मध्य प्रदेश में जंगल

मध्यप्रदेश अपनी विविधता के लिये जाना-पहचाना जाता है। विकास और सामाजिक परिवर्तन के प्रयासों के संदर्भ में भी जितने प्रयोग और परीक्षण इस प्रदेश में हुए हैं; संभवत: इसी कारण इसे विकास की प्रयोगशाला कहा जाने लगा है। मध्यप्रदेश में राजस्व और वनभूमि के संदर्भ में भी विवाद ने नित नये रूप लिये हैं और अफसोस की बात यह है कि यह विवाद सुलझने के बजाय उलझता जा रहा है। इस विषय को विवादित होने के कारण नजरअंदाज नहीं किया जा सकता है। जंगलों का मामला सत्ता, पूंजी और सामुदायिक सशक्तिकरण के बीच एक त्रिकोण बनाता है। इतिहास बताता है कि प्राकृतिक संसाधनों (खासतौर पर जल और जंगल) के किनारों पर ही सभ्यताएं बसती और विकास करती हैं। जंगलों और नदियों के संरक्षण से ही प्रकृति का संतुलन बनता है किन्तु विकास की जिस परिभाषा का आज के दौर में राज्य (स्टेट) पालन कर रहा है उससे सामाजिक असंतुलन के नये प्रतिमान खड़े हो रहे हैं। अत: यह महत्वपूर्ण हो जाता है कि जंगल के सवाल का जवाब खोजने के लिये व्यापक प्रयास किये जायें।

मध्यप्रदेश के बारे में -


देश की भांति मध्यप्रदेश में भी जंगल और जंगल के अधिकार का सवाल उलझा दिया गया है। यहां उलझा दिया गया कहना इसलिये जरूरी हो जाता है क्योंकि हमेशा से जंगलों पर राज्य या सरकारी सत्ता का नियंत्रण नहीं रहा है। औद्योगिक क्रांति के दौर में ब्रिटिश हुकूमत को पहले पानी के जहाज बनाने और फिर रेल की पटरियां बिछाने के लिये लकड़ी की जरूरत पड़ी। इसी जरूरत को पूरा करने के लिये उन्होंने जंगलों में प्रवेश करना शुरू किया। जहां स्वायत्त आदिवासी और वन क्षेत्रों में निवास करने वाले ग्रामीण समुदाय से आमना-सामना हुआ। इसके बाद विकास, खासतौर पर आर्थिक विकास के लिये जब संसाधनों की जरूरत पड़ी तब यह पता चला कि मूल्यवान धातुओं, महत्वपूर्ण रसायनों, जंगली वनस्पतियों, लकड़ी और खनिज पदार्थ ताते जंगलों से ही मिलेंगे। और फिर राजनैतिक सत्ता पर नियंत्रण करने की पद्धति अपनाई।

वास्तव में अकूत प्राकृतिक संसाधनों का नियमन (Regulatisation) करने में कोई बुराई नहीं है किन्तु जंगलों के सम्बन्ध में जो कानून बने उनका मकसद समाज के एक खास तबके को लाभ पहुंचाना रहा है और इसी भेद-भावपूर्ण नजरिये के कारण आंतरिक संघर्ष की स्थिति निर्मित हुई।

वर्ष 2001 की जनगणना के अनुसार मध्यप्रदेश की जनसंख्या 6.03 करोड़ है। जिसमें से 73¬33 फीसदी लोग ग्रामीण इलाकों में रहते हैं। प्रदेश की कुल जनसंख्या में से 19 फीसदी हिस्सा आदिवासी समुदायों का है जो पारम्परिक रूप से जंगलों के साथ जीवन सम्बन्ध रखते हैं। इतना ही नहीं ग्रामीण जनसंख्या का 18 फीसदी हिस्सा भी अपनी आजीविका और जीवन के लिए जंगल के संसाधनों पर निर्भर है। इसका मतलब यह है कि जब हम यह कहते हैं कि जंगल के संसाधनों पर किसी विवाद का साया है तब इसका मतलब यह होता है कि हम दो करोड़ लोगों की आजीविका के संसाधनों पर विवाद की बात कर रहे होते हैं।

