब यह शिकायत आम हो गयी है। जिसमें कहा जाता है कि टीबी के लिए बनी कई एंटीबायोटिक दवाओं का अब असर समाप्त हो गया है। पिछले ही वर्ष टीबी के 440000 नये मामले सामने आये, जिन पर एंटीबायोटिक का कोई प्रभाव नहीं देखा गया।

इसमें से लगभग एक लाख पचास हजार लागों की मौत हो गयी थी। अगर जल्दी से इस पर ध्यान नहीं किया गया, तो भारत में इसके गंभीर परिणाम देखने को मिल सकता है।

क्या है एंटीबायोटिक?


एंटीबायोटिक दो ग्रीक शब्द एंटी और बायोस से मिलकर बना है। एंटी का अर्थ विरोध या खिलाफ़ और बायोस का अर्थ जीवन होता है। इस प्रकार एंटीबायोटिक का मतलब है जीवन के खिलाफ़। एक ऐसा यौगिक, जो बैक्टीरिया (जीवाणु) को मार देता है। उसके विकास को रोकता है।

इस प्रकार एंटीबायोटिक बीमारी न फ़ैलने देने वाले यौगिकों का एक व्यापक समूह होता है, जिसका उपयोग कवक और प्रोटोजोवा सहित सूक्ष्मदर्शी द्वारा देखे जाने वाले जीवाणुओं बैक्टीरिया, फ़फूंदी, परजीवी के कारण हुए संक्रमण को रोकने के लिए होता है। एंटीबायोटिक शब्द का प्रयोग 1942 में सेलमैन वाक्समैन ने एक सूक्ष्म जीव द्वारा उत्पन्न ठोस पदार्थ के लिए किया था।

मेडिकल साइंस की प्रगति के साथ-साथ अब अधिकतर एंटीबायोटिक्स सेमीसिंथेटिक किस्म के हो गये हैं। जिन्हें प्रकृति में पाये जाने वाले मूल यौगिकों से रासायनिक रूप से संशोधित कर बनाया जाता है। हालांकि, कुछ एंटीबायोटिक दवाओं का उत्पादन अभी भी अमीनोग्लाइकोसाइड जैसे जीवित जीवों के जरिये हो रहा है।

इसके अलावा कुछ एंटीबायोटिक कृत्रिम तरीकों जैसे - सल्फ़ोनामाइड्स, क्वीनोलोंस और ऑक्साजोलाइडिनोंस से बनाये जाते हैं। इस प्रकार उत्पत्ति के आधार एंटीबायोटिक को तीन वर्गो प्राकृतिक, सेमी सिंथेटिक और सिंथेटिक में विभाजित किया जाता है। इसके अलावा बैक्टीरिया पर इनके प्रभाव या कार्य के अनुसार एंटीबायोटिक्स को दो समूहों में बांटा जाता है।

एक वे जो जीवाणुओं को मारते हैं, उन्हें ‘जीवाणुनाशक एजेंट’ कहा जाता है। जो जीवाणु के विकास को दुर्बल करते हैं, उन्हें ‘बैक्टीरियोस्टेटिक एजेंट’ कहा जाता है। पेनिसिलिन जीवाणुनाशक एंटीबायोटिक है। यह जीवाणु के कोशिका दीवार या कोशिका झिल्ली पर अपना ध्यान केंद्रित करता है। एंटीबायोटिक्स को एंटीबैक्टीरियल के नाम से भी जाना जाता है।

इनके संक्रमण से इंसानों और जानवरों को कई तरह की गंभीर बीमारियां जैसे - टीबी आदि हो जाती हैं। हालांकि, कुछ बैक्टीरिया को लाभकारी भी माना जाता है, लेकिन उनकी संख्या काफ़ी कम है। डॉक्टरों का कहना है कि हमारे इम्यून सिस्टम में बैक्टीरिया के कारण हुए संक्रमण को दूर करने के गुण पाये जाते हैं। लेकिन कभी-कभी बैक्टीरिया का आक्रमण इतना अधिक हो जाता है, कि इम्यून सिस्टम के कंट्रोल से बाहर हो जाता है।

