लोगों का गुस्सा ‘बादल’ की तरह फटेगा

उत्तराखंड की आपदा के बारे में विमर्श करते हुए इसे ‘मानवीय भूल’ बताया जा रहा है। यहां थोड़ा इस शब्दावली को गंभीरता से समझने की दरकार है। दरअसल, ऐसा कहकर जाने-अनजाने पूंजीवादी विकास के मॉडल के अपराध को कम करने की कोशिश की जा रही है। राज्य के गठन से पहले और राज्य के गठन के बाद यहां संसाधनों के दोहन का सिलसिला बहुत तेज गति से चल रहा है। यहां की नदियों पर ऊर्जा पैदा करने के लिए लगभग छोटे-बड़े 550 बांध बनाए जा चुके हैं। उत्तराखंड में आई तबाही को एक महीना बीत गया और आज से इस त्रासदी की वजह से लापता हुए लोगों को मृतक मान लिया गया। मरने वालों का कोई पुख्ता आंकड़ा नहीं है। एक संगठन 15 हजार बता रहा है तो एक हिंदूवादी राजनीतिक पार्टी 10 हजार से ज्यादा लोगों के मरने की बात कर रही है।

वहीं खुद को ‘विजय’ बताने वाले उत्तराखंड के मुख्यमंत्री विजय बहुगुणा संकोचवश कभी 500 लाशों के देखे जाने की बात कर रहे थे पर धीरे-धीरे संकोच कम हुआ तो उन्होंने भी 4000 लोगों के इस विपदा में जान गंवाने की बात स्वीकार ली। लाश देखने की बात वे इसलिए कर रहे थे क्योंकि उन्होंने भी प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह, संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (संप्रग) की अध्यक्ष सोनिया गांधी की तर्ज पर विपदाग्रस्त इलाकों का हवाई दौरा ही अब तक किया है।

उन्हें डर था कि लाशों से उठती बदबू और घायलों के बजबजाते मवादों से उड़कर कोई जीवाणु और विषाणु उन्हें संक्रमित न कर दे। बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय के संस्थापक मदनमोहन मालवीय भी दलितों की बस्ती में जाते और उनसे अपने सम्मान में माला डलवाते और घर लौटकर खूब मल-मलकर नहाते थे।

सूबे के मुख्यमंत्री ‘विजय’ इस मामले में भी ‘पराजित’ साबित हुए अन्यथा घर के सदस्य किसी संक्रमण वाली बीमारी के शिकार हो जाएं तब कुछ सावधानी बरत कर उनकी सेवा की जाती है न कि उन्हें मरने के लिए नहीं छोड़ दिया जाता है। लापता लोगों की संख्या लगभग 5600 तो राज्य सरकार भी मान चुकी है और अब इतने लोग नहीं मिले तो इन्हें भी अब मृतकों में जोड़ लें तब भी आंकड़ा 10,000 के आसपास तो पहुंच ही गया।

एक नई घोषणा मुख्यमंत्री ने यह भी की है कि एक-एक लाश को मलबे के भीतर से निकाल कर उसकी अंत्येष्टि करेंगे। 25-30 फीट भीतर मलबे में धंसी हुई लाशें किस इच्छाशक्ति और किस तकनीक के बलबूते पर मुख्यमंत्री निकलवा पाएंगे, ये तो वही बता सकेंगे। वहीं दूसरी ओर यह खबरें भी आ रही है कि आपदा प्रभावित इलाकों के जंगलों में 20-25 लाशें इकट्ठी पाई जा रही हैं जो ठंड और भूख की वजह से मारे गए। ये लाशें आपस में एक-दूसरे से चिपटी हुई हैं।

अनुमान है कि इन्होंने खुद को ठंड से बचाने के लिए शरीर को गर्म करने का यह तरीका ढूंढ़ा होगा, लेकिन पेट की आग तभी परवान चढ़ पाती है जब उसे अनाज की आंच मिलती है। सेना के कमांडों जंगलों में घूम-घूमकर लाशों को एसिड से जला रहे हैं ताकि लाशों की गिनती कम ही रहे। बाद में जब स्थितियां थोड़ी सामान्य होगी तब जंगल के संसाधनों पर बहुत ही मामूली तरीके से गुजारा करने वाले लोगों का इन कंकालों से वास्ता पड़ेगा और वे अपने खोए लोगों को इनमें ढूंढ़ने की भावनात्मक और स्वाभाविक भूल भी करेंगे। यहां बताना जरूरी है कि उत्तराखंड में ही नंदादेवी के रास्ते में एक जगह रूपकुंड है, जहां आज भी नरकंकाल मिलते हैं।

