मनरेगा और पानी

बीते तीन सालों से तमाम आशंकाओं और अटकलों के बीच देश में ठीक-ठाक बारिश होती रही है। औसत बारिश का 78 प्रतिशत, जैसा कि विशेषज्ञ बताते हैं। दैनिक ज़रूरतों और दूसरे कामों के लिए हमें जितना पानी चाहिए, उससे दोगुनी मात्रा में पानी बरस कर जल- संकायों एवं धरती के गर्भ में जमा हो रहा है। वर्ष 2009 की सबसे अच्छी बात यह रही कि जब सौ सालों की अवधि में इस दौरान चौथा भयंकर सूखा पड़ने की आशंका बन रही थी तब सरकार राहत के लिए कमर कसकर तैयार थी। समूचे देश में तक़रीबन आठ लाख जल संकायों के पुर्नजीवन, निर्माण एवं उनकी मरम्मत का काम महात्मा गांधी नेशनल रूरल अप्वाइंटमेंट गारंटी एक्ट (मनरेगा) के ज़रिए चल रहा था तो सरकार इस बात से निश्चिंत थी कि पानी के बग़ैर लोग अपने गांवों से रोज़गार की तलाश में कहीं और नहीं जाएंगे। ऐसा ही हुआ और यह काम आज भी जारी है। यह देश के सेवा-प्रबंधन, परंपरागत जल संस्कृति, सामाजिक संतुलन एवं सार्वजनिक पानी की संभावनाओं को लेकर एक सुखद भविष्य के संकेत हैं।

पूरे देश में वर्षा जल संग्रह की एक बेहद मज़बूत संस्कृति थी, जो स्थानीय समाज के लिए गौरव और गरिमा की बात थी। लोगों के पास आहर था। पोखर और तालाब थे। इन्हीं से लोग पानी से जुड़ी हर ज़रूरत पूरी किया करते थे। लेकिन फिर अंग्रेज आए। आते ही देश में बर्बादी की नई परिभाषा गढ़ते चले गए।

ज़्यादा पुरानी बात नहीं है। पूरे देश में वर्षा जल संग्रह की एक बेहद मज़बूत संस्कृति थी, जो स्थानीय समाज के लिए गौरव और गरिमा की बात थी। लोगों के पास आहर था। पोखर और तालाब थे। इन्हीं से लोग पानी से जुड़ी हर ज़रूरत पूरी किया करते थे। लेकिन फिर अंग्रेज आए। आते ही देश में बर्बादी की नई परिभाषा गढ़ते चले गए। उन्होंने जोरिया-आहर-पोखर-तालाब और कच्चे कुंओं को आम जनता से दूर कर दिया। 60-70 साल में स्थानीय किसानों द्वारा बनाए गए चार हज़ार सालों के अभिक्रमों का गला घोंट दिया।

लेकिन साल 2006 से देश भर में नई तस्वीर उभर कर सामने आ रही है। घाल घोटालों से जूझते हुए भी मनरेगा के तहत जो काम चल रहे हैं, उससे क़रीब 20 लाख जल-संकायों का उज्ज्वल भविष्य देखा जा सकता है। इनमें झारखंड के कुछ जल संकाय भी हैं, जिनकी महिमा वहां के लोक गीतों से लेकर सर्वे सेंटलमेंट अधिकारी जॉन रिड की रिपोर्ट में भी दर्ज है।

यह जानकारी सर्वसुलभ है कि मनरेगा के ज़रिए गांव को सूखे से मुक्ति दिलाई जाएगी। हर ज़रूरतमंद को, जिसे रोज़गार की ज़रूरत है, उसे सौ दिन के रोज़गार की व्यवस्था मनरेगा योजना में है। उचित मज़दूरी और रोज़गार मिलने की वजह से गांवों के श्रमिक मनरेगा को स्वीकार कर रहे हैं। देश में चारों ओर मनरेगा लागू करना सरकार की जिद है और जनता को उसकी ओर से काम और रोज़गार दिए जाने का एक पक्का भरोसा भी है। उम्मीद है कि एक करोड़ हेक्टेयर ज़मीन मनरेगा के बूते सूखे से मुक्त हो सकेंगी, क्योंकि इन तालाबों-पोखरों में बारिश का 52।30 करोड़ क्यूबिक मीटर पानी इकट्ठा होगा और धरती की कोख को तरावट भी मिलेगी। इस अनुमान से जुड़े आकड़ें अविश्वसनीय हैं। साथ ही सुखद भी। यह मामला गांवों के विकास का है और इसका सरोकार शहरों से नहीं है। इसीलिए शायद मनरेगा में शहरी बाबुओं का हस्तक्षेप भी नहीं है।