ऐसे संक्रमण से बचने के लिए हमें बाहर से दवा के रूप में एंटीबायोटिक लेना पड़ता है। लेकिन एंटीबायोटिक वायरस के खिलाफ़ लड़ने में सक्षम नहीं होते हैं। इसीलिए कोई भी दवा लेने से पहले संक्रमण की प्रकृति के बारे में जानना जरूरी होता है। इसके लिए जिम्मदार कौन है। बैक्टीरिया या वायरस (विषाणु)।

कम असरकारक होतीं एंटीबायोटिक दवाएंआज से अस्सी वर्ष पहले कई बीमारियों से लड़ने के लिए चिकित्सा जगत में कोई कारगर दवा नहीं थी। लेकिन एंटीबायोटिक के ओवष्कार ने डॉक्टरों के हाथ में एक मैजिक बुलेट्स थमा दी। 20वीं सदी के शुरुआत से पहले सामान्य और छोटी बीमारियों से भी छुटकारा पाने में महीनों लगते थे, लेकिन एंटीबायोटिक दवा खाने के बाद उनसे एक सप्ताह से भी कम समय में छुटकारा मिलने लगा।

डॉक्टरों का तो यहां तक कहना है कि कई आधुनिक दवाइयां प्रभावशाली एंटीबायोटिक्स के बगैर काम नहीं कर सकतीं। लेकिन एंटीबायोटिक का आज धड़ल्ले से हो रहे प्रयोग को देखते हुए आशंका भी व्यक्त की जा रही है कि आने वाले दिनों में यह मैजिक बुलेट हमारा साथ छोड़ भी सकता है। इस प्रकार अगर इस मैजिक बुलेट का अस्तित्व समाप्त हो जाता है, तो चिकित्सा विज्ञान 80 साल पीछे चला जायेगा।

एंटीबायोटिक दवाओं का अधिक सेवन स्वास्थ्य के लिए हानिकारक होता है। विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार भारत में एंटीबायोटिक दवाओं के दुरुपयोग से बहुत बड़ी तादाद में लोगों की जान का खतरा पैदा हो गया है। जो लोग एंटीबायोटिक दवाओं का डोज से अधिक और अनियमित रूप से सेवन कर रहे हैं, उनमें दवा का प्रभाव धीरे-धीरे कम हो रहा है। प्रत्यके व्यक्ति में एंटीबायोटिक लेने की एक स्टेज निर्धारित होती है।

इससे अधिक एंटीबायोटिक लेने से शरीर एंटीबायोटिक की रेसिस्टेंट खो देती है। प्राय देखा जाता है कि वायरस के कारण होने वाली बीमारियों में भी लोग जानकारी के अभाव के चलते एंटीबायोटिक दवा लेने लगते हैं। लोगों को इस प्रवृत्ति से बचना चाहिए। गला खराब, वायरल इंफ़ेक्शन, खांसी और जुकाम से पीड़ित होने पर एंटीबायोटिक के सेवन से बचना चाहिए। लोग जिन पर बहुत सारी दवाइयां बेअसर हो चुकी हैं, वो अपनी बीमारियों के जीवाणु फ़ैलाते हैं।

इससे उनके संपर्क में आने वाले लोग भी उन बीमारी से ग्रस्त हो जाते हैं और उनपर भी दवाओं का असर नहीं होता। देश में ही हर वर्ष ऐसे एक लाख टीबी के मरीज बढ़ रहे हैं, जिन पर टीबी की सामान्य दवाइयों का असर नहीं हो रहा है। टीबी के इस प्रकार के बैक्टीरिया से निपटने में जो दवाएं इस्तेमाल होती हैं वो सामान्य दवाओं से 100 गुना ज्यादा महंगी हैं और वो पूरी तरह असरकारी भी नहीं हैं। इसी प्रकार थाइलैंड-कंबोडिया की सीमा पर एक मलेरिया का जीवाणु पाया जाता है, जिसने दवाओं के खिलाफ़ अब प्रतिरोधी क्षमता विकसित कर ली है।

