लखनऊ महानगर: प्रदूषण नियंत्रण एवं पर्यावरण प्रबंध

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Lucknow Metro-City: Pollution Control and Environmental Management

लखनऊ महानगर प्रदूषण के विविध आयामों के अध्ययन, मूल्यांकन एवं नियंत्रण के उपायों पर पृथक-पृथक विश्लेषण किया गया है। लखनऊ महानगर में बढ़ते हुए बहुविधि प्रदूषण की स्थिति, प्रत्येक भूगोलवेत्ता एवं शोधकर्ता को नियंत्रण के उपायों एवं समुचित पर्यावरणीय प्रबंध के उपाय खोजने के लिये विवश करती है। लखनऊ महानगर की बढ़ती हुई जनसंख्या, विस्तृत होता आकार तथा पर्यावरणीय घटकों की सीमित क्षमता होने के कारण नगरीय जीवन को निरापद बनाए रखने के लिये प्रदूषण के वैज्ञानिक प्रबंधन एवं नियंत्रण की तात्कालिक एवं दीर्घकालिक आवश्यकता है। इसके लिये हमें सर्वप्रथम पर्यावरण प्रबंध का अर्थ परिभाषा एवं उसके दर्शन को सम्यक रूप से जान लेना चाहिए।

पर्यावरण प्रबंध का अर्थ एवं दर्शन


किसी भी प्रकार के प्रबंधन का उद्देश्य दीर्घकालिक एवं सार्वकालिक मानव कल्याण होता है। पर्यावरण प्रबंधन मानव अस्तित्व एवं उसके कल्याण से जुड़ी हुई एक अत्यंत जटिल प्रकिया है। चूँकि प्रत्येक नगर की भौगोलिक स्थिति, रचना एवं उसके विकास की दर भिन्न-भिन्न होती है। इसलिये पर्यावरण प्रबंधन की समुचित रणनीति का चयन एक कठिन कार्य होता है। अत: पर्यावरण प्रबंध का अर्थ एवं दर्शन जानने के पूर्व प्रबंधन का अर्थ जान लेना चाहिए।

प्रबंध का अर्थ (Meaning of Management) - प्रबंध का अर्थ है विविध वैकल्पिक सुझावों में से जागरूकता पूर्ण चयन जिसमें मान्य एवं वांछित लक्ष्यों के प्रति सोद्देश्य वचन बद्धता हो। प्रबंध के अंतर्गत वास्तविक लघुकालिक लक्ष्यों की पूर्ति हेतु निर्मित रणनीति अथवा रणनीतियों की सुविचारित स्वीकृति को सम्मिलित किया जाता है। इसमें दीर्घकालिक चयनों के संरक्षण के लिये पर्याप्त लचीलापन होना चाहिए।

रायर्डन1 (Riordon) के अनुसार – “Management implies a conscious chaice from a variety of alternative proposals and further more that such a choice in volves purposeful commitment to recognized and desired objectives, wherever possible, management implies to the deliberate adoption of a strateg your number of strategies designed to meet realistically short term objectives yet specifically providing sufficient flexibility for the preservation of longer term aptions.”

प्रबंध की उक्त परिभाषा के अनुसार हमें किसी भी प्रकार के प्रबंधन में वांक्षित लक्ष्यों की प्राप्ति के लिये वैकल्पिक सुझावों का जागरूकता पूर्वक चयन करना होता है। पर्यावरण प्रबंधन के लिये हमें नगर अथवा क्षेत्र की आवश्यकताओं, मूल्यों और ज्ञान की वरीयताओं को ध्यान में रखते हुए उसके प्रबंध के लक्ष्य निर्धारित करने होते हैं। सामान्यतया पर्यावरण प्रबंधन के लक्ष्यों में उसकी गुणवत्ता बनाए रखना एक मौलिक लक्ष्य होता है। पर्यावरण की गुणवत्ता के सम्बन्ध में स्थानीय एवं वैयक्तिक भिन्नताएँ होती है। इसके अंतर्गत जनसंख्या वृद्धि में नियंत्रण, सादा जीवन, निर्धनता उन्मूलन तथा मानव एवं प्रकृति के मध्य कल्याण कारी सम्बन्ध स्थापित होना चाहिए। पर्यावरण प्रबंध का उद्देश्य निम्नलिखित तीन लक्ष्यों से जुड़ा हुआ है -

1. व्यक्ति के शारीरिक एवं मानसिक स्वास्थ्य का संरक्षण।
2. आर्थिक मूल्यों की वृद्धि।
3. मानव इंद्रियों के आनंद का संरक्षण।

केट्स2 (Kates) ने ठीक ही कहा है कि ‘‘पर्यावरण प्रबंधन जीवन निर्वाही उपयोगी एवं सुंदर होना चाहिए।’’ “It is to be life Supporting it is to be useful, and it is to be beautiful”

नगरीय पर्यावरण का प्रबंधन विशेष रूप से पूर्व निर्मित एवं अनियोजित नगर का पर्यावरणीय प्रबंधन, लोगों की आवश्यकताएँ, आकांक्षाएँ, जीवकोपार्जन की पद्धतियाँ, परिवहन एवं औद्योगिक क्रियाकलाप नगर प्रबंधन में अनेक विरोधाभास उत्पन्न करते हैं जिनसे पर्यावरण प्रबंधकों एवं नियोजकों को अनचाहे समझौते करने पड़ते हैं पर्यावरण प्रबंध वर्तमान समस्याओं का निराकरण करने एवं भविष्य में समस्याओं के अभाव की एक सुविचारित वैज्ञानिक प्रक्रिया होनी चाहिए जिससे जनजीवन सुखी एवं निरापद हो सके।

लखनऊ महानगर राजधानी नगर होने के कारण न केवल प्रदेश का बल्कि देश का अत्यंत महत्त्वपूर्ण नगर है सरकारी अधिकारी एवं कर्मचारी, शिक्षा एवं चिकित्सा से जुड़े सेवाकर्मी, व्यापारिक एवं औद्योगिक संस्थानों के स्वामी, छात्र, मजदूर, रिक्शा, तांगा, इक्का, स्वचालित वाहन चालक आदि इस नगर में रहने एवं जीवकों पार्जन के लिये आकर्षित होते हैं और नगर की विद्यमान जन सुविधाओं में दबाव बढ़ाते हैं। जिससे नगर का पर्यावरण अतिभारित होकर प्रदूषित होने लगता है। वायु, जल, मृदा और ध्वनि प्रदूषण जैसी गम्भीर समस्याएँ वर्ष प्रतिवर्ष पर्यावरण प्रबंधन की मांग करते हैं अत: लखनऊ नगर नियोजकों एवं पर्यावरण प्रबंधकों को अत्यधिक सचेत रहने की आवश्यकता है तथा पर्यावरण प्रबंध के दर्शन से सुपरिचित रहना है।

पर्यावरण प्रबंध का दर्शन - प्रत्येक पर्यावरण नियोजक को पर्यावरण प्रबंध की दार्शनिकता से सुपरिचित होना चाहिए उसे इस बात का ज्ञान होना चाहिए कि किसी भी नगर या क्षेत्र का पर्यावरण एक अंत: क्रियात्मक तंत्र होता है जिसमें अनेक उपतंत्र कार्य करते हैं उन उपतंत्रों की एक पदानुक्रमीय व्यवस्था होती है। यह तंत्र अनेक तंत्रों को आपस में जोड़ते हैं। अनेक भू-जैव रासायनिक चक्रों को जोड़ते हैं तथा ऊर्जा प्रवाह को नियंत्रित करते हैं। इस प्रकार से पर्यावरण को एक पूर्ण इकाई तथा एक व्यवस्थित विज्ञान से नियंत्रित इकाई के रूप में देखा जाना चाहिए। प्रत्येक पर्यावरण के कार्बनिक एवं अकार्बनिक घटक आपस में अंत: क्रियाएँ करते हैं जिससे अनेक पदार्थों का निवेश तथा स्थानांतरण होता है संग्रह तथा उत्पादन होता है, जब तक ऊर्जा प्रवाह प्राकृतिक दशाओं द्वारा नियंत्रित रहता है तब तक पर्यावरण आत्म संयमी रहता है। ऐसी अवस्था में ऊर्जा एवं पदार्थ प्रवाह की गति में संतुलन बना रहता है। नगरीय क्षेत्रों में अधिकांश ऊर्जा जीवावशेष से प्राप्त होती है जब की ग्राम्य क्षेत्र में सौर्यिक ऊर्जा प्राप्त होती है।

पर्यावरण प्रबंध की संकल्पना मानव एवं प्रकृति के तालमेल एवं सामांजस्य के विवेकपूर्ण समायोजन की कहानी है। कुछ क्षेत्रों में विशेष रूप से नगरीय क्षेत्रों में मानव और पर्यावरण की अंत: क्रिया के कारण पर्यावरण का ह्रास होता है, परिणाम स्वरूप ऊर्जा, कार्बनिक जीवन और पारिस्थितिकी का संतुलन बिगड़ जाता है और प्रदूषण की स्थिति उत्पन्न हो जाती है और पर्यावरण प्रबंध एक ज्वलंत मांग बन जाती है। ‘गाल ब्रेथ3’ ने ठीक ही कहा है कि ‘‘लोग जितना अधिक धन कमाते हैं उतनी ही मोटी गंदगी उत्पन्न करते हैं।’’ इसलिये पर्यावरण संरक्षण प्राकृतिक संरक्षण पर आधारित है, न कि भौतिकवाद और उपभोक्तावादी संस्कृति पर। क्लब ऑफ रोम द्वारा दिया गया नारा ‘Back to Nature’ आज सम्पूर्ण विश्व में अत्यंत लोकप्रिय हो रहा है। विकसित एवं विकासशील राष्ट्र, हरित भवन प्रभाव कार्बन डाइऑक्साइड का संकेंद्रण पृथ्वी के तापमान का संतुलन, ओजोन ह्रास, अम्ल वृष्टि जैसी विश्व व्यापी पर्यावरणीय समस्याओं के प्रति अत्यंत चिन्तित हो उठे हैं। अत: पर्यावरण प्रबंधन के लिये यह आवश्यक है कि हम उपभोक्तावादी संस्कृति को त्यागकर प्रकृति के निकट सादगी से रहने की जीवनशैली अपनाएँ। यदि हम ऐसा नहीं करेंगे तो भविष्य में इतिहासकार हमारी इस तकनीकी सभ्यता को राक्षसी कैंसर के रूप में वर्णन करेंगे जो संपूर्ण मानवता को नष्ट कर देगा। अत: भारत जैसे विकासशील देश को पर्यावरण प्रबंध के लिये अत्यंत जागरूक रहना चाहिए और वन्य संस्कृति को उपभोक्तावादी संस्कृति के स्थान पर पुन: स्थापित करना चाहिए।

पर्यावरण प्रबंध के दर्शन सम्बन्धी तथ्यों को ध्यान में रखते हुए पर्यावरण प्रबंध के दो उपागम अपनाये जा सकते हैं -

1. अनुरक्षाणात्मक उपागम (Preservative Approach) जिसके अंतर्गत भौतिक जैविक पर्यावरण के साथ छेड़-छाड़ न करते हुए उसके साथ अनुकूलन किया जाता है। किंतु यह उपागम व्यावहारीय नहीं है क्योंकि मानव की अपनी आधार भूत आवश्यकताएँ होती हैं, जिनकी पूर्ति के लिये उसे पर्यावरण का विदोहन करना पड़ता है। इस प्रकार से यदि पर्यावरण को सर्वथा प्राकृतिक अवस्था में रखा जायेगा तो मानवता के सम्मुख भुखमरी की समस्या उत्पन्न हो जायेगी सन 1972 के स्टॉक होम सम्मेलन में इस द्वंद को विशेष महत्त्व दिया गया और इसकी विवेचना की गयी। एक पर्यावरण विद माइकसेल्व4 ने इस तथ्य को इन शब्दों में व्यक्त किया जिस प्रकार से पारिस्थितिकी अर्थशास्त्र के साथ द्वंद गत प्रतीत होती है, उसी प्रकार से पारिस्थितिकी अर्थशास्त्र और राष्ट्रीय महत्त्वाकांक्षाओं से द्वंदपूर्ण है।

2. संरक्षणात्मक उपागम (Conservative Approach) जिसमें भू-जैव पर्यावरण से समायोजन स्थापित करते हुए धनात्मक प्रक्रियाएँ की जाती है। इसके अंतर्गत पर्यावरण को प्रदूषण व हानिकारक तत्वों से बचाना, संसाधनों को हानिकारक तत्वों से बचाना और मानव में आनंद दायक उत्प्रेरकों की वृद्धि करना सम्मिलित है यह समायोजन दो प्रकार से होता है -

(i) तकनीकी समायोजन - जिसमें संसाधनों का उचिततम विदोहन करने के लिये टेक्नोलॉजी का प्रयोग किया जाता है।

(ii) आचारत्मक समायोजन - जिसमें संस्थाएँ और उनकी प्रतिक्रियाएँ कार्य करती है। इन दोनों कार्यों के समायोजन का सम्मिलित स्वरूप पर्यावरण उपागम होता है जो निश्चयवाद के सिद्धांतों और प्रकृति के नियमों और व्यवस्थाओं को समझने और उनको मानने की सलाह देता है।

वर्तमान समय में विकास को सर्वाधिक महत्त्व दिया जाता है और जीवन की गुणवत्ता बढ़ाने पर विशेष बल दिया जाता है। परिणाम स्वरूप सांस्कृतिक पर्यावरण में परिवर्तन हो रहा है।

लखनऊ महानगर एक सांस्कृतिक एवं राजनैतिक नगर है जो अपनी गंगा जमुनी संस्कृति और अदब के लिये विख्यात रहा है। यहाँ के पर्यावरण पर बढ़ते हुए दबाव से अनेक समस्याएँ खड़ी होती है। जिनके निदान के लिये संरक्षणात्मक एवं प्रादेशिक समायोजन की नीति अपनाकर सांस्कृतिक पर्यावरण में सकारात्मक परिवर्तन लाने की आवश्यकता होगी और टेक्नोलॉजी का प्रयोग बहुत समझ बूझकर करना होगा। पर्यावरणीय घटकों के उचित मानकों को बनाए रखने के लिये नगरीय जनमानस को जागरूक और संवेदनशील बनाना होगा।

ब. लखनऊ नगर की पर्यावरणीय समस्याओं के आयाम


पार्यावरणिक प्रदूषण लखनऊ महानगर की गंभीर समस्या है। इसका अध्ययन एवं मूल्यांकन मृदा, जल, वायु, ध्वनि एवं सामाजिक प्रदूषण के रूप में विगत अध्यायों में विस्तृत रूप से किया गया है। इन सभी प्रदूषणों के आयाम व्यापक एवं समस्यात्मक हैं। ये प्रदूषण राष्ट्रीय मानकों से अति उच्च एवं अनियमित है। अत: नगर के पर्यावरण का बड़े पैमाने पर ह्रास हुआ है और सामान्य जन जीवन प्रतिकूल प्रभावित हुआ है। इन प्रदूषणों के कारण नगर में प्रति वर्ष अनेक संक्रामक रोगों का आक्रमण होता है। जिससे घातक परिणाम उत्पन्न होते है। पीलिया, हैजा अस्थमा, ब्रोनकाइटिस, फेफड़ों की बीमारियाँ, खाँसी सर्दी, जुकाम, मलेरिया, टीबी, जैसी गंभीर बीमारियों से प्रतिवर्ष सैकड़ों की तादात में जाने चली जाती है। नगर निगम तथा उ.प्र. राज्य पर्यावरण प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड द्वारा किये गये रोकथाम के उपाय अपर्याप्त एवं अल्प प्रभाव वाले सिद्ध हो रहे हैं। विगत अध्यायों में मृदा, जल, वायु, ध्वनि एवं सामाजिक प्रदूषण एवं नियोजन की दृष्टि से प्रदूषण के व्यापक आयामों का पृथक-पृथक संक्षिप्त मूल्याकंन आवश्यक है।

मृदा प्रदूषण के आयाम (Dimensiond of Soil Pollution)


लखनऊ महानगर में ठोस अपशिष्ट, कचरा, पॉलीथीन बैग्स, व्यापारिक औद्योगिक संस्थानों के अपशिष्ट मृदा प्रदूषण के स्रोत हैं। लखनऊ महानगर में प्रतिदिन 16000 टन ठोस अपशिष्ट एवं कचरा नगर के विभिन्न वार्डों से निकलता है ठोस अपशिष्ट एवं कचरे की मात्रा नगर के आंतरिक 103 वर्ग किमी क्षेत्र से प्राप्त होती है। जबकि विस्तृत 310 वर्ग किमी क्षेत्र से निकलने वाले ठोस अपशिष्ट एवं कचरे की कोई प्रमाणिक सांख्यिकी उपलब्ध नहीं है। नगर के विभिन्न वार्डों में कचरा गोदाम बनाए गए हैं जिनमें औसत प्रति गोदाम प्रतिदिन 1500 किग्रा. की दर से कचरा प्राप्त होता है उच्च मध्यम एवं निम्न आय वर्ग के नगर निवासियों द्वारा कचरे की भिन्न-भिन्न मात्रा निष्कासित की जाती है। यह मात्रा देश के अन्य नगरों की तुलना में अति उच्च है।

