मौत बाँटता आर्सेनिक

27 Sep 2016
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उत्तर प्रदेश के बलिया समेत कई जिलों में आर्सेनिक का प्रकोप कोई घटना नहीं है, लेकिन अब हालात बदतर होते जा रहे हैं और स्वास्थ्य सेवाओं की ओर प्रशासन का जरा भी ध्यान नहीं है। अठारह वर्ष के देव कुमार चौबे पिछले पाँच साल से हर रोज किसी-न-किसी डॉक्टर के पास जा रहे हैं। पूर्वी उत्तर प्रदेश के बलिया जिले के हरिहरपुर गाँव के रहने वाले देव कुमार के पूरे बदन पर गहरे धब्बे हो गए हैं। स्थानीय चिकित्सकों ने पहले मामूली त्वचा रोग का इलाज किया लेकिन ये धब्बे बढ़ते ही गए। इन धब्बों के आसपास असहनीय दर्द भी होता है।

वर्ष 2013 में जाधवपुर विश्वविद्यालय के पर्यावरण अध्ययन विभाग के पूर्व निदेशक डॉ. दीपांकर चक्रवर्ती और कोलकाता के इंस्टीट्यूट ऑफ पोस्ट ग्रेजुएट मेडिकल एजुकेशन एंड रिसर्च के त्वचा रोग विभाग के पूर्व प्रमुख प्रोफेसर आर एन दत्ता ने इस गाँव का दौरा किया था और देव की दादी रूपकली देवी से कहा था उनके नाती को आर्सेनिक से दूषित भूजल के प्रयोग के कारण केराटोसिस हो गया है। उन्होंने पाया कि गाँव के अधिकांश लोग इस बीमारी से जूझ रहे हैं।

रूपकली ने इस संवाददाता से कहा कि उनके परिवार के 28 सदस्यों में से 21 को यह बीमारी है। उन्होंने कहा कि उनके पास पीने के पानी का कोई दूसरा जरिया नहीं है। डॉ. दत्ता ने कहा, ‘हम वर्ष 2003 से इस पर शोध कर रहे हैं। इस क्षेत्र में भूजल के लगातार प्रयोग से यह बीमारी फैली है और यह आगे चलकर कैंसर का रूप ले लेती है। दुख की बात यह है कि इन गाँववासियों के लिये आशा की कोई किरण नजर नहीं आ रही है।’ उन्होंने कहा कि वर्ष 2003 से अब तक हरिहरपुर गाँव के तीन दर्जन से अधिक निवासी त्वचा के कैंसर के चलते अपनी जान गँवा चुके हैं। और आने वाले दिनों में यह आँकड़ा बहुत ज्यादा हो सकता है क्योंकि भूजल में आर्सेनिक का संक्रमण बढ़ता ही जा रहा है और सरकार इस ओर कोई ध्यान नहीं दे रही है।

शोधकर्ताओं का कहना है कि बलिया जिले की 2300 बस्तियों में से करीब 900 ऐसी हैं जहाँ के पानी में आर्सेनिक का स्तर बहुत ज्यादा है। चक्रवर्ती कहते हैं, ‘अब तक सरकार इस इलाके में पीने का साफ पानी मुहैया कराने के नाम पर कई हजार करोड़ रुपए की राशि खर्च कर चुकी है लेकिन यह समस्या दिन-ब-दिन बढ़ती जा रही है। इसकी वजह एक अलग किस्म का भ्रष्टाचार है।’

दत्ता कहते हैं, ‘सन 2000 के दशक के आरम्भ में मुझे लगा कि बलिया से बहुत बड़ी तादाद में लोग मेरे क्लीनिक में आ रहे हैं। तब मैंने सोचा कि इस बारे में कुछ शोध किया जाये। मैं कह सकता हूँ कि उस इलाके में गंगा के मैदानी भाग में हर जगह यह समस्या है। बलिया में हालात अधिक खराब हैं क्योंकि वहाँ भूजल में आर्सेनिक का स्तर बहुत ज्यादा है। खराब पोषण और लम्बे समय तक आर्सेनिक का सम्पर्क इसकी वजह है।’

उत्तर प्रदेश जल निगम की एक रिपोर्ट कहती है, ‘भूजल की ऊपरी सतह पर आर्सेनिक है। इसलिये हम जमीन से 60 मीटर तक गहराई में हैण्डपम्प लगा रहे हैं। वहाँ आर्सेनिक का प्रभाव नहीं है। इसके अलावा बलिया जिले के कई गाँवों में काफी तादाद में आर्सेनिक निवारण संयंत्र भी लगाये गए हैं। पाइप के जरिए पेयजल की आपूर्ति भी की जा रही है।’

हरिहरपुर के ही हरेराम यादव (60 वर्ष) के दाहिने हाथ की बीच वाली अंगुली और दाँए पैर में केराटोसिस के बाद अब कैंसर की शुरुआत हो चुकी है। वह कहते हैं, ‘सप्ताह में दो घंटे भी बिजली नहीं रहती है। इसलिये हमें हर रोज पाइप का पानी नहीं मिल पाता है। सरकार ने कुछ महीने पहले आर्सेनिक फ्री हैण्डपम्प लगाए हैं लेकिन मेरे डॉक्टर का कहना है कि अब इसमें भी आर्सेनिक आ गया है क्योंकि इसका फिल्टर कभी साफ नहीं किया जाता है और जमीन से खूब पानी खींचा जाता है।’

