मैं गरीब हूं..

यह कहानी मध्यप्रदेश के खंडवा जिले की है, जहां पिछले दिनों जिला प्रशासन ने अपने यहां के सभी गरीबों के घर के सामने मैं गरीब हूं लिखवा दिया है। मगर झारखंड और बिहार में जिस तरह गांव के लोगों के बीच बीपीएल कार्ड हासिल करने का क्रेज है, उसे देखते हुए यह खबर यहां के लोगों के लिए भी मौजू लगती है। हालांकि इन दिनों प्रशासन ने उस फैसले को वापस लेते सभी के दीवारों से यह संदेश वापस ले लिया है। और इस तरीके को किसी तरीके से वाजिब कहा भी नहीं जा सकता। मगर गरीब बनने की जिस होड़ में हमारा समाज है, उसे तो इस कहानी से सबक लेना ही चाहिये।विश्व की जानी-मानी पत्रिका फोर्ब्स जब अमीरों की सूची जारी करती है तो उस सूची में शामिल होने वाले रसूखदारों की छाती और चौड़ी हो जाती है। हर अमीर व्यक्ति का सपना होता है कि उसका नाम फोर्ब्स की सूची में आये। इससे उस व्यक्ति के नाम के आगे एक तमगा और जुड़ जाता है। यह उसके लिये तो बड़े ही सम्मान की बात है। लेकिन इसके ठीक उलट किसी गरीब को, गरीब बताना ना केवल असम्मानजनक है बल्कि गैर संवैधानिक भी है। उसकी गरीबी का सार्वजनिक होना या किया जाना भी प्रत्यक्ष रूप से उसकी गरीबी के साथ किया जाने वाला भद्दा मजाक से बढ़कर कुछ नहीं। लेकिन मध्यप्रदेश के खंडवा जिला प्रशासन ने गरीबों के साथ यह भद्दा किया। खंडवा जिले में राज्य सरकार ने गरीबी रेखा के नीचे जीवनयापन करने वाले परिवारों के घरों के सामने लिखवा दिया- मैं गरीब हूं।

खंडवा जिले के खालवा ब्लॉक के डाभिया गांव के राजाराम पलायन पर बाहर गांव (दूसरे जिले में) गये थे, जब लौटकर आये तो उन्होंने अपने घर की दीवारों पर बड़े-बड़े अक्षरों में लिखा पाया- मैं गरीब हूं। वे उसे देखकर कुछ समझ नहीं पाये। सुबह उठकर उन्होंने देखा तो केवल उनका ही घर नहीं बल्कि आसपास के कई घरों में इस तरह से ही लिखा गया था। राजाराम को माजरा समझ नहीं आया। राजाराम ने पंचायत सचिव से यह पूछा तो उन्होंने बताया कि ऐसे लोग जो गरीबी रेखा के नीचे जीवनयापन कर रहे हैं, उनके घरों के सामने राज्य सरकार के आदेश से यह लिखा जायेगा। यह काम क्यों शुरू किया गया, इस पर खालवा जनपद के मुख्य कार्यपालक अधिकारी बीके शुक्ला कहते हैं कि गरीबी रेखा के नीचे जीवनयापन करने वाले परिवारों की पहचान में दिक्कत न हो और यदि कोई व्यक्ति गलत तरीके से इस व्यवस्था का लाभ ले रहा हो तो वह सामने आयेगा। इस योजना का मूल भाव तो समझ में आता है। लेकिन, उसके लिये और तरीके उपयोग में लाये जाने चाहिये, न कि किसी को भी असम्मानजनक तरीके से उसके घर के सामने मैं गरीब हूं लिखकर उसे अपमानित करने के इस सवाल पर श्री शुक्ला कन्नी काटते हुये नजर आये। उन्होंने कहा कि आप तो इस विषय पर वरिष्ठ अधिकारियों से बात कर लीजिये। मैं मीटिंग में हूं, यह कहकर उन्होंने फोन काट दिया।

