मुट्ठी भर दर्द


जलवायु परिवर्तन बीमारियों के बोझ को कहीं ज्यादा जटिल बना देगा। उपचार संबंधी नई खोजों और उपलब्धियों से भले ही धनी लोगों को कुछ राहत मिल जाए लेकिन गरीबों की तो बुनियादी स्वास्थ्य सुविधाओं तक भी पहुँच न होगी।


अनुमान ऐसे हैं कि 2020 तक विश्व भर में होने वाली मौतों में तीन-चौथाई क्रोनिक बीमारियों के कारण होंगी। विकासशील देशों पर तो बुरी गुजरेगी। वहाँ 71 प्रतिशत मौतें हृदय संबंधी बीमारियों से होंगी। 75 प्रतिशत स्ट्रोक तथा 75 प्रतिशत मौतें मधुमेह से होंगी। इतना ही नहीं, विकासशील देशों को 60 प्रतिशत चिरकालिक बीमारियों का बोझ वहन करना होगा। आज से 25 साल बाद हमारा स्वास्थ्य हर दिन खराब होते पर्यावरण से शरीर पर पड़ने वाले कुप्रभावों से ही बयाँ होगा। वायु प्रदूषण, जल एवं खाद्य पदार्थों में जहरीले तत्व और जलवायु परिवर्तन जैसे झटके एक साथ मिलकर कहर ढाएंगे। स्वास्थ्य संबंधी नई-नई शिकायतें और संक्रमणीय और असंक्रमणीय बीमारियां शरीर को कमजोर कर देंगी। अब से 25 सालों में संभवत: जलवायु परिवर्तन तमाम बीमारियों का सबसे बड़ा कारण होगा। गरमाया विश्व विषाणुओं के दिन-दूने-रात-चौगुने अंदाज में फैलने में मददगार होगा। सूखे पड़े वनों से जानलेवा बीमारियां उन जीव-जंतुओं के माध्यम से तेजी से फैलेंगी जिनके लिये जंगल में जीने लायक हालात नहीं बच रहेंगे।

सोच भी नहीं सकते कि कैसी-कैसी नई-नई बीमारियां फैल जाएंगी और हमारे पास उनके इलाज के लिये दवा तक नहीं होंगी। जिका नाम की महामारी के सामने हम जिस तरह से असहाय साबित हुए हैं, उससे आने वाले दिनों में हमारी लाचारी की कल्पना की जा सकती है। यहाँ तक कि गरम जमीन पर जानी-पहचानी बीमारी हैजा तक नये-नये क्षेत्रों में फैल जाएगी। एकाएक बारिश होने जैसी घटनाएं तमाम क्षेत्रों में होने लगेंगी। लू की चपेट में आना आम बात हो जाएगी यानी आने वाले समय में हमें तमाम मौसमी प्रतिकूलताओं का सामना करना होगा।

ऐसी भी रिपोर्ट्स हैं कि जलवायु परिवर्तन और मानसिक तनाव के बीच भी संबंध होता है। जलवायु परिवर्तन और अतिमौसमी परिस्थितियां फसलों को नष्ट कर देंगी। लगातार सूखा वनभूमि को सुखा देगा वरना तो ये वनभूमि खाद्य पदार्थों का वैकल्पिक स्रोत बन सकती थीं। इससे खाद्य सुरक्षा की स्थिति गंभीर बनी रहेगी। नतीजतन, विश्व के कुछ भागों को घोर कुपोषण की स्थिति से गुजरना पड़ेगा। भविष्य में हमारे बच रहे खाद्य पदार्थ भी स्वास्थ्य के साथ खिलवाड़ करने वाले साबित हो सकते हैं। ये खाद्य पदार्थ तमाम टॉक्सिन और कैंसर-कारक कृषि रसायनों से भर जाएंगे। एलर्जी के साथ अभी जेनेटिकली मोडिफाइड (जीएम) फसलों का संबंध बताया जा रहा है। इनकी उपज से बाजार पट जाएंगे। भारी वसा, शक्कर वाले खाद्य पदार्थो से मोटापा पसरेगा। मधुमेह के हालात बन जाएंगे। हृदय संबंधी बीमारियां हमें घेर लेंगी।