मध्यप्रदेश में कुल पशुधन 3.49 करोड़ की संख्या में है जिसमें गाय, भैंस, बकरी, भेड़ और बैल सबसे ज्यादा हैं। जब हम गांवों का आनुपातिक विश्लेषण करते हैं। तो पता चलता है कि प्रदेश के कुल 52739 गांवों में से 22,600 गांव या तो जंगलों में बसे हुये हैं या फिर जंगलों की सीमा से सटे हुये। मध्यप्रदेश सरकार का वन विभाग सैद्धांतिक रूप से यह विश्वास करता है कि मुख्यधारा के विकास की प्रक्रिया से दूर रहने के कारण ये समुदाय (यानी जनसंख्या का एक तिहाई हिस्सा) अपनी आजीविका के लिये जंगलों पर निर्भर है।

प्रदेश में जंगल की संपदा - यह एक बहुत ही महत्वपूर्ण सवाल है कि हम वनों को सरकार की सम्पत्ति मानते हैं या फिर समुदाय की? समाज पारम्परिक रूप से जंगलों का संरक्षण और उपभोग एक साथ करता रहा है और ब्रिटिश हुकूमत के दौर में सन् 1862 यानी देश के पहले स्वाधीनता संग्राम के ठीक पांच वर्ष बाद वन विभाग की स्थापना की। वे वन विभाग के जरिये उपनिवेशवाद को सशक्त करने के लिये जंगलों पर अपना मालिकाना हक चाहते थे। मध्यप्रदेश में 10 जुलाई 1958 को राजपत्र में एक पृष्ठ की अधिसूचना प्रकाशित करके 94 लाख हेक्टेयर सामुदायिक भूमि (जंगल) को वन विभाग की सम्पत्ति के रूप में परिभाषित कर दिया गया। यूं कि इस 94 लाख हेक्टेयर भूमि में से कितने हिस्से पर आदिवासी या अन्य ग्रामीण रह रहे हैं, खेती कर रहे हैं या पशु चरा रहे हैं। यह विश्लेषण नहीं किया गया। चूंकि आदिवासियों के पास निजी मालिकाना हक के कोई दस्तावेजी प्रमाण नहीं रहें हैं। इसलिये उनके हक को अवैध और गैर-कानूनी माना जाने लगा। पहले (स्वतंत्रता से पूर्व) की व्यवस्था में हर गांव का एक दस्तावेज होता था, उसमें यह स्पष्ट उल्लेख रहता था कि गांव में कितनी भूमि है, उसका उपयोग कौन-कौन किस तरह से कर रहा है। वही गांव के मालिकाना हक का वैधानिक दस्तावेज था; इसे बाजिबुल-अर्ज कहा जाता था। आज भी यह दस्तावेज जिला अभिलेखागार में देखा जा सकता है। जंगल के इसी हस्तांतरण के कारण आदिवासियों के वैधानिक शोषण की शुरूआत हुई।

मध्यप्रदेश में जंगल


वर्ष 2001 के आंकड़ों के अनुसार (स्टेट ऑफ फारेस्ट रिपोर्ट 2001 एफएसआई) मध्यप्रदेश में वन विभाग के नियंत्रण में 95221 वर्ग किलोमीटर का क्षेत्रफल आता है जबकि इसमें वास्तव में 77265 वर्ग किलो मीटर की जमीन पर ही जंगल दर्ज किया गया है। इसका मतलब यह है कि 18 हजार वर्ग किलोमीटर के क्षेत्र में जंगल नहीं है फिर भी वन विभाग का उस पर नियंत्रण है। इसमें से भी सघन वन का क्षेत्रफल 44384 वर्ग किलोमीटर ही है। वर्तमान स्थिति में मध्यप्रदेश में क्षेत्रफल की दृष्टि से सबसे ज्यादा, 76429 वर्ग किलोमीटर जंगल है। इसके बाद आंध्रप्रदेश में 68019 वर्ग किलोमीटर और छत्तीसगढ़ में 55998 वर्ग किलोमीटर जंगल है।