पशु ‘कल्याण’ वाले भी लापता


इस आपदा में बड़ी संख्या में पशु भी मारे गए हैं। पशुपालन निदेशालय में बने आपदा प्रबंधन नियंत्रण कक्ष के मुताबिक विभिन्न जनपदों में 12 हजार से अधिक पशुओं की मौत हुई और 697 पशु घायल हुए हैं। पशुपालन विभाग के संयुक्त निदेशक एके सच्चर ने बताया कि मारे गए पशुओं में 449 गायें हैं। इनमें सबसे ज्यादा 222 गायें टिहरी जिले में आपदा की शिकार हुईं हैं।

हैरत की बात है कि राज्य में एक आंकड़े के मुताबिक पशुओं की देखभाल के लिए 17 पंजीकृत संस्थाएं हैं। एक संस्था ‘कल्याण’ के नाम से भी है। इनके अलावा भी बहुत सारी गैर-सरकारी दर्जनों संस्थाएं भी संचालित की जा रही हैं, जो राज्य और केंद्र सरकार से पशुओं की देखभाल के नाम पर ‘मदद’ लेती हैं, लेकिन आपदा के बाद ये सभी संस्थाएं गायब हैं।

पशुपालन निदेशालय ने भारतीय पशु कल्याण बोर्ड को पत्र भेजकर देशभर में पशुओं के नाम पर चलने वाली गैर-सरकारी संगठनों से मदद दिलाने की मांग की थी, लेकिन अब तक एक भी संस्था आगे नहीं आई है। भारत में कुछ हिंदूवादी संगठन जो ‘गाय प्रेम’ की माला दिन-रात भजते हैं, इस मौके पर उनका प्रेम भी न जाने कहां काफूर हो गया है। खैर, इस पर कभी अलग से बात की जा सकती है, फिलहाल उत्तराखंड में आई आपदा पर ही बात को केंद्रित करना ठीक होगा।

नफा हमारा और नुकसान तुम्हारा


उत्तराखंड की आपदा के बारे में विमर्श करते हुए इसे ‘मानवीय भूल’ बताया जा रहा है। यहां थोड़ा इस शब्दावली को गंभीरता से समझने की दरकार है। दरअसल, ऐसा कहकर जाने-अनजाने पूंजीवादी विकास के मॉडल के अपराध को कम करने की कोशिश की जा रही है। राज्य के गठन से पहले और राज्य के गठन के बाद यहां संसाधनों के दोहन का सिलसिला बहुत तेज गति से चल रहा है। यहां की नदियों पर ऊर्जा पैदा करने के लिए लगभग छोटे-बड़े 550 बांध बनाए जा चुके हैं।

बड़े पूंजीपति घरानों के अलावा ऊर्जा उत्पादन के लिए टरबाइन खरीदने के लिए मुंबई के सिनेमा जगत से जुड़े लोग भी यहां मुनाफा कमाने के आकर्षण में खीचे चले आते हैं। फिल्मों में संघर्ष कर रहे कुछ मंझोले किस्म के लोग अपनी जीवनचर्या के खर्च को यहां की आमदनी से व्यवस्थित करते हैं। इससे इतर यहां पैदा की गई ऊर्जा का अधिकांश हिस्सा उत्तर प्रदेश और दूसरे प्रदेश को स्थानान्तरित कर दिया जाता है। सच तो यह है कि पहाड़ों के बहुत सारे गांव आज भी अंधेरे में हैं। वहां आज भी रोशनी के लिए लालटेन का ही सहारा लिया जाता है।

इस समय लगातार बारिश और भूस्खलन के चलते ऊर्जा वितरित करने वाले विद्युत स्टेशन और उप-विद्युत स्टेशन भी खतरे की जद में है। ऊखीमठ स्थित उप-विद्युत स्टेशन भी खतरे की जद में आ गया है। वहीं दूसरी ओर मनेरी भाली स्टेज-टू में 16 जून से ही ठप पड़ा हुआ है।

उत्पादन बंद होने की वजह से मनेरी भाली स्टेज-टू को हर रोज 60 लाख यूनिट बिजली का नुकसान हो रहा था इसलिए ‘नफा हमारा और नुकसान तुम्हारा’ के दर्शन को आधार बनाकर अपना घाटा पाटने के लिए जल विद्युत निगम ने ज्ञानसू बस्ती को खतरे में डालकर बिजली उत्पादन शुरू कर दिया है। बैराज में पानी रोकने तथा रोककर छोड़ने की स्थिति में हो रहे कटाव से ज्ञानसू बस्ती के जलमग्न होने का खतरा मंडरा रहा है।

