मनरेगा में कैसे फूँकी जाये जान

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मनरेगा से पहले अकाल राहत के काम के जमाने में, ‘घोस्ट वर्क्स’ हुआ करते थे। धीरे-धीरे, टेक्नोलॉजी का सहारा लेकर, लोगों की भागीदारी से, मनरेगा में भ्रष्टाचार घटा। लेकिन अब फिर से ‘घोस्ट वर्क्स’ का जिक्र होने लगा है। अन्त में कुछ तुरन्त उपाय के लिये सुझाव। पहला, हर पंचायत में कम-से-कम एक कार्यस्थल होना जरूरी है। दो, केन्द्र को कार्यसूची में अपनी हस्तक्षेप बन्द करना चाहिए ताकि पंचायत यह तय कर सके कि गाँवों में क्या काम हो। इस बजट में मनरेगा को सबसे बड़े आवंटन ने एक मौका दिया है कि इस कार्यक्रम का सही आकलन किया जाये। इस सबसे बड़े आवंटन से प्रतीत होता है कि आखिरकार, मोदी सरकार ने माना है कि मनरेगा नोटबंदी जैसी आर्थिक आपत्ति से निपटने के लिये सहयोगी हस्तक्षेप है।

नोटबंदी के बाद की बेरोजगारी और गाँवों की तरफ पलायन की खबरों से माना जा रहा है कि ये लोग आर्थिक सहारे के लिये मनरेगा कार्यस्थलों पर काम करना चाहेंगे। अभी तक के संकेत से लगता है कि सबसे बड़ा आवंटन भी अपर्याप्त साबित होगा। यह इस वजह से है क्योंकि पिछले साल बजट एस्टिमेट 38,500 करोड़ रुपए का था, लेकिन रिवाइज्ड बजट में मनरेगा पर खर्च 47,400 करोड़ रुपए हुआ। तो फिर 48,000 करोड़ रुपए बहुत ज्यादा राशि नहीं है। वित्त मंत्री अरुण जेटली की इस बात से तसल्ली मिलती है कि जरूरत पड़ने पर पैसा उपलब्ध कराया जाएगा।

‘ऑल इज नॉट वेल’


लेकिन जहाँ तक मनरेगा का सवाल है, बजट और नोटबन्दी से उत्पन्न हुई रोजगार की डिमांड, केवल ये ही दोनों मुद्दे नहीं हैं। मनरेगा की क्रियान्वयन में काफी त्रुटियाँ हैं, साथ ही, सभी सरकारों का रवैया जो हर आलोचना को नजरअन्दाज करने का रहा है।

केन्द्रीकरण की समस्या मनरेगा में शुरुआत के समय से रही है। उदाहरण के तौर पर जब मजदूरी भुगतान में विलम्ब की समस्या पैदा हुई तो दिल्ली में बैठे टेक्नो-ब्यूरोक्रेट्स ने क्या किया? उन्होंने स्थानीय प्रशासन से कंट्रोल अपने हाथों में ले लिया। बजाय इसके की जवाबदेही के प्रावधानों को और मजबूत किया जाये (जिसकी वजह से कुछ राज्य जैसे तमिलनाडु-समय पर भुगतान कर पा रहे थे), उनके अनुभव से सीखने की कोशिश नहीं की गई।

शुरुआती दिनों में तब के ग्रामीण मंत्री चाहते थे कि मनरेगा के तहत राजीव गाँधी भारत निर्माण सेवा केन्द्रों को बनाने की अनुमति दी जाये। कुछ लोगों का मानना था कि चूँकि मनरेगा मजदूरी से चोरी करना मुश्किल हो रहा था, लोग चाहते थे कि मनरेगा में ज्यादा सामग्री वाले काम जोड़े जाएँ। (आर्थिक सर्वेक्षण में दिये गए अनुमानों के अनुसार, 2011-12 में मनरेगा में 20% मजदूरी की चोरी हो रही थी, जो पहले 50% के आस-पास थी) तब, कार्यों की सूची के केन्द्रीकरण का जमकर विरोध हुआ, क्योंकि मनरेगा कानून के तहत इस सूची को ग्राम पंचायत द्वारा बनाया जाना चाहिए। लेकिन पिछले कुछ सालों में ऐसी स्थिति है कि केन्द्रीय मंत्रालय में कार्यों की सूची सुझाई जाती है।

कभी-कभी तो कार्य की लम्बाई-चौड़ाई-गहराई भी केन्द्र द्वारा निर्मित की जाती है! इस तरह के केन्द्रित टारगेट-आधारित संसाधन पैदा करने के प्रयास से नुकसान होने के संकेत आने लगे हैं। टेक्नोलॉजी, जो शुरुआती सालों में मनरेगा की सबसे अच्छी दोस्त रही, आज उसकी सबसे बड़ी दुश्मन बन गई है। आज वो ही मनरेगा पुराने जमाने के कागजी-काम और नए जमाने की डिजिटल माँगों का मिला-जुला ‘डिजिटल रेड टेप’ बुरा-सपना बन गया है और इसके सामने मनरेगा घुटने टेक चुका है।