यह एक रोज़गारपरक कार्यक्रम है, जो गांव के समूचे आर्थिक तंत्र को मज़बूत करने के मिशन पर लगा है। खासतौर से उन लघु किसानों के जीवन में उम्मीदें भर रहा है, जो किसान देश के सकल घरेलू उत्पादन में 20 प्रतिशत का योगदान देते हैं।

जब-जब प्राकृतिक आपदाएं आती हैं तब-तब देश में अनाज और पानी की कमी होती है। कुछ सालों के लिए देश में अन्न के भरपूर भंडार हैं और पानी की ज़रूरत मनरेगा के प्रयासों से पूरा किए जाने की दावेदारी है। इस स्थिति में हम सूखे और अकाल से लड़ने और जूझने में पूरी तरह सक्षम हैं। ऐसा इसलिए क्योंकि जानकारों का कहना है कि भविष्य में लगातार दो मानसून भी दगा दे जाएं तो देश में न अनाज की कमी होगी और न ही रोज़गार की। मनरेगा के ज़रिए गांव से शहरों की ओर पलायन रोकने की कोशिश सरकार की है, ऐसा मानना है।

मगर हम आंकड़ों और इन दावेदारियों के कृष्ण पक्ष में भी जाना ज़रूरी समझते हैं। मनरेगा सूखे से मुक्ति, रोज़गार की उपलब्धता, जल संकायों के पुनर्निर्माण से लेकर आम आदमी के जीवन की हकदारी का एक व्यापक मिशन है। अभी 200 से कहीं ज़्यादा ज़िलों में इसके तहत ग्रामीण विकास की लोरियां गाई जा रही हैं और आने वाले तीन सालों में यह समूचे भारत में यह योजना लागू की जा सकेगी। सपनों की दुनिया बेहद रुपहली होती है, लेकिन यथार्थ की ज़मीन उससे कहीं ज़्यादा रूख़ी और पथरीली होती है।

मनरेगा से जुड़े भ्रष्टाचार की ठुमरी और कजरी काफी समय से गांवों में सुनाई दे रही है। इसे संचालित करने वाले वही नौकरशाह हैं जो बिहार में चारा खा गए और झारखंड में जंगलों और खदानों को बेच डाला। आज मनरेगा पर गांव के सामंतों का और समाज के बाहुबलियों का वर्चस्व होता जा रहा है। ग्राम्य स्वराज्य के नाम पर मुखिया सरपंच विकास का वैसा ही बंदरबांट कर रहे हैं, जैसा उन्होंने जवाहर रोज़गार योजना से लेकर जल-छाजन कार्यक्रम में किया। वर्षों से भ्रष्टाचार के सारथी बने सरपंचों का साहस इतना खुल चुका है कि वह उड़ीसा के कालाहांडी ज़िले के कलमपुर प्रखंड के 31 गांवों में सड़क निर्माण के लिए जिन ट्रैक्टरों को मिट्टी ढोने के लिए उपयोग में ला रहे हैं, उन ट्रेक्टरों कीनंबर प्लेट स्थानीय जनता की मोटर साइकिल में पाई गईं।

