महत्व खोती महत्वाकांक्षी योजना

17 Aug 2018
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पीएमएफबीवाई
पीएमएफबीवाई

देश भर के किसान केन्द्र सरकार की महत्त्वाकांक्षी योजना प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना (पीएमएफबीवाई) को लेकर बहुत कम उत्साहित नजर आ रहे हैं। योजना के चार क्रॉप सीजन बीत चुके हैं। मध्य प्रदेश के होशंगाबाद जिले के एक किसान लीलाधर सिंह 2016 में इस योजना के लिये नामांकन कराने वाले किसानों के पहले बैच में से एक हैं। हालांकि, उनका नामांकन अपने आप ही हुआ था।

कृषि लोन उठाने वाले किसान होने के नाते, उन्हें अनिवार्य रूप से पीएमएफबीवाई के तहत लाया गया था। वह कहते हैं, ‘2016 के खरीफ सीजन का प्रीमियम मेरे बैंक खाते से अपने-आप काटा गया था। मुझे बीमा का अब तक एक रुपए नहीं मिला है।’ वह इस बात को लेकर आश्वस्त हैं कि अगर उन्हें विकल्प दिया जाये तो वह पीएमएफबीवाई के तहत नहीं आना चाहेंगे।

अप्रैल 2016 में केन्द्र सरकार ने पीएमएफबीवाई लांच की थी। यह योजना मौसम व फसलों को होने वाले अन्य नुकसान के बदले बीमा देती है। यह क्षेत्र और पुनर्गठित मौसम आधारित फसल बीमा योजना के आधार पर फसलों का बीमा करता है। योजना के तहत, किसान खरीफ सीजन में खाद्य फसल और तिलहन के लिये बीमा राशि का 2 प्रतिशत और रबी फसल के लिये 1.5 प्रतिशत प्रीमियम का भुगतान करते हैं। वास्तविक प्रीमियम दर और किसानों द्वारा देय बीमा दर के बीच का अन्तर राज्य और केन्द्र सरकार द्वारा समान रूप से साझा किया जाता है।

इण्डियन काउंसिल फॉर रिसर्च अॉन इंटरनेशनल इकोनॉमिक रिलेशंस (indian council for research on international economic relations - ICRIER) की एक शोधकर्ता प्रेरणा टेर्वे कहती हैं, ‘इस तरह की योजना की सफलता का आकलन इस तथ्य पर निर्भर करता है कि कितने गैर-ऋणी (लोन न लेने वाले) किसान इसमें रुचि रखते हैं क्योंकि उनके लिये यह योजना ऐच्छिक है। उनकी संख्या कम होती जा रही है, जो निश्चित रूप से इस योजना के बारे में अच्छा संकेत नहीं है।’ ऐसे किसानों के बीच योजना की शुरुआत के समय काफी हलचल थी लेकिन अब वे इसमें दिलचस्पी नहीं दिखा रहे हैं।

कर्नाटक राज्य किसान संघ के अध्यक्ष चमारसा माली पाटिल गैर ऋणि किसान हैं जिन्होंने पहले साल के अनुभव के बाद ही योजना का नामांकन त्याग दिया। वह चना और जौ की खेती करते हैं। वह कहते हैं, ‘योजना शुरू होने के बाद मैंने प्रीमियम के तौर पर 6,000 रुपए का निवेश किया था लेकिन अब तक मुझे बीमा की राशि नहीं मिली है। उसके बाद से मैंने किसी भी तरह की कृषि बीमा योजना में निवेश बन्द कर दिया।’

13 मार्च 2018 में लोकसभा में सरकार की ओर से दिये जवाब से पता चलता है कि इस योजना के प्रति किसानों में कितनी दिलचस्पी कम हुई है। जवाब के मुताबिक, लोन लेने वाले और नहीं लेने वाले, दोनों तरह के किसानों के नामांकन में भारी गिरावट आई है।