लखनऊ महानगर में प्रति व्यक्ति कचरे का उत्पादन 650 ग्राम/दिन है जो चेन्नई और कानपुर के पश्चात देश में तीसरे स्थान पर है। वर्तमान में नगर के विभिन्न भागों में 500 बड़े कचरा गोदाम बनाए गये हैं तथा 1000 से अधिक लघु आकार के कचरा गोदाम नगर के विभिन्न वार्डों में बनाए गए हैं जो नगर को प्रदूषण मुक्त करने में अपर्याप्त सिद्ध हुए हैं।

नगर के औद्योगिक क्षेत्रों ऐशबाग और अशर्फाबाद में प्रतिदिन कचरे की भारी मात्रा निकलती है। इसी प्रकार से चौक और हुसेनगंज क्षेत्र से जो मुख्य रूप से व्यापारिक क्षेत्र है। कचरे की भारी मात्रा निकलती है नगर के व्यापारिक और औद्योगिक क्षेत्र आवासीय क्षेत्रों की तुलना में अधिक कचरा उत्पादन करते हैं जहाँ पर इसके प्रबंधन की वैज्ञानिक व्यवस्था की अनिवार्यता है। अन्य नगरों की तुलना में लखनऊ नगर के कचरे की संरचना भिन्न है। यहाँ के कचरे की ग्रेडिंग से यह ज्ञात होता है कि इसमें उपयोगी पदार्थों की मात्रा अन्य भारतीय नगरों की तुलना में अधिक है यहाँ के कचरे में औसतन 53 प्रतिशत कार्बनिक पदार्थ 5 प्रतिशत कागज, 5 प्रतिशत प्लास्टिक तथा 37 प्रतिशत अन्य पदार्थ है जिनमें धातुएँ, सीसा, हड्डी, कोयला, चीथड़े और मिट्टी होती है। इसके अतिरिक्त इस कचरे में अनेक अकार्बनिक प्रदूषक जैसे- आर्सेनिक, बोरोन, कैडमियम, तांबा, फ्लोरीन, सीसा, मैगनीज, पारा, निकिल और जिंक आदि धातुएँ अनेक स्रोतों उद्योगों, उर्वरक कारखानों, मल प्रवाह व्यवस्था, बढ़ती राख, फफूंदी नाशकों, कीटनाशकों आदि के द्वारा अपशिष्ट कचरे में मिल जाती हैं जो कचरा गोदामों अथवा नगर के बाह्य क्षेत्रों में जहाँ इसे फेंका जाता है वहाँ की भूमि को प्रदूषित कर देते हैं।

लखनऊ महानगर के ऐशबाग औद्योगिक क्षेत्र में सर्वाधिक कचरा निकलता है इसी प्रकार हुसैनगंज और अशर्फाबाद व्यापारिक क्षेत्रों में भी कचरे की भारी मात्रा निकलती है। आवासीय क्षेत्रों राजाजीपुरम, दौलतगंज, अशर्फाबाद, सीबी गुप्ता नगर और वजीरगंज में कचरे की मात्रा अपेक्षाकृत कम है। आवासीय क्षेत्रों के कचरे की सबसे बड़ी विशेषता है कि इसमें कार्बनिक पदार्थों की मात्रा सर्वाधिक रहती है यहाँ पर औसत 53 प्रतिशत कार्बनिक पदार्थों की मात्रा रहती है इस कचरे में कागज की मात्रा 14 प्रतिशत तक रहती है आवासीय क्षेत्रों के कचरे में कार्बनिक पदार्थों से उच्च मात्रा कम्पोस्टिंग, बायोगैस तथा बायो ऊर्जा के उत्पादन की दृष्टि से उत्साह वर्धक है।

मृदा प्रदूषण का सर्वाधिक समस्यात्मक पक्ष यहाँ के कचरे में प्लास्टिक सामग्री तथा थैलों की है। यहाँ के कचरे में प्लास्टिक और उससे निर्मित पदार्थों की मात्रा 10 से 20 प्रतिशत तक होती है। यह मात्रा औद्योगिक, व्यापारिक, आवासीय सभी भागों में पायी जाती है। इसकी भारी मात्रा मृदा प्रदूषण के गम्भीर खतरे को व्यक्त करती है। वास्तव में प्लास्टिक प्रदूषण सम्पूर्ण नगर का खतरा है तथा नगर के बाहरी डम्पिंग स्टेशनों के लिये दीर्घकालिक संकट उत्पन्न करता है। लखनऊ महानगर से प्रतिदिन निकलने वाला 5 टन पॉलिकचरा न केवल मनुष्यों बल्कि पशुओं के लिये एक गम्भीर खतरा बन गया है। प्लास्टिक में मिलाए गए रसायन एवं रंग, बेजोफिरोन और अमीनों एसिडस जो प्लास्टिक निर्माण में प्रयोग होते हैं, कैंसर जनक है और मानव स्वास्थ्य के लिये गम्भीर खतरा उत्पन्न करते हैं। प्लास्टिक दुराग्रही होने के कारण किसी भी प्रकार से जैविक अपघटन का पात्र नहीं है। केचुआ भी इसका अपघटन नहीं कर पाता अत: इससे निजात पाने के लिये इसे जलाने की सलाह दी जाती है जो एक खतरनाक प्रदूषण प्रक्रिया है। इसके जलाने से निकलने वाली गैसें जानलेवा होती है। कैटिल चेकिंग दस्ते द्वारा अनेक गायों और बछड़ों के पेट में 20 से 62 कि.ग्रा. तक पॉलीथीन कचरा पाया गया जो उनकी मृत्यु का प्रधान कारण था।

लखनऊ महानगर के चारों ओर फल और सब्जियों के क्षेत्र हैं जिनमें उर्वरकों एवं कीटनाशकों का व्यापक प्रयोग होता है, जिसे मिट्टी की क्षारीयता और अम्लीयता बढ़ जाती है। रासायनिक तत्वों का संतुलन बिगड़ गया है। नगर के चारों ओर 12 स्थानों से लिये गए मिट्टी के नमूनों में उच्च पीएच मान पाया गया जो 7 से अधिक है। सभी नमूनों में 8.3 से 8.5 पीएच पाया गया जो मिट्टी के क्षारीय होने का संकेत देता है। भारी मात्रा में नाइट्रोजन, फास्फेट और पोटेशियम का प्रयोग करने से फलों और सब्जियों में अनावश्यक रूप से यह घातक तत्व पाये जाते हैं, जो स्वास्थ्य के लिये घातक है। गोमती नदी के तटीय क्षेत्र सब्जी और जायद फसलों के उत्पादन के लिये प्रयोग किए जाते हैं तथा गोमती नदी के जल को सिंचाई के लिये प्रयोग किया जाता है। प्रदूषित गोमती जल से तटीय गोमती तल में मैगनीज निकिल, क्रोमियम, सीसा तथा बोरोनियम उच्च मात्रा में विद्यमान है जो सब्जियों तथा फलों को विषाक्त कर रहे हैं। मानव शरीर में पहुँचकर ये फल और सब्जियाँ घातक बीमारियाँ दे रहे हैं।

फसलों को बीमारियों से बचाने के लिये कीटनाशकों का प्रयोग किया जाता है। गोमती के तटीय क्षेत्रों से लिये गए नमूनों का परीक्षण कराया गया जिसमें बीएचसी, इण्डोसल्फान जैसे तत्वों का उच्च संकेंद्रण पाया गया। ये कीटनाशक दुराग्रही और घातक ही नहीं हैं बल्कि ये मिट्टी के साथ जल को भी विषाक्त करते हैं और घातक बीमारियाँ उत्पन्न करते हैं।

मृदा प्रदूषण एक बहु आयामी समस्या है और मानव एवं पशुओं सहित सम्पूर्ण वातावरण प्रभावित होता है। नगरीय कचरे में न केवल औद्योगिक व्यापारिक और घरेलू अपशिष्ट होते हैं, बल्कि इसमें मृत पशु भी पाये जाते हैं। कभी-कभी ये अपशिष्ट संग्रह स्थलों पर कई-कई दिनों तक सड़ते गलते रहते हैं जिससे निकटवर्ती नगर निवासियों में कोलाइट, साइटिक, हैजा तथा अन्य संक्रामक बीमारियाँ जन्म लेती है और नागरिक जीवन को संकट में डाल देती हैं। कचरे के निकट रहने वाले परिवारों में 10 में 7 बच्चे बीमार थे तथा 80 प्रतिशत लोग पेट की बीमारी से ग्रस्त थे। 66 प्रतिशत लोग स्वास्थ्य और पेट दोनों से तथा 90 प्रतिशत स्त्री-पुरुष खाँसी और सांस की बीमारी से पीड़ित थे। बच्चों के हाथ व पैर की त्वचा मोटी तथा संवेदन न्यूनता से प्रभावित थी और सफाई कर्मचारी प्राय: बीमारी से ग्रसित थे। नगरीय कचरे से संक्रामक रोगों के अनेक जीवाणु उत्पन्न होते हैं। जिससे लखनऊ नगर निवासी गेस्ट्रो, पीलिया हैजा जैसी बीमारियों से पीड़ित है। 1998 में 915 गेस्ट्रो, 76 हैजा तथा 203 व्यक्ति पीलिया से संक्रमित हुए।

लखनऊ नगर का कचरा नगर के अधोमौमिक जल को भी प्रदूषित कर रहा है। विभिन्न क्षेत्रों के नमूनों से ज्ञात हुआ कि अधोभौमिक जल का पीएच 6.5-9.00 तक, क्लोराइड की मात्रा 12 mg/I, कैलिशयम 44 से 70 mg/I, मैग्नीशियम की मात्रा 17-38 mg/I प्राप्त हुई जल की कठोरता 204 mg/I से 272 mg/I जो राष्ट्रीय मानक 150 mg/I से लगभग दोगुना है।

लखनऊ नगर के आस-पास की कृषि भूमि ग्रामीण क्षेत्र की कृषि भूमि की तुलना कई गुना अधिक प्रदूषित है। यहाँ की मिट्टी में सीसे की मात्रा 17 गुना अधिक है। यहाँ फूल गोभी, पत्ता गोभी, पालक, टमाटर तथा चौड़ी पत्ती की पालक में सीसे की अधिक मात्रा पायी गयी। इस भयावह स्थिति से निपटने के लिये हमें कठोर कदम उठाने होंगे कानून बनाने होंगे, पर्यावरण शिक्षा का प्रसार करना होगा और जन जागरूकता उत्पन्न करनी होगी। इसके साथ ही कचरे के निस्तारण की वैज्ञानिक विधियाँ उत्पन्न करनी होगी और कचरे को छांटकर उसका आर्थिक उपयोग कम्पोस्ट खाद निर्माण, हड्डी का पाउडर बनाने, पुनर्चक्रण द्वारा धातुओं को उपयोगी बनाने, अपशिष्ट कागज से नये अखबारी कागज का निर्माण करने आदि को बढ़ावा देकर नगर के मृदा प्रदूषण को नियंत्रित किया जा सकता है। प्लास्टिक और पॉलीथीन का उपयोग कम से कम करने के उपाय विकसित करने होंगे तभी मानव एवं पशु जीवन को सुरक्षित रखा जा सकता है। मृदा की तरह जल भी पर्यावरण का अमूल्य घटक है। नगर में जल प्रदूषण एक गंभीर समस्या है। अगले चरण में जल प्रदूषण की दशा उसके स्रोतों तथा नियंत्रण पर विचार किया गया है।

जल प्रदूषण के आयाम


लखनऊ महानगर में मृदा प्रदूषण की गंभीरता के साथ-साथ जलस्रोत भी प्रदूषण से ग्रस्त हो गये हैं। नगरीय अपशिष्ट निस्तारण का उपयुक्त प्रबंध न होने के कारण गोमती नदी का जल तथा नगरीय भू-गत जल, प्रदूषण से ग्रस्त हैं। गोमती नदी में विभिन्न औद्योगिक इकाइयां अपना प्रदूषित जल डालती हैं जिनमें हरगाँव (सीतापुर) चीनी मिल, मोहन मीकिन शराब फैक्ट्री तथा गोल्डेन वाटर फैक्ट्री सबसे अधिक प्रदूषित पदार्थ नदी में छोड़ती है, जिनके कारण नगरीय सीमाओं में नदी सबसे अधिक प्रदूषित होती है। पेयजल के स्रोत के रूप में 60 प्रतिशत जल की मात्रा गोमती नदी से प्राप्त होती है, तथा 40 प्रतिशत मात्रा भू-गत स्रोतों से प्राप्त होती है।

नगर के पेयजल स्रोतों के प्रदूषित हो जाने के कारण जल जनित बीमारियाँ समय-समय पर उग्र रूप धारण करती हैं। नगर पेयजल के नमूने यह बताते हैं कि जीवाणु परीक्षण के 12 प्रतिशत नमूने संतोषजनक नहीं हैं। इसी प्रकार ग्रीष्म तथा वर्षा काल में स्रोत गोमती के अधिक प्रदूषित हो जाने पर 21 प्रतिशत नमूने पेयजल के लिये उपयुक्त नहीं पाये गये। पेयजल के लिये पूर्ति किए जाने वाले जल में क्लोरीन की मात्रा उपस्थित होनी चाहिए किंतु यह मात्रा भी 2 प्रतिशत से 3 प्रतिशत नमूनों में नहीं रही। इसी प्रकार नगर के कुछ प्रमुख कूपों, हैंडपंपों से भी नमूने लिये गए जो निर्धारित मानक (परिशिष्टि-46) के अनुसार नहीं रहे मैग्नीशियम, कैल्शियम, क्लोराइड तथा कठोरता आदि के सम्बन्ध में जल प्रदूषित पाया गया। लखनऊ नगर में भू-गत जल प्रदूषण की समस्या के साथ-साथ भू-गत स्तर में गिरावट की बड़ी व्यापक समस्या है। विगत दस वर्षों में नगर के भू-गत जल के अतिशय उपभोग के कारण जलस्तर में 4 से 10 फिट तक की कमी आयी है, जो जल उपभोग तथा उसके कुशलतम प्रबंधन के लिये विवश करता है। भू-गत जल नमूनों में जिंक, मैग्नीशियम, क्रोमियम, सीसा तथा लोहा जैसे भारी खनिज निर्धारित मानक से अधिक पाये जाते हैं। हैंडपंपों से लिये गये नमूनों में कीटाणुओं की उपस्थिति भी निर्धारित मानक से अधिक रही जिसमें की 50 प्रतिशत नमूने पीने के लिये उपयुक्त नहीं पाये गए। संग्रहित नमूनों में सीसे की मात्रा दो से तीन गुना अधिक पायी गयी। सिटी स्टेशन लखनऊ के निकट के नमूनों में भारी मात्रा में खनिज और घातक रसायन उपस्थित पाये गये। नगर में वर्षा जल के नमूनों में भी प्रदूषक उपस्थित पाये गये।

गोमती नदी लखनऊ नगर के पेयजल का प्रमुख स्रोत है। इस नदी में लखनऊ नगर सहित, सीतापुर, बाराबंकी, सुल्तानपुर तथा जौनपुर जनपदों के प्रदूषित जल स्रोत तथा नाले अपनी गंदगी उत्सर्जित करते हैं। कृषि में प्रयुक्त किये जाने वाले घातक रसायन भी वर्षाजल के साथ बहकर मिलता रहता है। इसलिये नदी प्रदूषण की उच्चतम सीमा तक पहुँच जाती है। नदी जल की गुणवत्ता का मूल्यांकन नगर की सक्षम संस्थाओं द्वारा कराया जाता है। विष विज्ञान अनुसंधान केंद्र लखनऊ ने 1994-95 और 96 में नदी जल की गुणवत्ता अध्ययन पर्यावरण एवं वनमंत्रालय के निर्देश पर किया जिसमें पाया कि गोमती का जल अम्लीयता और क्षारीयता से युक्त था। नदी में ग्रीष्मकाल में जल कमी हो जाने पर ऑक्सीजन की कमी हो जाती है। सर्दियों में बीओडी न्यूनतम तथा मानसून काल में उच्चतम सीमा पर पहुँच जाता है। भाटपूर के 10 प्रतिशत नमूनों में बीओडी सीमा से कम पायी गयी। गऊघाट के 80 प्रतिशत नमूने बीओडी सीमा से नीचे पाये गये। बीओडी की यही स्थिति बाराबंकी, जौनपुर और सुल्तानपुर की रही। नगर के सीमा में गोमतीजल अमोनिया से युक्त पाया गया। क्लोराइड मानक सीमा 250 एमजी/आई से कम पायी गयी। नमूनों में सल्फेट की मात्रा भी निर्धारित सीमा से कम पायी गयी। फास्फेट की मात्रा गोमती जल के लगभग सभी नमूनों में वर्षाऋतु में अधिक और गर्मी में कम पायी गयी। फ्लोराइड की मात्रा गोमती जल में नगर की सीमाओं में अधिक हो जाती है। गोमती जल में कॉलीफार्म बैक्टीरिया की संख्या शत-प्रतिशत है।