सुरक्षा का कोई इंतजाम किए बगैर ही जलाशय भरे जाने से क्षेत्र की जनता में भय और रोष व्याप्त है, लेकिन इसकी परवाह किसको है। सरकारी बिजली कंपनी नेशनल हाइड्रोइलेक्ट्रिक पॉवर कॉरपोरेशन (एनएचपीसी) के शेयरों के भाव धौलीगंगा विद्युत संयंत्र (280 मेगावाट) में पानी घुसते ही धड़ाधड़ गिर गए। जयप्रकाश पावर (जेपी) के विष्णुप्रयाग विद्युत संयंत्र (400 मेगावाट) को भी 16 जून को आई बाढ़ के बाद बंद कर दिया गया। जेपी की उत्तराखंड में दो जल विद्युत परियोजनाएं हैं। जेपी का उत्तर प्रदेश विद्युत निगम लिमिटेड के साथ करार है।

जाहिर है कि इन कंपनियों को बाढ़ के खतरों को देखते हुए कम-से-कम दो-तीन महीने अपनी विद्युत परियोजनाएं या तो बंद करनी पड़ेगी या उत्पादन कम करना पड़ेगा। यही वजह है कि ये कंपनियां अब अपने-अपने नुकसान का हिसाब लगा रही हैं। गौरतलब है कि उत्तराखंड में गंगा की बेसिन में चल रहे छोटे-छोटे जल-विद्युत परियोजनाओं से कुल 6000 मेगावाट बिजली पैदा की जा रही है।

कहीं मगरमच्छ, कहीं डॉल्फिन, कहीं बाघ, कहीं हाथी बचाने के नाम पर यह धंधा अपने परवान पर है। निश्चित तौर पर सरकार को इनकी चिंता करनी चाहिए लेकिन आम अवाम की चिंता को पहली प्राथमिकता तो मिलनी ही चाहिए। सूबे में भू-माफियों का प्रकोप बहुत ज्यादा है और वे अपने मुनाफे के लिए पर्यावरण को बचाने के लिए बनाए गए सभी नियमों को ताक पर रख रहे हैं। इस बात का प्रमाण जिम कॉर्बेट में चलने वाली ‘देर रात चलने वाली पार्टी’ को देखकर सहज ही लगाया जा सकता है।बीके. चतुर्वेदी समिति ने इन परियोजनाओं के भविष्य को लेकर 2012 में चिंता जताई थी और कहा था कि गंगा में आने वाली बाढ़ और भू-स्खलन की वजह से इन परियोजनाओं को नुकसान झेलना पड़ सकता है। इस समिति ने जल-विद्युत परियोजना के भविष्य को लेकर बहुत उत्साह नहीं दिखाया था। यही वजह है कि बहुत सारी जल-विद्युत उत्पादन में लगी कंपनियों ने सौर-ऊर्जा से बिजली हासिल करना शुरू भी कर दिया है।

उत्तराखंड में ही 69 जल-विद्युत परियोजनाओं से 9000 मेगावाट बिजली पैदा करने का प्रस्ताव भी विभिन्न मंत्रालयों के पास विचाराधीन है। बीके चतुर्वेदी समिति ने इन विचाराधीन 69 परियोजनाओं के बाद एक भी नई परियोजना नहीं शुरू करने की सलाह दी है। पर्यावरणविद् और सामाजिक कार्यकर्ताओं के विरोध के बावजूद यहां हर रोज नई विद्युत परियोजनाएं शुरू करने की बात हो रही है।

भू-माफिया यहां बहुत सक्रिय हैं जो सभी मानदंडों की अनदेखी करके पहाड़ों को काट कर कई मंजिलों वाले होटल और आलीशान मकान धड़ल्ले से बना रहे हैं। यहां चौड़ी-चौड़ी सड़के बनाई जा रही हैं। तेज गति से दौड़ने वाली कारों के लिए हाइवे बनाए जा रहे हैं ताकि पर्यटन उद्योग फल-फूल सके। इस आपदा से दो महीने पहले मैं पौड़ी गया था।

सतपुलिया के पास नयार नदी की कल-कल ध्वनि एक ओर मोहकता प्रदान कर रही थी तो दूसरी ओर सड़क बनाने के लिए पहाड़ काटे जाने का शोर निरापद शांति को भंग कर रहा था। पहाड़ का मलबा इसी नदी में ही गिराया जा रहा था। वहीं खड़े एक बुजुर्ग आदमी से इस नदी के बारे में बात की तो उन्होंने कहा कि नदी का जल स्तर लगातार कम हो रहा है, देखो यह कब तक बची रहती है। उस बुजुर्ग की आंखें बातें करते हुए नम हो गईं और उनकी आंखों में उत्तराखंड में चल रहे इस अतार्किक विकास की वजह से प्रदेश की हो रही तबाही का मंजर साफ-साफ दिख रहा था।

गांवों को बर्बाद होने से बचाने की चिंता किसको है?


