नदी जल-प्रबन्धन के लिए जन अभियान

2 Feb 2015
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गण्डक नदी नेपाल से भारत में पश्चिम चम्पारण जिले के भैंसालोटन नामक स्थान में प्रवेश करती है और 18.5 किलोमीटर तक भारत और नेपाल की सीमा बनाते हुए बहती है। इसके बाद 80 किमी तक बिहार और उत्तर प्रदेश की सीमा बनाती है। उसके बाद पूरी तरह से बिहार में गोपालगंज जिले में प्रवेश करती है और सिवान होते हुए सारण जिले के सोनपुर के पास गंगा में प्रवेश करती है। इस प्रकार त्रिवेणी (नेपाल-भारत सीमा) से लेकर सोनपुर तक इसका मार्ग 277 किलोमीटर है। इसका जल-ग्रहण क्षेत्र 37,407 वर्ग किलोमीटर है।

सम्पूर्ण धरती के भौगोलिक और राजनैतिक मानचित्र में उत्तर बिहार का एक विशिष्ट स्थान इस अर्थ में है कि इस क्षेत्र में सबसे ज्यादा और भयावह नदियाँ हैं, मिट्टी का उपजाऊपन भी सर्वाधिक है, पारम्परिक व गैर पारम्परिक स्रोतों से विद्युत उत्पादन की अपार क्षमता है। जूट, धान, मिर्च, गन्ना आदि अनेक फसलों की अच्छी पैदावार हो सकती है तथा आम, लीची और केले आदि के अनेक फलदार वृक्षों की यहाँ भरमार है।

लेकिन फिर भी यह क्षेत्र दुनिया के सर्वाधिक गरीबी वाले इलाकों में से एक है। सैकड़ों गाँव ऐसे मिलेंगे जहाँ शायद ही कोई ढंग से पढ़ा लिखा-आदमी हो। गाँव में न बिजली है, न सड़कें हैं और न सिंचाई के साधन हैं। समृद्धि और समता की बात तो जाने दीजिए, सामान्य विकास के लिए आवश्यक न्यूनतम आधारभूत संरचना भी उपलब्ध नहीं है।

नतीजा यह है कि एक ओर लोग सामान्य हिंसा और प्रायोजित हिंसा के आतंक में जीने के लिए अभिशप्त हैं, दूसरी ओर स्वयं दूसरे राज्यों में दो जून की रोटी के लिए पलायन कर रहे हैं। इस प्रकार सम्पूर्ण उत्तर बिहार आर्थिक, सांस्कृतिक, मानसिक और मनोवैज्ञानिक स्तर पर सदियों से विक्षिप्त जीवन जीने की नियति के घेरे में है।

इस स्थिति के लिए कई कारक जिम्मेदार हैं, लेकिन एक कारक सबसे ज्यादा जिम्मेदार है और वह है- उत्तर बिहार की नदियों पर चल रही सरकारी बाढ़ नियन्त्रण परियोजनाएँ। अगर बाढ़ नियन्त्रण शब्द के बदले जल-प्रबन्धन शब्द का उपयोग इन नदी परियोजनाओं में हुआ होता तो बहुत सम्भव था कि इन परियोजनाओं के क्रियान्वयन के पीछे भूमिका बदलती, मूल्य और मनोवृत्तियाँ बदलतीं और विकास की अवधारणा भी बदलती। लेकिन ऐसा हुआ नहीं।

विशेषज्ञों, इंजीनियरों एवं वैज्ञानिकों ने मान लिया और अभी भी मान रखा है कि उन्होंने नदियों की प्रकृति पर विजय प्राप्त कर ली है और इसके लिए आवश्यक तकनीक उन्होंने ईजाद कर ली है। यही कारण है कि सन् 1985 में कोसी के टूटे तटबन्ध की मरम्मत करते समय वहाँ के इंजीनियरों ने साइन बोर्ड पर लिखा था- ‘मानव की प्रकृति पर विजय’, कोसी क्लोजर बाँध - अभियन्ताओं के लिए चुनौती - आपका स्वागत है’, ‘तुम मुझे योजनाएँ दो - मैं तुम्हें उपलब्धियाँ दूंगा।’ इस उपलब्धि के ठीक दो वर्ष बाद 1987 में बिहार की तमाम् नदियों ने चुनौती दी और जब तटबन्धों के टूटने से इतनी जबरदस्त बाढ़ आई कि केवल उस वर्ष में 1,21,200 लाख रुपए की क्षति हुई, जबकि पिछले तैंतीस वर्षों में पूरे भारत में 71,509 लाख रुपए की क्षति हुई।

