मध्य प्रदेश में जलवायु परिवर्तन के संकेत


कुछ समय पहले, मध्य प्रदेश सरकार के हाउसिंग एंड एनवायरनमेंट विभाग के अन्तर्गत कार्यरत इप्को (एनवारनमेंटल प्लानिंग एंड कोआर्डिनेशन सेल) संगठन ने यूएनडीपी के सहयोग से मध्य प्रदेश में सम्भावित जलवायु परिवर्तन पर कार्य योजना तैयार कराई थी। यह कार्य योजना अप्रैल 2012 में प्रकाशित हुई थी।

इस कार्य योजना में वन, पानी, खेती और उद्यानिकी, पशुपालन, मछली पालन, स्वास्थ्य, नगरीय प्रशासन तथा परिवहन, ऊर्जा एवं नवकरणीय ऊर्जा, उद्योग और पंचायत तथा ग्रामीण विभाग की गतिविधियों पर पड़ने वाले सम्भावित प्रभावों के बारे में विस्तार से चर्चा की गई थी।

इस रिपोर्ट में जलवायु परिवर्तन के कारण मध्य प्रदेश के विभिन्न अंचलों में न्यूनतम और अधिकतम तापमान की होने वाली सम्भावित बढ़ोत्तरी, मानसूनी तथा गैर मानसूनी वर्षा के वितरण एवं तीव्रता बदलावों, वर्षा दिवसों की हानि, गर्मी के मौसम की अवधि में सम्भावित वृद्धि इत्यादि पर आवश्यक अनुमान प्रकट किये गए हैं।

मध्य प्रदेश के लिये तैयार जलवायु परिवर्तन रिपोर्ट बताती है कि सन 2030 तक प्रदेश की धरती के औसत तापमान में 1.8 से 2 डिग्री सेंटीग्रेड तक वृद्धि सम्भव है। दैनिक औसत न्यूनतम तापमान में यह वृद्धि 2 डिग्री से लेकर 2.4 डिग्री सेंटीग्रेड तक हो सकती है। रिपोर्ट आगे कहती है कि सम्भवतः मध्य प्रदेश के पश्चिमी भाग की तुलना में पूर्वी भाग में तापमान वृद्धि का असर अधिक होगा।

रिपोर्ट में सन 2080 की सम्भावनाओं का भी उल्लेख है। रिपोर्ट बताती है कि सन 2080 तक प्रदेश की धरती के औसत तापमान में 3.4 से 4.4 डिग्री सेंटीग्रेड तक वृद्धि हो सकती है। रिपोर्ट कहती है कि प्रदेश के उत्तरी भूभाग में अपेक्षाकृत अधिक गर्मी पड़ेगी। दैनिक औसत न्यूनतम तापमान में 4.4 डिग्री सेंटीग्रेड तक वृद्धि अपेक्षित है।

मध्य प्रदेश की जलवायु परिवर्तन रिपोर्ट, सन 2021 से सन 2050 की अवधि में होने वाली सम्भावित बरसात के बदलाव बारे में भी अनुमान प्रकट करती है। रिपोर्ट बताती है कि उक्त अवधि में, प्रदेश की शीतकालीन वर्षा घटेगी। वर्षा की कमी का अनुभव पूर्व से पश्चिमी की ओर, अधिक स्पष्टता से नजर आएगा। अर्थात मालवा में पड़ने वाले मावठा (शीतकालीन वर्षा) में कमी आएगी और रबी की फसलों पर संकट गहराएगा।

मध्य प्रदेश के दक्षिणी अंचल में मानसून पूर्व की बरसात का आँकड़ा बढ़ेगा। प्रदेश के बाकी हिस्सों में मानसून पूर्व की बरसात की मात्रा घटेगी। जहाँ तक मानसूनी वर्षा का प्रश्न है, तो उसकी मात्रा में कोई खास बदलाव नहीं होगा। वह यथावत रहेगी या उसमें बहुत कम बढ़ोत्तरी होगी पर मालवा अंचल में उसकी मात्रा घटेगी। बरसात का यह पैटर्न पृथक-पृथक कृषि जलवायु क्षेत्रों में बोई जाने वाली फसलों और वनों में परिवर्तन लाएगा।

रिपोर्ट में सन 2080 की सम्भावनाओं का भी उल्लेख है। रिपोर्ट बताती है कि सन 2080 में वर्षा की मात्रा में सुधार होगा। यह सुधार दक्षिणी मध्य प्रदेश में अधिक स्पष्टता से नजर आएगा। रिपोर्ट कहती है कि मानसून पूर्व और मानसून पश्चात होने वाली बरसात की मात्रा की सम्भावित वृद्धि, मानसून अवधि की सम्भावित वृद्धि की तुलना में थोड़ा अधिक होना सम्भव है।

उक्त अनुमानों के आधार पर कहा जा सकता है कि सन 2080 तक पूरे प्रदेश में होने वाली वर्षा की मात्रा में सुधार होगा। कहा जा सकता है कि जलवायु तथा मौसम सम्बन्धी उक्त अनुमान नदियों के प्रवाह, प्रदूषण की मात्रा, भूजल रीचार्ज, संरचनाओं में जल संचय, बाढ़ की आवृत्ति और प्रवृत्ति पर भी असर डालेंगे। संक्षेप में, हमें पर्यावरण, जल, जंगल, जमीन, और नागरिकों की सेहत पर अधिक ध्यान देना होगा। उ

