मनरेगा के नीतिगत अर्थ-प्रत्यर्थ

इस वर्ष भारत में ग्रामीण मजदूरों के लिए चल रही योजना 'मनरेगा' के पांच वर्ष पूरे हो गये। निश्चित तौर पर यह योजना भारत के मजदूरों की स्थिति बदलने में अहम भूमिका अदा कर सकती है लेकिन इसके लिए जरूरी है इसका सही क्रियान्वयन। हालांकि भारतीय शासन व्यवस्था के मौजूदा परिवेश में इसके सही क्रियान्वयन के बारे में सोचना अपने को धोखा देने जैसा है।

बहरहाल, इस योजना के दो बड़े लाभ हुए, पहला, इसने मजदूरों का पलायन रोका तथा दूसरा उनको घर में रहते हुए भरण-पोषण के अवसर मुहैया कराये लेकिन इसने कुछ अहम सवाल भी पैदा किये हैं। मसलन कार्यरत मजदूरों और उनकी अगली पीढ़ी का भविष्य क्या होगा? क्या सौ दिन के रोजगार से उनके परिवार का भरण-पोषण हो जाएगा? क्या सत्ताधारी वर्ग इसके लिए अपनी पीठ थपथपा सकता है? इस तरह के अनेक सवाल सरकार की नीतियों को लेकर उठाये जा रहे हैं।

राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम (नरेगा) नामक योजना की शुरुआत 2006 में हुई थी। इसमें 879 करोड़ मजदूरों को रोजगार दिया गया है जिसमें 47 प्रतिशत महिलाएं हैं। इसके तहत 28 प्रतिशत अनुसूचित जाति तथा 24 प्रतिशत अनुसूचित जनजाति के लोगों को अवसर मिला है। 2006-07 में इस योजना को भारत के 200 जिलों में लागू किया गया। 2007-08 में यह संख्या बढ़कर 330 हो गयी। 1 अप्रैल 2008 को इसे देश के सभी जिलों में लागू कर दिया गया। बाद के योजना में 'काम के बदले अनाज' और 'सम्पूर्ण ग्रामीण रोजगार योजना' को भी इसमें शामिल कर लिया गया। 2 अक्टूबर 2009 को योजना का नाम महात्मा गांधी के नाम पर कर दिया गया।

दरअसल सरकार की नीतियां जिस तरह की हैं, वह तत्काल प्रभाव के लिए तो सही हैं,लेकिन इसे स्थायी नहीं बनाना चाहिए और न ही इसके जैसा विज्ञापन हो रहा है,वैसे होना चाहिए। विज्ञापन जब तक सूचनात्मक होते हैं, तब तक तो ठीक है लेकिन जैसे ही स्थायी होते हैं, उन्हें राजनीतिक हथियार का रूप प्राप्त होता है और उनका नीतिगत उद्देश्य समाप्त हो जाता है। यह कहना जितना गलत है उतना ही हास्यास्पद भी कि मनरेगा की अवधारणा गलत है या उसकी उपयोगिता गलत है।

इसमें यदि कुछ गलत है तो इसका क्रियान्वयन। फिलहाल इसमें जो अनियमितताएं आयी हैं, उन्हें तत्काल दूर नहीं किया गया तो गरीबों का पेट भरने की बजाय नौकरशाह अवश्य मोटे हो जाएंगे। इसे भारतीय नौकरशाहों की कुदृष्टि से सुरक्षित बचाने की जरूरत है और अगर बच गया तो इसमें सन्देह नहीं है कि यह वर्तमान सरकार की सर्वोत्तम नीतियों में से एक होगा, लेकिन समस्या यही है कि भारत में नीतियां तो बना दी जाती हैं पर उनका उचित क्रियान्वयन टेढ़ी खीर होता है। उन नीतियों का कितना हिस्सा हकीकत में लागू हो पाता है, इससे सब वाकिफ हैं।

आज कोई भी मार्क्स आकर मजदूरों के प्रतिरोध को नहीं जगा सकते। ऐसे में नीति निर्धारक तबके को ही उनकी आवश्यकताओं पर ध्यान देना चाहिए। असल में इस योजना में जिन बाधाओं का सामना मजदूर वर्ग को करना पड़ रहा है, वह इसकी विफलता के लिए काफी है। जॉब कार्ड बनवाने से लेकर काम पाने तक जिस प्रकार वे ग्राम प्रधानों का चक्कर लगाते हैं, उसे देखकर योजना की सफलता-विफलता का आभास हो सकता है।

दूसरी ओर बड़ी समस्या न्यूनतम काम पाने के बाद की है। जरूरी नहीं कि सौ दिन बाद भी काम मिले। यदि मिल गया तो ठीक नहीं तो सौ दिन काम के बाद फिर बेकारी। यही नहीं, सौ दिन के काम के पैसे से तीन सौ पैंसठ दिन का काम चल जाना भी असंभव है। लेकिन बाकी दिनों गांवो में और क्या काम हो सकता है पर सौ दिन के काम का लालच उन्हें रोके रखता है लिहाजा, उनकी स्थिति खराब होना लाजमी है। हालांकि इसका भी तोड़ मजदूर वर्ग ने निकाला है।

जैसे यदि एक घर में चार सदस्य हैं तो चारों को काम पर लगाया जाए जिससे एक आदमी को हमेशा काम मिलता रहे। यह कुछ हद तक तो सही है लेकिन इससे आने वाली पीढ़ी असुरक्षित हो जाएगी और उसका भविष्य सिर्फ मनरेगा पर निर्भर हो जाएगा। क्योंकि इसमें जिन लोगों को काम पर लगाया जाता है उनमें एक बड़ा हिस्सा उन छात्रों का है जो पढ़ाई छोड़ काम में लग जाते हैं। ऐसे में उनका जीवन मजदूरी के लिए अभिशप्त हो जाता है। इसलिए इस पर एक बार पुन: विचार करने की जरूरत है। बढ़ती जनसंख्या देश की सबसे बड़ी समस्या है। जो मनरेगा के स्थायी होने की स्थिति उसके मार्ग की बड़ी बाधा बन सकती है।

एक परिवार में जितने अधिक सदस्य होंगे, परिवार की आमदनी का जरिया उतना ही अधिक होगा सो जनसंख्या पर दबाव बढ़ेगा। एक महत्वपूर्ण मामला शिक्षा से भी जुड़ा है। मनरेगा से लाभ पाने वाले ज्यादातर मजदूर अपने बच्चों को पढ़ाने के बजाए समय के साथ उन्हें अपनी तरह कामगार बना देना चाहेंगे। इस तरह की समस्याओं के मद्देनजर अब अधिक आवश्यकता है कि इस योजना के साथ-साथ कोई नयी योजना लायी जाय जो इन समस्याओं को मिटाने में मदद करे।
 

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