2016-17 में यह संख्या जहाँ 57.48 मिलियन थी, वह घटकर 2017-18 में 47.9 मिलियन हो गई। इनमें से लोन लेने वाले किसानों की संख्या, जो बीमा योजना में अनिवार्य रूप से जोड़े गए, 2016-17 की 43.7 मिलियन से घटकर 2017-18 में 34.9 मिलियन हो गई। सरकार के पास इसका एक व्यावहारिक कारण है। भारतीय रिजर्व बैंक के अनुसार, 2016-17 की तुलना में 2017-18 में कृषि ऋण में बहुत कम वृद्धि देखी गई। पिछले वर्ष यह वृद्धि जहाँ 12.4 प्रतिशत थी, वह 2017-18 में सिर्फ 3.8 प्रतिशत हुई। जाहिर है, इससे बीमा का लाभ लेने वाले ऐसे किसानों की संख्या कम हो जाती है।

योजना की सबसे चिन्ताजनक बात है, लोन न लेने वाले किसानों की संख्या में गिरावट आना। 2016-17 में ऐसे किसानों की संख्या जहाँ 13.8 मिलियन थी, वह 2017-18 में 13 मिलियन तक आ गई। इसका मतलब है कि चमारसा जैसे 0.8 मिलियन लोन न लेने वाले किसानों ने इस अवधि में योजना का लाभ न लेने का फैसला किया है। यह योजना अपने तीसरे वर्ष और 2018 के महत्त्वपूर्ण खरीफ सीजन में प्रवेश कर चुकी है। इसलिये सरकार 2018-19 तक इस योजना के तहत देश के सम्पूर्ण खेतिहर क्षेत्र के 50 प्रतिशत हिस्से को कवर करने के अपने महत्त्वाकांक्षी लक्ष्य को लेकर चिन्तित है।

वर्तमान में, केवल 30 प्रतिशत क्षेत्र ही दायरे में हैं। पिछले दो वर्षों में कुल बीमाकृत क्षेत्र में भी गिरावट आई है। 2016-17 में 56.8 मिलियन हेक्टेयर खेत बीमित थे, वह घटकर 2017-18 में 49.3 मिलियन हेक्टेयर हो गया है।

किसान बारीकियों से अनजान

किसान बताते हैं कि क्लेम प्रोसेसिंग में देरी और दावों का भुगतान न होना, दो सबसे बड़ी समस्याएँ हैं, जो उन्हें इस योजना से दूर करती हैं। इस योजना के तहत, पिछले तीन फसल सीजन में किसानों द्वारा किये गए दावों में से केवल 45 प्रतिशत दावों का भुगतान ही बीमा कम्पनियों द्वारा किया गया है। 2017 में इस योजना का मूल्यांकन नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक (कैग) ने किया था। कैग ने बताया कि इस योजना में शिकायत निवारण तंत्र का गम्भीर अभाव है। अॉडिट कहती है कि सिर्फ 37 प्रतिशत किसान ही इस योजना की बारीकी के बारे में जानते थे। उत्तर प्रदेश के मुबारकपुर गाँव के किसान नेता हरपाल सिंह कहते हैं, ‘मुझे लोने लेने और प्रीमियम कटवाने के लिये बैंक जाना होता था लेकिन क्लेम का भुगतान न होने पर बैंक मुझे उस कम्पनी से सम्पर्क करने के लिये कहता है, जिसे मैं नहीं जानता।’

इस साल मई में, इस योजना की राष्ट्रीय निगरानी समिति की बैठक के दौरान, सरकार ने स्वीकार किया कि पहले वर्ष में दावा निपटान में सात महीने से अधिक का समय लगा, जबकि दूसरे वर्ष में यह देरी दो महीने की रही। दरअसल, यह समस्या दावों का निपटान करने वाले उस अकेले तंत्र की वजह से है, जिसे क्रॉप कटिंग एक्सपेरीमेंट्स (crop cutting experiment - CCE) कहते हैं। यह तंत्र ही समस्या को और बढ़ा रहा है। राज्य सरकारें सीसीई से फसल उपज का डेटा जुटाती हैं और बीमा कम्पनियों के पास जमा कराती हैं। इसी के आधार पर, बीमा कम्पनियाँ फसल क्षति का निर्णय लेती हैं और फिर दावा निपटान पर निर्णय लेती हैं। बीमा कम्पनियाँ डेटा मिलने के तीन सप्ताह के भीतर दावों के निपटान के लिये बाध्य हैं।