वास्तविक जंगल की वर्षवार स्थिति

वर्ष

1997

1999

2001

2003

मध्यप्रदेश

74760 वर्ग किमी

75130 वर्ग किमी

77265 वर्ग किमी

76429 वर्गकिमी

भारत

633397 वर्ग किमी

637293 वर्ग किमी

675538 वर्ग किमी

678333 वर्ग किमी


मध्यप्रदेश में जंगल का खजाना मध्यप्रदेश सरकार के वन विभाग ने प्रदेश के जंगलों में पाये जाने वाले टिम्बर और लकड़ी की कुल मात्रा 500 लाख क्यूबिक मीटर आंकी है जिसकी कीमत ढाई लाख करोड़ है। जबकि जंगल से मिलने वाले अन्य उत्पादों की वैधानिक कीमत एक हजार करोड़ प्रति वर्ष है। नियमों का उल्लंघन कर होने वाला वास्तविक व्यापार साढ़े सात हजार करोड़ रूपये का है। और यही लड़ाई का सबसे बड़ा आधार भी है। मध्यप्रदेश में सरकार के वन विभाग से अभी केवल 300 करोड़ रूपये की आय ही होती है। समानान्तर रूप से नीतियों और कानून को प्रभावित करने वाले समूह (इसमें उद्योग, ठेकेदार, राजनैतिक व्यक्तित्व और अफसर शामिल हैं) वन संसाधनों का सबसे ज्यादा फायदा उठाते हैं।

आश्रय के अधिकार का मुद्दा


हम यह पहले ही दर्ज कर चुके हैं कि प्रदेश के 22600 गांव या तो जंगल में बसे हुये हैं या फिर जंगल की सीमा पर। आदिवासियों के अधिकारों के संघर्ष की प्रक्रिया में सबसे अहम् मांग यही रही है कि इन्हें जंगल में रहने और अपनी आजीविका के लिये वन संसाधनों पर अधिकार मिले। इसके लिये सबसे पहले सन् 1990 में नीतिगत निर्णय लिया गया। वास्तव में सरकार जंगल में रहने वाले आदिवासियों को अतिक्रमणकारी मानती है। इसलिये सरकार ने तय किया कि 31 दिसम्बर 1976 तक जंगल में रहने वाले आदिवासियों को नियमित किया जायेगा और उन्हें ही पात्र अतिक्रमणकारी माना गया। जो आदिवासी इस तारीख के बाद से वहां रह रहे हैं उन्हें पात्र अतिक्रमणकारी नहीं माना गया और बाहर निकालने की प्रक्रिया शुरू कर दी गई।

वनों से प्राप्त राजस्व

वर्ष

प्राप्त राजस्व रूपये (करोड़)

2001-02

306.45

2002-03

497.30

2003-04

496.75

2004-05

559.11

2005-06

422.00


इसके बाद व्यापक दबाव के फलस्वरूप यह देखा गया कि 70 फीसदी आदिवासी जो विवाह के बाद नये परिवार का रूप लिये हैं या एक गांव छोड़कर दूसरे गांव में गये थे। तो अपने अधिकार से वंचित रह जायेंगे। तब 1976 की समय सीमा को बढ़ाकर 24 अक्टूबर 1980 कर दिया गया। हालांकि यह समय सीमा आज के नजरिये से अपर्याप्त मानी जाती है।

भारत सरकार ने 18 अगस्त 2004 को राज्यसभा में एक सवाल के जवाब में यह बताया कि देश में 24 अक्टूबर 1980 तक जंगल में रहने वाले परिवारों को कुल 3.66 लाख हैक्टेयर जमीन दी गई है जिसमें से 2.75 लाख हेक्टेयर भूमि केवल मध्यप्रदेश में ही बांटी गई है। परन्तु मध्यप्रदेश सरकार कहती है कि राज्य में 111671 परिवार पात्र माने गये हैं। जिन्हें 1.439 लाख हैक्टेयर भूमि वितरित की गई है। यहां स्पष्ट अर्थ यह है कि वास्तव में आदिवासी समुदाय आंकड़ों के विरोधाभासी खेल में पिस रहा है।