डाभिया पंचायत के सचिव माखन बताते हैं कि लगभग एक वर्ष पूर्व उनके पास जनपद पंचायत से लिखित आदेश आया था कि वर्ष 02-03 के सर्वे के आधार पर जारी की गई गरीबी रेखा की सूची के आधार पर गांव के प्रत्येक गरीब परिवार के घरों के सामने की दीवार पर ‘‘मैं गरीब हूं’’ लिखवा दिया जाये। इस पत्र के साथ उसका प्रोफॉर्मा भी था। आदेश था तो लिखवा दिया हमने। अब अच्छा लगे या बुरा, लिखना तो पड़ेगा ही। ऊपर से आदेश है। फिर यह केवल हमारी पंचायत में नहीं है बल्कि पूरे विकासखंड में है। आसपास के गांव दगड़कोट, लमोठी, पीपरी आदि गांवों में भी यह लिखा पाया गया। जिले के कलेक्टर कवींद्र कियावत कहते हैं कि नाम तो पुराने ही लिखे हैं, कोई नया नाम नहीं लिखा है। उन घरों में पुताई नहीं हुई होगी। इस तरह की नई प्रक्रिया नहीं चल रही है। यदि यह नया नहीं चल रहा है तो फिर उसे पुतवाया क्यों नहीं गया तब तक फोन कट गया।

इस मामले में यह गौरतलब है कि पंचायतों को नाम न लिखे जाने के संबंध में कोई लिखित आदेश जारी नहीं किया गया है। तभी तो डाभिया के सचिव माखन कहते हैं कि अभी कुछ नये नाम जुड़े हैं, उनके घरों के सामने भी यह लिखा जाना है। राशि अभी किसी मद में नहीं है, जिसके कारण देर हो रही है। उनसे यह पूछे जाने पर कि क्या अभी यह नाम नहीं लिखे जाने को कोई आदेश आपके पास आया है? उनका जवाब था- ‘‘लिखने का आया था। ना तो मिटाने का आया, ना ही रोकने का।’’