पीएमएफबीवाई की सफलता के लिये व्यापक पारदर्शी और भरोसेमन्द सीसीई की आवश्यकता है। आईसीआरआईईआर के पेपर के मुताबिक, 2016-17 में सरकार ने 0.92 मिलियन सीसीई किये थे। जबकि दोनों फसल सीजन के लिये लगभग तीन मिलियन की जरूरत थी। हालांकि, जैसाकि इस योजना की शुरुआत से ही उम्मीद थी, सीसीई को विश्वसनीय और समयबद्ध बनाने के लिये शायद ही कोई निवेश किया गया हो। एग्रीकल्चर इंश्योरेंस कम्पनी (agriculture insurance company - AIC) एक वरिष्ठ अधिकारी ने डाउन टू अर्थ को बताया, ‘राज्य सरकारों के पास लक्षित हिस्से के आधे हिस्से में भी सीसीई के संचालन करने के लिये जनशक्ति नहीं है।’

कृषि मंत्रालय की ताजा रिपोर्ट के मुताबिक, अधिकांश राज्यों ने उपज डेटा भेजने में तीन महीने से अधिक की देरी की है, जबकि झारखण्ड, पश्चिम बंगाल और गुजरात जैसे राज्यों में डेटा दिया ही नहीं। झारखण्ड और तेलंगाना ने 2016 का खरीफ फसलों के लिये अब तक डेटा नहीं दिया है। लेकिन, जब भी बीमा कम्पनियों के साथ डेटा साझा किया गया है, अक्सर यह उनके और राज्य सरकारों के बीच विवाद की एक बड़ी वजह बना है। विवाद इस बात पर है कि सीसीई के लिये भूखण्ड कैसे चुने जाते हैं और वे कैसे किये जा रहे हैं।

पीएमएफबीवाई दिशा-निर्देशों के मुताबिक, भूखंड को सैम्पलिंग के लिये रिमोट सेंसिंग टेक्नोलॉजी का उपयोग किया जाना चाहिए। हालांकि, महाराष्ट्र, गुजरात, कर्नाटक, उड़ीसा, तमिलनाडु, तेलंगाना और छत्तीसगढ़ जैसे कुछ ही राज्यों ने ऐसा किया है और वह भी केस टू केस आधार पर ऐसा न कर पाने के पीछे वे एक मानक प्रोटोकॉल न होने का हवाला देते हैं। पीएमएफबीवाई के परिचालन दिशा-निर्देशों में, जीपीएस तकनीक के साथ मोबाइल आधारित तकनीक का उपयोग, सीसीई की पारदर्शिता और गुणवत्ता में सुधार के लिये अनिवार्य किया गया है लेकिन ज्यादातर राज्यों ने आवश्यक संख्या में स्मार्टफोन नहीं खरीदे हैं।

एक बार पारदर्शिता को लेकर सवाल उठते ही सीसीई डेटा की विश्वसनीयता भी सन्देह के घेरे में आ जाती है। महाराष्ट्र के परभणी जिले में करीब 1,000 किसान 20 जून से विरोध प्रदर्शन कर रहे हैं। उनका कहना है कि सीसीई के लिये चुने गए यूनिट का क्षेत्र गलत था। वे केन्द्रीय कृषि मंत्री राधामोहन सिंह से मिलने दिल्ली आये थे। प्रतिनिधिमंडल का नेतृत्व करने वाले मावोली कदम कहते हैं, ‘एक बड़ी इकाई के चयन ने उपज हानी डेटा में विसंगति पैदा कर दी और इसलिये कम्पनियों ने किसानों के सही दावों को भी अस्वीकार कर दिया।’ कृषि मंत्रालय के मुताबिक, असम में 10.10 करोड़ रुपए के दावे लम्बित हैं, क्योंकि राज्य द्वारा प्रदत्त उपज डेटा ग्राम पंचायत स्तर के बजाय राजस्व सर्कल स्तर का था। नेशनल इस्टीट्यूट अॉफ एग्रीकल्चर एक्सटेंशंस मैनेजमेंट (national institute of agricultural extension management) के निगरानी और मूल्यांकन निदेशक ए अमरेंद्र रेड्डी कहते हैं, ‘अधिकांश समस्या इसलिये है कि सरकार और बीमा कम्पनियाँ ग्राम स्तर पर सीसीई नहीं कर रही हैं। यह उनकी प्राथमिकता में नहीं है।’