वनग्रामों का मसला


मध्यप्रदेश में अभी की स्थिति में 28 जिलों में 925 वनग्राम हैं। इसमें से 98 गांव वीरान, विस्थापित और अभ्यारण्य- राष्ट्रीय उद्यानों में बसे हुये माने जाते हैं। इन 98 गांवों को छोड़कर भारत सरकार ने 827 वनग्रामों में से 310 को राजस्व गांव में परिवर्तित करने की सैद्धांतिक स्वीकृति दे दी थी जबकि शेष 517 गांव के लिये राज्य सरकार की ओर से जनवरी-फरवरी 2004 में पुन: प्रस्ताव भेजे गये।

किन्तु पर्यावरण संरक्षण के नाम पर जंगलों का औद्योगिक उपयोग करने वाले समूहों के मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने 23 फरवरी 2004 को भारत सरकार की स्वीकृति पर रोक लगा दी। अब भी 1000 हजार गांव वन विभाग और राजस्व विभाग के बीच फंसे हुये हैं। इन गांवों में आदिवासी समुदाय का विकास प्रभावित हो रहा है।

मध्यप्रदेश में सामाजिक वानिकी


देश में जंगलों के सिमटते क्षेत्रफल को देखते हुये सामाजिक वानिकी को समस्या के समाधान के रूप में सामने पेश किया गया। इसे ऊपरी तौर पर तो आदर्श उद्देश्यों के साथ पेश किया गया किन्तु अनुभव बताते हैं। कि समुदाय के भीतर ही इससे टकराव का माहौल बन रहा है। 1978-83 के दौर में पाँचवीं पंचवर्षीय योजना के तहत यह माना गया कि जंगलों के संरक्षण के साथ-साथ गरीबी में रहने वाले समुदायों का विकास करते हुये बाजार की मांग को पूरा करना होगा। इस उद्देश्य उत्पादोन्मुखी वनीकरण, फार्म वनीकरण, सामाजिक वनीकरण की नीति अपनाते हुये जंगल में निवास करने वाले समुदायों की आर्थिक स्थिति को सुधारने के लिये प्रयास करने की बात कही गई। यह तय किया गया कि वन आधारित उद्योगों की कच्चे माल की जरूरत को पूरा करने के लिये वन लगवाये जायेंगे। साथ ही जल्दी बढ़ने वाले पेड़ों पर खास ध्यान दिया जायेगा। सामाजिक वानिकी के तहत बिगड़े हुये वन सुधारने, परती भूमि का उपयोग करने, सड़क के किनारों पर वृक्षारोपण करने, नहर और सामुदायिक जमीन पर वन लगाने की नीति अपनाई गई। यह एक साझेदारी प्रयास था जिसमें हर गांव में सामाजिक वानिकी समितियां बनाई गई। बाद में योजना के विश्लेषण से पता चला कि जंगल के विकास और ग्रामीणों की जरूरत को पूरा करने के बजाय बाजार, उद्योगों की जरूरत को पूरा करना इस योजना का प्राथमिक लक्ष्य रहा। इसके कारण अनाज का उत्पादन कम हुआ और नकद लाभ पाने के लिये नीलगिरी जैसे भारी मात्रा में पानी सोखने वाले पेड़ लगाये गये। पहले वनों में पाई जाने वाली विविधता भी खत्म होने लगी और मोनो कल्चर के कारण भूमि की उत्पादकता पर नकारात्मक प्रभाव पड़ा। इतना ही नहीं इसी कारण मजदूरी के अवसर भी कम हुये।

संयुक्त वन प्रबंधन का उपयोग


जंगल को सरकार ने हमेशा एक आर्थिक संसाधन के रूप में ही स्वीकार किया जिससे ज्यादा से ज्यादा लाभ कमाया जा सके। सामाजिक वानिकी के बाद संयुक्त वन प्रबंधन का दौर शुरू हुआ। संयुक्त वन प्रबंधन का मतलब यह रहा कि गांव की समुदाय के बीच से ही एक समूह का निर्माण किया जायेगा। यह समूह जंगल के संरक्षण, विस्तार और निगरानी का काम करेगा जिसके एवज में जंगल से मिलने वाली आय में से 40 फीसदी हिस्सा उस समिति को दिया जायेगा।

