मजदूरों की रोटी छीनता हार्वेस्टर

1 May 2012
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पर्यावरण और मिट्टी को बचाने की जरूरत है। खेतों के आसपास हरे-भरे वृक्षों को बचाने की जरूरत है। मेढ़बंदी और भू तथा जल संरक्षण के साथ ही भूमि का उपजाऊपन बढ़ाने की कोशिश करना चाहिए। जैविक खेती को अपनाना चाहिए। गोबर-खाद और हल-बक्खर की खेती को अपनाना चाहिए। इसमें टिकाऊपन और पारिस्थिकीय संतुलन की क्षमता मौजूद है। इससे हमारी जैव-विविधता नष्ट नहीं होती। हमारे यहां मिलवां (मिश्रित) फसलों बोने का चलन है। एक साथ कई फसलें बोने से मिट्टी में पोषक तत्व बने रहते हैं।

अक्सर जब हमें खेतों में कंबाईन-हार्वेस्टर दिखाई देता है तो उसे समृद्धि और विकास का प्रतीक मानते हैं जबकि हकीकत में इसके कई नुकसान सामने आ रहे हैं। इसके आने से जो रोजगार कटाई और थ्रेसिंग के रूप में मजदूरों को मिलता था उससे वे वंचित हो रहे हैं। कंबाईन -हार्वेस्टर से कटाई के बाद जो ठंडल छूट जाते हैं उनमें आग लगाने से हरे-भरे पेड़ जल रहे हैं, भूमि की उर्वर को बनाने वाले सूक्ष्म जीवाणु नष्ट हो रहे हैं। जैव-विविधता खत्म हो रही है। खेती की लागत बढ़ रही हैं। आगजनी की घटनाएं हो रही हैं। एक बड़ा असर धरती के गरम होने का भी हैं। कार्बन गैसों के उत्सर्जन से यह खतरा जुड़ा है। इस समय देश-दुनिया में जलवायु परिवर्तन सबसे बड़ी चिंता का विषय बना हुआ है, इसके बावजूद ऐसी मशीनों के उपयोग पर सावधानी नहीं बरती जा रही है। हाल ही में खेतों में गेहूं की कटाई हुई है। मजदूरों की जगह अब कंबाईन हार्वेस्टर से कटाई की जाने लगी है। कटाई के बाद बचे गेहूं की नरवाई (गेहूं के ठंडलों में) आग लगाई जा रही है। एक तो खड़ी फसलें जल रही है, खेतों और सड़क के किनारे लगे हरे-भरे पेड़ जल रहे हैं। इनमें से कई तो बरसों पुराने पेड़ हैं। इससे खेतों की हरियाली खत्म हो रही है। खेत भी जले- भुने श्मशान की तरह लगने लगे हैं। जबकि खेतों का सौंदर्य देखते ही बनता था। हरे-भरे पेड़-पौधे मन को मोह लेते थे।

नरवाई जलाने से भूमि को उर्वर बनाने वाले सूक्ष्म जीवाणु व जीव-जंतु नष्ट हो रहे हैं और भू-जल पर भी असर हो रहा है। जैव विविधता की दृष्टि से यह बहुत बड़ा नुकसान माना जा सकता है। जबकि पहले हाथ से कटाई होती थी तो छोटे ठंडल बचते थे जो खेत की मिट्टी में मिलकर जैविक खाद बनाते थे। ज्यादा पुरानी बात नहीं है जब कटाई के समय भूमिहीन मजदूरों को इससे बहुत रोजगार मिलता था। अब वे बेरोजगार हो गए हैं और उनके भूखे मरने की नौबत आ गई हैं। मध्य प्रदेश के सतपुड़ा अंचल में कटाई करने वाले मजदूरों को चैतुआ कहा जाता है। चैत्र माह में गेहूं कटाई होती है इसलिए मजदूरों को चैतुआ कहा जाता है।

सतपुड़ा अंचल को हम दो भागों में बांट सकते हैं। एक है जंगल पट्टी और दूसरा नर्मदा का कछार, जिसे मैदानी क्षेत्र भी कह सकते जंगल पट्टी में अधिकांश गोंड-कोरकू निवास करते हैं। और नर्मदा कछार की मैदानी पट्टी में गैर आदिवासी हैं। जंगल पट्टी के गांव-गांव से चैतुआ कटाई के लिए मैदानी क्षेत्रों में जाते थे। इनमें से अधिकांश परिवार समेत आते हैं। इन मजदूरों को काम के बदले अनाज दिया जाता है, जो उनकी खाद्य सुरक्षा का सबसे बड़ा साधन था। अब भी कुछ चैतुआ कटाई के लिए जाते हैं।

लेकिन धीरे-धीरे उनकी संख्या कम होती जा रही है। पिपरिया जो एक तरह से चैतुआ का केन्द्र है, वहां चैतुआ का डेरा होता है। वे फसल कटाई कर वापस यही से लौटते हैं, उन्हें निजी वाहन करके अपना अनाज ले जाना पड़ता है। किसानों की फसल कटाई के समय चैतुआ या भूमिहीन मजूदरों की बड़ी भूमिका होती थी। उन्हें भी इससे रोजगार मिल जाता था और किसानों का भी काम हो जाता था।

कम रकबा वाले किसान तो अपने खेत का काम स्वयं करते ही थे, लेकिन जिन किसानों का रकबा ज्यादा है, उनका काम मजदूरों के बिना नहीं हो पाता था। यह अलग बात है कि कंबाईन हार्वेस्टर दिनों का काम कुछ घंटों में कर देता है लेकिन नगद पैसे भी तो लगते हैं, जो अधिकांश किसानों के पास नहीं होते हैं। किसानों को अपना अनाज बेचकर पैसा चुकाने होते हैं। या इसके लिए उधार पैसे लेने पड़ते हैं।