सरकारी प्रयासएंटीबायोटिक दवाओं कीअंधाधुंध बिक्री पर रोक लगाने के लिए एंटीबायोटिक्स बिल पॉलिसी लाने के की कवायद तेज हो गयी है। केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय एंटीबायोटिक दवाओं की अंधाधुंध इस्तेमाल पर अंकुश लगाने के लिए ड्रग कंट्रोलर जनरल ऑफ़ इंडिया (डीसीजीआइ) के प्रस्ताव को हरी झंडी दे दी है। हालांकि, प्रस्ताव को ड्रग टेक्निकल एडवाइजरी बोर्ड (डीटीएबी) से मंजूरी मिलनी अभी बाकी है।

प्रस्ताव के मुताबिक स्वाइन फ्लू की तर्ज पर एंटीबायोटिक दवाओं के लिए भी केमिस्ट को डॉक्टर की पर्ची संभालकर रखनी होगी। ऐसा न करने पर 20 हजार रुपए का जुर्माना या दो साल की जेल का प्रावधान रखा गया है। विभागीय अधिकारियों के अनुसार ड्रग एंड कॉस्मेटिक एक्ट के तहत एचएक्स नाम से एक नया शेड्यूल बनाया जायेगा। इसमें वे ही दवाएं शामिल की जायेंगी, जो बाजार में अधिक बिकती है। आज बाजार में 91 किस्म के एंटीबायोटिक दवाओं की मांग काफ़ी अधिक है।

ड्रग एंड कॉस्मेटिक एक्ट के तहत एक साल तक बेची गयी एंटीबायोटिक दवाओं का रिकॉर्ड रखना अनिवार्य होगा। मरीजों को दवा के लिए दो पर्चियां रखनी होंगी। एक दवा खरीदते समय केमिस्ट को देनी होगी। दूसरी मरीज के पास रहेगी। इन पर दो तरह से निगाह रखा जायेगा। पहले में 16 और दूसरे में 75 प्रकार के दवा की जांच होगी। इसके अलावा सरकार सभी एंटीबायोटिक दवाओं को कलर कोड देने की तैयारी कर रही है। इससे दवाओं के ओवरडोज या उसके दुरुपयोग से बचा जा सकेगा। दवा की विषाक्तता के आधार पर कलर कोडिंग होगी।

तेजी से बढ़ रहे हैं ऐसे बैक्टीरिया


विश्व स्वास्थ्य संगठन की यूरोप निदेशक सुजाने जैकब का कहना है आज विश्व बहुत ही नाजुक मोड़ पर खड़ा है। क्योंकि विश्व में एंटीबायोटिक प्रतिरोध बढ़ता जा रहा है। वे खतरनाक जीवाणु जो पहले एंटीबायोटिक दवाओं से खत्म हो जाते थे, वे ही जीवाणु उस दवाई के लिए प्रतिरोधक हो गये हैं।

बैक्टीरिया, वायरस, परजीवी अब इतने ताकतवर हो गये हैं कि वे किसी भी तरह की दवाइयों को धता बता देते हैं और शरीर में बने रहते हैं। विश्व भर में इस स्थित को एंटीमाइक्रोबल रेसिसेस्टेंस (एएमआर) और सुपरबग कहा जा रहा है। हाल ही में भारत के संबंध में दुनिया की जानी-मानी साइंस पत्रिका में एक रिपोर्ट छपी है, जिसमें कहा गया है कि यहां सुपरबग का खतरा तेजी से बढ़ रहा है। रिपोर्ट के अनुसार दिल्ली के पानी में सुपरबग अर्थात न्यू डेल्ही मेटालोबीटा लेक्टामेस यानि एनडीएम-1 बैक्टीरिया के मिलने की पुष्टि हुई है।