गोमती जल में भारी तत्वों आर्सेनिक, कैडमियम, क्रोमियम, लोहा, तांबा निकिल, जिंक, मैगनीज एवं मैग्नीशियम की मात्रा निर्धारित मानक (परिशिष्ट-47) से अधिक पायी गयी। गोमती जल से लिये गए 520 नमूनों में से 355 नमूनों में लोहे की अधिक मात्रा पायी गयी कैडमियम और क्रोमियम भी निर्धारित मानक से अधिक पाये गये। इसी प्रकार गोमती जल में सीसे की मात्रा 6.5 µg/m3 की तीनगुनी पायी गयी। पारा, तांबा, जिंक, निकिल, मैगनीज जैसी भारी धातुएँ गोमती जल में पायी जाती है। बीएचसी डीडीटी तथा इंडोसल्फान जैसे कीटनाशक भी गोमती जल के 95 प्रतिशत नमूनों में उपलब्ध है, इसी प्रकार गोमती जल में अक्टूबर 1998 में उ.प्र. प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड ने कॉलीफार्म बैक्टीरिया के मापन में 100 मिग्रा. में 30,50,000 से अधिक बैक्टीरिया पाये जाने की पुष्टि की है। आर्सेनिक जैसे घातक रसायन गोमती जल में 60 g/i पाये गये हैं।

नगर की जल संपदा को प्रदूषित करने वाले अनेक स्रोत हैं। नगरीय नाले, सीवर, सेप्टिक टैंक, औद्योगिक तथा नगरीय अपशिष्ट, कृषि क्षेत्रों से बहकर आने वाले विषैले कीटनाशक, वायुमंडल में उपस्थित घातक गैसें, जलस्रोतों के समीप बसी मलिन बस्तियाँ, शव प्रदाह केंद्र, धोबी घाट, पशु, खुले में शौच करने वाले लोग तथा मृदा कटाव आदि स्रोतों से भू स्तरीय जल, भू-गत जल तथा नदी जल अपनी गुणवत्ता खो चुके हैं और सतत संदूषण ग्रसित होते जा रहे हैं। गोमती जल में नगर के 31 नालों सहित नीमसार से जौनपुर तक 44 नालें अपनी अति प्रदूषित जल उत्सर्जित करते हैं। 1996 के परिमापन के अनुसार 310 एमएलडी नगर का प्रदूषित जल गोमती में मिलता है। नगर की 24 मध्यम आकार की औद्योगिक इकाइयों सहित लगभग 50 औद्योगिक इकाइयों के विषैले रसायनों से युक्त जल भी गोमती जल में मिलता है। इसके अतिरिक्त अन्य लघु उतपादन इकाइयों का प्रदूषित जल भी गोमती में मिलता है। चीनी मिलों, मदिरा उत्पादन इकाई मोहन मीकिन, के अति घातक रसायनों से ग्रीष्मकाल में जब नदी में जल की मात्रा कम होती है तो नदी जलजीवों का प्राय: सामूहिक संहार हो जाता है। गोमती अपने उद्गम से लेकर गंगा में मिलन तक 730 किमी की यात्रा तय करती हुई 23735 वर्ग किमी तथा उ.प्र. के 8.7 प्रतिशत क्षेत्र में प्रवाहित होती है। यह नदी अपने प्रवाहतंत्र के माध्यम से कृषि में प्रयोग किए जाने वाले उवर्रक, कीटनाशक, खरपतवार नाशक, मानव मल, पशुमल, क्षेत्रीय अपशिष्ट तथा डिटर्जेंट आदि को अपने में समाहित कर लेती है। यह निर्धारित मानक (परिशिष्ट-48) से अधिक है।

नगर के 1600 टन कचरे का 10 प्रतिशत भाग नालों तथा सीवरों से बहकर नदी में पहुँचता है। इसमें डिटर्जेंट सफाई में प्रयोग किये जाने वाले घातक रसायन तेल, ग्रीस, पेंट, रबड़, काँच, पॉलिथीन पैकेट जैसे अनेक घातक रसायन मिले रहते हैं। नगर के शव प्रदाह गृहों के अधजले मानव शव, मृत पशुओं के शव नदी में विसर्जित कर दिये जाते हैं। नदी तट में नगर के लगभग 2000 से अधिक परिवार मलिन बस्तियों में गोमती तट में बसे हैं जिनके द्वारा नदी जल में अपशिष्टों को प्रवाहित कर दिया जाता है। नगर के लगभग 12 लाख पशुओं में 20 प्रतिशत पशु नदी जल के सम्पर्क में रहकर उसे दूषित करते हैं।

नगर की झीलें, सभी अंतिम रूप से प्रदूषित हो चुकी हैं जिन्हें केवल कचरा गोदाम के रूप में प्रयोग किया जाता रहा है। परिणाम इस प्रकार हो गए हैं कि नगर का भू-जलस्तर लगातार तीव्र गति से नीचे गिरता जा रहा है, साथ ही भू-गत जल भी प्रदूषित होता जा रहा है। पेयजल के रूप में नदी जल और भू-गत जल का प्रयोग किया जाता है दोनों मूल रूप में प्रदूषित हैं। इसलिये नगर में बड़ी संख्या में जल जनित बीमारियाँ समय-समय पर उत्पन्न होती है। लखनऊ नगर में 1994 में 831 लोगों की मृत्यु आंत्रशोथ से हुई। प्रदूषित जल के उपयोग से विभिन्न प्रकार की बीमारियाँ उत्पन्न होती हैं। शरीर के विभिन्न अंग अलग-अलग प्रदूषकों से प्रभावित होते हैं।

जल प्रदूषण की समस्या के समाधान के लिये प्रदूषण उत्पन्न करने वाले स्रोतों में नगर के नालों तथा सीवरों के लिये विशेष प्रयास सुझाए गये हैं। औद्योगिक इकाइयों में शोधक संयंत्रों की स्थापना के लिये कानून को लागू कराने की आवश्यकता है। कचरा निस्तारण के लिये तथा उसके विभिन्न प्रयोगों के लिये व्यवस्था प्रस्तुत की गयी है। घातक रसायनों, धोबी घाटों में परिवर्तन, मलिन बस्तियों का पुनर्वास, दुग्ध ग्रामों की स्थापना, जन जागरूकता, वृक्षारोपण तथा कानून को लागू करके नगर के पर्यावरण को बचाया जा सकता है। नगरीय पर्यावरण में जल तत्व के साथ-साथ वायु तत्व भी घातक स्थितियों तक प्रदूषित हो चुका है। अगले चरण में वायु प्रदूषण की दशाओं का अवलोकन करेंगे।

वायु प्रदूषण के आयाम - लखनऊ महानगर देश के सर्वाधिक जनसंख्या वाले प्रदेश की प्रशासनिक एवं सांस्कृतिक राजधानी है। यहाँ पर बढ़ती हुई रेलगाड़ियों, डीजल और पेट्रोल चालित वाहनों की संख्या, औद्योगिक इकाइयों तथा घरेलू कार्यों से बड़े पैमाने पर वायु प्रदूषण हुआ है। यहाँ की वायु में कार्बन मोनो ऑक्साइड, सल्फर डाइऑक्साइड, नाइट्रोजन ऑक्साइड, हाइड्रोकार्बन सीसा, एल्डीहाइड्स, धूल, धुआँ, राख, एसिड तथा दुर्गंध वायु में मिल गयी है इससे वायु नगर निवासियों के स्वास्थ्य के लिये घातक हो गयी है और टीबी, अस्थमा, निमोनिया, ब्रोन्काइटिस, फेफड़े के कैंसर जैसी घातक बीमारियों की जनक बन गयी है। लखनऊ महानगर में हो रहे वायु प्रदूषण का 60 प्रतिशत वाहनों द्वारा, घरेलू कार्यों द्वारा 25 और औद्योगिक इकाइयों द्वारा 15 प्रतिशत वायु प्रदूषण होता है। विविध प्रकार के मोटर वाहन इसके मुख्य स्रोत हैं। 70 प्रतिशत कार्बनमोनो ऑक्साइड, 50 प्रतिशत हाइड्रोकार्बन, 35 प्रतिशत नाइट्रोजन ऑक्साइड और 20 प्रतिशत पर्टिकुलेटमैटर का उत्सर्जन होता है। मोटर वाहनों में प्रतिदिन 39000 ली. पेट्रोल का प्रयोग होता है। जो वायुमंडल में बड़ी मात्रा में प्रदूषक तत्वों को उत्सर्जित करते हैं तालिका-7.1 लखनऊ महानगर में विभिन्न प्रदूषक तत्वों की मात्रा को प्रदूषित करती है।

पेट्रोलियम के अतिरिक्त रेल इंजनों डीजल चालित वाहनों जेनरेटरों तथा औद्योगिक इकाइयों के क्षेत्रों से वायु प्रदूषण होता है। लखनऊ में भारी उद्योगों की संख्या कम है तथापि मोहन मीकिन, एवरेडी, स्कूटर इंडिया, टेल्को, एचएएल आदि औद्योगिक इकाइयों के उत्क्षिष्टों द्वारा नगरीय वायु प्रदूषण में अपना योगदान देती हैं। घरेलू कार्यों में 25 प्रतिशत का योगदान किया जाता है। इसके अतिरिक्त नगरीय कचरे से निकलने वाली गैसें, मल जल प्रवाहित करने वाले नालों सीवर जल आदि से वायु प्रदूषण होता है। इस भयावह स्थिति से निपटने के लिये वायु प्रदूषण अधिनियम तथा मोटर वाहन अधिनियम को कड़ाई से लागू करने तथा वैज्ञानिक रणनीति तैयार करने की आवश्यकता है।

ध्वनि प्रदूषण के आयात - महानगर में बढ़ते हुए वाहनों से लगातार धूम्र प्रदूषण के समान ध्वनि प्रदूषण की समस्या गहराती जा रही है। नगर के किसी भी क्षेत्र में ध्वनि प्रदूषण की समस्या, निर्धारित मानकों से दोगुने तक पहुँच गयी है। दिन के समय का ध्वनि स्तर 102 डीबी तक पहुँच जाता है। चारबाग, निशांतगंज, आलमबाग, तालकटोरा तथा नादरगंज में ध्वनि प्रदूषण निर्धारित मानक से अधिक दिन और रात दोनों में रहता है। नगर के बड़े मार्गों में बड़े वाहनों की संख्या प्रति दो घंटे औसतन 4000 है। नगर के प्रमुख स्टेशनों में तथा त्यौहारों में किये गए अध्ययन से पता चलता है कि इस समय ध्वनि प्रदूषण का स्तर अधिक रहता है।

ध्वनि प्रदूषण के प्रभाव से बड़े मार्गों के समीप के निवासी तथा नगर हवाई अड्डे के समीप के निवासी अधिक प्रभावित हैं। उनकी कार्य क्षमता तथा मन की एकाग्रता अधिक प्रभावित होती है। ध्वनि प्रदूषण की बढ़ती गति पर नियंत्रण पाने के लिये वृक्षारोपण कार्य, सम्पर्क मार्गों का निर्माण, वाहनों की तकनीकि में परिवर्तन, जन जागरूकता तथा 30 अगस्त के सर्वोच्च न्यायालय के कानून को लागू करने की आवश्यकता है। नगर की खोई हुई गौरव गरिमा को वापस लाने के लिये निजी तथा सरकारी वाहनों के हूटरों को लगाने पर प्रतिबंध लगाया जाना चाहिए। तथा दुष्प्रभाव के वातावरण में कार्य करने की दशा में कर्ण रक्षक उपकरणों का प्रयोग कर अपनी रक्षा करना उपयुक्त होगा।

सामाजि प्रदूषण के आयाम - उद्यानों का नगर, अवध की शान और रंगीन शाम का नगर लखनऊ आज सामाजिक समस्याओं से घिरा हुआ है। नगर में लगातार मलिन बस्तियों की संख्या बढ़ती जा रही है। नगर की 40 प्रतिशत जनसंख्या 700 मलिन बस्तियों में निवास कर रही है। जहाँ टूटी सड़के, बजबजाती नालियाँ कचरे के ढेरों से भरे पार्क, बिजली, रोशनी, सफाई तथा कानूनी व्यवस्था से ग्रसित दशाएँ अपनी दशा की जीती जागती मिशाल है। विकास के नाम पर यहाँ विद्युत पूर्ति की व्यवस्था तो की गयी है। किंतु कम बोल्टेज की पूर्ति अवैध कनेक्शनों की मार इतनी अधिक है कि दुर्घटनाएँ प्राय: होती रहती है। सड़के संकरी, जलभराव वाली है। खड़ंजे टूटे हुए हैं, गलियों में रिक्शे तक जाने की जगह नहीं है, पेय जलपूर्ति की कोई निश्चित व्यवस्था नहीं है। अवैध कनेक्शनों तथा पाइप लाइनों के रिसाव से जलापूर्ति सही दशा में नहीं है। सबसे अधिक संक्रामक रोगी भी यहीं पर पाये गए नगर में लगातार अनियोजित मलिन बस्तियाँ बढ़ती जा रही है। प्रत्येक बहुखंडीय भवन के निर्माण के साथ उसके नीचे मलिन बस्ती अपना रूप धारण कर लेती है। पुराने लखनऊ की मलिन बस्तियाँ सीवर, पानी, मार्ग प्रकाश, जलाभराव, जलापूर्ति की समस्याओं से अधिक ग्रस्त है। नगर के 110 वार्डों में सभी जगह मलिन बस्तियाँ फैली है। सुधार कार्यक्रमों के अंतर्गत सम्मिलित मलिन बस्तियाँ भी शिक्षा, स्वास्थ्य, सफाई, सीवर तथा जलापूर्ति की समस्याओं से घिरी है। यहाँ सामाजिक समस्याएँ भी सबसे अधिक है।

मलिन बस्तियों के 50 प्रतिशत लोग मनोरंजन के साधनों का प्रयोग नहीं कर पाते 70 प्रतिशत माताएँ ही अपने बच्चों को स्कूल भेजती है। 82 प्रतिशत लोग दैनिक मजदूर हैं। मलिन बस्तियों में 82 प्रतिशत से अधिक लोग अनुसूचित जाति के हैं। मलिन बस्तियों की सभी दशाओं में सुधार की आवश्यकता है। इसके लिये पुनर्वास तथा नियोजन के लिये रणीनतियाँ लागू करनी होगी।

नगर की अपराधिक दशाएँ लगातार बढ़ती जा रही हैं। खाद्य पदार्थों में मिलावट की दशाएँ चिंताजनक है। शीतल पेय पदार्थों में 28 प्रतिशत नमूने अशुद्ध दशा में पाये गए। पान मसाला के 25 प्रतिशत, सरसों का तेल के 25 प्रतिशत तथा दूध के 30 प्रतिशत नमूने घातक दशा में पाये गए। इस प्रकार परीक्षण में सम्मिलित किये गये खाद्य पदार्थ में सभी 15 प्रतिशत तक दुष्प्रभावित हैं। आईटीआरसी के परीक्षण में पाया गया की 72 प्रतिशत नमूनों में अर्जिमोन मिला है। नगर के दूध नमूनों में घातक यूरिया, डिटर्जेंट, आरारोट तथा अम्ल व क्षार जैसे पदार्थ पाये गये। नगर के धार्मिक स्थल भिक्षावृत्ति की दशाओं से घिरी हुई है। 62 प्रतिशत भिखारी वृद्ध है। 50 प्रतिशत 14 वर्ष की आयु से कम है। इसी प्रकार 15 प्रतिशत भिाखारी विकारों से ग्रस्त है। अधिकतर टूट हुए परिवारों के लोग भिक्षावृत्ति करने के लिये विवश हैं। नगर में धार्मिक संप्रदायों का इतिहास संतोषजनक है। किंतु शिया-सुन्नी संप्रदायों की द्वैषपूर्ण स्थिति नगरीय पर्यावरण के लिये संकट बनती है। वेश्यावृत्ति का आधुनिक रूप लगातार गहराता जाता है। होटल, बार, वीडियोग्राफी, स्टेशनों पर इसके नये-नये रूप देखने में आते हैं। नगर में आत्महत्या करने वालों की संख्या लगातार बढ़ती जा रही है। आत्महत्या करने वालों में 60 प्रतिशत पुरुष तथा 40 प्रतिशत स्त्रियाँ हैं। बाल अपराधिक दशाएँ नगर के मलिन बस्तियों के क्षेत्रों में अधिक है। नगरीय क्षेत्रों में लगातार सामाजिक प्रदूषण बढ़ता जा रहा है। इन समस्याओं के निराकरण के लिये सामाजिक जागरूकता लाने की आवश्यकता है।