उत्तर बिहार की स्थिति को देखते हुए जरूरत इस बात की आज आ पड़ी है कि विभिन्न परियोजनाओं की जमीनी हकीक़त (Ground Realities) और सरकारी आँकड़ों में किए गए दावों की वस्तुपरक समीक्षा करें, परियोजनाओं की उपलब्धियों को उसकी सम्पूर्णता में देखें, तटबन्धों की उपयोगिता और जल-निकासी आदि के बारे में उचित नीतियों को निर्धारित करें तथा सामान्य जनता को विश्वास में लें।

गण्डक परियोजना : एक विहंगम दृष्टि


गण्डक नदी नेपाल से भारत में पश्चिम चम्पारण जिले के भैंसालोटन नामक स्थान में प्रवेश करती है और 18.5 किलोमीटर तक भारत और नेपाल की सीमा बनाते हुए बहती है। इसके बाद 80 किमी तक बिहार और उत्तर प्रदेश की सीमा बनाती है। उसके बाद पूरी तरह से बिहार में गोपालगंज जिले में प्रवेश करती है और सिवान होते हुए सारण जिले के सोनपुर के पास गंगा में प्रवेश करती है। इस प्रकार त्रिवेणी (नेपाल-भारत सीमा) से लेकर सोनपुर तक इसका मार्ग 277 किलोमीटर है। इसका जल-ग्रहण क्षेत्र 37,407 वर्ग किलोमीटर है।

यह एक दिलचस्प तथ्य है कि गण्डक परियोजना के क्रियान्वयन के लिए बिहार और उत्तर प्रदेश के बीच एक समझौता 7 मार्च, 1956 को हुआ। फिर एक दूसरा समझौता भारत और नेपाल के बीच 4 नवम्बर, 1959 को हुआ। फिर 1947 से 1964 तक अर्थात् 17 वर्ष तक योजना की तैयारी, सर्वेक्षण, रूपांकन आदि में समय लगा और तब कहीं जाकर 4 मई, 1964 को नेपाल के तत्कालीन महाराजाधिराज श्री महेन्द्र ने इस योजना का उद्घाटन, वाल्मीकि नगर के पास गण्डक नदी पर बैराज का शिलान्यास करके किया।

बैराज और तटबन्ध निर्माण का काम तो पूरा हुआ है, जबकि नहरों का निर्माण कार्य अभी भी काफी बाकी है। लेकिन जल-जमाव का विशाल क्षेत्र तटबन्धों के बाहर बन गया है। जिन नहरों का निर्माण हुआ है, उनकी वितरण प्रणाली या तो बनी नहीं या कहीं बनी तो भी ठीक से बन नहीं पाई। जो वितारण प्रणालियाँ बनी हैं, उनका रख-रखाव गाँव में पानी-पंचायतों को करना था जबकि आज बिहार में पानी-पंचायत का नामोनिशान नहीं है।

परिणामस्वरूप बहुत-सी नालियों में गाद जमा हो जाती है, घास उग आती है या फिर वे पूरी तरह विनष्ट हो जाती है। पानी या तो अनावश्यक रूप से खेतों में फैलकर किसानों को बर्बाद करता है या रिसने से धरती के अन्दर चला जाता है।

ताजा स्थिति यह है कि मार्च, 1985 तक इस परियोजना पर 365.59 करोड़ रुपए खर्च हो चुके हैं जबकि मूल प्राक्कलित राशि 40.47 करोड़ रुपए की थी।

यहाँ तक याद दिलाना सामयिक होगा कि 1985-85 में सृजन सिंचन क्षमता (Created Irrigation Pontential) का जो उपयोग हुआ था, वह लक्ष्य का मात्र 52.47 प्रतिशत था तथा नहर पर बनी सरंचनाएँ आवश्यक संरचनाओं का मात्र 56.2 प्रतिशत ही तब तक थीं। इन योजनाओं की लागत 112053 करोड़ रुपए सम्भावित थी और इसे गण्डक फेज: 2 के रूप में हाथ में लिया जाना था। जल-निकासी के लिए 143.38 करोड़ की अनुमानित लागत से एक अलग योजना तैयार की गई है जिसका अनुमोदन अभी बाकी है।