बिहार के चारा घोटालाबाज़ों ने स्कूटर पर गाय और भैंस ढोई थीं, अब उड़ीसा, मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ जैसे राज्यों में मुखिया सरपंच बाइक पर मिट्टी ढो रहे हैं। नतीजतन अभी निर्धारित अवधि में लक्ष्य का 50 फीसदी काम भी मनरेगा में पूरा नहीं किया जा सका है। 28 अगस्त 2010 तक मात्र 16 प्रतिशत जल संकायों से जुड़े काम हो सके हैं और अकाल से निपटने से जुड़े कार्यों का 10 प्रतिशत काम पूरा किया जा सका है। हालांकि योजना मद की राशि नियमित रूप से तेजी से ख़र्च की जा रही है। जितने काम पूरे भी किए गए हैं, उनसे कोई लाभ होता नहीं दिख रहा है। उदाहरण के लिए आंध्र प्रदेश के अनंतपुर ज़िले में कुल 7981 काम किए जाने की योजना थी, जिनमें मात्र 29 योजनाएं पूरी होने की ख़बर है। इसके अलावा जो सबसे दुखद बात है, वह यह कि मनरेगा के कामों में मज़बूती नहीं है और पूरे किए गए कामों के टिकाऊपन को लेकर शक़ और आलोचनाओं की परछाइयां लगातार लंबी होती जा रही हैं। विशेषज्ञ बताते हैं कि जल-संग्रह से संबंधित कार्यों में 90 प्रतिशत की कोई उपयोगिता नहीं है।

1990 का दशक तमाम राजनीतिक दावेदारियों के बावजूद रोटी, कपड़ा और मकान के नाम लड़े गए संग्राम का एक हारा हुआ दशक था। विकास के नाम पर ग़रीबों के उद्धार के लिए जो काम हुए, उनसे लोगों की भूख ज़रूर शांत हुई लेकिन जीवन के हर स्तर पर असंतुलन एवं विद्रुपताएं बढ़ती चली गईं। लोगों में जागरूकता आई, लेकिन साथ ही साथ लोगों में अपने अधिकार को लेकर चिंताएं ज़्यादा गहराईं। साथ ही लोगों में कर्तव्यों को लेकर चिंतन की परंपरा ख़त्म होती चली गई। संसाधनों को हड़पने और मानवीय श्रम के दोहन का सिलसिला जारी रहा। नतीजतन, समाज में असंतोष गहराता चला गया। सुदूरवर्ती इलाक़ों में चल रहे लाल सलाम के कारोबार का भयंकर रूप इसी वजह से देखने को मिल रहा है। आज मनरेगा को भ्रष्टाचारियों से कहीं ज़्यादा लाल आंतक से ख़तरा है। नौकरशाही के शिकंजे में जा फंसे मनरेगा को नागरिक संस्थाओं, स्वयंसेवी संगठनों, सहकारी संस्थाओं और स्वयं सहायता समूहों से जोड़ा जाना, इसीलिए ज़रूरी होता जा रहा है। मनरेगा में ऐसे प्रावधान भी हैं लेकिल शायद नौकरशाह ऐसा चाहते ही नहीं हैं। इसलिए करोड़ों ज़रूरतमंद लोगों तक मनरेगा का लाभ पहुंचाने की चुनौती ऐसी है, जिसके लिए लोगों को जनकेंद्रित भागेदारी प्रक्रियाओं से जोड़ना ज़रूरी है। ग़ैरसरकारी संगठनों, ज़मीनी स्तर पर सक्रिय समाजसेवियों, बुद्धिजीवियों, सार्वजनिक सुविधाओं तथा ग्रामीण विकास के प्रबंधकों का वैविध्यपूर्ण गठबंधन इस काम के लिए बहुत ज़रूरी है।

मनरेगा के ज़रिए जल-प्रबंधन में जुटी राज्य-व्यवस्था को पानी से जुड़े अन्य उपायों पर भी ध्यान देना होगा। इस देश का भला तब होता जब जल-छाजन कार्यक्रम को समेटने के बजाय इसे मनरेगा से जोड़ा जाता, साथ ही इसे नौकरशाहों के हस्तक्षेप से अलग रखा जाता। ध्यान रहे मनरेगा के ज़रिए हम आमजनों तक रोटी-रोज़गार पहुंचाना चाहते हैं। यह वोट की सौदागरी का कोई माध्यम नहीं है। मनरेगा राजनीतिक आकाओं के दुमछल्लों के रोज़गार तथा ऐशपरस्ती का साधन न बने, इस पर भी ध्यान रखना बहुत आवश्यक है।
 

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