लोक-परलोक सँवारती है गंगा

गंगा का धार्मिक पक्ष एक बात है। उसके किनारे बसे लोगों के लिए यह जीविका का माध्यम भी है। हरिद्वार का सारा व्यापार गंगा के बहाव से ही जुड़ा है। गंगा बहती है तो धंधा चौकस, रुकी तो सब काम ठप्प।

गंगा हमारी सहायता सिर्फ परलोक साधने में नहीं, इहलोक सँवारने में भी करती है। इस मोक्षदा को देश की जीवन रेखा यूँ ही नहीं कहा जाता। गंगा-यमुना की सर्वाधिक उर्वर घाटी हमारे अन्न का भण्डार भरती है तो गंगा अपने तटों पर बसे नगरों के लिए बड़ी उदारता से समृद्धि के द्वार खोलती है। देश के कोने-कोने से लोग इसी कारण इन नगरों की ओर खिंचे चले आते हैं।

आर्थिक दृष्टि से देखें तो गंगा 80 प्रतिशत से अधिक हरिद्वारवासियों का भरण-पोषण करती है। पर्यटन से जुड़े व्यवसायी हों या यात्रियों की रुचि के सामान बेचने वाले दुकानदार या यहाँ के पण्डे-पुरोहित, इनकी झोली गंगा मैया भरती हैं। यहाँ के सैकड़ों होटल, लॉज, धर्मशालाएँ और बाजार अगर पूरे वर्ष गुलज़ार रहते हैं तो तीर्थयात्रियों या पर्यटकों के कारण, जिनके लिए सबसे बड़ा आकर्षण गंगा है। दशहरा से दीपावली के बीच शहर के मध्य बहती गंगा को गंग नहर की सफाई के लिए कुछ समय के लिए बंद करने का प्रावधान है। लेकिन हर बार इसका विरोध होता है, क्योंकि गंगा के बिना हरिद्वार में सब कुछ सूना हो जाता है। यात्रियों की संख्या बहुत कम हो जाती है, व्यापार ठप्प-सा हो जाता है और मठ-मंदिर-अखाड़े बेरौनक लगने लगते हैं। यह स्थिति जाड़े के दो-तीन महीनों में भी रहती है। बैसाखी मेले और चार धाम यात्रा के आरम्भ के साथ शहर और बाज़ारों की रौनक फिर लौट आती है।

हरिद्वार की आर्थिक रीढ़ यहाँ के सोमवती अमावस्या, कार्तिक पूर्णिमा, बैसाखी, गंगा दशहरा, मकर संक्रांति आदि मेलों को माना जाता है, जो वर्ष भर चलते रहते हैं। इनमें कुम्भ और अर्द्धकुम्भ प्रमुख हैं जो प्रत्येक छह वर्ष बाद आयोजित होते हैं। हरिद्वार को चार धाम यात्रा का द्वार होने का सौभाग्य भी प्राप्त है। इन सबके कारण यहाँ प्रतिवर्ष आने वाले करोड़ों तीर्थ यात्री-पर्यटक हरिद्वार की अर्थव्यवस्था के लिए वरदान साबित होते हैं। कुम्भ-अर्द्धकुम्भ मेलों के दौरान सैकड़ों करोड़ों रुपये का सरकारी अनुदान कुम्भ क्षेत्र में बिजली, पानी, सड़क, यातायात, स्वास्थ्य, आदि सुविधाओं के विस्तार पर व्यय होता है। काँवड़ मेले में यहाँ 15 दिनों में ही डेढ़-दो करोड़ श्रद्धालु आते हैं। उनके माध्यम से शहर के बाजारों में सैकड़ों करोड़ रुपये पहुँचते हैं।

