मनरेगा बदलने का मन

22 Oct 2014
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यह बात सही है कि मनरेगा में बड़े पैमाने पर भ्रष्टाचार व्याप्त है, पर इससे निपटने का तरीका यह नहीं हो सकता कि इस योजना में बिना सोचे-समझे बदलाव कर दिया जाए या योजना का दायरा सीमित कर दिया जाए। मनरेगा देश की एक बड़ी ग्रामीण आबादी को रोजगार मुहैया कराती है। अगर यह योजना सीमित या बंद हो जाती है, तो उनके सामने जीवनयापन का बड़ा संकट खड़ा हो जाएगा... महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना जैसा कि नाम से जाहिर है, ग्रामीण बेरोजगारों के लिए सरकार द्वारा सामाजिक सुरक्षा भुगतान देने की योजना है। योजना के तहत सरकार, गरीब परिवारों को साल में कम से कम 100 दिन का रोजगार देती है। यही नहीं योजना में यह भी प्रावधान है कि, जिन लोगों को काम नहीं मिल पाता, उन्हें बेरोजगारी भत्ता मिले। यह योजना साल 2006 से जब देश में अमल में आई तो ग्रामीण भारत में कई बदलाव देखने को मिले। मसलन - गांव से शहर की ओर बड़े पैमाने पर होने वाला मजदूरों का पलायन रूका, गांवों में ही नए-नए रोजगार सृजित हुए और इससे गांवों के अंदर बुनियादी ढांचा मजबूत हुआ। योजना की वजह से जहां ग्रामीण भारत को बार-बार आने वाली परेशानियों और प्राकृतिक आपदाओं से मुकाबला करने में मदद मिली तो वहीं विस्तारित कृषि उत्पादन और निर्माण श्रमिकों की मांग से श्रमिकों की वास्तविक मजदूरी में भी वृद्धि हुई। यहां तक कि जब कई विकसित यूरोपीय देश अंतरराष्ट्रीय आर्थिक मंदी से जूझ रहे थे, तब मनरेगा ने ही हमारे देश को आर्थिक मंदी से बचाया।

मनरेगा की इन उपलब्धियों और कामयाबी के बावजूद देश में हमेशा एक ऐसा वर्ग रहा है, जो मनरेगा के मौजूदा प्रारूप से जरा भी इत्तेफाक नहीं रखता। मनरेगा की अमलदारी में पेश खामियों और गड़बड़ियों के मद्देनजर यह वर्ग चाहता है कि योजना में बदलाव हो। जाहिर है यदि बदलाव योजना की बेहतरी के लिए हो तो उससे कौन इंकार कर सकता है? लेकिन बदलाव के नाम पर अगर योजना के दायरे को सीमित करने या उसका वास्तविक स्वरूप बदलने की बात हो तो इस बदलाव के लिए आतुर सरकार की नीयत पर शक की गुंजाइश बनती ही है। एक आरटीआई के जरिए खुलासा हुआ है कि मौजूदा केंद्र सरकार ने मनरेगा में फेरबदल करने का मन बना लिया है।

केंद्रीय ग्रामीण विकास मंत्री नितिन गडकरी ने हाल ही में अपने मंत्रालय को मनरेगा के प्रावधानों में बदलाव का आदेश दिया है। योजना को सिर्फ पिछड़े और आदिवासी इलाकों तक ही सीमित करने का सरकार का मन है। इसके अलावा सरकार ने राज्यों से ये भी कहा है कि मौजूदा वित्तीय वर्ष के शेष महीनों में वे मनरेगा पर अपना खर्च सीमित करें। यानी सरकार का इरादा आने वाले दिनों में मनरेगा के बजट में कटौती करना है। एक योजना जो कि गरीब ग्रामीणों की आर्थिक सबलता से जुड़ी हुई है, उसको सीमित करना या उसके बजट में कटौती करना गरीबों के प्रति सरकार की “नेक” नीयत को दर्शाता है।