क्त बदलावों का आजीविका पर भी असर पड़ेगा। इसके अलावा विकास, उद्योगों और अधोसंरचना से जुड़े और भी अनेक बिन्दु हो सकते हैं जिन पर ध्यान देने की आवश्यकता है। लम्बी अवधि का गहन अध्ययन ही प्रदेश और उसमें रहने वाले समाज तथा जीवधारियों को बेहतर योगक्षेम प्रदान करेगा। इस दिशा में काम प्रारम्भ करने का समय आ चुका है।

उक्त रिपोर्ट में दर्ज तापमान और बरसात सम्बन्धी सम्भावनाओं को ध्यान में अनुसन्धानों और तकनीकी डिजाइनों का सम्भावित खाका तैयार किया जाना चाहिए। कुछ सुझाव निम्नानुसार हो सकते हैं।

तापमान की वृद्धि, रबी सीजन में वाष्पीकरण को बढ़ावा दे धरती में नमी घटाएगी। नमी की कमी के कारण कमांड क्षेत्र में सिंचाई की आवृत्ति को बढ़ाना पड़ेगा। सिंचाई आवृत्ति की वृद्धि, सिंचित रकबा घटाएगी। पूरे रकबे को पानी देने के लिये, अतिरिक्त पानी की आवश्यकता होगी। उस कमी को पूरा करने के लिये सिंचाई योजनाओं के कमांड क्षेत्र में सतही जल और भूजल का मिला जुला उपयोग, भविष्य में, सम्भावित विकल्प हो सकता है। इस विकल्प की सभाव्यता को परखने के लिये प्रयोग किये जाने चाहिए। बारानी खेती में वर्षाजल और भूजल की मदद खरीफ की फसल को सम्बल प्रदान किया जा सकता है। इस हेतु सम्भावनाएँ खोजी जानी चाहिए।

जलस्रोतों (जलाशय, कुआँ, नलकूप इत्यादि) को टिकाऊ बनाने के लिये अध्ययन, प्रयास एवं डिजाइनों का विकास किया जाना चाहिए। सतही जल संरचनाओं को बारहमासी बनाने के लिये उनकी मौजूदा गहराई में वाष्पीकरण के लिये अतिरिक्त गहराई का प्रावधान जोड़ा जाना चाहिए और उसे अनिवार्य बनाना चाहिए।

सतही जल और भूजल के मिलेजुले उपयोग के कारण बचे पानी को कैचमेंट देने के विकल्प का परीक्षण किया जाना चाहिए। इस पहल से कैचमेंट में स्थित वनों पर जलवायु परिवर्तन का खतरा कम होगा। जंगली जानवरों को पीने का पानी प्राप्त होगा। गर्मी के मौसम के तापमान में कमी की सम्भावना है।

मौजूदा जल वितरण प्रणालियों में होने वाली हानियों को न्यूनतम स्तर पर लाने के लिये ड्रिप, स्प्रिंकिलर जैसी प्रणालियों को मुख्य धारा में लाना चाहिए। अधिक-से-अधिक रकबे में खेती सम्भव बना, खाद्यान्न सुरक्षा सुनिश्चित की जानी चाहिए।

वर्षा आश्रित खेतों में कम-से-कम खरीफ की फसल को सुरक्षात्मक सिंचाई और नमी बढ़ाने वाली गतिविधियों को अनिवार्य बनाकर एक फसल सुनिश्चित करना। इस प्रयास में वर्षाजल और भूजल के मिलेजुले उपयोग की सम्भावना तलाशी जानी चाहिए।

जिन इलाकों में बिजली सुविधा अनुपलब्ध है उन इलाकों में पानी उठाने के लिये सोलर पम्पों के उपयोग को सुनिश्चित किया जा सकता है। उपर्युक्त प्रयास जलवायु बदलाव के कुप्रभाव को भी यथासम्भव कम करने में मदद करेंगे। अपर्याप्त पानी वाले क्षेत्रों में न्यूनतम पानी में अधिकतम खेतों तक पानी उपलब्ध कराने वाली प्रभावी वितरण प्रणाली को अनिवार्य बनाया जाना चाहिए।

वाष्पीकरण को कम करने वाले प्रयासों को बढ़ावा देना। उल्लेखनीय है कि सरदार सरोवर की कुछ नहरों के ऊपर सोलर सिस्टम लगाया गया है। इस व्यवस्था के कारण वाष्पीकरण को कम करने में सफलता मिली है। पानी बचा है।

भूजल भण्डार वाष्पीकरण से अप्रभावित होते हैं। इस लिये भूजल रीचार्ज को जल संरक्षण के कारगर उपाय के रूप में मान्यता प्रदान करना और भूजल भण्डारों के लिये समानुपातिक प्रयास करना चाहिए। उन्हें फिक्स डिपॉजिट की तर्ज पर उपयोग में लेने पर विचार किया जा सकता है।

तापमान की वृद्धि और बरसात के बदलते चरित्र के परिवेश में उपयुक्त या भरपूर उत्पादन देने वाली खाद्यान्न और उद्यानिकी प्रजातियों का विकास करना समायोचित होगा। इसके अतिरिक्त, विभिन्न समयावधि में पकने वाली प्रजातियों और मिश्रित खेती की तकनीकों को कारगर बनाने के लिये प्रयोेग करना प्रस्तावित है। इन गतिविधियों का लक्ष्य कृषि जलवायु क्षेत्र में, प्रस्तावित फसलों और फलों पर जलवायु बदलाव और मौसम के असर को कम करना होगा। परम्परागत खेती भी इसी प्रकार की रणनीति अपनाकर कालजयी बनी थी। सम्भव है, उक्त प्रयासों से इस घड़ी में हमें दिशा मिले।

 

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