वर्ष 2005 में मध्यप्रदेश में 14173 संयुक्त वन प्रबंधन समितियां 59.46 लाख हेक्टेयर जंगल पर काम कर रही थी। परन्तु इसके पहले 1999 की स्थिति में मध्यप्रदेश में भारत की आधी समितियां थी और एक करोड़ हेक्टेयर जंगल पर काम कर रही थीं।

मकसद पर सैद्धांतिक रूप से तो बहस हो सकती है परन्तु व्यावहारिक रूप से संयुक्त वन प्रबंधन की अवधारणा ने समुदाय के भीतर ही टकराव का वातावरण तैयार किया। इस व्यवस्था में ग्रामवन समिति या सुरक्षा समिति का गठन किया गया। इन समितियों को जंगल बचाने के लिये ''अपराधियों'' को दण्डित करने (आर्थिक दण्ड या दण्ड की सिफारिश करने) के अधिकार दिये गये; पर ये अपराधी उन्हीं के गांव और समुदाय के लोग होते हैं आज की स्थिति में प्रदेश के सघन आदिवासी जिलों में जंगल में प्रवेश करने पर भी प्रतिबंध लगा दिया गया है। आमतौर पर लोग अपने उपयोग के लिये लकड़ी लाने, निस्तार के लिए और शौच के लिये जंगल में आते रहे हैं पर अब जंगल की सीमा (यह सीमा स्पष्ट भी नहीं होती है) में प्रवेश करते ही वन रक्षक या वन सुरक्षा समिति उस पर दण्ड लगा देती है। संकट यह है कि गांव की सीमा खत्म होते ही जंगल की सीमा शुरू हो जाती है और जानवरों की चराई, खेती जैसे काम तो गांव के बाहर ही हो सकते हैं। इतना ही नहीं अब सरकार ने जंगलों को इंसानों से बचाने के लिये सेवानिवृत्त फौजियों को नियुक्त करना शुरू कर दिया। इन फौजियों को सरकार की ओर से हथियार और वाहनों के साथ-साथ ग्रामीण आदिवासियों को दण्डित करने का भी अधिकार दिया गया है।

नई नीतियों के व्यावहारिक पक्ष


वर्तमान स्थिति में भारत में कुल 678333 वर्ग किलोमीटर के क्षेत्र में जंगल माना जाता है। यह देश के कुल क्षेत्रफल का 20.63 हिस्सा है। इसमें भी सघन वन केवल 390564 वर्ग किलोमीटर यानी 11.88 प्रतिशत हिस्से में है। सरकार का नीतिगत लक्ष्य यह है कि वनों का क्षेत्रफल बढ़ाकर कुल क्षेत्रफल का 33 फीसदी किया जाये। इसके लिये सरकार सामुदायिक जंगलों और सामुदायिक संसाधनों को संरक्षित वनों में और संरक्षित वनों को राष्ट्रीय पार्क में परिवर्तित कर रही है ताकि उन्हें कानून के जरिये मानव-विहीन बनाया जा सके। सरकार की मान्यता है कि आदिवासी जंगलों का विनाश करते हैं, उसे नुकसान पहुंचाते हैं। सरकार के इस मत को औद्योगिक क्षेत्र और बाघ प्रेमी बुद्धिजीवी संरक्षण प्रदान करते हैं। केन्द्र सरकार ने 1990 में आदिवासी समुदाय और राज्य के बीच वनभूमि सम्बंधी विवादों के समाधान के उन्हें नियमित करने का रास्ता स्वीकार किया। किन्तु केन्द्रीय वन एवं पर्यावरण मंत्रालय ने 3 मई 2002 को एक निर्देश जारी किया कि विभिन्न राज्य एवं केन्द्र शासित प्रदेश में वन भूमि पर रह रहे सभी अवैध अतिक्रमणकारियों को 30 सितम्बर 2002 से पहले जंगल से बाहर निकाल दिया जाये।