मौजूदा साल जब केंद्र में सरकार बदली तो यह अंदेशा पहले से ही था कि नई सरकार, पुरानी सरकारों की कुछ योजनाओं को बंद करने या उन्हें बदलने की कोशिश कर सकती है। यह आशंका आखिरकार सच साबित हुई। शुरुआत राजस्थान की मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे सिंधिया ने की। उन्होंने राजग की सरकार बनते ही प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को खत लिखकर मांग की कि मनरेगा कानून पर पुनर्विचार किया जाए। बाद में इसी तरह की राय केंद्रीय मंत्री नितिन गडकरी ने भी संसद के अंदर जाहिर की कि मनरेगा में बदलाव अपेक्षित है। लेकिन यह बदलाव इतने आसान भी नहीं थे। यही वजह है कि राजग सरकार ने मनरेगा में सीधे बदलाव न करते हुए चरणबद्ध बदलाव करने का निर्णय लिया। जिससे कि सरकार को एक दम विपक्षी पार्टियों और जनता का विरोध न झेलना पड़े।

नरेंद्र मोदी सरकार ने अपने पहले ही बजट में यह संकेत दे दिया था कि वह अब मनरेगा के स्वरूप में बदलाव करना चाहती है। मौजूदा वित्त वर्ष 2014-015 के बजट में सरकार ने मनरेगा के मद में महज 34,000 करोड़ रुपए की रकम जारी की है, जो कि राज्यों द्वारा इस मद में मांगी गई रकम से 45 फीसद कम है। सरकार ने इस दिशा में दूसरा कदम यह उठाया कि उसने मनरेगा के तहत मजदूरी की दर 119 रुपए तय कर दी। अलबत्ता उसकी यह कोशिश, कामयाब नहीं हो पाई। सर्वोच्च न्यायालय के आदेश ने उसकी इस मंशा पर पानी फेर दिया। अदालत ने इसी साल एक मामले की सुनवाई के दौरान सरकार को आदेश दिया कि मनरेगा के अंतर्गत काम करने वाले मजदूर को न्यूनतम मजदूरी राज्यों द्वारा तय की गई दर से दी जाए, न कि केंद्र सरकार द्वारा तय दर से। फिलहाल मनरेगा के तहत मजदूरी राज्यों द्वारा तय दर से मिलती है। अलग-अलग राज्यों में यह दर अलग-अलग है। बावजूद इसके कहीं भी यह सीमा डेढ़ सौ रुपए से कम नहीं है। मजदूरों को मिलने वाली यह मजदूरी वाजिब भी है। देश में जिस तरह से महंगाई आसमान छू रही है, ऐसे हालात में मजदूरों को इतनी मजदूरी जरूर मिलना चाहिए, जिससे वह अपना और अपने परिवार का भरण-पोषण अच्छी तरह से कर सके।

नरेंद्र मोदी सरकार ने अपने पहले ही बजट में यह संकेत दे दिया था कि वह अब मनरेगा के स्वरूप में बदलाव करना चाहती है। मौजूदा वित्त वर्ष 2014-015 के बजट में सरकार ने मनरेगा के मद में महज 34,000 करोड़ रुपए की रकम जारी की है, जो कि राज्यों द्वारा इस मद में मांगी गई रकम से 45 फीसद कम है। केंद्र सरकार मनरेगा के प्रावधानों में एक बड़ा बदलाव यह चाहती है कि मनरेगा के तहत खर्च की सीमा पहले से ही तय हो। यानी अब काम के हिसाब से बजट में प्रावधान होगा। सरकार मनरेगा के लिए पैसे पहले से ही तय कर देगी। जबकि पहले इसमें मांग के अनुरूप निवेश बदलता रहता था। मनरेगा कानून की असल आत्मा भी यही है कि सरकार देश के प्रत्येक ग्रामीण गरीब परिवार को मांगने पर साल में सौ दिन का गारंटीशुदा रोजगार देगी। लेकिन जब बजट पहले से ही तय हो जाएगा तो जाहिर है सभी को रोजगार देने की अनिवार्यता भी खत्म हो जाएगी। एक लिहाज से देखें तो यह मांग के आधार पर काम के सिद्धांत का सीधा-सीधा उल्लंघन है। पर सरकार को इस सिद्धांत की जरा भी परवाह नहीं। उल्टे सरकार मनरेगा का दायरा भी सीमित करना चाहती है। उसका इरादा है कि योजना में संशोधन कर इसे देश के सिर्फ 200 जिलों तक ही सीमित किया जाए। सरकार की मर्जी के मुताबिक यदि मनरेगा में संशोधन हो गए तो यह योजना प्रत्येक प्रखंड के एक तिहाई हिस्से तक ही सीमित रह जाएगी। यानी ग्रामीण आबादी का एक बड़ा हिस्सा मनरेगा से लाभान्वित नहीं हो पाएगा।