राज्यों की उदासीनता

राज्य भी इस योजना में उतनी सहायता नहीं दे रहे हैं, जितनी उनसे अपेक्षा की जाती है। शुरुआत से ही कई राज्य भारी वित्तीय भार का हवाला देते हुए, बीमा कम्पनियों को भुगतान किये जाने वाले प्रीमियम में अपने हिस्से का नियमित भुगतान नहीं कर रही है। जब तक राज्य सरकार भुगतान नहीं करती, तब तक केन्द्र सरकार भी अपने हिस्से का भुगतान नहीं करती।

इस वजह से बीमा प्रक्रिया की शुरुआत नहीं होती। यह इस योजना की शुरुआत के बाद से ही एक मुद्दा रहा है। 24 राज्यों में से 10 राज्यों ने 2017 के खरीफ सीजन के लिये अपना हिस्सा नहीं दिया है। उदाहरण के लिये बिहार ने खरीफ 2017 के लिये प्रीमियम शेयर का भुगतान करने की तुलना में अपनी खुद की योजना शुरू करना पसन्द किया। नतीजतन पीएमएफबीवाई के तहत इस सीजन के लिये बिहार के किसी भी किसान को क्लेम नहीं दिया गया।

खरीफ 2016 और रबी 2016-17 के दावे भी अभी लम्बित हैं। पंजाब ने पीएमएफबीवाई को खारिज कर दिया है और अपनी योजना लांच की है। राज्यों की एक आम शिकायत है कि पीएमएफबीवाई उनके किसानों के लिये अच्छा नहीं है। बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने कहा ‘यह केवल बीमा कम्पनियों के खजने को भर रहा था।’ टेर्वे कहती हैं, ‘राज्य समय पर सब्सिडी नहीं देते, इसलिये दावों का निपटान भी सही समय पर नहीं किया जाता। फिर राज्य कहते हैं कि वे लाभान्वित नहीं हो रहे हैं और तब अगले फसल मौसम के लिये सब्सिडी में देरी कर देते हैं।’

योजना के तहत अनुमानित प्रीमियम की उच्च लागत राज्य सरकारों और केन्द्र सरकार के लिये एक प्रमुख मुद्दा बन रही है। यह पहले से ही केन्द्रीय कृषि सहयोग और किसान कल्याण विभाग के लगभग एक तिहाई हिस्से के लिये जिम्मेदार है। कई राज्यों का कहना है कि उनके वार्षिक कृषि बजट का 40 प्रतिशत तक प्रीमियम खाते में चला जाता है। खरीफ 2015 में अनुमानित प्रीमियम दरों में बढ़ोत्तरी हुई है।

खरीफ 2015 में बीमित राशि का प्रीमियम 11.6 प्रतिशत था जो खरीफ 2016 में 12.5 प्रतिशत हो गया। मौसम आधारित फसल बीमा योजना के तहत खरीफ 2016 के लिये, राजस्थान और महाराष्ट्र जैसे राज्यों के लिये अनुमानित प्रीमियम दर 43 प्रतिशत और 33.5 प्रतिशत थीं।