मुनाफाखोर व्यवस्था ने प्रकृति द्वारा दी जा रही चेतावनियों की लगातार उपेक्षा की है। पिछले ही साल उत्तरकाशी के पास असी गंगा में आई बाढ़ की वजह से सैकड़ों लोग मारे गए थे। उत्तराखंड में बाढ़ और भू-स्खलन का सिलसिला जारी है। अलकनंदा घाटी का भू-स्खलन (1978), भागीरथी घाटी का कनोरिया गाद भू-स्खलन (1978), काली और मध्यमेश्वर नदी घाटी का मालपा और उखीमठ भू-स्खलन (1978), उत्तरकाशी का वरुणावत पर्वत भू-स्खलन (2003), मुनस्यारी भू-स्खलन (2009) आदि घटनाएं आगाह करती रही कि केंद्र और राज्य सरकार उत्तराखंड के पहाड़ों की भौगोलिक बनावट का गंभीर अध्ययन करवाए और आधुनिक विज्ञान और तकनीक का इस्तेमाल केवल पहाड़ और जल संसाधनों के दोहन भर के लिए न हो बल्कि लोगों के जीवन को ज्यादा-से-ज्यादा आसान और सुरक्षित बनाने के लिए भी हो।

हैदराबाद की ‘नेशनल रिमोट सेंसिंग एजेंसी’ ने अपनी 2005 की रिपोर्ट में कहा था कि यहां के 1200 गांव आपदा संभावित भू-स्खलन क्षेत्र में पड़ते हैं, इसके बावजूद सूबे की सरकार अमन-चैन की नींद सोती रही। न ही इस खतरे को देखते हुए कोई नया अध्ययन कराया गया और न ही इन गांवों को बचाने के संबंध में कोई एहतियात ही बरता गया। एक अनुमान के अनुसार वर्तमान आपदा में कम-से-कम 350-400 गांव पूरी तरह बर्बाद हो गए।

बहुत सारे गांवों तक पहुंचने के सारे रास्ते भी बंद हो चुके हैं। इन गांवों में बचे लोगों के पास न ही खुद के खाने के लिए अनाज बचे हैं और न ही पशुओं के लिए चारा। यही वजह है कि इन भूख से पीड़ित पशुओं द्वारा आदमियों पर हमला करने की खबरें भी आ रही हैं। इनके जल के स्रोत नष्ट हो चुके हैं। उत्तराखंड में लोगों की जानमाल की सुरक्षा की उपेक्षा दशकों से हो रही है।

कोटद्वार में एक गांव पुलिंडा है जहां के लोग 1970 से ही खुद को विस्थापित करने की मांग करते आ रहे हैं। बरसात में हर साल यहां के मकान जमीन में कुछ फीट धंस जाते हैं। कुछ साल पहले तो यहां पंद्रह परिवार के कुल 75 लोग जमींदोज हो गए थे। विकास की दुदुंभि बजाने वाली राज्य गठन के बाद से लेकर अब तक की सारी सरकारों ने इन्हें अपेक्षाकृत सुरक्षित जगह पर नहीं बसाया इसलिए वे अक्सर कोटद्वार और देहरादून में अपनी मांग मनवाने की आस में पहुंचते रहते हैं।

हाल ही में यहां ‘छारबा’ गांव में शीतलपेय पदार्थ बनाने वाली कंपनी ने भी 6000 करोड़ रुपये के निवेश से अपना प्लांट लगाना तय किया है। इस गांव का इतिहास यह है कि 40 साल पहले यहां के सारे जल स्रोत सूख गए थे। स्थानीय आबादी ने गांव में बहुत बड़ी संख्या में पेड़ लगाए और फिर से अपने गांव को हरा-भरा किया।

अब उनके भागीरथ प्रयास से लाए गए पानी को कोका कोला सोख लेना चाहती है। गांव वाले इस प्लांट के विरोध में हैं जबकि सूबे की सरकार इसे राज्य के विकास में मील का पत्थर बता रही है। इससे रोजगार सृजन होने की बात कर रही है। स्थानीय नागरिक सरकार से यह आग्रह कर रही है कि हमें अपने हाल पर जीने-मरने के लिए छोड़ दिया जाए। वे मानते हैं कि बहुराष्ट्रीय कंपनी का यह प्लांट गांव के अमन-चैन को लील लेगा।