एक अनुमान के मुताबिक सरकार के इस फैसले से मनरेगा के तहत दिए जा रहे रोजगार में 40 फीसदी तक की गिरावट आ सकती है। जिसका असर करोड़ों लोगों की रोजी-रोटी पर पड़ेगा। यही नहीं लेबर-मटीरियल अनुपात में बदलाव से भी मजदूरों के हक पर डाका पड़ेगा। मनरेगा में मजदूरी के भाग को कम करके सामान का हिस्सा बढ़ाने से जहां बेनामी ठेकेदारों और मध्यस्थों को बढ़ावा मिलेगा, वहीं कम मजदूर ही योजना से लाभान्वित हो पाएंगे। देश के अंदर मनरेगा में भ्रष्टाचार के ऐसे कई मामले सामने आए हैं, जिनमें सामान के नाम पर ही पैसों की सबसे ज्यादा बंदरबांट हुई है। मनरेगा के प्रावधानों में संशोधन कर सरकार क्या इस तरह की लूट को आगे भी बरकरार रखना चाहती है। यह बात सही है कि मनरेगा में बड़े पैमाने पर भ्रष्टाचार व्याप्त है, पर इससे निपटने का तरीका यह नहीं हो सकता कि इस योजना में बिना सोचे-समझे बदलाव कर दिया जाए या योजना का दायरा सीमित कर दिया जाए। मनरेगा देश की एक बड़ी ग्रामीण आबादी को रोजगार मुहैया कराती है। अगर यह योजना सीमित या बंद हो जाती है, तो उनके सामने जीवनयापन का बड़ा संकट खड़ा हो जाएगा।

अच्छी बात यह होती कि सरकार, मनरेगा कार्यक्रम को आगे भी भली-भांति जारी रखने के लिए अपनी ओर से हर मुमकिन मदद देती। योजना की पहुंच कम करने की बजाए इसे और अधिक व्यावहारिक एवं पारदर्शी बनाने की कोशिश की जाती। मसलन किस तरह ठेकेदारों और बिचौलियों के चंगुल से श्रमिकों को मुक्त कराया जाए और उनके श्रम का वाजिब भुगतान मिले। इस योजना के तहत होने वाले कार्यों पर कड़ी नजर रखी जाए। किस तरह से मजदूरों को ज्यादा उत्पादक कार्यों में लगाया जाए।

जाहिर है यह सब सही तरह से हो पाए तो योजना के नतीजे भी देश में बेहतर दिखाई देंगे। सरकार यदि फिर भी योजना में कुछ संशोधन या बदलाव करना चाहती है, तो उसे इस विषय में आर्थिक, सामाजिक विशेषज्ञों और सीधे जनता से राय लेनी चाहिए थी। लेकिन उसने इस संबंध में उनसे कोई राय न लेते हुए योजना में तब्दीली का मन बना लिया है। मनरेगा देश के करोड़ों-करोड़ लोगों के भरण-पोषण से जुड़ी एक महत्वपूर्ण योजना है। सरकार को इस पर कोई भी फैसला करने से पहले खूब सोचना-विचारना चाहिए। वरना, सरकार की नीयत पर सवाल उठेंगे ही।

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