पर्यावरण प्रदूषण के मूल्यांकन करने, उसके प्रभाव को समझाने के लिये पर्यावरणीय मानकों का ज्ञान आवश्यक है मृदा, जल वायु और ध्वनि, पर्यावरण प्रदूषण के मुख्य अध्ययन बिंदू है। लखनऊ महानगर के पर्यावरण के तत्वों को मानकों में रखकर देखना आवश्यक है अगले अध्ययन में नगरीय पर्यावरण को मानकों के अंतर्गत देखा गया है।

स. पर्यावरणीय मानक


प्राकृतिक अवस्था में पर्यावरण के घटक मृदा, जल, वायु अपनी एक सुनिश्चित गुणवत्ता रखते हैं। इनका अपना प्राकृतिक रसायनशास्त्र होता है। भू-जैव रासायनिक तंत्र होता है तथा सुनिश्चित ऊर्जा प्रवाह की गति होती है। प्राकृतिक अवस्था में इन तत्वों की रासायनिक संरचना का अध्ययन करके भिन्न-भिन्न देशकार और परिस्थिति में संसूचक तैयार किये जाते हैं। यही संसूचक विशेष मानकों में निर्धारित होते हैं। ये मानक किसी भी नगर अथवा क्षेत्र के लिये पर्यावरणीय गुणवत्ता निर्धारित करने और दूसरे पर्यावरण की गुणवत्ता से तुलना करने में बड़े सहायक होते हैं।

पर्यावर्णीय तत्वों की सूचक सहिष्णुता स्तर को भी व्यक्त करते हैं जबकि इन सूचकों का मान सहिष्णुता सीमा से अधिक होता है तो यह पर्यावरण के ह्रास और हानि को व्यक्त करता है जिसको सुधारना एक कठिन कार्य होता है। पर्यावरणीय सूचक और उसके मानक ‘‘अमेरिकन एसोसिएशन फॉर दि एडवांसमेंट ऑफ दि साइंस’’ संस्था द्वारा विश्व के विभिन्न क्षेत्रों में रहने वाले लोगों की जीवन शैली, ललित, कला, अपराध, आवासीय क्षेत्र और जनसंख्या सम्बन्धों को ध्यान में रखकर तैयार किए गए हैं।

लखनऊ महानगर के पर्यावरणीय घटकों के मानकों से तुलना करने पर नगर के गम्भीर पर्यावरणीय ह्रास का अभिज्ञान होता है। मृदा जल और वायु घटकों के अध्ययन से यह स्पष्ट हो चुका है कि इनकी स्थिति अन्तरराष्ट्रीय मानकों से अति उच्च है जो नगरीय पर्यावरण को हो रही हानि की सूचक है।

नगर के सन्निकटवर्ती कृषि एवं बागाती क्षेत्रों में अत्याधिक उर्वरकों और कीटनाशकों के प्रयोग से मिट्टी की प्राकृतिक गुणवत्ता और जीवांश नष्ट हुए हैं। मिट्टी की परिस्थिति भी असंतुलित हो गयी है एनकेपी तथा डीडीटी, हैप्टाक्लोर, बीएचसी, एल्ड्रिन, डाई एल्ड्रिन आदि दुराग्रही कीटनाशकों की मात्रा मिट्टी में उच्च है जो सम्पूर्ण जैविक एवं अजैविक पर्यावरण के लिये हानिकारक है। अन्तरराष्ट्रीय मानक के आधार पर मृदा का पीएच मान 7 होना चाहिए जबकि नगर के निकट क्षेत्र की मिट्टी का पीएच मान 8 से भी अधिक है जो मिट्टी में बढ़ी हुई क्षारीयता का द्योतक है। यह कृषि और फलोत्पादन के लिये भविष्य में खतरे की घंटी है। जल एवं वायु के मानकों का अध्ययन और भी गंभीर और चौंकाने वाली स्थिति की सूचना देता है। नगर के जलस्रोत गोमती नदी, मोती झील तथा अधो भौमिक जल की गुणवत्ता नष्ट हो गयी है। अनेक जहरीले तत्व आर्सेनिक, कैडमियम, कॉपर, मरकरी तथा कीटनाशक जल में घुल गये हैं। बीओडी, सीओडी, टीडीएस और कॉलीफार्म बैक्टीरिया का उच्च संकेंद्रण यहाँ के जल में है। तालिका-7.2 अन्तरराष्ट्रीय जल गुणवत्ता के मानकों और लखनऊ नगर की जल गुणवत्ता का तुलनात्मक अध्ययन प्रस्तुत करता है।

तालिका- 7.2 के विश्लेषण से यह स्पष्ट होता है कि लखनऊ महानगर में पेयजल सिंचाई, नौका विहार वन्य एवं मत्स्य प्रसार, औद्योगिक एवं सीवर निपटान की बहुलता से अन्तरराष्ट्रीय मानकों की तुलना में बहुत गिरी हुई है। पेयजल में प्रतिलीटर कॉलीफार्म बैक्टीरिया की संख्या 50 से अधिक नहीं होनी चाहिए किंतु लखनऊ महानगर की स्थिति अत्यंत भयावह है। यहाँ के पेयजल में कॉलीफार्म बैक्टीरिया प्रतिलीटर 50 के स्थान पर 26000 है जो 500 गुना से अधिक है। यह जल अनेक संक्रामक रोगों पीलिया डायरिया, हैजा, उल्टी, दस्त, गेस्ट्रो आदि बीमारियों का संवाहक है। इसी प्रकार से स्नान तैराकी एवं मनोरंजन के लिये प्रयुक्त होने वाले जल में बैक्टीरिया बहुत अधिक है जो अन्तरराष्ट्रीय मानकों की तुलना में बहुत दयनीय है। इन उपयोगों में प्रयुक्त जल में कॉलीफार्म बैक्टीरिया 500 से 1000 एमपीएन से अधिक नहीं होनी चाहिए किंतु लखनऊ नगर के जलाशयों, स्वीमिंग पूलों और स्नान घाटों में 3,30,000 एमपीएन तथा गोमती नदी के घाटों में यह स्थिति आश्चर्य चकित कर देने वाली है। यहाँ कॉलीफार्म बैक्टीरिया की संख्या 25,50,000 है जो यह मानक से 5100 गुना अधिक है तथा गोमती जल के स्वास्थ्य पर विषाक्तता एवं संक्रमण को व्यक्त करता है। नौका विहार और मनोरंजन के लिये प्रयुक्त जल में बीओडी की मात्रा 3 mg/I से अधिक नहीं होना चाहिए किंतु गोमती जल में नौका विहार आदि में बीओडी की मात्रा तीनगुने से अधिक है। उपचारित पेयजल में कॉलीफार्म बैक्टीरिया 100-500 से अधिक नहीं होना चाहिए किंतु यहाँ 3.4 eO6 तक है। मत्स्य, जल जीवन एवं वन जीवन के लिये मानकों के अनुसार बीओडी की मात्रा 6 mg/I होना चाहिए किंतु नदी जल में यह दोगुने से अधिक मात्रा में है। इसी प्रकार से वायु प्रदूषण की स्थिति भी लखनऊ महानगर में अत्यंत भयावह है यह राष्ट्रीय और अन्तरराष्ट्रीय मानकों की तुलना में चिंताजनक स्थिति को व्यक्त करता है। (परिशिष्ट - 49, 50, 51)

तालिका 7.2 विभिन्न उपयोगों के लिये जल की गुणवत्ता के मानक तथा नगर जल की गुणवत्तातालिका 7.3 लखनऊ महागर में वायु प्रदूषक तत्वों की मानकों से तुलनाउक्त तालिका के अध्ययन से स्पष्ट होता है कि लखनऊ महानगर में वायु प्रदूषक तत्व मानक स्तर को पार कर अत्यंत उच्च स्थिति में पहुँच गये हैं। विभिन्न प्रदूषक तत्वों का स्तर नगरीय वायु में बहुत बढ़ चुका है। यह राज्य प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड तथा केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण के मानकों की तुलना में कई गुना अधिक है। उदाहरणार्थ संवेदनशील क्षेत्रों में निलंबित कणों की संख्या केंद्रीय मानक के अनुसार 70 तथा राज्य प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के अनुसार 140 होना चाहिए। इसी प्रकार आवासीय क्षेत्रों में ये मानक क्रमश: केंद्रीय बोर्ड के अनुसार 100 होना चाहिए तथा राज्य प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के अनुसार 200 µg/m3 की तुलना में लखनऊ यह स्तर 800 है जो संवेदनशील मानकों का 8 गुना और आवासीय क्षेत्र के मानक का चार गुना है। सल्फरडाइ ऑक्साइड की मात्रा लखनऊ नगर क्षेत्र में 84.40 µg/m3 उपस्थित है। जब कि केंद्रीय बोर्ड के मानक आवासीय क्षेत्र के लिये 15 µg/m3 बोर्ड के अनुसार µg/m3 होना चाहिए आवासीय क्षेत्रों में राष्ट्रीय मानकों के अनुसार 60 µg/m3 उ.प्र. राज्य प्रदूषण बोर्ड के अनुसार 80 होना चाहिए। इस प्रकार नगर में सल्फर की उपस्थिति घातक सीमा से ऊपर है। नाइट्रोजन ऑक्साइड भी सल्फर की तरह 89.30 µg/m3 तक पहुँच चुका है। जो केंद्रीय मानक 15 µg/m3 की तुलना में 6 गुना अधिक है। और राज्य प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड की 30 µg/m3 की तुलना में 3 गुना अधिक है।

नगरीय वायु में विद्यमान अत्यंत घातक कार्बनमोनो ऑक्साइड भारी मात्रा में उपलब्ध है। राज्य प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के अनुसार आवासीय क्षेत्रों में इसकी मात्रा 2000 µg/m3 तथा संवेदनशील क्षेत्रों में 1000 µg/m3 है जब की नगरीय वायु में 17669 µg/m3 है जो मानकों की तुलना में संवेदनशील क्षेत्रों में 18 गुना तथा आवासीय क्षेत्रों की तुलना में नौ गुना अधिक है। सीसा अत्यंत घातक रसायन हैं। जो नगरीय वायु में मानक 0.5 µg/m3 की तुलना में 2.96 µg/m3 है जो 6 गुना अधिक प्रदूषित वायु की ओर संकेत करता है।

द. पर्यावरणीय शिक्षा एवं जन जागरूकता


शिक्षा वह साधन है जो चेतना को जागरूक बनाता है। इसलिये पर्यावरणीय संतुलन जो हमारी अनिवार्य आवश्यकता है, को संतुलित अवस्था में बनाए रखने के लिये मानवमात्र को पर्यावरण शिक्षा संपन्न बनाना होगा। मानव प्रकृति में उपलब्ध तत्वों को अपनी आवश्यकता के अनुसार ही नहीं उपभोग करता है बल्कि सुविधाओं और विलासिताओं के लिये भी विदोहन कर रहा है परिणामत: अनेकानेक पर्यावरणीय समस्याएँ उत्पन्न हो गयी है। विकसित जगत की पर्यावणीय समस्याएँ अत्यंत गम्भीर है आज आवश्यकता इस बात की है कि पर्यावरणीय प्रवर्धक प्राविधिकी का विकास किया जाए तथा पर्यावरणीय नियोजन एवं प्रबंधन की नवीन तकनीकी का विकास किया जाए प्रसिद्ध अर्थशास्त्री शुमचार5 (Schumchar) ने शिक्षा को महानतम साधन कहा है।

पर्यावरण शिक्षा का अर्थ एवं परिभाषा


पर्यावरण शिक्षा मानव आचरण के उन पक्षों से सम्बन्धित है जो जैव भौतिक पर्यावरण के साथ मानव अंत: क्रिया तथा इस अंत: क्रिया को समझने की उसकी क्षमता से जुड़े हुए हैं वास्तव में पर्यावरण शिक्षा पर्यावरण के विविध पक्षों से सम्बन्धित शिक्षा है। पर्यावरण शिक्षा का सीधा सम्बन्ध जीवन के विकास तथा उसको प्रभावित करने वाले कारकों से है। पर्यावरण की जटिल प्रक्रियाओं का ज्ञान कराना ही पर्यावरण शिक्षा की मूल अवधारणा है संस्कृत भाषा में शिक्षा शब्द का तात्पर्य उपदेश देना है। अर्थात पर्यावरण शिक्षा का अर्थ पर्यावरणीय ज्ञान को एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को अंतरण करना है। अक्टूबर 1977 में सोवियत रूस के टिबलिसी नगर में आयोजित पर्यावरणीय शिक्षा पर अंत: शासकीय सम्मेलन में पर्यावरण शिक्षा को इस प्रकार परिभाषित किया गया पर्यावरण शिक्षा प्रकृति एवं निर्मित पर्यावरणों की उस जटिल प्रकृति को व्यक्तियों तथा समुदायों को समझना है जो उनके जैविक, भौतिक, सामाजिक, आर्थिक एवं सामाजिक पक्षों की अंत: क्रिया से उत्पन्न होती है तथा सामाजिक समस्याओं के निदान तथा पर्यावरण की गुणवत्ता के प्रबंध के लिये ज्ञान, मूल्य दृष्टिकोण एवं व्यावहारिक कुशलता प्रदान करती है। 1975 में यूगोस्लाविया के वेलग्रेड नगर में पर्यावरण शिक्षा पर अन्तरराष्ट्रीय कार्य विषय पर आयोजित सम्मेलन में पर्यावरण शिक्षा को निम्न अर्थ में परिभाषित किया गया -

‘‘पर्यावरण शिक्षा वह शिक्षा है जिसका उद्देश्य ऐसी विश्व जनसंख्या का विकास करना है जो पर्यावरण तथा उससे जुड़ी हुई समस्याओं के प्रति चिंतित एवं जागरूक हो तथा जिसे वर्तमान समस्याओं के निदान एवं नवीन समस्याओं को रोकने हेतु व्यक्तिगत एवं सामूहिक रूप से कार्य करने का ज्ञान, कौशल, दृष्टिकोण, प्रेरणा एवं वचनबद्धता हो।’’

उक्त परिभाषाओं से स्पष्ट है कि पर्यावरण शिक्षा का केंद्र बिंदु पर्यावरणीय समस्याओं का निदान है। अन्तरराष्ट्रीय प्रकृति एवं प्राकृतिक संसाधन संरक्षण संघ (आईयूसीएन) के सर्वेक्षण के अनुसार 63 विकासशील देश 20 गम्भीर समस्याओं से ग्रस्त है। भारतीय शिक्षा में पर्यावरण शिक्षा को सभी स्तरों में लागू करने पर विशेष बल दिया गया है। 1981 में तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी ने टिप्पणी की थी कि पर्यावरण शिक्षा को सामाजिक जागरूकता उत्पन्न करना चाहिए और समुदाय को इस तथ्य के प्रति जागरूक बनाना चाहिए कि व्यक्ति समुदाय दोनों के कल्याण को पारिस्थितिक विघटन से हानि होती है।

मानव संसाधन विकास मंत्रालय नई दिल्ली द्वारा निर्धारित राष्ट्रीय शिक्षा नीति6 1986 में पर्यावरण जागरूकता पर बल देते हुए कहा गया - ‘‘पर्यावरण जागरूकता उत्पन्न किये जाने की सर्वोच्च आवश्यकता है। इसे बच्चे से लेकर समाज के सभी आयु वर्गों में प्रवेश पाना चाहिए। पर्यावरण जागरूकता स्कूलों और कॉलेजों में शिक्षण का अंग होना चाहिए। यह पक्ष सम्पूर्ण शैक्षिक प्रक्रिया में समाकलित होगा।’’

यूनेस्को के अनुसार ‘‘पर्यावरण शिक्षा को देशों और प्रदेशों के मध्य उत्तर दायित्व एवं अखंडता का विचार एक नवीन अन्तरराष्ट्रीय व्यवस्था की अधारशिला के रूप में विकसित करना चाहिए जो पर्यावरण संरक्षण एवं सुधार की गारंटी देगा।’’

इस प्रकार पर्यावरण शिक्षा व्यक्ति और समाज की वास्तविक जीवन की पर्यावरणीय समस्याओं के निराकरण के लिये जागरूकता, ज्ञान, दृष्टिकोण, कौशल और क्षमताओं का विकास करके उसे जागरूक बनाना है। महान पर्यावरण वैज्ञानिक डॉ. खोशू, टीएन7, के शब्दों में- “The chief objective of environmental education is that individuals and Social groups should acquire awareness and knowledge, develop attitudes, skills and abilities and participate in Solving real life environmental problems.”

