मानवता, नहीं पहचानती, जानती प्रकृति को

इस बात को लेकर काफी गहरी शंकाएं होने लगेंगी कि मानव, प्रकृति को समझता भी है या नहीं, और यह उसकी बुद्धि की बिसात में भी है या नहीं कि वह प्रकृति को जान समझ लें। विडंबना यह है कि विज्ञान ने हमारी केवल इतनी ही सेवा की है कि उसने हमें बता दिया कि मानव की जानकारी कितनी सीमित है।

इधर कुछ समय से मेरे मन में विचार आ रहा है कि किसी बिंदु पर पहुंचने के लिए किसानों के साथ ही वैज्ञानिक, कलाकार, दार्शनिक और धर्म के क्षेत्र में काम करने वाले भी लोग यहां एकत्र हों। इन खेतों को देखें और आपस में बातचीत करें। लोग अपनी-अपनी विशेषताओं के परे जाकर देखें। इसके लिए ऐसा होना ही चाहिए। वैज्ञानिक सोचते हैं कि वे प्रकृति को समझ सकते हैं। वे यह दावा इसलिए करते हैं कि उनको इस बात का पूरा विश्वास हो चुका है कि वे प्रकृति को जान सकते हैं। वे प्रकृति की जांच कर, उसे मानव के लिए उपयोगी बनाने के लिए प्रतिबद्ध हैं। लेकिन मेरे विचार से प्रकृति इंसान की बुद्धि से परे की चीज है।

यहां पहाड़ियों पर झोपड़ियों में रहते हुए प्राकृतिक खेती में मदद करते हुए कुछ सीखने वाले युवाओं से, मैं अक्सर कहता हूं कि पहाड़ पर उग रहे वृक्षों को तो कोई भी देख सकता है। उनकी पत्तियों का हरापन तो नजर आता है। धान के पौधों को भी वे देख सकते हैं। वे सोचते हैं कि उन्हें पता है हरियाली क्या है। रात-दिन प्रकृति के संपर्क में आते हुए वे समझने लगते हैं कि वे प्रकृति को जान गए हैं। लेकिन जैसे ही उन्हें लगने लगे कि वे प्रकृति को समझने लगे हैं, तब उन्हें यह निश्चित जानना चाहिए कि वे गलत रास्ते पर हैं।

आखिर प्रकृति को समझना असंभव क्यों है? जिस चीज को हम प्रकृति मानते हैं, वह वास्तव में हर व्यक्ति के दिमाग में प्रकृति के बारे में उठने वाला उसका अपना विचार मात्र है। जिन्हें वास्तविक प्रकृति दिखाई देती है वे हैं शिशु। वे ही बगैर चिंतन (तर्क-वितर्क) किए प्रकृति को सीधे और स्पष्ट देख पाते हैं। यदि पौधों के नाम भी पता चल जाते हैं कि यह नारंगी की प्रजाति का मेंडेरिन संतरा है, या वह देवदार-जाति की चीड़ है, तो भी प्रकृति अपने असली रूप में नहीं नजर आती।

समग्रता से अलग करके देखी हुई कोई भी वस्तु असली चीज नहीं होती। विभिन्न अनुशासनों से जुड़े लोग खेतों में धान की एक डंठल को देखते हैं, तो कीड़ों की बीमारियों के विशेषज्ञ को केवल कीड़े से हुई क्षति ही नजर आती है। पौध-पोषकता विशेषज्ञ केवल पौधे की पुष्टता पर ध्यान देता है। आज की स्थिति में इस एकांगिता को टाला नहीं जा सकता। उदाहरण के तौर पर, अनुसंधान केंद्र से आए एक भले आदमी से, जब वह धान के टिड्डे और मेरे खेत की मकड़ियों की जांच-पड़ताल कर रहा था, मैंने कहा, “प्रोफेसर महोदय, चूंकि आप मकड़ियों पर अनुसंधान कर रहे हैं, पर आपकी दिलचस्पी, टिड्डे के बहुत से प्राकृतिक-भक्षकों में से, केवल एक में ही है। इस बरस मकड़ियाँ बहुतायत से पैदा हो गई है, लेकिन पिछले बरस यहां भेक (टोडज) बहुत थे। इसके पिछले साल ज्यादा संख्या मेंढकों की थी। ऐसे परिवर्तन असंख्य हैं।”

कीटों (प्राणियों) की परस्पर रिश्तेदारी की जटिलताएं भी इतनी है कि किसी भी विशिष्ट अनुसंधान के तहत किसी खास वक्त पर किसी एक परभक्षी की भूमिका को समझ पाना असंभव है। कुछ ऐसे भी मौसम होते हैं, जब पत्तियों पर बैठने वाले टिड्डों की आबादी कम होती है। तब मकड़ियों की संख्या ज्यादा होती है। ऐसे भी दिन होते हैं जब बारिश खूब हो जाने से मेंढक खूब हो जाते हैं और मकड़ियों को चट कर जाते हैं। या फिर बारिश कम होने से न तो टिड्डे कहीं नजर आते हैं न मेंढक ही। कीट-नियंत्रण की वे विधियाँ, जो खुद कीटों की परस्पर रिश्तों को नजरअंदाज करती है, बिल्कुल बेकार हैं। मकड़ियों और टिड्डों पर अनुसंधान करते समय मेंढकों और मकड़ियों के बीच के रिश्ते पर भी विचार किया जाना चाहिए। जब बात इस मुकाम पर पहुंचेगी तो हमें मेंढक विशेषज्ञ की भी जरूरत पड़ेगी। बाद में इस शोध में मकड़ी, टिड्डा तथा चावल विशेषज्ञ के अलावा एक जल-प्रबंधन विशेषज्ञ को भी शामिल होना होगा।