इस परिस्थिति में भारत सरकार ने अंतत: यह स्वीकार करना शुरू किया है कि आदिवासी समुदाय के वास्तविक अधिकारों की उपेक्षा की गई है। 21 जुलाई 2004 को वन एवं पर्यावरण मंत्रालय ने सुविख्यात गोदावरमन बनाम भारत सरकार के मुकदमें के अंतर्गत सर्वोच्च न्यायालय ने एक हलफनामा दाखिल करके स्वीकार किया कि आदिवासियों के साथ ऐतिहासिक अन्याय हुआ है क्योंकि उस समय जमीन पर मालिकाना हक के दस्तावेज नहीं थे इसलिये ब्रिटिश शासन के दौरान वन क्षेत्रों के सीमांकन के बाद भी आदिवासियों के अधिकारों का निर्धारण नहीं हो पाया।

अब यह स्पष्ट रूप से नजर आ रहा है कि आदिवासी (वन अधिकारों की मान्यता) कानून 2005 के पारित हो जाने के बाद आदिवासियों को जंगल की जमीन पर आजीविका और आवास का वैधानिक अधिकार मिल पायेगा। यह कानून दिसम्बर 2005 तक जंगल क्षेत्रों में रहने वाले आदिवासियों के अधिकारों को स्वीकार करता है।

कुछ खास परिभाषाएं


आरक्षित वन - ऐसा क्षेत्र जिसे भारतीय वन कानून के अन्तर्गत पूर्ण रूप से आरक्षित वन अधिसूचित किया गया है आरक्षित वन अधिसूचित किया गया है। आरक्षित वनों के क्षेत्रफल में हर तरह की गतिविधि प्रतिबंधित होती है। वहां बिना अनुमति को कोई काम या गतिविधि नहीं की जा सकती है।
संरक्षित वन - ऐसा क्षेत्र जिसे भारतीय वन कानून के प्रावधानों के अन्तर्गत सीमित स्तर तक संरक्षित अधिसूचित किया गया है। ऐसे क्षेत्र में जब तक कोई गतिविधि प्रतिबंधित नहीं की जाती है जब तक हर तरह की गतिविधि सम्पन्न की जा सकती है।
गैर-वर्गीकृत वन - ऐसा क्षेत्र जिसे वन क्षेत्र के रूप में दर्ज तो किया गया है किन्तु वह न तो आरक्षित वन है न ही संरक्षित वन; उसे गैर वर्गीकृत वन कहा जाता है।
संयुक्त वन प्रबंधन - वन संसाधनों के प्रबंधन के लिये वन विभाग एवं समुदाय के द्वारा संयुक्त रूप से किये जाने वाले प्रयास को संयुक्त वन प्रबंधन कहते हैं। इसमें समुदाय की सहभागिता के अनुरूप जंगल से मिलने वाले फायदे का हिस्सा मिलता है।
वनग्राम - ऐसे गांव और समुदाय का समूह जो आरक्षित एवं संरक्षित जंगल में स्थानीय श्रम और श्रमिकों की आपूर्ति सुनिश्चित करने के लिये निवासरत है।
राष्ट्रीय उद्यान - ऐसा क्षेत्र जिस पर सरकार का हक है और जिसे प्राकृतिक व्यवस्था और राष्ट्रीय महत्व के ऐतिहासिक सम्पदा का संरक्षण के अधीन लिया गया है। मकसद यह है कि जंगली जानवरों और विविध श्रेणी के वृक्षों- पौधों को प्राकृतिक वातावरण में वर्तमान एवं भविष्य की पीढ़ियों के लिये संरक्षित किया जा सके।
अभ्यारण्य- ऐसा क्षेत्र जिसमें जंगली जानवरों को पकड़ना और उनका शिकार अधिकृत प्राधिकारी द्वारा प्रतिबंधित किया गया हो।

कुल पात्र पाये गये आदिवासी परिवार और उनकी भूमि

क्र.

जिला

भौगोलिक क्षेत्र (वर्ग किमी में)

जंगल क्षेत्र (वर्ग किमी में)

लोगों की संख्या (चिन्हित अतिक्रमणकारी)

लोगों के लिए तय वनक्षेत्र (हेक्टेयर में)

1

बालाघाट

9220

4859

4169

5224.902

2

बैतूल

10043

3537

6789

8758.191

3

भोपाल

2772

312

104

1497.129

4

सीहोर

6578

1464

3902

6082.955

5

रायसेन

8466

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