सुप्रसिद्ध साहित्यकार आचार्य विष्णु दत्त राकेश गुरुकुल कांगड़ी विश्वविद्यालय में हिन्दी के प्रोफेसर पद पर कार्य करते हुए हरिद्वार के धार्मिक-सांस्कृतिक-साहित्यिक जीवन से, लम्बे समय से गहराई से जुड़े रहे हैं। इस तीर्थ नगरी के सांस्कृतिक-सामाजिक जीवन पर गंगा प्रभाव के विषय में सवाल पूछने पर वे बताते हैं कि हरिद्वार पर गंगा का वैसा ही असर हुआ जैसा काशी, प्रयाग आदि शहरों समेत पूरे देश पर हुआ। हरिद्वारवासियों के चिन्तन और उनकी दैनिकचर्या पर गंगा की कोई विशिष्ट छाप वे नहीं देखते। गंगा दशहरा और गंगा महोत्सव जैसे आयोजनों से भी यहाँ के लोगों का कोई बड़ा जुड़ाव नहीं दिखाई देता। पहले नव विवाहित जोड़े या प्रेमी युगल हरिद्वार आकर गंगा माता को चूनर चढ़ाते थे। अब यह भी देखने में नहीं आता। बिहार और पूर्वी उत्तर प्रदेश से बड़ी संख्या में आये लोगों के कारण छठ-पूजन का एक नया क्रम ज़रूर शुरू हुआ है। इन अन्य हरिद्वारवासी के अनुसार साधु-सन्तों की बड़ी जमात हरिद्वार में रहती है। किन्तु आम दिनों में उनकी उपस्थिति का अहसास नहीं होता। जब यात्रा चरम पर होती है तो आश्रमों में भजन-कीर्तन-प्रवचन के आयोजन होते हैं। वे ही नगर के वातावरण को धार्मिक रंग देते हैं।

महामना मदन मोहन मालवीय ने हर की पौड़ी की समुचित व्यवस्था और गंगा की संरक्षा के लिए 1914 में गंगा सभा की स्थापना की थी। संस्कृत और संस्कृति के प्रचार-प्रसार के लिए यहाँ स्थापित ऋषिकुल विद्यापीठ भी उन्हीं की देन है। इसी प्रकार बीसवीं सदी के पहले दशक में आर्य समाज के शिक्षानुरागी नेताओं स्वामी श्रद्धानन्द और स्वामी दर्शनानन्द ने गंगा के किनारे क्रमश: गुरुकुल कांगड़ी विश्वविद्यालय और गुरुकुल महाविद्यालय की नींव रखी। दोनों ही संस्थाओं की स्थापना गुरुकुल शिक्षा पद्धति के माध्यम से भारतीय धर्म, दर्शन और जीवन पद्धति के प्रचार-प्रसार के लिए की गई। आचार्य श्री राम का वृहद आध्यात्मिक-सांस्कृतिक-सामाजिक उपक्रम सुप्रसिद्ध गायत्री तीर्थ शान्तिकुँज भी गंगा के किनारे ही अवस्थित है। भारतीय संस्कृति की संवाहक यह संस्था देश-विदेश में बड़े पैमाने पर वैचारिक-सामाजिक क्रान्ति के लिए कार्य कर रही है। इन सभी महापुरुषों को समाज कल्याण के ऐसे महान कार्य करने की प्रेरणा माँ गंगा से मिली होगी जिसकी अजस्र धारा में हिन्दू धर्म, संस्कृति और परम्परा सतत प्रवाहमान है। हरिद्वार में दर्जनों संस्कृत महाविद्यालयों सहित उत्तराखंड संस्कृत विश्वविद्यालय की उपस्थिति को भी हरिद्वार और गंगा से जोड़कर देखा जा सकता है।

हरिद्वार में एक बड़ा वर्ग तीर्थ पुरोहितों या कहें पंडों का है। ये मुख्यत: धार्मिक संस्कारों और कर्मकांडों को सम्पन्न कराने में हरिद्वार आने वाले तीर्थयात्रियों की सहायता करते हैं। बदले में प्राप्त दान इनकी आजीविका का आधार है। मन्दिरों में पुजारी की तरह तीर्थों में पंडों-पुरोहितों की भूमिका भी महत्त्वपूर्ण होती है। अगर गंगा के कारण हरिद्वार को तीर्थत्व प्राप्त है तो उसके तीर्थत्व को बनाये रखने में यहाँ हजारों पुरोहितों का योगदान है। इस वर्ग के लोग हिन्दुओं के सोलह संस्कार सम्पन्न कराने के अतिरिक्त कथा वाचन, भजनोपदेश आदि के माध्यम से धर्म-प्रचार का कार्य भी करते हैं। कुल मिलाकर कहें तो हरिद्वार की अनेक संस्थाओं तथा वहाँ की सांस्कृतिक-सामाजिक-आर्थिक गतिविधियों पर गंगा का प्रत्यक्ष-परोक्ष प्रभाव दिखाई देता है। गंगा-प्रेरित इन संस्थाओं एवं गतिविधियों से हरिद्वार को एक विशिष्ट स्वरूप और आकार मिलता है।

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