पर्यावरण शिक्षा का विकास


पर्यावरण शिक्षा हमारे देश में प्राचीन काल से प्रचलित रही है। सिंधु घाटी सभ्यता के द्रविड़ मात्रदेवी और पशुपति या शिव के उपासक थे। पशुपति देवता के दो सींग हैं। सींगों के मध्य भाग में कोई पौधा है। हाथी, चीता, गैंडा और महिष उसके चारों ओर तथा सिंहासन के नीचे दो हिरण हैं। एक अन्य चित्र में सींगयुक्त देवी पीपलवृक्ष के नीचे विराजमान हैं। वैदिककाल में पर्यावरण शिक्षा धर्म में समाहित शिक्षा थी। सूर्य, पूषन, इंद्र, वरुण, विष्णु, उषस, वायु आदि प्राकृतिक शक्तियाँ द्यौ-लोक और भू-लोक के अधिपति माने गये हैं। शुक्ल यजुर्वेद में -

ऊँ द्यौ: शांतिरन्तिरक्षं शान्ति: पृथ्वी शान्तिराप: शान्तिरोषधय: शान्तिर्वनस्पतय: शान्तिर्विश्वे देवा:
शान्तिर्ब्रह्म शान्ति: शान्तिरेव शान्ति:। सा मा शान्तिरेधि। शुक्ल यजुर्वेद। 36.17।


प्रकृति के तत्वों की साम्यवस्था और संतुलन की अवस्था की प्रार्थना की गयी है। रामायण तथा महाभारत में प्रकृति के तत्वों का सम्यक वर्णन आदर्श रूप में किया गया है। पुराणों में पर्यावरण शिक्षा प्रदान करने वाली कथाएँ विद्यमान हैं। श्रीमद्भागवत के दशवें अध्याय में श्रीकृष्ण वृक्षों के महत्त्व को बताते हैं कि यह दूसरे के लिये सब कुछ सहन करते हैं। गीता में भगवान श्रीकृष्ण वृक्षों में अपने को पीपल कहते हैं। पीपल प्रकृति में सबसे अधिक कार्बनडाइऑक्साइड को शुद्ध करने वाला एक मात्र वृक्ष है।

मध्यकाल में मार्गों के किनारे सम्राटों द्वारा वृक्ष लगवाने, तालाब खुदवाने, कुएँ बनवाने के कार्य किये जाते थे। नदियों के जल से सिंचाई आदि का उल्लेख मिलता है। 14वीं से 18वीं शताब्दी में अनेक विद्वानों ने प्रकृति के तत्वों का विस्तृत अध्ययन किया। 19वीं शताब्दी के मध्य पर्यावरण सम्मेलनों तथा गोष्ठियों का आयोजन किया जाने लगा। 1985 में नई दिल्ली में ही पर्यावरण शिक्षा पर दूसरा अन्तरराष्ट्रीय सम्मेलन आयोजित किया गया। इसमें खोशू, टीएन7, राव, टीएस8, मिश्रा, एबी9, नायक बीएन10, मदन ए11 जैसे पर्यावरण विशेषज्ञों ने पर्यावरण शिक्षा पर बल दिया। पर्यावरण विशेषज्ञों के प्रयास के परिणाम स्वरूप विभिन्न स्तरों के छात्रों एवं शिक्षकों के लिये पाठ्य पुस्तकें, सहायक पुस्तकें, पथ प्रदर्शक पुस्तकें चार्ट किट्स शिक्षण सामग्री आदि तैयारी की है। विश्वविद्यालय स्तर पर पर्यावरण शिक्षा में शोध एवं प्रशिक्षण पर विशेष बल दिया गया पोस्ट ग्रेजुएट स्तर पर पर्यावरण शिक्षा के चार क्षेत्र पर्यावरण अभियांत्रिकी, संरक्षण और प्रबंध, पर्यावरण स्वास्थ्य तथा सामाजिक पारिस्थतिकी को चुना गया इस समय भारत में 50 से अधिक विश्वविद्यालयों में पर्यावरण शिक्षा प्रदान की जा रही है। 14 विश्वविद्यालयों में वानिकी की शिक्षा दी जा रही है। 7वीं पंचवर्षीय योजना में भारत सरकार ने 6 करोड़ रुपया पर्यावरण शिक्षा के लिये निर्धारित किया। पर्यावरण , शिक्षा, भूगोल, प्राणी विज्ञान, वनस्पति विज्ञान, कृषि, अर्थशास्त्र, कीट विज्ञान, आदि विषयों के साथ प्रदान की जा रही है। पर्यावरण संरक्षण के लिये कानून के पाठ्यक्रम में पर्यावरण संरक्षण और कानून के रूप में दी जा रही है।

भारत में पर्यावरण एवं वन मंत्रालय के अंतर्गत पर्यावरण विभाग की स्थापना 1980 में की गयी जो भारतीय पर्यावरण प्रबंध में संलग्न है। इसके पूर्व मृदा संरक्षण, वन एवं वन्य जीवन संरक्षण, औद्योगिक स्वच्छता, प्रदूषण नियंत्रण आदि के प्रबंध के लिये पर्यावरण नियोजन एवं समन्वय की राष्ट्रीय समिति (एनसीईपीसी) का गठन 1972 में किया गया था। पर्यावरण विभाग की अनेक परिषदें और समितियाँ जो अनेक प्रशासकीय एवं कानूनी उपाय सुझाती हैं, का गठन किया गया। पर्यावरण शिक्षा के प्रसार, जागरूकता उत्पन्न करने और पर्यावरण संरक्षण के उद्देश्य से प्रत्येक राज्य में पर्यावरण निदेशालय एवं राज्य प्रदूषण नियंत्रण परिषदों की स्थापना की गयी है एवं उन कार्यक्रमों के तैयार करने तथा उनके क्रियान्वयन हेतु शिक्षण संस्थाओं एवं गैर सरकारी स्वयंसेवी संस्थाओं को अनुदान भी देती हैं। प्रदूषण नियंत्रण परिषद के क्षेत्रीय कार्यालय भी स्थापित किये गये हैं। भविष्य में भी पर्यावरण शिक्षा का जन-जन तक प्रसार होगा और भारतीय पर्यावरण का संवर्धन हो सकेगा।

पर्यावरण शिक्षा का विषय विस्तार


पर्यावरण एक पृथक सत्ता नहीं है, बल्कि समन्वित विषय व्यवस्था है। इसलिये इसका सम्बन्ध समस्त भौतिक विज्ञानों, जीवन विज्ञानों और सामाजिक विज्ञानों से स्वत: ही हो जाता है। भौतिक विज्ञानों के अंतर्गत, भौतिक विज्ञान, रसायन विज्ञान, समुद्र विज्ञान, गणित, सांख्यिकी, भौमिकी, जलवायु विज्ञान, मौसम विज्ञान, मृदा विज्ञान आदि पर्यावरण विज्ञान से सुसंबद्ध है। जीवन विज्ञानों में प्राणि विज्ञान, वनस्पति विज्ञान, सूक्ष्म जीवाणु विज्ञान आदि प्रत्यक्ष रूप से पर्यावरण से संलग्न हैं। इस प्रकार पर्यावरण प्रदूषण के विविध पक्ष अर्थशास्त्र, समाजशास्त्र, नृशास्त्र, राजनीतिशास्त्र जैसे विषयों से अनिवार्य रूप से सम्बन्धित है।

अंतरिक्ष पृथ्वी की आंतरिक एवं बाह्य शक्तियाँ, सौर्यिक शक्ति, गुरूत्वाकर्षण आदि भौतिकशास्त्र एवं पर्यावरण दोनों के अध्ययनगत विषय है, अत: भौतिक शास्त्र एवं पर्यावरण शिक्षा स्वत: एक दूसरे से संबद्ध है सौर्यिक शक्ति, प्रकाश का विश्लेषण तथा ऊर्जा का संचरण पर्यावरण शिक्षण के अविभाज्य अंग है। वायुमंडल की गैसें, जलवाष्प, नाइट्रोजन चक्र, ऑक्सीजन चक्र, कार्बन चक्र, जलचक्र आदि का अध्ययन पर्यावरण में किया जाता है। पर्यावरण अध्ययन में गणित, सांख्यिकी और कम्प्यूटर विज्ञान का प्रयोग दिन प्रतिदिन बढ़ रहा है। विभिन्न पर्यावरणों में जनसंख्या, वनस्पति जगत, जैव जगत के वितरण आदि के अध्ययन में प्रतिचयन तकनीकों एवं सांख्यिकीय विधियों यथा- माध्यिका बहुलक, मानक, केंद्रीय प्रवृत्तियाँ, सह सम्बन्ध, संभाव्यता वक्र का प्रयोग किया जाता है। अत: ये समस्त विधियाँ पर्यावरण शिक्षण से संलग्न हैं।

सामाजिक विज्ञान के आर्थिक तंत्र यथा कृषि, वन उद्योग, पशुचारण, खनिज संपदा का खनन कार्य, मत्स्य उद्योग आदि भौतिक स्वरूप, क्षेत्रीय जलवायु वनस्पति, खनिज संसाधन, यातायात की सुविधा, जनसंख्या का घनत्व आदि पर्यावरणीय कारकों से सम्बन्धित है। पर्यावरण संसाधनों के समुचित ज्ञान के बिना आर्थिक क्रियाएँ सफल नहीं है। पुनश्च पर्यावरण प्रदूषण नियंत्रण के लिये आर्थिक अनुदानों की आवश्यकता पड़ती है। पर्यावरण शिक्षा सामाजिक पर्यावरण का अनिवार्य घटक है। पर्यावरण से शिक्षित समाज ही पर्यावरण संरक्षण करने में सहायक है। देश की समस्याएँ यथा भूक्षरण, बाढ़ें सूखा, मरूस्थलीय करण, रेह और बंजर भूमि की समस्या, बेकार भूमि का प्रबंधन और प्रदूषण जैसी समस्याओं के निराकरण में पर्यावरण शिक्षा की विशिष्ट भूमिका है। देश के विकास में वहाँ के प्राकृतिक तत्वों की महत्त्वपूर्ण भूमिका रहती है। उपजाऊ भू-क्षेत्र, अनुपजाऊ पर्वतीय पठारी, भूमिवाले भागों के विकास की दशाएँ एक दूसरे से पृथक है। अत: प्रत्येक देश के इतिहास में प्राकृतिक पर्यावरण की महत्त्वपूर्ण भूमिका है।

नृशास्त्र विभिन्न मानव प्रजातियों के विकास का अध्ययन करता है जबकि मानव पारिस्थितिकी का अध्ययन पर्यावरण शिक्षा में किया जाता है। पर्यावरण का प्रभाव मानव की शरीर रचना पर पड़ता है। शरीर का कद, शिर, नाक, चेहरे की बनावट, जबड़े, आँखें आदि पर्यावरण से प्रभावित होते हैं। पर्यावरण परिवर्तन के साथ ही त्वचा का रंग भी परिवर्तित हो जाता है। विषुवत रेखा से उत्तर की ओर जाने पर श्यामवर्ण धीरे-धीरे गौरवर्ण में परिवर्तित हो जाता है। देश की सुरक्षा आदि से संलग्न विषय भी पर्यावरण से संबद्ध हैं। क्षेत्र का मानचित्र सेना की सहायता करता है। पर्यावरणीय दशाओं से सैन्य संचालन प्रभावित होता है। प्राकृतिक क्रियाकलाप यथा कोहरा, वर्षा, पवनें, जलधाराएँ आदि सेना के संचालन में बाधक बनते हैं। अपनी प्राकृतिक परिस्थितियों के कारण ही कुछ जातियाँ जन्म से ही योद्धा होती हैं तथा कुछ विलासी होती हैं। इस प्रकार पर्यावरण शिक्षा का सम्बन्ध सभी विषयों के अंगो-उपांगों से है।

पर्यावरणीय शिक्षा की आवश्यकता


विचारों का आदान प्रदान करने के लिये शिक्षा एक आदर्श और व्यापक तथा बहुआयामी माध्यम है। पर्यावरणीय शिक्षा के माध्यम से छात्रों में पर्यावरण के प्रति अनुराग उत्पन्न कर उसके संरक्षण, के जागरूक बनाना है। पर्यावरण के भौतिक, सामाजिक एवं सौंदर्यपरक पक्षों के प्रति सचेत बनाना है। वास्तविक जीवन दशाएँ पर्यावरण और जीवन को जोड़ती हैं। महाराष्ट्र और गुजरात की प्राकृतिक दशाएँ किस प्रकार आज जीवन के लिये संकट है भू-क्षरण, मृदा, प्रदूषण और कीटनाशकों का प्रभाव किस प्रकार हमारे लिये संकट है। संसाधनों का संरक्षण, संदोहन किस प्रकार करें? यह हमारे लिये कितने मूल्यवान हैं? इन सब की सम्यक जानकारी छात्रों को प्रदान करने की आवश्यकता है। हम अपनी जीवन शैली में परिवर्तन करके अपने पर्यावरण की क्षति को बचा सकते हैं। विनाशसील एवं दुलर्भ संसाधनों, जीवों की रक्षा कर सकते हैं। इन सब का अनुशीलन बाल ज्ञान प्रबोध से ही प्रारंभ हो जाता है।

पर्यावरण शिक्षा को स्नातक स्तर पर सूक्ष्म एवं तकनीकि स्तर पर विभाजित कर उनके संरक्षण के लिये रणनीति बनाने की आवश्यकता पर बल दिया जाता है। इन स्तरों पर शिक्षण और शोधपरक संज्ञान का विकास छात्रों में किया जाता है। पर्यावरण संरक्षण एवं प्रबंधन के लिये पृष्ठभूमि प्रस्तुत की जाती है। शनै: शनै: पर्यावरणीय स्वास्थ्य बनाए रखने तथा सामाजिक पारिस्थितिकी में छात्र अपने दायित्व के प्रति जागरूक बनता है। पर्यावरण एक अध्ययन विषय नहीं बल्कि व्यावहारिक जीवन का आचरणमय विज्ञान बन जाता है।

पर्यावरण शिक्षा के उद्देश्य


पर्यावरण शिक्षा का उद्देश्य व्यक्ति में पर्यावरणीय चेतना उत्पन्न करना है। उसके चारों ओर जो भी पर्यावरणीय समस्याएँ हैं उनके प्रति वह सचेत हो तथा उनके निराकरण के लिये दृष्टिकोण, दक्षता एवं कौशल प्राप्त करके सहभागी बने विभिन्न पर्यावरणीय वैज्ञानिकों, अन्तरराष्ट्रीय, राष्ट्रीय एवं ख्याति प्राप्त संस्थाओं ने पर्यावरण शिक्षा के उद्देश्यों को क्रमबद्ध करने का प्रयास अपने-अपने दृष्टिकोण से किया है। यहाँ पर कुछ प्रमुख महत्त्वपूर्ण उद्देश्यों को संकलित किया गया है -

1. पर्यावरणीय समस्याओं के निदान के लिये जागरूकता उत्पन्न करना।
2. पर्यावरण का अंतरानुशासनिक एवं समन्वित ज्ञान प्रदान करना।
3. पर्यावरणीय समस्याओं के पूर्णतम निदान के लिये व्यापक दृष्टिकोण विकसित करना।
4. पर्यावरण संरक्षण, संवर्धन तथा पर्यावरण की घातक प्रवृत्तियों को रोकने के लिये दक्षता का विकास करना।
5. प्रत्येक व्यक्ति में जीवन तंत्र की रक्षा के लिये योग्यताओं का विकास करना।
6. पर्यावरणीय समस्याओं के निराकरण के लिये सहभागिता का विकास करना।
7. मानवीय क्रियाओं का पर्यावरण के प्रभाव पर मूल्यांकन करना।
8. पर्यावरणीय प्रभाव का अन्य जीव प्रजातियों पर प्रभाव का मूल्यांकन करना।
9. पर्यावरण पर मानव प्रभाव को मापना।
10. प्राकृतिक तत्वों पर होने वाले परिवर्तनों के प्रभाव को समझना।
11. पर्यावरण की क्षेत्रीय विषमताओं का अध्ययन करना।
12. पर्यावरण प्रभाव तथा मूल्यांकन के सोपानों का ज्ञान करना।
13. पर्यावरणीय प्रभाव कथन तैयार करने की तकनीकि तैयार करना।
14. पर्यावरणीय प्रबंधन की योजना तैयार करने की कुशलता प्रदान करना।
15. पर्यावरण मानक ज्ञात करने के लिये सूचकों का विकास करना।
16. स्कूल, कॉलेज और विश्वविद्यालयों पर्यावरण जागरूकता के लिये पाठ्यक्रम तैयार करना।
17. नीति निर्धारकों तथा निर्णयकारी अधिकारियों के लिये पर्यावरण शिक्षण कार्यक्रमों का क्रियान्वयन करना।
18. पर्यावरण शिक्षण के लिये आर्थिक सहायता प्रदान करना।
19. पर्यावरण सूचना तंत्र का विकास करना।
20. प्रदूषण नियंत्रण कार्यक्रमों का कार्यान्वयन।