इसके अलावा इन खेतों में मकड़ियों की भी चार या पांच किस्में हैं। मुझे याद है कुछ बरस पहले एक व्यक्ति सुबह-सुबह मेरे घर दौड़ा आया और पूछने लगा कि, ‘क्या मैंने अपने खेतों को रेशम की जाली या किसी ऐसी चीज से ढंक दिया है।’ मेरी समझ में नहीं आया कि वह क्या कह रहा है। सो मैं खुद अपनी आंखों से मामला क्या है, यह देखने भागा। हम लोगों ने कुछ ही समय पूर्व चावल की फसल काटी थी, और रातों-रात धान के ठूंठ और नीचे उगी हुई घास मकड़ी के जालों के ढंक गई थी। वही रेशम की चादर जैसे दिखाई दे रहे थे। सुबह के कोहरे में चमकते और लहराते वे मकड़ी के जाले एक शानदार दृश्य उपस्थित कर रहे थे।

इस अद्भुत घटना के बारे में खास बात यह है कि जब भी ऐसा होता है और यह बहुत दिनों में एक बार होता है, तो वह सिर्फ एक या दो दिनों तक टिकता है। ध्यान से देखने पर यह पता चलेगा कि हर वर्ग इंच क्षेत्र में कई-कई मकड़ियाँ हैं। वे खेत में इतनी सघनता से फैली रहती हैं कि आपको कहीं, खाली जगह दिखाई ही नहीं देगी। एक चौथाई एकड़ क्षेत्र में तो हजारों-लाखों की तादाद में भी हो सकती हैं। दो-तीन दिन बाद खेत पर जाने पर कई-कई गज लंबे जालों के टुकड़े टूट कर हवा में लहराते हैं, और हर जाले के साथ पांच-छह मकड़ियाँ चिपकी हुई होती है। यह नजारा वैसा ही होता है, जैसे हवा में देवदार के बीज या डेंडेलियन के रोयें उड़ गए हो। नन्हीं-नन्हीं मकड़ियाँ जालों के टुकड़ों से चिपटी आसमान मैं तैरती-इतराती रहती हैं। इस अद्भुत प्राकृतिक लीला को देखकर आप सहमत होंगे कि कवियों और कलाकारों को भी इस सम्मेलन में शरीक होना चाहिए।

जैसे ही रसायन खेत में छिड़के जाते हैं, यह सब क्षण भर में नष्ट हो जाता है। एक बार मैंने सोचाकि चूल्हों की राख इन पर छिड़कने में कोई हर्ज नहीं होगा। (फुकूओका लकड़ी की राख तथा अन्य घरेलू जैव-कूड़े से खाद बनाकर उसका उपयोग अपने छोटे से सब्जी बाग में करते हैं।) नतीजा यह हुआ कि दो या तीन दिन बाद खेत में एक भी मकड़ी नहीं थी। राख के कारण जाली के तिनके अपने आप बिखर गए थे, और हजारों-लाखों मकड़ियाँ मुट्ठी भर, मासूम नजर आने वाली राख की बलि चढ़ गई। कीटनाशक का प्रयोग सिर्फ टिड्डों या उसके प्राकृतिक भक्षकों से निजात पाने का ही मामला नहीं है। इससे प्रकृति के कई आवश्यक व्यापार भी प्रभावित होते हैं।

शरद ऋतु में इन मकड़ियों के झुंडों का धान के खेतों में आने, और इस तरह अचानक गायब हो जाने का रहस्य अभी तक समझा नहीं जा सका है। कोई नहीं जानता कि वे वहां पर कहां से आती हैं, सर्दियों में कैसे जिंदा रहती हैं तथा गायब होने पर वे कहां चली जाती हैं। यानी रसायनों का उपयोग केवल पक्षी-वैज्ञानिकों की ही समस्या नहीं है। दार्शनिकों, धर्मवेत्ताओं, कलाकारों तथा कवियों को भी यह तय करने में मदद करनी होगी कि रासायनिक कीटनाशकों का उपयोग करना चाहिए या नहीं, या जैव-उर्वरक के प्रयोग तक के नतीजे क्या होंगे।

इस जमीन पर चौथाई एकड़ क्षेत्र से हम लगभग 22 बुशेल (500 किलो) चावल तथा इतनी ही खरीफ की फसल लेंगे। यदि फसल 29 बुशेल तक पहुंच जाती है, जैसा कि कई बार होता है, तो इससे ज्यादा पैदावार आपको खोजने पर भी शायद कहीं भी पैदा होती नहीं मिलेगी। चूंकि इस अनाज की खेती के साथ उन्नत प्रौद्योगिकी का कोई वास्ता नहीं रहा, यह आधुनिक विज्ञान के विरोधाभासों का एक प्रत्यक्ष प्रमाण है। जो भी यहां आकर इन खेतों को देखता है और उनकी गवाही को कबूल करता है, उसे इस बात को लेकर काफी गहरी शंकाएं होने लगेंगी कि मानव, प्रकृति को समझता भी है या नहीं, और यह उसकी बुद्धि की बिसात में भी है या नहीं कि वह प्रकृति को जान समझ लें। विडंबना यह है कि विज्ञान ने हमारी केवल इतनी ही सेवा की है कि उसने हमें बता दिया कि मानव की जानकारी कितनी सीमित है।

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