गरीबों की रोटी छीनने के लिए बने हैं ‘इको सेंसिटिव जोन’


देश के अलग-अलग हिस्सों में ‘इको सेंसिटिव जोन’ बनाए जा रहे हैं। यह काम बड़ी उदारता के साथ उत्तराखंड में भी हुआ है। गोमुख से लेकर उत्तरकाशी तक ‘सेंसिटिव जोन’ घोषित किए जाने की वजह से सरकारी आंकड़ों के मुताबिक 88 गांव प्रभावित हो रहे हैं।

पूरे देश की बात की जाए तो पर्यावरण संरक्षण के नाम पर लगभग 668 संरक्षित क्षेत्रों के अंतर्गत 1,61,221.57 वर्ग किलोमीटर जमीन है। इस जमीन के प्राकृतिक संसाधनों के बलबूते ही इन इलाकों के आम लोगों के छोटे-छोटे रोजगार चलते हैं। यहां से वे खदेड़े जा रहे हैं। वास्तव में इससे प्रकृति और उसके संसाधनों को नुकसान भी उठाना पड़ रहा है। उत्तराखंड के चमोली में ‘फूलों की घाटी’ एक जगह है।

इस इलाके में एक किस्म की घास पनपती है जो इस इलाके की भेड़-बकरियों के लिए सहज उपलब्ध चारा हुआ करती थी। इस इलाके को ‘इको सेंसिटिव जोन’ के अंतर्गत डाल दिया गया। अब यहां आसपास के गांवों की भेड़-बकरियां चारा के लिए नहीं आती हैं। नतीजा यह हुआ कि अब यह घास आवारा किस्म से बड़ी होती जा रही हैं और इससे फूलों को फलने-फूलने में मुश्किलें पेश आ रही हैं। यह काम पूरे देश में हो रहा है।

कहीं मगरमच्छ, कहीं डॉल्फिन, कहीं बाघ, कहीं हाथी बचाने के नाम पर यह धंधा अपने परवान पर है। निश्चित तौर पर सरकार को इनकी चिंता करनी चाहिए लेकिन आम अवाम की चिंता को पहली प्राथमिकता तो मिलनी ही चाहिए। सूबे में भू-माफियों का प्रकोप बहुत ज्यादा है और वे अपने मुनाफे के लिए पर्यावरण को बचाने के लिए बनाए गए सभी नियमों को ताक पर रख रहे हैं। इस बात का प्रमाण जिम कॉर्बेट में चलने वाली ‘देर रात चलने वाली पार्टी’ को देखकर सहज ही लगाया जा सकता है।

रही बात जीव-जंतुओं और वनस्पतियों के विलुप्त होने की तब आपको लगभग साढ़े चार अरब वर्ष पुरानी पृथ्वी के पिछले 80-90 लाख सालों के इतिहास में झांक लेना चाहिए। उस दौर में भी वनस्पतियों व जीव-जंतुओं के विलुप्त होने की घटनाएं घटी हैं। आर्किओप्टेरिक्स से लेकर डायनासोर तक के विलुप्त होने के प्रमाण हैं।

हमारी सरकार की पृथ्वी को बचाने की चिंता साम्राज्यवादी देश अमेरिका की तरह है। अमेरिका जैसे एशियाई देशों भारत, पाकिस्तान और श्रीलंका आदि विकासशील या अविकसित देशों को ग्लोबल वार्मिंग के लिए जिम्मेदार ठहराता है वैसे ही अपने देश की सत्ता कमजोर लोगों पर पर्यावरण को दूषित और नुकसान पहुंचाने के लिए जिम्मेदार ठहराती है। उन पर संगीन गैर-जमानती धाराएं लगाकर जेल में ठूंस देती है।

यह सब उत्तराखंड में बड़े पैमाने पर हो रहा है। मुनाफा के इस खेल पर अगर लगाम नहीं लगाया गया तो जो लड़ाई उत्तराखंड के गठन के लिए लड़ी गई थी जो कि एक सुंदर और संपन्न राज्य बनाने का सपना देखा गया था, वह विखंडित हो रहा है और राज्य के आम लोगों में राज्य सत्ता के प्रति पनप रहा असंतोष कभी भी ‘बादल फटने की घटना’ की तरह ही फट जाएगा।

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