नौला एक जल मंदिर

26 Jun 2014
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संकट में उत्तराखंड के परंपरागत जल स्रोत नौलाहिमालय के गांव हों या शहर, एक समय था जब यहां पर समाज खुद अपने पीने के पानी की व्यवस्था करता था। वह राज्य या सरकार पर निर्भर नहीं रहता था। सदियों पुरानी पेयजल की यह व्यवस्था कुमाऊं के गांवों में नौला व धारे के नाम से जानी जाती है। ये नौले और धारे यहां के निवासियों के पीने के पानी की आपूर्ति किया करते थे। इस व्यवस्था को अंग्रेजों ने भी नहीं छेड़ा था।

यह व्यवस्था केवल तकनीक पर आधारित नहीं थी बल्कि पूरी तरह से यहां की संस्कृति को अपना आधार बनाकर किया जाने वाला काम था। कई अवसरों पर नौलों का महत्वपूर्ण स्थान देखा जाता है।

शादी के बाद जब नई बहू घर में आती है तो वह घर के किसी कार्य को करने से पहले नौला पूजन के लिए जाती है और वहां से अपने घर के लिए पहली बार स्वच्छ जल भरकर लाती है। यह परंपरा आज तक भी चली आ रही है। विकास की सीढ़ियों को चढ़ते हुए हमारे अपने ही कुछ लोगों ने इस व्यवस्था को भुला देना शुरू कर दिया है।

1975 में आपातकाल के समय कुमाऊं और गढ़वाल में पानी के नियम बनाये गये और सरकार ने स्वीकर किया कि पानी की जिम्मेदारी उसकी है। तब से धीरे-धीरे पाइप से पानी गांव तक पहुंचाने की योजनाएं बनने लगीं। लेकिन ये नई व्यवस्थाएं यहां के निवासियों को पूरे वर्षभर पेयजल की पूर्ति नहीं कर पाती हैं।

पाइप लाइन तो बिछ गई परन्तु पानी का स्तर कम होता ही जा रहा है इसलिए गर्मियों के कुछ महीनों में तो नल सूखे पड़े होते हैं। बरसात का मौसम आने पर कई बार पाइप बह जाते हैं या फिर इनमें मिट्टी-घास भर जाने से पानी बंद हो जाता है। उसकी सफाई करके दोबारा व्यवस्था को ठीक करने में महीनों लग जाते हैं।

वर्ष 2012 की गर्मियों में हमें उडेरी गांव जाना था। यह गांव जंगल के बीच में बसा है। वहां जाने के लिए रोड से चार किलोमीटर की सीधी चढ़ाई चढ़नी पड़ती है। रास्ता घने जंगल से होकर जाता है।

जब हम चढ़ाई चढ़ रहे थे तो हमने देखा, जंगल में आग लगने से चारों ओर कोई वनस्पति व झाड़ियां नहीं बची थीं। धरती कालिख से पुती हुई थी। वहां केवल पत्थर व चीड़ के ऊंचे-ऊंचे पेड़ खड़े थे, जिनका निचला भाग भी आग की लपटों से काला हो चुका था।

जब हम उडेरी गांव पहुंचे तो अच्छा लगा कि गांव इन लपटों की चपेट से बचा हुआ था। अभी दो-तीन दिन पहले ही भयंकर बारिश हुई थी, जिससे आग बुझ गई थी। गांव में जाकर पता चला कि जब से बारिश हुई है, जंगल की आग तो बुझ गई लेकिन पानी बंद हो गया क्योंकि गांव की टंकी में आने वाला पाइप बह गया और उसके अंदर मिट्टी भर गयी। अब उसे कौन निकाले?

सदियों पुरानी पेयजल की व्यवस्था कुमाऊं के गांवों में नौला व धारे के नाम से जानी जाती है। नौले और धारे यहां के निवासियों के पीने के पानी की आपूर्ति किया करते थे। इस गांव में अब केवल आठ-दस परिवार ही रह गये हैं। यहां पर किसी भी प्रकार की प्राथमिक सुविधाएं नहीं हैं, जैसे- बच्चों की पढ़ाई के लिए प्राथमिक शाला, राशन की दुकान आदि। इसके लिए चार किलोमीटर चलकर स्थानीय बाजार जाना पड़ता है। इसलिए लोग बच्चों की पढ़ाई के लिए व अन्य कारणों से पलायन कर चुके हैं। इन दिनों गांव का एक युवक यहां पर आया हुआ था। वही पाइप की सफाई में लगा हुआ था।

गांव के लोग अपने लिए लगभग एक किलोमीटर दूर जंगल में बने एक नौले से पानी ला रहे थे। हम नौले को देखने गये। यह नौला पूरा ध्वस्त हो चुका था। उसकी दीवारें और छत टूट रही थी। उसके किनारे कांटे के पौधे व घास उग आयी थी। इस दुर्दशा के बाद भी नौले में स्वच्छ पानी दिख रहा था। मात्रा जरूर थोड़ी कम हो गई थी। जल-भरण क्षेत्र में कोई अच्छी वनस्पति, झाड़ियां आदि नहीं थी। रह गये थे केवल चीड़ के पेड़।