आर्सेनिकोसिस चार चरणों में कैंसर में तब्दील हो जाता है। ये चरण हैं मेलनोसिस, केराटोसिस, बोवेन और आखिरकार कैंसर।

डॉक्टरों ने हरेराम से कहा कि उसकी बीमारी ऐसे स्तर पर पहुँच गई है कि अब वहाँ से वापसी सम्भव नहीं है। उसके पास एकमात्र विकल्प यही है कि वह अपनी प्रभावित अंगुली को कटवा ले और मौत से अपना बचाव करे।

वैज्ञानिकों का कहना है कि गंगा के कछार वाला इलाका हिमालय से बहकर आने वाले अवसाद में काफी आर्सेनिक होता है और यह मैदानी इलाकों में जमा हो जाता है। गंगा जब अपना मार्ग बदलती है तो उन स्थानों पर आबादी हो जाती है और उनको भूजल में आर्सेनिक मिलता है।

देश में आर्सेनिक की मौजूदगी की पहली रपट सन 1976 में पंजाब और हरियाणा से आई थी। इसके बाद सन 1984 में पश्चिम बंगाल में गंगा के निचले मैदान में यह देखने को मिला डॉ. चक्रवर्ती और प्रोफेसर दत्ता समेत विशेषज्ञों के दल ने बलिया के बेलहरी ब्लॉक की गंगापुर ग्राम पंचायत के गाँव चैन छपरा में अक्टूबर 2003 से अगस्त 2005 तक सघन सर्वेक्षण किया। चापाकल के पानी, हाथ और नाखून आदि के नमूने लिये गए और उनका विश्लेषण किया गया। आर्सेनिक के कुछ मरीजों की भी जाँच की गई।

उन्होंने बेलहरी में 2153 हैण्डपम्प के नमूने लिये और पाया कि उनमें से 65 प्रतिशत में 10 पार्ट पर बिलियन (10 पीपीबी) से अधिक आर्सेनिक है। सरकार के मुताबिक 10 पीपीबी मान्य सीमा है। 32.20 प्रतिशत ट्यूबवेल में आर्सेनिक का स्तर 10 पीपीबी और 50 पीपीबी के बीच, 34 प्रतिशत में 50 पीपीबी से अधिक और 15 प्रतिशत में 300 पीपीबी से अधिक था। लोगों के बालों और नाखूनों में यह क्रमशः 137-10,900 पीपीबी और 764-19,00 पीपीबी के बीच था।

उन्होंने यह भी पाया कि गंगापुर ग्राम पंचायत में सभी 55 हैण्डपम्प का पानी पीने लायक नहीं रह गया है। चक्रवर्ती कहते हैं, ‘तब से हर वर्ष हम बलिया जिले के कई गाँवों में जाते हैं। हम यह कह सकते हैं कि हर बीतते दिन के साथ समस्या बढ़ती जा रही है।’

बलिया निवासी सामाजिक कार्यकर्ता सौरभ सिंह एक दशक से अधिक वक्त से आर्सेनिक पर काम कर रहे हैं। वह कहते हैं, ‘आर्सेनिकोसिस बलिया में महज दो दशक से है। 1990 के दशक में गंगा ने तेजी से अपना रास्ता बदला और उसके तटवर्ती इलाके में नई बस्तियाँ बसने लगीं। यहाँ का पानी आर्सेनिक से प्रदूषित था। दुर्भाग्यवश स्थानीय चिकित्सक इसके बारे में ज्यादा नहीं जानते। मैंने कई मामले ऐसे देखे हैं जिसमें मरीज को आर्सेनिकोसिस था लेकिन चिकित्सक टीबी या त्वचा रोग का इलाज करते रहे।’ वह निराश होकर कहते हैं कि बंगाल के विशेषज्ञ बलिया के लोगों को बचाने के लिये उत्सुक हैं लेकिन केन्द्र और राज्य सरकारें सो रही हैं।

सौरभ कहते हैं, ‘यहाँ उगाए जाने वाले अनाज और सब्जियों में भी आर्सेनिक है। मुझे लगता है यह एक चिकित्सकीय आपदा है। बीते 10 साल में बलिया में शुद्ध पेयजल मुहैया कराने पर 1100 करोड़ रुपए से अधिक की राशि खर्च हो चुकी है। मैंने सुना कि पिछले दिनों 300 करोड़ रुपए की राशि और मंजूर की गई है। अधिकारियों को लगता है कि उनका काम कुछ हैण्डपम्प, आर्सेनिक खत्म करने के संयंत्र लगाने और कुछ कुएँ खुदवाने से पूरा हो जाता है। मैंने सेमिनारों में कह दिया कि बीते दो दशक में बलिया में आर्सेनिकोसिस से 1,000 से अधिक लोग मारे गए हैं तो मुझे धमकियाँ मिल रही हैं। हरिहरपुर के देव के शरीर पर पड़े धब्बे जल्दी ही कैंसर में बदल सकते हैं लेकिन सरकार इस बारे में कुछ करना ही नहीं चाहती।’

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