कहर ढा देंगी क्रोनिक बीमारियां


अनुमान ऐसे हैं कि 2020 तक विश्व भर में होने वाली मौतों में तीन-चौथाई मौतें दीर्घकालिक (क्रोनिक) बीमारियों के कारण होंगी। विकासशील देशों पर तो बुरी गुजरेगी। वहाँ 71 प्रतिशत मौतें हृदय संबंधी बीमारियों से होंगी। 75 प्रतिशत स्ट्रोक से होंगी तथा 75 प्रतिशत मौतें मधुमेह से होंगी। इतना ही नहीं विकासशील देशों को 60 प्रतिशत चिरकालिक बीमारियों का बोझ वहन करना होगा। भारत में मधुमेह से पीड़ितों की संख्या 2030 तक 50.6 मिलियन तक हो जाएगी। 2042 तक तो स्थिति में और भी बिगाड़ आ जाएगा। इन तमाम बीमारियों के लिये कुछ हद तक हमारी जीवन-शैली भी जिम्मेदार होगी। इंटरनेट की लत जैसी समस्याएं हैं, जो समय के साथ और बढ़ेंगी। वृद्धों की बढ़ती संख्या के कारण भूलने, अलजाइमर और पार्किसन जैसी बीमारियां हलकान कर देंगी। मामूली से प्रदूषण से भी निद्रा संबंधी शिकायतें बढ़ेंगी। मनोरोग संबंधी समस्याएं उभर आएंगी। मानसिक तनाव बेहद ज्यादा होगा। हालांकि संक्रामक बीमारियों के मामले कम होंगे लेकिन चिंता की बात यह होगी कि एंटीबॉयोटिक दौर के उपरांत रोगाणु प्रतिरोधी क्षमता विकसित कर चुके होंगे। ऐसे में मामूली से संक्रमण का उपचार करना तक कठिन हो जाएगा। इसका अर्थ होगा कि भारत और विश्व के दूसरे हिस्सों में बीमारियों का खात्मा किया जाना आसान नहीं रह जाएगा। कालाजार, कुष्ठ, तपेदिक, चेचक जैसी बीमारियों पर काबू पाने में नाकामी मिलेगी।

चरमरा जाएगा सार्वजनिक स्वास्थ्य का ढांचा


बीमारियां बढ़ने का मतलब है कि सार्वजनिक स्वास्थ्य का ढांचा चरमरा जाएगा। क्या हमारा स्वास्थ्य बजट पर्याप्त होगा इस प्रकार की स्थिति से निबटने के लिये? लेकिन अभी जितना बजट सरकार इस क्षेत्र के लिये रख रही है, उससे ही हमारे सामने आने वाली स्थिति की गंभीरता का अंदाजा लगाया जा सकता है। हमें स्वास्थ्य क्षेत्र के निजीकरण की तैयारी के रुझान दिखने लगे हैं। इस क्षेत्र का पूरी तरह से निजीकरण हो गया तो उन गरीबों पर बुरी गुजरेगी जो आज के तेजी से बदलते विश्व के साथ तालमेल बिठाने में पहले ही नाकाम हैं। इतना ही नहीं, यह भी दिख रहा है कि हम ‘सस्टनेबल-डवलपमेंट गोल 3’ को पूरा करने में असफल रहेंगे जो कहता है कि 2030 तक तमाम देशों को स्वस्थ जीवन सुनिश्चित करने के उपाय खोज लेने होंगे। अपने सभी आयु वर्गों की जनसंख्या के लिये बेहतर जीवन सुनिश्चित कर लेना होगा। गोल-2 में भूख के खात्मे, खाद्य सुरक्षा और पोषण में सुधार का लक्ष्य रखा गया था, जो पूरा होता नहीं दिखाई दे रहा।

बहरहाल, 25 साल का यह समय इतना पर्याप्त तो है ही कि शोधार्थी ऐसे उपाय खोज सकें जिनसे विश्व को आ घेरने वाली स्वास्थ्य संबंधी समस्याओं का कोई समाधान निकाला जा सके। लेकिन यहाँ भी केवल धनी वर्ग ही इन उपायों से लाभान्वित हो सकेगा। ऐसी ही संभावनाएं ज्यादा हैं। कृत्रिम हृदय आ चुके होंगे। कृत्रिम गुर्दा आ चुका होगा। फेफड़े भी कृत्रिम आ चुके होंगे जिनसे इन अंगों की नाकामी से पार पाया जा सकेगा। सड़क हादसों में कूल्हे गंवा चुके लोगों के पास बायो-प्रोस्थेटिक्स का विकल्प होगा जो कुदरती शारीरिक अंगों को भी मात देता दिख सकता है। कृत्रिम गर्भाशय प्रजनन संबंधी विसंगतियों से पार पाने में मददगार होगा। स्वास्थ्य निदान पसीने से होने लगेगा। रक्त परीक्षण की जरूरत नहीं रहेगी। पहने जा सकने वाले स्कैनर दिन-रात हमारी निगरानी करेंगे। शल्य चिकित्सा को लेकर अभी जो डर दिखता है, वह नहीं रहेगा। बीमार के लिये व्यक्तिगत रूप से मुहैया कराई जाने वाली दवाओं से जीवन बेहतर हो जाएगा।

लोगों के स्वास्थ्य संबंधी नजरिये में भी खासा बदलाव आ जाएगा। खानपान की प्रवृत्तियों में कुछ सकारात्मक रुझान दिख रहे हैं। लोगों द्वारा फल-सब्जियां खाने का दौर भी आता दिख रहा है। शारीरिक कसरत की ललक भी बढ़ने पर है। पर्यावरण में प्रदूषण के प्रति जागरूकता का ग्राफ भी बढ़ा है। लेकिन व्यक्तिगत स्तर पर हमारी यह चेतना हमें सीमित किस्म के जोखिमों से ही बचा पाएगी। पर्यावरण के सुधार और हमारे बेहतर स्वास्थ्य के लिये वैश्विक स्तर पर खासे प्रयास जरूरी हैं।

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