पर्यावरण शिक्षण की विधियाँ


पर्यावरण अतिव्यापक अंतरानुशासनिक विषय है इसके सफल शिक्षण के लिये आवश्यकतानुसार उपयुक्त विधियों का प्रयोग अति आवश्यक है। पर्यावरण शिक्षण में अनेक विधियों का प्रयोग होता है। जिनमें व्याख्यान विधि, प्रदर्शन विधि, पर्यटन विधि, योजना विधि एवं सेमिनार आदि उच्चतर शिक्षा की महत्त्वपूर्ण विधियाँ हैं।

1. व्याख्यान विधि - व्याख्यान विधि के द्वारा गूढ़ विषय को स्तरीय रूपरेखा के अन्तर्गत संप्रेषणीय बनाया जाता है। व्याख्यान शिक्षण का माध्यम नहीं बल्कि सूचनाओं का माध्यम है। यह पर्यावरण के सिद्धांतों की विवेचना, प्रदूषण अध्ययन, प्रबंधन, जागरूकता उत्पन्न करने, दृष्टिकोण निर्माण करने तथा पर्यावरण निर्माण करने में यह विधि उपयोगी है।

2. सेमिनार एवं वाद विवाद विधि - जॉन यू माइकेलिस12 के अनुसार ‘‘अधिक प्रभावी ज्ञान बच्चों के समूह को विवेचना करने, मूल्यांकन करने, चुनौती देने, पुनरीक्षा करने और विचारों, सुझावों, कार्यों एवं समस्याओं में भागीदारी सुनिश्चित करने से प्राप्त किया जा सकता है।’’

सेमिनार ज्ञान प्राप्त करने का प्रभावशाली माध्यम है इसमें वक्ता एवं स्रोता दोनों के ज्ञान में वृद्धि होती है। इसमें विचारणीय विषय में विचार विमश्र करते हैं। तथा खुले रूप में विचारों का आदान प्रदान होता है।

3. प्रदर्शन विधि - इसमें मस्तिष्क प्रत्यक्ष रूप से ज्ञानेन्द्रियों द्वारा प्रभावित होता है। इसमें वास्तविक स्वरूप को दिखाकर या उसके मॉडल, नमूने, आरेख, चार्ट, मानचित्र, रेखा चित्र, ग्राफ तथा आधुनिक दृश्य श्रव्य सामग्री के माध्यम से प्रदर्शन कराकर स्पष्ट किया जाता है। पर्यावरण शिक्षण में भूगोल शिक्षक के लिये यह विधि विशेष महत्त्व की होती है।

4. पयर्टन विधि - छात्रों को वास्तविक जगत की रचनाओं, परिस्थितियों एवं दशाओं से परिचय कराने के लिये पर्यावरण शिक्षण में पयर्टन विधि सबसे महत्त्वपूर्ण है। यह विधि आयुवर्ग के छात्रों के ज्ञान स्तर के अनुसार प्रयोग में आती है। इसमें छात्रों को प्रकृति के तत्वों की वास्तविक दशा का ज्ञान कराया जाता है। इसके माध्यम से भूगोल शिक्षण को सजीव बनाया जाता है। भूगोल का अधिकांश भाग मस्तिष्क की अपेक्षा पैरों से सीखा जाता है। पर्यावरण का ज्ञान मस्तिष्क और पैरों दोनों से सीखा जाता है।

5. योजना विधि - योजना स्वाभाविक परिवेश में किये जाने वाले स्वाभाविक कार्य की एक इकाई होती है। इसमें किसी कार्य को करने या किसी वस्तु के निर्माण की समस्या का पूर्णरूप से निदान करने का प्रयास किया जाता है। पार्कर13 के शब्दों में योजना कार्य की एक इकाई है जिसमें छात्रों को योजना और उसके संपादन के लिये उत्तरदायी बनाया जाता है। इस पद्धति में बालक के अपने अनुभव का विकास होता है।

स्टॉकहोम सम्मेलन में स्पष्ट रूप से घोषणा की गयी थी कि वर्तमान और भावी पीढ़ियों के लिये पर्यावरण की रक्षा एवं सुधार मानवता का अनिवार्य लक्ष्य हो गया है। इसलिये पर्यावरण शिक्षा जवान और बूढ़े, धनी और निर्धन, साक्षर और निरक्षर, ग्रामीणों, किसानों, औद्योगिक श्रमिकों, नगरीय संभ्रान्तों, अधिकारियों उद्योगपतियों, व्यापारियों, इंजीनियरों, प्रबंधकों, प्रशासकों, राजनीतिज्ञों एवं विकास नियोजकों सभी को दी जानी चाहिए। स्कूलों और विश्वविद्यालयों में इसे अनिवार्य शिक्षा के रूप में दिया जाना चाहिए।

य. लखनऊ नगर के प्रदूषण नियंत्रण की रणनीति कानून एवं नियोजन


1. लखनऊ महानगर के पर्यावरण में प्रदूषक तत्वों के स्तर की तुलना राज्य एवं केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड से करने पर यह निष्कर्ष निकलता है कि मृदा जलवायु एवं ध्वनि प्रदूषण की समस्याएँ अत्यंत गम्भीर और चिंताजनक है। इन समस्याओं के निराकरण एवं नियंत्रण के सम्यक उपाय न किये गये तो लखनऊ नगर निवासियों का जीवन संकटग्रस्त हो जायेगा, पर्यावरण ह्रास होगा और मानव जीवन के लिये प्रतिकूल दशाएँ उत्पन्न हो जायेंगी। अत: समय रहते यह आवश्यक है कि प्रदूषण के बढ़ते खतरे को नियंत्रित करने के लिये सम्यक रूपरेखा तैयार करनी चाहिए तथा पर्यावरण प्रबंधन के लिये बनाए गये कानूनों को कठोरता के साथ लागू करने की आवश्यकता इस महानगर की मांग है। लखनऊ महानगर की पर्यावरणीय समस्याओं का उपचार एवं निदान निम्नलिखित कारणों से अति आवश्यक है। लखनऊ महानगर की भीषण समस्या न केवल लखनऊ महानगर को ही प्रभावित करेगी बल्कि निकटवर्ती ग्रामीण क्षेत्रों और नगरों के लिये भी खतरा उत्पन्न करेगी।

2. अन्य महानगरों से मिली हुई शिक्षा का उपयोग करने, तथा नगर को स्वच्छ एवं स्वास्थ्य वर्धक बनाने की महती आवश्यकता है।

3. देश विदेश के नगरों में अपनायी गयी प्रदूषण नियंत्रण विधियों की समीक्षा करने, उनके उपयोगी पक्ष को खोलने और क्रियात्मकता से लखनऊ नगर की समस्याओं का अल्पकालिक समाधान प्राप्त किया जायेगा।

4. लखनऊ महानगर उ.प्र. की राजधानी है। यहाँ प्रदूषण समस्या प्रत्येक नागरिक को चिंतित करती है कि नागरिक जीवन की गुणत्ता बनाए रखने के लिये ऐसे अल्पकालिक और दीर्घकालिक नियोजन अपना कर लखनऊ नगर को प्रदूषण मुक्त रखा जा सकता है।

5. लखनऊ महानगर में गम्भीर प्रदूषण जन्य बीमारियों का प्रति वर्ष आक्रमण होता है। जिससे नागरिक जीवन और स्वास्थ्य प्रतिकूल रूप से प्रभावित होता है। नगर निवासियों को पीलिया, हैजा, डायरिया, डायसेंटरी, मलेरिया, टीबी, कैंसर, अस्थमा, ब्रोन्काइटिस, एनीमोनिया तथा हृदय रोगों से बचाने के लिये बड़े ही सचेत प्रयास करने की आवश्यकता है यह आवश्यकता ऐसी रणनीति की मांग करती है कि दीर्घकाल तक लखनऊ महानगर के पर्यावरण को संक्रामक बीमारियों से मुक्त रखा जा सके।

वास्तव में पर्यावरण प्रबंधन एवं नियोजन हमारे राष्ट्रीय विकास नियोजन से जुड़ी हुई राष्ट्रीय समस्या है। इसीलिये भारत सरकार ने केंद्र और राज्यस्तर पर प्रदूषण नियंत्रण परिषदों की स्थापना की है जो पर्यावरण संरक्षण संवर्धन के लिये आदर्श संस्थाएँ हैं इसके अतिरिक्त भारत सरकार ने राष्ट्रीय परिविकास परिषद का 1981 संगठन किया है।

यह परिषद ऊर्जा, ग्रामीण नियोजन पुनर्निर्माण, सिंचाई, अंतरिक्ष प्रतिरक्षा, पर्यावरण, वन एवं नियोजन कार्यों की देखरेख करती है। यह संस्था इसलिये भी विशेष महत्त्व रखती है कि यह प्रत्येक समस्याग्रस्त क्षेत्र और परिस्थिति का अध्ययन करती है, परियोजना तैयार करती है जो पारिस्थितिकी का संरक्षण करें तथा स्थानीय लोगों की आवश्यकताओं को पूरा करे। इस दिशा में पर्यावरण विभाग भी महत्त्वपूर्ण कार्य करता है और पर्यावरण संरक्षण के लिये यंत्रों तकनीकी और विधियों की सुलभता प्रदान करता है पर्यावरण विभाग लगातार युवकों, स्वयंसेवी संगठनों, अवकाश प्राप्त कर्मचारियों और महिलाओं को पारिस्थितिकी विकास कार्यों में सम्मिलित करता है तथा पर्यावरण प्रबंधन सम्बन्धित कार्यों और स्थानीय लोगों में जनजागरुकता उत्पन्न करने के लिये धन उपलब्ध कराता है यह विभाग सिंचाई करना, पौधे लगाना, सामुदायिक अपशिष्ट तथा कूड़ा करकट एकत्रित करना वर्षाजल का, कृषि कार्यों के लिये संग्रह करना, जलाशयों तथा कुओं की सफाई करना, वनों तथा वन्यजीवन की स्थानीय लोगों की सहायता एवं रक्षा करना इस विभाग के मुख्य कार्य हैं। यह विभाग लखनऊ महानगर के अपशिष्ट निस्तारण, गोमती सफाई अभियान, वायु एवं ध्वनि प्रदूषण नियंत्रण में राज्य प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड की सहायता से महत्त्वपूर्ण कार्य करता है।

लखनऊ महानगर के पर्यावरण प्रदूषण नियंत्रण की रणनीतियाँ यहाँ के सामाजिक मूल्यों, नागरिकों की आवश्यकताओं, कार्य कुशलताओं एवं लक्ष्यों के अनुसार अन्य नगरों से भिन्न हो सकती है। यहाँ के प्रदूषण नियंत्रण सम्बन्धी नीतियाँ बनाने के पूर्व हमें निम्नलिखित तथ्यों पर समुचित विचार करना चाहिए।

1. नगर के भू-जैविक पर्यावरण पर यहाँ के नगर निवासियों पर जो प्रभाव है उसका अल्प एवं दीर्घकालिक मूल्यांकन आवश्यक है।

2. नगर की विशाल परियोजनाएँ नगर के भू-जैव चक्रों को बाधित कर सकती है। इसलिये उसके अल्पकालिक एवं दीर्घकालिक योजना का मूल्यांकन करना चाहिए जो सामाजिक आर्थिक उद्देश्यों को प्रभावित किए बिना प्रदूषण जन्य प्रभावों को रोकने में सक्षम हों।

3. नगर के उद्योगों तथा घरेलू क्रियाकलापों में जीवाश्म र्इंधन के स्थान पर वैकल्पिक नव्यकरणीय ऊर्जा के उपयोग को प्रोत्साहन देना।

4. ऐसे नियम और कानून बनाये जाने चाहिए जो व्यक्तिगत स्वार्थ से हटकर सामाजिक हित को बढ़ावा दे सके।

5. प्रदूषण मुक्त वातावरण के लाभदायक प्रभाव को जनता में प्रचार प्रसार करने तथा जनता में पर्यावरण चेतना उत्पन्न करना।

6. ऐसी टेक्नोलॉजी का विकास करना चाहिए कि टेक्नोलॉजी का पारिस्थितिकी पर अनावश्यक दबाव न पड़े और पर्यावरण संकट उत्पन्न न हों।

7. नगर की रणनीति में ऐसे वैकल्पिक उपाय ढूँढे जाएँ जो भू-जैव पर्यावरण पर आर्थिक और सामाजिक दवाबों को नियंत्रित कर सकें।

8. विकास कार्यों में प्रयुक्त की जाने वाली टेक्नोलॉजी भौगोलिक पर्यावरण के अनुकूल हो।

उक्त तथ्यों को ध्यान में रखकर लखनऊ महानगर के प्रदूषण नियंत्रण की रणनीति दीर्घकाल तक लखनऊ महानगर को प्रदूषण से मुक्त रख सकती है। लखनऊ महानगर के पर्यावरण प्रबंध की रणनीति तैयार करते समय हमें जेफर्स14 के पंच अवस्था जीवनयापन प्रक्रिया को नहीं भूलना चाहिए क्रमश: 5 अवस्थाओं के कार्य पूरे करके पर्यावरण एवं नियोजन को अधिक सफल एवं सार्थक बनाया जा सकता है। प्रथम अवस्था में हमें प्रबंध नियोजन के लक्ष्य एवं उद्देश्यों की पहचान कर लेनी चाहिए। सम्बन्धित विभागों के बीच में सहमति होना चाहिए। द्वितीय अवस्था में विद्यमान प्रदूषण समस्याओं के स्वरूप आयाम और इनकी गम्भीरता को समझ लेना है। तत्वसम्बन्धी शोधकार्य प्रारम्भ करना चाहिए। तीसरी अवस्था में हमें समस्याओं के निराकरण के लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिये वैकल्पिक रणनीतियाँ तैयार करनी चाहिए और उनका मूल्यांकन करना चाहिए। चतुर्थ अवस्था में अनेक रणनीतियों में विशिष्ट एवं उपयुक्त रणनीति का चयन करके उसे अध्ययन क्षेत्र में क्रियान्वित करना चाहिए। पंचम अवस्था में क्रियान्वयन से उत्पन्न समस्याओं की देखरेख करना चाहिए तथा परिवर्तनशील मूल्यों और अंगों के आधार पर हमें रणनीति को आवश्यकतानुसार संशोधित कर लेना चाहिए।

उपरोक्त बातों को ध्यान में रखते हुए लखनऊ महानगर के पर्यावरणीय समस्याओं के निराकरण के लिये मृदा, जल, वायु, ध्वनि एवं सामाजिक प्रदूषण सम्बन्धी समस्याओं के निराकरण के लिये पृथक-पृथक रणनीति तैयार करना अधिक उपयोगी एवं प्रभावी होगा।

1. मृदा प्रदूषण नियंत्रण एवं नियोजन हेतु रणनीति


लखनऊ महानगर में ठोस अपशिष्ट और कचरे की भारी मात्रा निकलती है। केवल अपशिष्ट गोदामों से प्रतिदिन 16000 टन ठोस कचरा निकलता है यहाँ के कचरे की संरचना का अध्ययन करते समय यह ज्ञात होता है कि इसमें प्लास्टिक, पॉलिथीन, कागज, लोहा, कांच, क्राकरी, लकड़ी, तांबा, हड्डियाँ, र्इंट, पत्थर और मिट्टी निकलती है। सब्जियों के छिलके घर के चीथड़े तथा रसोई के अपशिष्ट निकलते हैं। ये कचरा नगर के 505 कूड़ा गोदामों में तथा 1000 से अधिक अघोषित कूड़ा गोदामों में डाला जाता है जो पर्यावरण के तीनों घटकों मृदा, जल और वायु को प्रदूषित करता है। यदि कचरा गोदामों में कचरा छटाई मशीनें लगा दी जाए तो यह कचरा आर्थिक दृष्टि से उपादेय रोजगार परक तथा पर्यावरण के लिये हानि रहित हो सकता है। कूड़ा गोदामों से लखनऊ महानगर में प्रतिदिन 1600 टन कचरे में से विद्युत उत्पादन के लिये वनस्पतियाँ चीथड़े की सामग्री, रस्सियाँ, पंख, लकड़ी आदि अलग करके ऊर्जा, कागज, कम्पोस्ट एवं वर्मी खाद प्राप्त की जा सकती है। तालिका- 7.4 में लखनऊ महानगर में प्राप्त होने वाली कचरे की मात्रात्मक संरचना प्रदर्शित की गयी है।