मनरेगा में टेक्नोक्रेसी एक बोझ बन गई है। मनरेगा की पूरी प्रशासनिक क्षमता पहले बैंक अकाउंट नम्बर डालने के काम में डूबते-डूबते बची, तो इतने में ‘हरिकेन आधार’ नामक तूफान से जूझना पड़ा। बजाय इसके कि वो मनरेगा काम खोले, नापी और भुगतान का काम करने में लगे, उन्हें बार-बार आदेश दिये जाते हैं कि सभी मजदूरों का आधार नम्बर सिस्टम में डाला जाये। हरिकेन आधार ने कैंसर की तरह मनरेगा को खोखला बना दिया है।

मनरेगा को दरपेश समस्याएँ


नए दौर की इन मुश्किलों के साथ-साथ मनरेगा में जो पुरानी कमियाँ थीं, उन्हें अभी तक दो ऐसी समस्याएँ हैं, जिन्हें तुरन्त सुधारने की जरुरत है। मजदूरी दरों में स्टगनेशन और विलम्बित भुगतान। जबसे सरकार ने यह माना कि हर साल महंगाई के अनुसार मजदूरी दर को बढ़ाया जाएगा, तबसे रियल टर्म्स में मजदूरी दर नहीं बढ़ी। महंगाई से जोड़ने का काम भी बहुत असन्तोषजनक तरीके से हुआ है। पिछले साल, मई दिवस पर झारखण्ड में मनरेगा मजदूरों ने बढ़ोत्तरी के मुद्दे पर नाराज होकर प्रधानमंत्री को लौटाने का फैसला किया। मजदूरी की दरें बढ़ाने पर तो चर्चा ही नहीं हो रही।

मजदूरी भुगतान में देरी भी 2009 के आस-पास की पुरानी बीमारी है, जब मनरेगा भुगतान को बैंक खातों से जोड़ा गया। दो या तीन राज्यों के अलावा सभी राज्यों में भुगतान 15 दिनों में नहीं हो पा रहा। जब से हरिकेन आधार और डिजिटल रेड टेप आया है, स्थिति और खराब हुई है। कर्नाटक और झारखण्ड में कुछ मनरेगा मजदूर जो काम कर चुके थे, लेकिन जिनका भुगतान होना बाकी था, उनके नाम मनरेगा एमआईएस से हटा दिये गए। बाद में पता चला कि चूँकि डाटा एंट्री ऑपरेटर पर दबाव था कि वो शत-प्रतिशत ‘आधार-सीडिंग’ करे, अपना टारगेट प्राप्त करने के लिये उसने उनके नाम डिलीट कर दिये।

आखिर में भ्रष्टाचार की समस्या तो है ही। मनरेगा से पहले अकाल राहत के काम के जमाने में, ‘घोस्ट वर्क्स’ (यानी वो कार्यस्थल जो केवल कागजों में, जमीन पर नहीं) हुआ करते थे। धीरे-धीरे, टेक्नोलॉजी का सहारा लेकर, लोगों की भागीदारी से, मनरेगा में भ्रष्टाचार घटा। लेकिन अब फिर से ‘घोस्ट वर्क्स’ का जिक्र होने लगा है। अन्त में कुछ तुरन्त उपाय के लिये सुझाव। पहला, हर पंचायत में कम-से-कम एक कार्यस्थल होना जरूरी है। दो, केन्द्र को कार्यसूची में अपनी हस्तक्षेप बन्द करना चाहिए ताकि पंचायत यह तय कर सके कि गाँवों में क्या काम हो। तीन, मनरेगा को टेक्नो-ब्यूरोक्रेटिक प्रणाली से मुक्ति और इसकी सब प्रक्रियाओं का सरलीकरण (उदाहरण के तौर पर, आधार को इसके क्रियान्वयन से हटा देना चाहिए)। चौथा, इलेक्ट्रॉनिक-मस्टर रोल, जो यूपीए 2 सरकार की देन है और जिससे कोई फायदा नहीं हुआ, बल्कि देरी भुगतान की समस्या बढ़ी है, को भी हटा देना चाहिए।

जिस किसी को भी काम करना हो, उसे बिना किसी शर्त के, बिना आवेदन के, काम मिलना चाहिए। ऐसा करने से उम्मीद है कि नोटबन्दी से उत्पन्न आर्थिक कठिनाइयों से सम्भालने में मनरेगा आर्थिक सुरक्षा की भूमिका निभा सकता है।

लेखिका आईआईटी दिल्ली में अर्थशास्त्री हैं।

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