यह तब है, जब बीमित क्षेत्रों में वृद्धि के साथ प्रीमियम कम होने की उम्मीद थी। लेकिन अब, कम कवरेज के कारण आगे इसके और बढ़ने की उम्मीद है। मुख्य रूप से यह दो कारणों से है- बीमा कम्पनियों द्वारा री-इंश्योंरेंस की बढ़ती आउटसोर्सिंग और बीमा कम्पनियों द्वारा बोली लगाने के लिये राज्यों द्वारा देरी से अधिसूचना जारी करना।

पीएमएफबीवाई दिशा-निर्देशों का कहना है कि अधिसूचना क्रॉप सीजन के शुरू होने के कम-से-कम एक महीने पहले जारी होनी चाहिए। हालांकि, ऐसा हो नहीं रहा है।

खरीफ 2018 के मामले में, जिसकी बुआई जुलाई में शुरू होती है, केवल गुजरात, महाराष्ट्र, सिक्किम, तेलंगाना, उत्तर प्रदेश और पश्चिम बंगाल ने 13 जून तक अधि सूचना जारी की थी। बीमा कम्पनियों के लिये निविदा प्रक्रिया जारी करने में देरी का मतलब प्रीमियम दर का उच्च होना है। पिछले अनुभव बताते हैं कि राज्यों ने 2016 में अप्रैल और मई में यह प्रक्रिया शुरू की थी। उन्हें 4 से 9 प्रतिशत के बीच अनुमानित दर प्राप्त हुई। लेकिन बिहार गुजरात और राजस्थान जैसे राज्यों ने देर से निविदा प्रक्रिया शुरू की और उन्हें 20 प्रतिशत प्रीमियम दर मिला।

राज्यों द्वारा अधिसूचना में देरी से समस्या और बढ़ी है, क्योंकि बीमा कारोबार मूल रूप से बदल गया है। एआईसी के वरिष्ठ अधिकारी कहते हैं, ‘ज्यादातर बीमा कम्पनियाँ अपने जोखिम को री-इंश्योरेंस कम्पनियों को स्थानान्तरित कर देती हैं पहले जनरल इंश्योरेंस कारपोरेशन ने 50 प्रतिशत से अधिक री-इंश्योरेंस किया था। हालांकि, अब विदेश में बैठे री-इंश्योरेंस से ये काम थोक में किया जा रहा है।

राज्यों द्वारा असामयिक अधिसूचना और देरी से सब्सिडी भुगतान से री-इंश्योरेंस का विश्वास कम होता है। इसलिये, वे बहुत अधिक प्रीमियम दर बताते हैं।’
13 जून 2018 को पीएमओ में स्टॉक टेकिंग बैठक में भी इस बात को स्वीकार किया गया था। एआईसी के अधिकारी कहते हैं, ‘कई राज्य एक ही सीजन में फिर से निविदा जारी करते हैं, जिससे हमें नुकसान होता है। इसके अलावा, हर फसल मौसम में बोली लगाने की बजाय, इसे तीन साल में एक बार किया जाना चाहिए, ताकि कम्पनियों को ग्राम स्तर पर आधारभूत संरचना बनाने के लिये आत्मविश्वास मिल सके।’

नजरों का धोखा है एमएसपी में इजाफा

केन्द्र सरकार ने 4 जून को खरीफ की 14 फसलों का न्यूनतम समर्थन मूल्य (minimum support price - MSP) बढ़ा दिया। इसी के साथ राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबन्धन (एनडीए) सरकार ने दावा किया कि उसने लागत का डेढ़ गुणा एमएसपी बढ़ाकर स्वामीनाथन आयोग की एक महत्त्वपूर्ण सिफारिश को पूरा कर दिया है। घोषित मूल्य को गौर से देखने पर पता चलता है कि स्वामीनाथन आयोग के फॉर्मूले के अनुसार मूल्य नहीं बढ़ाएँ गए हैं।