लगभग 600 घरों के इस डाभिया गांव में 237 परिवार गरीबी रेखा के नीचे जीवनयापन करते हैं यानी औसतन हर दूसरा परिवार यहां गरीब है। ऐसी स्थिति में गांव में लगभग हर दूसरे घर पर यह लिखा गया है। अपने घर पर लिखी पट्टी को देखकर करमा कहते हैं- ‘‘यह तो हमारे लिये बेहद शर्मनाक है। हम गरीब हैं तो हैं, हमारी गरीबी मिटाने के बजाय सरकार हमारी हंसी उड़वा रही है। हम गरीब हैं, यह हम और पूरा गांव जानता है लेकिन, उसके बाद भी इस तरह से लिखा जाना दु:खद है।’’ उनका दावा है कि इस तरह घरों के सामने गरीबी का उपहास उड़ाने वाले सरकारी नारे का कई लोगों ने विरोध भी किया। लेकिन पंचायत ने ऐसे विरोधों की अनदेखी कर दी। हालांकि गांव में कई लोग अपने घर इस तरह ‘मैं गरीब हूं’ नहीं लिखने के अपने विरोध पर अड़े रहे। गांव के अर्जुन सिंह, बाबू ने अपने घर की दीवार पर लिखने से मना कर दिया। मोहन कटारे ने भी नहीं लिखने दिया। हालांकि अभी उनका घर टूटा हुआ है लेकिन उन्होंने फैसला किया है कि घर बन जाने पर भी वे इसे नहीं लिखने देंगे। उनकी पत्नी विजया मोहन कहती हैं- ‘‘और भी तरीके हैं गलत व्यक्ति को पकड़ने के। सरकार उन लोगों के नाम ग्रामसभा में बताये, सूची पंचायत में टांगे। लेकिन, हमारे घरों के सामने इस तरह से लिखवाना, हमारी गरीबी का विज्ञापन है। क्या हम अपनी मर्जी से गरीब हुए हैं या परिस्थिति ने हमारी हालत ऐसी बनाई है?’’ इलाके में कुछ लोग ऐसे भी हैं, जिन्होंने सरकार के इस निर्णय को अपने तरीके से चुनौती देना शुरू कर दिया है। चबूतरा गांव की बुधिया बाई जैसे लोगों ने खुद ही गोबर से लीप कर सरकार की पुताई को मिटा दिया है। खंडवा में विभिन्न मुद्दों पर काम कर रही स्पंदन संस्था की सीमा कहती हैं- ‘‘जब सरकार ने अपना ही सर्वेक्षण किया, अपने ही मापदंडों पर परिवारों को गरीब घोषित किया तो फिर उन घरों के सामने यह लिखने का क्या औचित्य?’’ वे कहती हैं कि गड़बड़ियों को रोकने के और भी तरीके हो सकते हैं। जब ग्रामसभा से ही प्रस्ताव पारित होते हैं तो फिर वहीं पर जांचा जाये, पंचायत में सूची चस्पा की जाये लेकिन जो तरीका अभी प्रशासन ने अख्तियार किया है, वह तो बहुत ही निदंनीय है। यह गरीबों का मखौल उड़ाने की बात है। भोजन का अधिकार अभियान प्रकरण में उच्चतम न्यायालय की ओर से नियुक्त आयुक्तों के राज्य सलाहकार सचिन जैन का कहना है कि यह मानवाधिकारों के हनन के साथ-साथ सम्मानजनक जीवन जीने के अधिकार का हनन है। आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग के व्यक्ति का इस तरह से मखौल उड़ाना शर्मनाक है। प्रशासन को अपनी क्षमता, समझ व प्रतिबद्धता का उपयोग कर गरीब परिवारों की पहचान करने का जतन करना होगा। भोपाल की सामाजिक कार्यकर्ता रोली शिवहरे कहती हैं कि यह तो वर्ग का भेदभाव है जो कि संवैधानिक अधिकारों का उल्लंघन भी है। वे इस संबंध में नागरिक और राजनैतिक अधिकारों के लिये अंतरराष्ट्रीय समझौते की धारा 26 की ओर इशारा करती हैं, जिसमें कहा गया है कि रंग, जाति, भाषा, धर्म, विचार, उत्पत्ति, जन्मस्थान या अन्य किसी भी तरह से भेदभाव नहीं किया जा सकता है। वे कहती हैं- ‘‘हमारा संविधान कहता है कि हम सब संविधान और कानून की नजर में बराबर हैं तो फिर खंडवा प्रशासन कैसे संविधान की मूल भावना से हटकर काम कर सकता है ? पिछले साल सिवनी जिले में भी सरकार ने यह कारनामा किया था और विरोध करने पर रातों रात उस निर्णय को वापस लेना पडा था।’’

बहरहाल लाख टके का सवाल यह है कि क्या लोगों को अपमानित कर ईजाद किये गये इस नये तरीके से भी सरकार गरीबों के नाम पर होने वाली गड़बड़ी को रोक लगा पाई है ? इसका जवाब है-नहीं !

अब जैसे गांव के राजाराम का ही उदाहरण लें। उनके घर के सामने सरकार ने मैं गरीब हूं लिखवा दिया है। जबकि उनके पास गरीबी रेखा का कार्ड नहीं, बल्कि सफेद कार्ड है। सफेद कार्ड यानी गरीबी रेखा से ऊपर वाला कार्ड यानी राजाराम गरीबी रेखा के नीचे नहीं हैं। तो सवाल यह है कि फिर राजाराम के नाम पर कौन ले रहा है इस बीपीएल योजना का लाभ ?

(लेखक सामाजिक कार्यकर्ता और आरटीआई एक्टिविस्ट हैं। भोपाल में रहते हैं।)

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