हालांकि, लैंसेट द्वारा दिल्ली के अस्पतालों में सुपरबग होने की बात झूठी साबित हो चुकी है। दुनिया भर में एड्स वायरस से पीड़ित मरीजों में से छह फ़ीसदी मरीज एड्स के प्रतिरोधी वायरस से पीड़ित हैं, जिन पर किसी दवाई का असर नहीं होता। लंदन में मेथिसिलिन प्रतिरोधी स्टेफ़ीलोकोकस ऑरियुस का संक्रमण भी एमआरएसए (सुपरबग) के नाम से जाना जाता है।

इस पर भी कोई एंटीबायोटिक दवा काम नहीं करती. इसके अलावा टीबी रोग के बैक्टीरिया के ड्रग-रेजिस्टेंट होने के कई मामले सामने आ रहे हैं। बैक्टीरिया के ड्रग-रेजिस्टेंट होने के लक्षण ब्रिटेन और न्यूजीलैंड में भी सामने आये हैं। अभी तक ऐसी कोई दवा नहीं बनी है जो ड्रग रेसिस्टेंट बीमारियों पर काम कर सकें। दुनिया भर में कई तरह की एंटीबायोटिक दवाएं उपलब्ध हैं।

इस कारण बैक्टीरिया को अलग-अलग तरह से विकसित होने के हजारों मौके हैं। इसमें भारत, थाइलैंड जैसे देशों में दवाओं के बेचने-खरीदने की प्रणाली मदद कर रही है। फ़िर भी इस बड़े खतरे को दरकिनार कर दवा कंपनियां फ़ायदा के लिए नयी-नयी एंटीबायोटिक बनाये जा रही हैं।

एंटीबायोटिक से हानि


एंटीबायोटिक दवाओं के केवल साकारात्मक पक्ष ही नहीं हैं, बल्कि इसके नाकारात्मक पहलू भी हैं। जरूरत से ज्यादा और अनियमित दवा खाने से ड्रग रेजिस्टेंट का खतरा तो है ही। इसके अलावा इंसानों में डायरिया, कमजोरी, मुंह में संक्रमण, पाचन तंत्र में कमजोरी, योनि में संक्रमण होने की खतरा अधिक हो जाता है। इसके अलावा किडनी में स्टोन होने, खून का थक्का बनने, सुनाई न पड़ने आदि कई गंभीर शिकायतें बढ़ जाती है। इससे कई लोगों को एलर्जी भी हो जाती है। प्रिगनेंट महिला और वे लोग जिन्हें लीवर की बीमारी हो, उन्हें बिना डॉक्टरी सलाह के एंटीबायोटिक दवा नहीं लेनी चाहिए।

क्या है ड्रग-रेजिस्टेंस


किसी बैक्टीरिया पर बार-बार एंटीबायोटिक का हमला होता है, तो कुछ समय बाद वे इसके आदि हो जाते हैं। फ़िर बैक्टीरिया उस एंटीबायोटिक दवा से नहीं मरते हैं। क्योंकि वे इन दवाओं के प्रतिरोधी बन जाते है। इस स्थिति को ड्रग रेजिस्टेंस कहते है। वर्तमान में देश में 60 हजार से ज्यादा ब्रांड नाम से दवाएं बेची जा रही हैं। विश्व स्वास्थ्य संगठन ने 250 दवाओं की सूची को ही अनुमोदित किया है।

बिना डॉक्टर के सलाह और अनियमित एंटीबायोटिक के सेवन से शरीर पर इसका प्रभाव कम हो जाता है। दवा का असर न होने पर व्याक्ति जब डॉक्टर के पास इलाज कराने जाता है, तो भी उसे इन दवाओं से आराम नहीं मिलता। डॉक्टर को जब तक मरीज की बीमारी का पता चलता है, तब तक बीमारी बढ़ चुकी होती है, जिसका खामियाजा उसे महंगा इलाज कराकर भुगतना पड़ता है।

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