तालिका 7.4 नगरीय कचरे की मात्रात्मक संरचनाउक्त तालिक - 7.4 के विश्लेषण से यह ज्ञात होता है कि लखनऊ महानगर के कचरे में कार्बनिक एवं अकार्बनिक पदार्थ रहते हैं। जिनका प्रयोग विद्युत उत्पादन, कागज निर्माण, हड्डी चूरा उत्पादन, सड़क निर्माण, पुनर्चक्रण तथा कम्पोस्ट एवं वर्मी खाद बनाने में किया जा सकता है। इस प्रकार का प्रयोग न केवल नगरीय पर्यावरण को शक्ति एवं स्वच्छता प्रदान करेगा बल्कि व्यावसायिक, औद्योगिक और जनसेवा क्षेत्रों में उपयोगी सिद्ध होगा, नगर के आर्थिक उत्पादन में इस कचरे की सहायक भूमिका होगी। एक मूल्यांकन के आधार पर नगर में कचरे से विद्युत उत्पादन की दो इकाइयां, हरदोई रोड बालागंज तथा बिजनौर रोड में स्थापित करके लगभग 80 लोगों को रोजगार उपलब्ध कराया जा सकता है। इन दोनों संयंत्रों से लगभग 8 मेगावाट विद्युत उत्पादन करके नगर की औद्योगिक इकाइयों को अतिरिक्त विद्युत प्रदान की जा सकती है। इन विद्युत संयंत्रों से निकलने वाली राख का प्रयोग उपनगरीय कृषि क्षेत्रों एवं बागानों में प्रयोग किया जा सकता है। यह राख अनाज फलों तथा सब्जियों के उत्पादन में वृद्धि करेगी। रासायनिक उर्वरकों के उपयोग को कम करने में सहायक होगी।

इस दिशा में नेडा द्वारा किये जाने वाले प्रयास तथा चेन्नई की कंपनी इंकैप के प्रयास बहुमूल्य है। इसी प्रकार से घास, कागज, पत्ते, मुलायम लकड़ियों आदि को कचरे से अलग करके प्रतिदिन लगभग 3942 टन कागज तैयार किया जा सकता है। इसका मूल्य 1,18,000 रुपए प्रतिदिन का होगा इस कार्य में लगभग 30 व्यक्तियों को स्थायी रोजगार प्राप्त हो सकता है।

तालिका 7.5 लखनऊ महानगर में कचरे का आर्थिक प्रबन्धकागज निर्माण के दो संयंत्रों में एक कागज मिल निशातगंज तथा ऐशबाग में स्थापित किये जा सकते हैं कागज निर्माण के लिये लगभग 38 टन कचरे का प्रयोग निशातगंज की पेपर मिल को संचालित करने में किया जा सकता है। इस प्रकार मिल के समक्ष कच्चे पदार्थ की समस्या को हल किया जा सकता है और नगरीय लोगों को रोजगार मिल सकेगा।

नगरीय कचरे में पशुओं की हड्डियां, बूचड़खाना तथा कचरा गोदामों से प्राप्त करके उनका प्रयोग वोन क्रॉसिंग मिलों की स्थापना करके अस्थिचूर्ण तैयार करने में किया जा सकता है। नगरीय कचरे में लगभग 19 प्रतिशत हड्डियाँ प्राप्त होती है। इनसे प्रतिदिन 6 टन हड्डी चूरा जिसका मूल्य 60,000 रुपये है तीन इकाइयां स्थापित करके प्राप्त किया जा सकता है।

तालिक- 7.4 से स्पष्ट होता है कि कचरे में पर्याप्त मात्रा में मिट्टी, पत्थर, र्इंट आदि मिला रहता है जिसकी मात्रा लगभग 185 मी. टन है। इस मिट्टी एवं पत्थर का प्रयोग सड़क निर्माण में किया जा सकता है। इस कचरे में प्लास्टिक की भी पर्याप्त मात्रा रहती है। प्लास्टिक की मात्रा लगभग 36 मी. टन रहती है। प्लास्टिक संयंत्र में इस प्लास्टिक का उपयोग करके सुनहरा और टिकाऊ सड़क का निर्माण करने में किया जा सकता है। इस कार्य में 32 व्यक्तियों को रोजगार मिल सकता है तथा नगरीय क्षेत्र को प्लास्टिक प्रदूषण से मुक्त कराया जा सकता है। लखनऊ नगर के कचरे में लोहा, तांबा, एल्यूमीनियम, काँच आदि वस्तुएँ पुनर्चक्रण के द्वारा पुन: प्रयोज्य बनायी जा सकती है। लखनऊ महानगर के कचरे में इन वस्तुओं की मात्रा 6.40 टन के लगभग है। इन धातुओं को तीन संयंत्रों ऐशबाग, मोतीझील तथा विकासनगर के निकट स्थापित करके प्रतिदिन 5 टन पुनर्चक्रित धातुएँ प्राप्त की जा सकती है जिनका मूल्य 71,500 है। इस कार्य में 25 लोगों को स्थायी रोजगार प्राप्त हो सकता है।

नगर को मृदा प्रदूषण से छुटकारा देने के लिये शेष कचरे का प्रयोग कम्पोस्ट खाद उपलब्ध कराने की ओर किया जा सकता है। कम्पोस्ट खाद के लिये 628 टन घरेलू अपशिष्ट, सब्जियाँ, सड़े फल आदि से 396 टन कम्पोस्ट एवं वर्मी खाद तैयार की जा सकती है। इस कार्य से 80 लोगों को स्थाई रोजगार मिलेगा।

इस प्रकार उपरोक्त विधि से नगरीय कचरे को न केवल उपादेय एवं अर्थप्रदेय बनाया जा सकता है बल्कि नगर को प्रदूषण से मुक्त बनाया जा सकता है।

जल प्रदूषण नियंत्रण एवं नियोजन हेतु रणनीति


लखनऊ महानगर में जल प्रदूषण का संकट गहराता जा रहा है। लखनऊ जल संस्थान के उपलब्ध आंकड़ों के अनुसार लखनऊ में लगभग 45 करोड़ लीटर पानी की पूर्ति की जाती है जिसमें से 25 करोड़ ली. गोमती से लिया जाता है शेष 20 करोड़ लीटर नलकूपों से, गोमती विशेषकर राजधानी व उसके आगे 20-25 किमी. तक इतना अधिक विषाक्त है कि भू-गर्भ जल भी विषैला हो गया है। 1996 के एक अध्ययन में पाया गया की लखनऊ महानगर में प्रतिवर्ष पाँच से कम वर्ष के 1000 बच्चों की मृत्यु डायरिया से होती है। हजारों लोग प्रतिवर्ष हैजा, गैस्ट्रो, डायरिया, डिसेंट्री, आमीवियाइसिस, कोलाइटिस, फाइलेरिया, पीलिया, पेट के कैंसर, सांस और चर्म रोगों का शिकार हो रहे हैं।

नगर में पेयजल को प्रदूषण मुक्त बनाने की दिशा में आवश्यक होगा कि पेयजल स्रोत को प्रदूषण मुक्त करने का प्रयास किया जाए। नगर के गोमती में गिरने वाले 31 नालों को आपस में जोड़कर पाइप लाइनों के माध्यम से पंप करके नगर से दूर पिपराघाट में गिराए जाने की आवश्यकता है। गोमती के दाहिने किनारे में गिरने वाले गऊघाट, सरकटा नाला, लाप्लेश, जापलिंग रोड नालों को आपस में जोड़ते हुए हैदर कैनाल में गिराया जाए। पुन: इसे नदी के बहाव की दिशा में जियामऊ के पास से मोड़ते हुए पिपराघाट तक पंपों की सहायता से ले जाकर स्लेज फार्म के लिये उपलब्ध भूमि में उपचारित किया जाए। उपचार के पश्चात पुन: नदी की धारा में आगे ले जाकर मिला दिया जाए इसी प्रकार गोमती में मिलने वाले बायें किनारे के डालीगंज, खदरा, टीजी हॉस्टल, निशातगंज, महेशगंज व महानगर के नालों को आपस में जोड़ते हुए कुकरैल नाले से जोड़ा जाए इसे आगे स्लेज फार्म तक ले जाकर उपचारित किया जाए। इसके साथ ही सीवरों के अपशिष्ट का निस्तारण तथा उपचार किया जायेगा।

गोमती एक्शन प्लान के सर्वेक्षण के अनुसार नगर का 53 प्रतिशत पानी लीकेज द्वारा बह जाता है। लीकेज के कारण पानी का दबाव कम हो जाता है तथा पाइप लाइनों में दूषित जल तथा रोग जनक कीटाणु एवं हानिकारक कीटाणु आ जाते हैं। इसके लिये कानूनी व्यवस्था को सख्त बनाने तथा सभी के लिये समुचित पेयजल उपलब्ध कराने की आवश्यकता है। इसके लिये निजी स्तर पर भी अच्छे प्रयास किये जा सकते है। पेयजल स्रोत से पूर्व अर्थात गऊघाट से पहले किसी भी दशा में सीवर जल या नालों का जल गोमती में न डाला जाए।

गोमती नदी में बैराज की स्थापना गऊघाट के निकट करने की आवश्यकता है। इससे तीन महत्त्वपूर्ण कार्य हो सकेंगे। प्रथमत: गऊघाट से शुद्ध जल पूर्ति के लिये मिल सकेगा तथा गर्मी में नदी के पानी में कमी से पेयजल की समस्या कम हो सकेगी। द्वितीयत: नगर में गोमती जल ठहराव से जो भारी मात्रा में मीथेन गैस का उत्सर्जन (तालिका 4.10) होता है तथा नगरीय पर्यावरण के लिये गंभीर खतरा उत्पन्न होता है इससे उत्पन्न दुर्गंध की समस्या से बचा जा सकता है। तृतीय रूप में दूषित नदी जल के ठहरने से भू-गर्भ जल प्रदूषण की समस्या तथा गोमती नदी तल में जमा सिल्ट की समस्या पर भी नियंत्रण किया जा सकेगा।

जल की गुणवत्ता में ह्रास के साथ ही लखनऊ नगर में गोमती नदी से बढ़ती जनसंख्या के लिये पेयजल उपलब्ध कराना कठिन है। इस समस्या के निदान के लिये आवश्यक है कि गोमती के अतिरिक्त पेयजल स्रोतों के विकल्प खोजे जाएँ। महत्त्वपूर्ण विकल्प के रूप में शारदा नहर को लिया जा सकता है। शारदा नर से रेलवे क्रॉसिंग के निकट से पानी लिया जा सकता है। तथा इसके लिये गोमती नगर के विराम खंड या उसके आगे वाटर वर्क्स की स्थापना की जा सकती है। जो भविष्य में बड़ी उपादेय हो सकेगी इसके विकास के लिये कई चरण आवश्यक होंगे। इस योजना से गोमती नगर तथा इंदिरा नगर जैसी बड़ी कॉलोनियों तथा फैजाबाद रोड पर बसी बस्तियों के लिये पेयजल उपलब्ध हो सकेगा। इसी क्रम में परिकल्प सिंचाई नहर के जल का प्रयोग हरदोई रोड बाईपास से अलग होने के स्थान या आगे काकोरी के निकट मोहान रोड क्रांसिंग के पास जल कल केंद्र की स्थापना की जा सकती है। सूखे मौसम में विकल्प के लिये नलकूपों की सहायता लेकर संचालित किया जा सकता है। इसके संचालन से राजाजीपुरम काकोरी, मोहान रोड तथा अन्य क्षेत्रीय नव विकसित कॉलोनियों के लिये पेयजल उपलब्ध हो सकेगा। विकल्प के रूप में लिये गए यह जलस्रोत गोमती जल की तुलना में अधिक स्वच्छ है जहाँ गोमती जल में गऊघाट में 600 mg/I लोहे की मात्रा है, वहीं शारदा नहर में 184 mg/I है। गोमती जल में मैग्नीज 53 mg/I है तथा शारदा नहर में 12 mg/I है इसी प्रकार क्रोमियम और सीसे की मात्रा भी गोमती जल से अधिक है। (तालिका- 3.7) अत: इन विकल्पों पर अमल करने की आवश्यकता है।

नगर में स्वच्छ पर्यावरण की दृष्टि से लक्ष्मणझील, मोतीझील को कई चरणों में स्वच्छ करके वर्षाजल का भंडारण किया जाए ताकि भू-गर्भ जल के गिरते स्तर में सुधार हो सके (तालिका- 3.3) लखनऊ के नवाबों के गोमती जल में अभिवृद्धि के जो प्रयास गंगा की धारा को गोमती से मिलाने की दिशा में किए गए थे उसे नयी योजना देकर पुनर्जीवित करने की आवश्यकता है। इससे गोमती जल के बहाव को स्थायी बनाए रखा जा सकता है। इस योजना को दीर्घकालिक योजना के अंतर्गत नियोजित करने की आवश्यकता होगी।

कृषि में प्रयोग होने वाले कृषि रक्षा रसायन, कीटनाशक पर्णनाशी तथा उर्वरक मिट्टी के साथ नदी जल को दूषित करते हैं। कीटनाशकों से नदी को बचाने के लिये नदी के दोनों किनारों में 100-200 मी. या उससे अधिक उपलब्ध भूमि में खस, सरपत या दूसरी घासें या पेड़ों के जंगल उगाने चाहिए, जिसमें से दूषित पदार्थ बहकर नदी में न जा सकें। गोमती को हरगाँव और गोला चीनी मिलों, मोहन मीकिन शराब कारखाने अधिक प्रदूषित करते हैं अत: इनका निस्तारित जल गोमती में आने से रोका जाए। भविष्य में दूषित जल को उपचारित करने की आवश्यकता निश्चित की जानी चाहिए।

वायु प्रदूषण नियंत्रण की रणनीति, कानून एवं नियोजन


विगत अध्ययन से यह स्पष्ट है कि लखनऊ महानगर में वायु प्रदूषण की समस्या बड़ी गम्भीर है। इस महानगर में प्रतिदिन पेट्रोलियम चालित वाहनों से 11,70,000 किग्रा. कार्बन मोनो ऑक्साइड, हाईड्रो कार्बन, 87,500 किग्रा., नाइट्रोजन ऑक्साइड 54,600 किग्रा., पर्टीकुलेट मैटर 4,850 किग्रा. सल्फर 39,000 किग्रा. एल्डीहाइड 1,950 किग्रा. वेंजो पायरीन 234 ली. प्रतिदिन हवा में प्रवेश कर जाती है। इसी प्रकार से औद्योगिक इकाइयों से उक्त मात्रा का 70 प्रतिशत तथा घरेलू कार्यों से उक्त मात्रा का 20 प्रतिशत प्रदूषण यहाँ के नगरीय वायुमंडल में प्रतिदिन जुड़ जाता है। अत: नगर को वायु प्रदूषण से मुक्त रखने के लिये अल्पकालिक एवं दीर्घकालिक योजना तैयार करनी होगी अल्पकालिक योजना में वर्तमान प्रदूषण कम करने के उपाय तथा दीर्घकालिक योजना में परिवहन साधनों को प्रदूषण मुक्त करने की व्यवस्था करना सम्मिलित है।

अल्पकालिक उपाय - लखनऊ महानगर के वायु प्रदूषण को रोकने के लिये निम्नलिखित तात्कालिक उपाय किये जा सकते हैं -
पेट्रोलियम के स्थान पर एलपीजी का प्रयोग - पेट्रोलियम उत्क्षेपों में कार्बन मोनो ऑक्साइड, नाइट्रोजन ऑक्साइड, सल्फर ऑक्साइड, सीसा तथा कैंसर जनक एल्‍डीहाइड्स जैसे घातक तत्व पर्यावरण में घुल जाते हैं। जो नगर निवासियों के सामने गंभीर स्वास्थ्य समस्या उत्पन्न करते हैं। पेट्रोलियम की तुलना में एलपीजी र्इंधन अत्यंत उपयोगी है और अत्यल्प प्रदूषणकारी है। एलपीजी में उक्त प्रदूषण तत्वों में 80 से 99 प्रतिशत कम हो जाते हैं। तालिका 7.6 में पेट्रोलियम एवं एलपीजी उत्क्षेपों का तुलनात्मक अध्ययन प्रस्तुत किया गया है -

तालिका 7.6 लखनऊ महानगर में वायु प्रदूषक तत्वों की मात्रा तथा एलपीजी से चालित वाहनों से वायु प्रदूषण में भारी कमीउक्त तालिका के अध्ययन के निष्कर्ष के रूप में कहा जा सकता है कि एलपीजी के प्रयोग से नगर में वाहन जनित या पेट्रोलियम उत्पादों से होने वाले सभी प्रकार के प्रदूषण में भारी कमी होगी अत: कानून बनाकर समस्त पेट्रोलियम वाहनों को एलपीजी चालित बनाया जाए।

2. पेट्रोलियम चालित वाहनों में उत्प्रेरक परिवर्तन लगाने का नियम बनाया जाए इससे प्रदूषक तत्व नष्ट हो जाएँगे और वाहन से वायु प्रदूषण नहीं होगा।