लागत की गणना के दो तरीके हैं। पहले में बीज की लागत, श्रम (मानवीय, पशु और मशीन), उर्वरक, खाद, कीटनाशक और अन्य लागतों को शामिल किया जाता है। जिसे ए-2 कहा जाता है। इसमें पारिवारिक श्रम (एफएल) भी जोड़ा जाता है। दूसरे फॉर्मूले में ए-2+ एफएल में जमीन का किराया और जमीन का ब्याज जोड़ा जाता है। इसका जोड़ अन्तिम लागत यानी सी-2 कहलाएगा। किसानों की माँग है कि एमएसपी अन्तिम लागत का डेढ़ गुणा होना चाहिए जिसकी सिफारिश स्वामीनाथन आयोग ने भी की थी। यह एमएसपी ए-2 और एफएल का जोड़ नहीं बल्कि सी-2 होना चाहिए। पत्र सूचना कार्यालय की विज्ञप्ति में दावा किया गया है कि एमएसपी में भूमि का किराया शामिल किया गया है लेकिन डाउन टू अर्थ की गणना दूसरी ही तस्वीर दिखाती है।

उदाहरण के लिये चावल को ही लीजिए। सरकार की घोषणा के मुताबिक, आम चावल पर 200 रुपए का न्यूनतम समर्थन मूल्य बढ़ाया गया है और अब इसका एमएसपी 1750 रुपए प्रति क्विंटल हो गया है। कृषि एवं किसान कल्याण मंत्रालय के निकाय कमिशन फॉर एग्रीकल्चर कॉस्ट एंड प्राइसेस (commission for agricultural costs and prices - CACP) के अनुमान के मुताबिक, 2018-19 में सी-2 फॉर्मूले के तहत चावल की उत्पादन लागत 1560 रुपए प्रति क्विंटल होगी। अगर इसमें स्वामीनाथन आयोग की सिफारिशों के मुताबिक 1.5 गुणा उत्पादन लागत जोड़ दी जाएँ तो वह 2340 रुपए प्रति क्विंटल बैठेगी। सरकार ने जो एमएसपी घोषित की है वह इससे 590 रुपए कम है।

अरहर का मामला भी इससे बहुत अलग नहीं है। सी-2 फॉर्मूले के मुताबिक, 2018-19 में इसकी उत्पादन लागत 4981 होगी और इसलिये एमएसपी 7471.5 रुपए होना चाहिए। लेकिन सरकार ने इसकी एमएसपी 5676 रुपए प्रति क्विंटल ही की है। स्वामीनाथन आयोग के फॉर्मूले के मुताबिक, अरहर की एमएसपी 1796.5 रुपए कम है।

डाउन टू अर्थ ने सी-2 फॉर्मूले के मद्देनजर सभी फसलों 14 फसलों की लागत डेढ़ गुणा मूल्य की गणना की है। हमने पाया कि किसी भी फसल का एमएसपी स्वामीनाथन आयोग के सी-2 फॉर्मूले के मुताबिक उत्पादन लागत का डेढ़ गुणा नहीं है। घोषित एमएसपी और स्वामीनाथन आयोग द्वारा सुझाए गए फॉर्मूले के बीच मूल्य का अन्तर 36 रुपए प्रति क्विंटल से लेकर 2830.5 रुपए प्रति क्विंटल तक है।

दूसरी तरफ सरकार ने केवल चुनिन्दा कृषि उत्पाद को ही एमएसपी में शामिल किया है। कहने को तो सरकार की ऐसी बहुत सी योजनाएँ और रणनीतियाँ हैं जिनसे बाजार के उतार-चढ़ाव से किसानों को बचाने के दावे किये जाते हैं। केन्द्र और राज्य सरकार की करीब 200 योजनाएँ लागू हैं जिनसे मौसम की अनियमितताओं आदि से बचाने की कवायद की जाती है। लेकिन कोई भी योजना 10 प्रतिशत किसानों को भी कवर नहीं करती। एमएसपी भी 94 प्रतिशत किसानों को कवर नहीं करता और इस बात की भी कोई गांरटी नहीं है कि जो किसान इसके तहत कवर हैं, उन्हें फायदा ही हो।

 

 

 

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