खेती और पशु पालन एक-दूसरे के पूरक हैं। गाय का गोबर खाद से खेत को उपजाऊ बनाते थे और उसके बछड़ों से खेत की जुताई की जाती थी। ट्रैक्टर और कंबाईन हार्वेस्टर के खेत में आने से पशु ऊर्जा को खेती से अलग कर दिया गया है। अब खेत में बैल से जुताई नहीं, ट्रैक्टर से की जा रही है। अब गोबर खाद नहीं, हरित क्रांति के संकर बीजों के साथ आए रासायनिक खादों का इस्तेमाल हो रहा है। इससे हमारी भूमि का उपजाऊपन खत्म होता जा रहा है। भूमि को उर्वर बनाने वाले सूक्ष्म जीव व निस्वार्थ भाव से काम करने वाले केंचुए खत्म हो रहे हैं।

रासायनिक खादों के इस्तेमाल से किसानों के मित्र कीट-पतंगें, पक्षियों व अन्य जीव भी मारे जा रहे हैं। जिससे मिट्टी की उर्वरता नहीं बढ़ पा रही है। किसान बताते हैं कि ट्रैक्टरों की जुताई से मिट्टी सख्त हो रही है। जबकि फसल के लिए खेतों की मिट्टी पोली, भुरभुरी और नरम होना जरूरी है।

खेतों में ट्रेक्टर व कंबाईन हार्वेस्टर हार्वेस्टर खेती और पर्यावरण दोनों के लिए नुकसानदेय हैहार्वेस्टर खेती और पर्यावरण दोनों के लिए नुकसानदेय हैआने से खेती में निर्भरता बढ़ गई। पहले किसान अधिकांश काम खुद करता था। शुरू में तो फावड़ा-कुदाली चलाकर खेती में मेहनत करता। उसे खेती के सभी तरह के कामों की जानकारी थी। हल-बक्खर कितनी गहराई पर चलाना है, खेत को कैसे तैयार करना है, बीज कब बोना है, पानी कब देना है, निंदाई-गुड़ाई कब करना है, कटाई कब करना है, उसे सब मालूम था। संकर बीजों के साथ नया कृषि ज्ञान आया है, जिससे वह अनजान है।

कुछ किसान कहते हैं कि कटाई के समय मजदूर नहीं मिलते, इसलिए हार्वेस्टर से कटाई करवाना जरूरी है। लेकिन मजदूरों का कहना है कि अगर उन्हें उचित मजदूरी दी जाए तो मजदूरों की कमी नहीं है। गांव से शहरों की ओर लगातार पलायन हो रहा है दूसरी तरफ गांव में मजदूर नहीं मिलने की बात समझ से परे है। खेती-किसानी के जानकार और अर्थशास्त्री सुनील भाई भी कहते हैं कि अगर मजदूरों को सही मजदूरी दी जाए तो वे बाहर क्यों जाएंगे?

अब उसकी खेती स्वावलंबी की जगह परावलंबी हो गई है। जिसमें हर चीज के लिए उसकी निर्भरता बढ़ती चली जा रही है। ट्रैक्टर के लिए ईंधन और ट्रैक्टर मरम्मत के लिए वह शहरों पर निर्भर हो गया। अगर कभी बिगड़ जाता है तब भी मरम्मत के लिए शहर आना पड़ता है। खर्च भी होता है।

इससे हो यह रहा है कि छोटे किसानों के लिए खेती करना मुश्किल होता जा रहा है, उनकी जमीन छिनती जा रही है। यानी कुल ऐसी मशीनों का उपयोग किसी भी दृष्टि से उपयोगी नहीं है। न रोजगार की दृष्टि से, न भूमि के उपजाऊपन की दृष्टि से और न खर्च की दृष्टि से और न ही जलवायु की दृष्टि से। खरपतवारनाशकों ने उपयोग ने भी मजदूर और महिलाओं की रोजी-रोटी छीन ली है।

इस सबके मद्देनजर हमें टिकाऊ खेती की ओर बढ़ना जरूरी हो गया है। खेती-किसानी को ज्यादा से ज्यादा पैसा कमाने का साधन बनाने की बजाय भोजन की जरूरत पूरा करने की दृष्टि से करने की जरूरत है। पर्यावरण और मिट्टी को बचाने की जरूरत है। खेतों के आसपास हरे-भरे वृक्षों को बचाने की जरूरत है। मेढ़बंदी और भू तथा जल संरक्षण के साथ ही भूमि का उपजाऊपन बढ़ाने की कोशिश करना चाहिए। जैविक खेती को अपनाना चाहिए। गोबर-खाद और हल-बक्खर की खेती को अपनाना चाहिए। इसमें टिकाऊपन और पारिस्थिकीय संतुलन की क्षमता मौजूद है। इससे हमारी जैव-विविधता नष्ट नहीं होती। हमारे यहां मिलवां (मिश्रित) फसलों बोने का चलन है। एक साथ कई फसलें बोने से मिट्टी में पोषक तत्व बने रहते हैं। ऐसी विविधीकरण की खेती में बहुत संभावनाएं हैं और इससे गरीब-किसानों का पेट भी भर सकता है, जो खेती का मुख्य उद्देश्य है। भोजन की जरूरत की दृष्टि से ही खेती विकसित हुई है।

(यह रिपोट इंक्लूसिव मीडिया फैलोशिप के अध्ययन का हिस्सा है)

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