3. पेट्रोल चालित वाहनों में डूप्लेक्स कार्वोरेट लगाकर प्रदूषण जनित उत्क्षेपों को प्रभावहीन बनाया जा सकता है।

4. बहुमुखी रियेक्टर लगाकर, वायु प्रवेश कराकर प्रदूषण को रोका जा सकता है।

5. वाहन नगरीय प्रदूषण रोकने का एक महत्त्वपूर्ण उपाय यह भी है कि पेट्रोल इंजनों में आवश्यक परिवर्तन करके नान इथाइलेटेड पेट्रोल का प्रयोग किया जाए इससे वायु प्रदूषण नियंत्रित होगा।

6. महानगर लखनऊ में विद्युत चालित, सौर ऊर्जा चालित तथा हाइड्रोजन चालित वाहनों को प्रोत्साहित किया जाए। ये सब विधियाँ प्रदूषण मुक्त हैं।

7. नगर परिवहन में, डबुलडेकर बसों का प्रयोग किया जाए, इससे साधनों पर परिवहन दबाव कम होगा।

8. दस वर्ष से अधिक पुराने वाहनों पर रोक लगा दी जाए।

9. व्यक्तिगत उपयोग के लिये स्वचालित दोपहिया के स्थान पर साइकिल अपनाये जाने पर बल दिया जाए।

10. मोटर वाहन अधिनियम 1985 के प्राविधानों को कठोरता से लागू किया जाए।

दीर्घकालिक योजना


तात्कालि उपायों के अतिरिक्त लखनऊ महानगर को दीर्घकालिक तक प्रदूषण मुक्त रखने के लिये हमें नगर की परिवहन व्यवस्था में मौलिक परिवर्तन लाने होंगे तथा विकल्पों की वृद्धि करनी होगी, दीर्घकालिक नियोजन के अंतर्गत, रिंग रोड का निर्माण करना, परिवहन अक्षों का निर्धारण करना, स्थानीय रेल गाड़ियाँ चलाना, ट्राम्बे का विकास करना, मेट्रोट्रेन व्यवस्था का निर्माण सम्मिलित है।

1. स्थानीय रेल गाड़ियाँ चलाना - लखनऊ महानगर में एक विस्तृत रेलमार्ग उपलब्ध है जिसमें स्थानीय रेलगाड़ियाँ चलाकर न केवल नगर परिवहन व्यवस्था को ही सुचारू रूप से संचालित किया जा सकता है बल्कि प्रदूषण की समस्या से भी निपटा जा सकता है। स्थानीय रेलमार्ग के लिये एक बड़ा मार्ग, चारबाग से ऐशबाग, सिटी स्टेशन डालीगंज, रैदास मंदिर मार्ग से होता हुआ बादशाह नगर तथा गोमती नगर तक तथा वहाँ से पुन: उत्तरठिया होता हुआ कैंट तथा कैंट से चारबाग तक उपलब्ध है। इसके साथ ही बाराबंकी को भी इसी स्थानीय रेल व्यवस्था में सम्मिलित किया जा सकता है। दूसरे मार्ग के अंतर्गत चारबाग से मानक नगर अमौसी और पुन: राजाजीपुरम तथा आलमनगर सम्मिलित है। तीसरा मार्ग सुल्तानपुर रेलवे बाईपास से अंबेडकर विवि, टेल्को का. एलडीए कानपुर रोड से, राजाजीपुरम तालकटोरा होता हुआ चारबाग का है। यह रेलें समय विभाजन और स्थानीय आवश्यकता से चलायी जाएँ।

2. ट्राम परिवहन यह एक अल्पव्यय और प्रदूषण मुक्त साधन है। इसका निर्माण आसान एवं अल्पव्यय साध्य है। इसे महानगर की अधिकांश दोहरी सड़कों पर चलाया जा सकता है। नगर बस सेवा की भांति ट्राम स्टॉप प्रत्येक दो किमी. पर बनाए जा सकते हैं। इससे नगर निवासियों को एक सस्ता तथा प्रदूषण मुक्त आवागमन साधन उपलब्ध होगा।

3. रिंग रोड का निर्माण - नगर को वायु प्रदूषण की समस्या से बचाने के लिये नये सम्पर्क मार्गों का निर्माण आवश्यक हो गया है। एअरपोर्ट के निकट कानपुर रोड से 10 किमी. दूर से पूर्व नियोजित मार्ग को पीजीआई से जोड़ते हुए रायबरेली मार्ग को जोड़ना, नादरगंज औद्योगिक क्षेत्र को सम्पर्क मार्ग द्वारा हरदोई मार्ग से जोड़ने, रायबरेली मार्ग को फैजाबाद मार्ग से चिनहट के पास जोड़ने की आवश्यकता है। इससे नगरीय क्षेत्र में बड़े वाहनों का प्रवेश रूकेगा तथा भविष्य में नगरीय आंतरिक यातायात का साधन बनेगा।

4. अक्षों का निर्धारण - नगर के प्रमुख बस स्टेशनों से आरीय सड़कों का चयन किया जाए जिससे सम्पूर्ण नगर को समुचित व्यवस्था उपलब्ध हो सके।

5. मेट्रो ट्रेन - दीर्घकालिक नियोजन के अंतर्गत मेट्रो रेल सेवा एक महत्त्वपूर्ण साधन है। यह अपेक्षाकृत व्यय साध्य है। कोलकाता में किये गये मेट्रो रेल सेवा के परिणाम उत्साहवर्धक रहे हैं। अत: यह सेवा दिल्ली में प्रारम्भ की गयी इसी तर्ज पर मेट्रो रेल सेवा लखनऊ नगर में परिवहन दबाव को कम करने के लिये उपयोगी हो सकती है क्योंकि यह रेल सेवा भू-सतह के नीचे बनाई जा सकती है इसलिये भू-सतह के ऊपर होने वाले कार्य इससे प्रभावित नहीं होंगे। लखनऊ महानगर में यह व्यवस्था रिंग मार्गों के सामांतर तैयार की जा सकती है। यह उपनगरीय अधिवासों के लिये वरदान सिद्ध होगी। परियोजना को लागू करने के लिये राज्य और केंद्र के सहयोग की आवश्यकता होगी। इस रेल सेवा का ढाँचा मानचित्र- 7.6 में प्रदर्शित स्टेशनों से होकर तैयार किया जा सकता है।

औद्योगिक प्रदूषण को नियंत्रित करने के उपाय


1. उद्योगों में धूल तथा बड़े कणों को रोकने के लिये इलेक्ट्रो स्टेट वर्षक तथा तार के ब्रस, पानी और छन्ने का प्रयोग किया जा सकता है।

2. चिमनी से निकलने वाले धूल और धुएँ को रोकने के लिये चिमनियों की ऊँचाई बढ़ाना चाहिए तथा उन पर टोपियाँ लगायी जानी चाहिए। फ़ैक्टरियों के क्षेत्रों को धुआँ नियंत्रक क्षेत्र घोषित किया जाना चाहिए तथा धुआँ रहित र्इंधन गैस तथा विद्युत का उपयोग बढ़ाया जाना चाहिए। औद्योगिक क्षेत्रों में वायु प्रदूषण अधिनियम 1981 के प्राविधानों के अंतर्गत प्रदूषण कारी इकाइयों के विरूद्ध कार्यवाही की जानी चाहिए, औद्योगिक इकाईयों में प्रदूषण नियंत्रण हेतु मॉनीटरिंग की जानी चाहिए इकाई के प्रबंधकों एवं मालिकों को उत्क्षेपों के मानक उपलब्ध कराए जाने चाहिए तथा इस सम्बन्ध में समय पर प्रशिक्षण प्रदान किया जाना चाहिए इकाइयों द्वारा प्रदूषण नियंत्रण के लिये एक शोध इकाई का प्रबंध किया जाना चाहिए। औद्योगिक उत्क्षेपों को कम करने की सलाह दी जानी चाहिए तथा कर्मचारियों तथा श्रमिकों को कारखाने के अंदर मास्क पहनना अनिवार्य किया जाना चाहिए।

3. लखनऊ महानगर के ऐशबाग तालकटोरा, नादरगंज में बड़ी औद्योगिक इकाइयां स्थापित हैं जिनसे हवा में बड़ी मात्रा में धूल तथा धुएँ का उत्सर्जन होता है। लखनऊ नगर के ऐशबाग में घरेलू, बड़ी प्रदूषणकारी औद्योगिक इकाइयां हैं। एवरेडी, इंडिया, ब्राइटस साइकिल, सैब्री साइकिलस, प्रसीजन टूल्स जैसी धुआँ तथा गैसों का उत्सर्जन करने वाली इकाइयां हैं। प्लाई निर्माण करने वाली, तथा लकड़ी आरा मिलें, तालकटोरा और ऐशबाग क्षेत्रों में 300 से अधिक स्थापित है। उपकरणों का निर्माण करने वाली सभी इकाइयों की चिमनियों की ऊँचाई अधिक बढ़ाने तथा जाली नुमा टोपियाँ लगाने की आवश्यकता है। मजदूरों को दुष्प्रभाव से बचाने के लिये मास्क उपलब्ध कराये जाने चाहिए, आरा मिलों के मजदूरों को मुँह, नाक, आँख तथा कान सभी के बचाव के लिये मास्क उपलब्ध कराने की आवश्यकता है। ऐशबाग में आरा मिलें एक बड़े क्षेत्र में फैली हैं इसलिये इनके लिये दीर्घकालिक योजना बनाकर नगर के आवासीय क्षेत्रों से दूर बाईपास कानपुर रोड से 6 किमी. दूर तथा ऐशबाग से मात्र 4 किमी. दूर नियोजित रूपरेखा से स्थापित करने की आवश्यकता है तथा इस क्षेत्र में हरित वृक्षारोपण पट्टी की योजना को कानूनी रूप से अनिवार्य बनाने की आवश्यकता है।

ध्वनि प्रदूषण एवं नियोजन के कतिपय उपाय


ध्वनि प्रदूषण वास्तव में एक गम्भीर समस्या है। इसके निदान के लिये तात्कालिक एवं दीर्घकालिक नियोजन की आवश्यकता है। जहाँ ध्वनि प्रदूषण पीड़ादायक स्तर पर है वहाँ ध्वनि स्तर को न्यून करने के तात्कालिक उपायों की महती आवश्यकता है। नगर के बढ़ते हुए आकार और बढ़ती हुई जनसंख्या के कारण मोटरगाड़ियों, रेलों, वायुयानों और कल कारखानों की दशा में वृद्धि होना स्वाभावित है। आगामी दशकों में ध्वनि प्रदूषण का स्तर न बढ़े इसके लिये हमें एक दीर्घकालिक योजना तैयार करनी होगी तथा मॉनीटरिंग इस समस्या के निदान का अनिवार्य अंग बनाया जाना चाहिए।

लखनऊ महानगर में चारबाग 98 डीबी, हजरतगंज 102 डीबी, आईटी क्रॉसिंग 83.8 डीबी, निशातगंज 81.3 डीबी, अत्याधिक ध्वनि प्रदूषण के क्षेत्र हैं इसके अतिरिक्त नगर के लगभग सभी क्षेत्रों में ध्वनि प्रदूषण (तालिका - 5.3) घातक सीमा से कम नहीं है। इसलिये नगर में ध्वनि प्रदूषण नियंत्रण के लिये प्रमुख तात्कालिक उपाय किये जा सकते हैं।

1. 31 अगस्त 2000 को सर्वोच्च न्यायालय द्वारा दिये गये निर्णय को कठोरता पूर्वक लागू किया जाए। नगर के सरकारी वाहनों तथा मैक्सी सेवा में लगाए गए, टाटा सोमो, मार्शल कारों आदि में उच्च ध्वनि स्तर के हूटर सायरन और प्रेशर हॉर्न लगाए गए हैं। इनके विरूद्ध केंद्रीय मोटरयान अधिनियम 1988 की धारा 190 (2) के अंतर्गत दंडात्मक कार्रवाई की जानी चाहिए। इसके लिये नगर में एक या एक से अधिक निरीक्षण दल लगाए जाने चाहिए।

2. नगर के प्रतिबंधित स्थानों से वाहनों के आने जाने पर नियंत्रण लगाने की आवश्यकता है। मेडिकल कॉलेज मार्ग, सिविल अस्पताल, कोर्ट, आईटीआरसी तथा सीडीआरआई संस्थान एसजीपीजीआई तथा लखनऊ विश्वविद्यालय जैसे संस्थान शांत घोषित हैं किंतु यहाँ ध्वनि स्तर मानक सीमा से अधिक रहता है। इसके नियंत्रण के लिये कानूनी कार्यवाही की जानी चाहिए।

दीर्घ कालिक उपाय -


1. आवासीय क्षेत्रों को शांत क्षेत्र में परिवर्तित किया जाए।
2. सड़कों पर वाहनों का दबाव कम करने के लिये नगर रेल सेवा तथा मेट्रो रेल सेवा, प्रारंभ की जाए जिसे नगर के परित: रेलवे स्टेशनों को मिलाते हुए चलाना होगा।
3. नगर में अतिक्रमण हटाकर मार्गों की समुचित आवश्यक चौड़ाई बढ़ाई जाए तथा वृक्षारोपण के मार्ग दर्शन व अनुश्रवण के लिये नगर वानिकी समिति का गठन किया जाए।

नगर में नदी तट व रेल पटरियों के किनारे, तालाब आवासीय कॉलोनियों, आंतरिक मार्ग, पार्क, ऐतिहासिक व धार्मिक परिसर, शैक्षिक संस्थान हरित पट्टिका के लिये उपलब्ध भूमि, कैंट क्षेत्र मलिन बस्तियों तथा औद्योगिक क्षेत्रों में पर्याप्त रूप से वृक्षारोपण के लिये भूमि उपलब्ध है। उक्त उपायों द्वारा लखनऊ महानगर को बड़ी सीमा तक प्रदूषण मुक्त किया जा सकता है।

वस्तुत: नगरीय पर्यावरण प्रदूषण की समस्या मानव जन्य है। उपभोक्तावादी संस्कृति तथा आर्थिक विकास की दौड़ में मानव जो स्वयं प्रकृति का उत्पाद है, स्वार्थ में अंधा होकर प्रकृति और प्रकृति प्रदत्त संसाधनों के साथ दुर्व्यवहार कर रहा है। भौतिक विकास की अंधी दौड़ उसे यह सत्य भुला रही है। मानव प्रकृति के साथ अंधाधुंध विदोहन करके स्वयं अपने पैर पर कुल्हाड़ी मार रहा है। हरित भवन, प्रभाव, कार्बनडाइऑक्साइड का अति सांद्रण ओजोन ह्रास तथा अम्ल वृष्टि जैसी प्राकृतिक दुर्घटनाएँ नगरीय सभ्यता की देन है। पर्यावरण के भौगोलिक घटक मृदा जल वायु प्रदूषण की विभीषिकाओं के शिकार होते जा रहे हैं। यदि समय रहते मानव न चेता तो वह डायनासोर जैसी विशालकाय प्रजाति का इतिहास दोहरा सकता है। प्रकृति सदा से ममतामयी और मानव पोषक रही है अत: मानव और प्रकृति के बीच जब तक मैत्री भाव नहीं उत्पन्न होगा तथा हमारे वैज्ञानिक मानव पर्यावरण मैत्री उपागम (Man Environment Symobiotic Approach, M.E.S.A.) नहीं अपनाते तब तक मानवता अपने अस्तित्व के खतरे से जूझती रहेगी। प्रकृति पोषक है। मानव पोषित है। वह प्रकृति का स्वामी नहीं हो सकता।

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लखनऊ महानगर एक पर्यावरण प्रदूषण अध्ययन (Lucknow Metropolis : A Study in Environmental Pollution) - 2001

 

(इस पुस्तक के अन्य अध्यायों को पढ़ने के लिये कृपया आलेख के लिंक पर क्लिक करें।)

1

पर्यावरण प्रदूषण की संकल्पना और लखनऊ (Lucknow Metro-City: Concept of Environmental Pollution)

2

लखनऊ महानगर: मृदा प्रदूषण (Lucknow Metro-City: Soil Pollution)

3

लखनऊ महानगर: जल प्रदूषण (Lucknow Metro-City: Water Pollution)

4

लखनऊ महानगर: वायु प्रदूषण (Lucknow Metro-City: Air Pollution)

5

लखनऊ महानगर: ध्वनि प्रदूषण (Lucknow Metro-City: Noise Pollution)

6

लखनऊ महानगर: सामाजिक प्रदूषण (Lucknow Metro-City: Social Pollution)

7

लखनऊ महानगर: प्रदूषण नियंत्रण एवं पर्यावरण प्रबंध (Lucknow Metro-City: Pollution Control and Environmental Management)

 

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