नौला भूजल से जुड़ा ढांचा है। ऊपर के स्रोत को एकत्रित करने वाला एक छोटा सा कुण्ड है। इसकी सुंदर संरचना देखने लायक होती है। ये सुंदर मंदिर जैसे दिखते हैं। इन्हें जल मंदिर कहा जाय तो ज्यादा ठीक होगा। मिट्टी और पत्थर से बने नौले का आधा भाग जमीन के भीतर व आधा भाग ऊपर होता है।

नौलों का निर्माण केवल प्राकृतिक सामग्री जैसे पत्थर व मिट्टी से किया जाता है। इसमें सीमेंट का उपयोग नाम मात्र को भी नहीं किया जाता। नौले तो तब से बन रहे हैं जब हम सीमेंट का नाम भी नहीं जानते थे। कुण्ड के दो या तीनों ओर ऊंची दीवार बनाकर पत्थर की स्लेटों से ढलवी छत बनाई जाती है। नौले के अंदर की दीवार पर प्रायः विष्णु भगवान की प्रतिमा बनाई जाती है।

सौ से चार सौ वर्ष पुराने नौले आज भी गांव में मौजूद हैं जिनमें आज भी पानी है परंतु जब इस नई व्यवस्था ने घरों के भीतर या घरों के नजदीक पानी ला दिया तब हमने इन पुश्तैनी नौलों को भूला दिया। सरकार ने भी इनकी ओर ध्यान नहीं दिया। कुछ जगहों पर हमारे जनप्रतिनिधियों ने कुछ ध्यान जरूर दिया लेकिन उसकी परंपरागत तकनीक को भुलाकर उसके भीतर व बाहर सीमेंट पोत दिया गया।

नौलों की पुरानी व्यवस्था की उपेक्षा की गयी। फिर भी वह इतनी मजबूत थी कि उपेक्षा की आंधी में भी वे आज सही हैं। इधर नई व्यवस्था अपने तमाम खर्चीले स्वभाव के बाद भी गांव को उसकी जरूरत के मुताबिक पानी नहीं दे पाई। ऐसे में गांव के लोगों का ध्यान दोबारा अपनी इस पुरानी व्यवस्था की तरफ जाने लगा है।

अब पुराने नौलों को ठीक करना चाहिए, उनके जलग्रहण क्षेत्र को भी विकसित करना चाहिए ताकि इन नौलों में पानी की आवक बढ़ें और वह प्रदूषित भी न हो, ऐसा लोग मानने लगे हैं।

नौला भूजल से जुड़ा ढांचा है। ये सुंदर मंदिर जैसे दिखते हैं। मिट्टी और पत्थर से बने नौले का आधा भाग जमीन के भीतर व आधा भाग ऊपर होता है। नौलों का निर्माण केवल प्राकृतिक सामग्री जैसे पत्थर व मिट्टी से किया जाता है।आज भी ये दो सौ से चार सौ वर्ष पुराने नौले ग्रामवासियों की प्यास बुझाने का काम करते हैं। जबकि अब नौलों व धारों की देखभाल ग्रामवासियों तथा सरकार द्वारा नहीं हो रही है। उनके जल-ग्रहण क्षेत्र भी संरक्षित नहीं है जिसके कारण इन नौलों के जलस्तर में गिरावट आ रही है व जल-ग्रहण क्षेत्र को पवित्र नहीं रखने के कारण पानी प्रदूषित हो रहा है।

पानी का अब तक का सबसे बड़ा इंजीनियर कश्यप ऋषि को माना जाता है। इनके कुछ सिद्धांत इस तरह थेः पानी के स्रोत को पवित्र रखा जाय; वहां मंदिर बनाया जाय; पानी के वेग में बाधा न डाली जाय; जितनी जरूरत है, उतना ही पानी प्रयोग करें तथा पानी और जंगल को अलग नहीं किया जाय।

अगर इन नियमों का पालन हम आज भी करें तो पानी की समस्या हल हो सकती है। पानी के स्तर को बढ़ाने का प्रयत्न आज अतिआवश्यक है।

बांज, उतीस, बुरांश जैसे चौड़ी पत्ती वाले वृक्षों का रोपण व संरक्षण बहुत जरूरी है। ये वृक्ष वर्षा को तो आकर्षित करते ही हैं पर साथ में भूमिगत जल को भी संचित कर निकटवर्ती भागों में स्रोत, नदियों व नालों के उद्गम के रूप में पानी उपलब्ध कराने में सहायक होते हैं।

बांज के वृक्ष में कई गुण पाये जाते हैं। इसकी जड़ें लंबी और फैली हुई होती हैं। ये जड़ें पानी के वेग को कम करती हैं जो कि मिट्टी के कटाव को रोकती और भूमि की उपजाऊ शक्ति को बनाये रखने तथा पानी को जज्ब करने में सहायक होती हैं। ऐसा बताया जाता है कि बांज का एक वृक्ष 22 गैलन पानी अपनी जड़ों में संचित रखता है। अगर नौलों के जलभरण क्षेत्र ऐसे वृक्षों से लदे हों तो स्वच्छ व पर्याप्त पानी मिलेगा।

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