उपर्युक्त आँकड़ों को देखने से तत्काल एक बात यह बनती है कि जो धन लगाया गया और जो जमीन सिंचित हुई और जो उर्वरता उस जमीन की बनी, उसका अनुपात क्या है? एक अद्यतन सरकारी रपट के अनुसार पूर्वी चम्पारण के क्षेत्र में खरीफ के समय 4,02,175 एकड़ जमीन जलमग्न रहा करती है तथा 1,31,755 एकड़ जमीन रबी के समय जलमग्न क्षेत्र रहा करती है जबकि खरीफ का लाभान्वित क्षेत्र 2,68,175 एकड़ तथा रबी का लाभान्वित क्षेत्र 1,28,843 एकड़ है। एक सरकारी रपट ‘Factors Affecting full Utilisation of Gandak Canal Potential’ में सन् 1978 में स्वीकार किया गया कि:

1. यह एक सर्वविदित तथ्य है कि नदियों के जलग्रहण क्षेत्र की ग्रहण क्षमता घटते जाने के कारण गंगा के समतल मैदान की लगभग सभी नदियों में जल प्रवाह की गति बढ़ती जा रही है।
2. नेपाल के ऊपरी जल ग्रहण क्षेत्रों में जल को रोके बिना भारत में तटबन्धों का बनाना, नहरों का बनाना एक अन्तरिम राहत है, जिसे हाथ में लिया ही जाना चाहिए, क्योंकि कोई दूसरा उपाय नहीं है।
3. केन्द्रीय जल आयोग के भूतपूर्व अध्यक्ष श्री रामाशीष घोष की अध्यक्षता में बनी समिति की सिफारिश की थी कि गण्डक परियोजना के अन्तर्गत आगे निर्माण का काम यानी फेज-2 को बन्द कर देना चाहिए, जलमग्न क्षेत्र में पानी निकासी के लिए जल-निस्सरण योजनाओं के बदले उसी पानी में मछली तथा जल से सम्बन्धित अन्य फसलों (Aquatic Crops) के उत्पादन पर ध्यान देना चाहिए। घोष समिति की यह अनुशंसा विवादास्पद है, क्योंकि फसल उत्पादन पद्धति में आधुनिक परिवर्तन आने के कारण जल-उपयोग की क्षमता बढ़ सकती है। जल-जमाव से मलेरिया आदि बीमारियों के होने की सम्भावना है, इसलिए नहरों के निर्माण का काम जारी रखा जाए।
4. चौर (Wetlands) की उपस्थिति में वर्षा ज्यादा हुई तो सिंचाई की हमारी उपलब्धियों को वह प्रभावित कर सकता है।
5. जिन क्षेत्रों में सिंचाई की क्षमता सृजित कर ली गई है, वहाँ के खेतों तक जल-प्रणालियों को नहीं बनाने के कारण फायदों को स्थायी बना कर नहीं रखा जा सकेगा।
6. त्रिवेणी नहर में किया गया अधूरा कार्य वरदान के बदले अभिशाप है और इसलिए फेज-2 का क्रियान्वयन जब तक नहीं हो जाता, लोग कष्ट में ही रहेंगे।
7. नहरों में गाद जमा होते जाने से इनकी क्षमता घटती जा रही है।
8. अगर नहरों के रख-रखाव पर खर्च नहीं किया गया तो हजारों करोड़ रुपए जो खर्च किए गए हैं, व्यर्थ हो जाएँगे।
9. ज्यादातर बाँध अधूरे हैं, जो खतरे को और बढ़ाते हैं। रिपोर्ट में लिखा गया है- “But the Situation is of helplessness due to in adeaquacy of fund, while we wish to start work on all embankments, hardly an advantageous piece is constructed anywhere and this policy of financing little but everywhere has resulted in collossal wasteg”
10. जो सिंचाई क्षमता सृजित की गई, उसका भी अर्थाभाव में उपयोग नहीं हो सका और यही कारण है कि पिछले पाँच वर्षों में हमारी उपलब्धियाँ काफी घट गई हैं।

उपरोक्त स्वीकारोक्तियों का विश्लेषण करने पर सहज ही यह पता चलता है कि गण्डक परियोजना का सन् 1985 के बाद फेज -2 का परम्परागत कार्य बन्द कर दिए जाने के कारण अभियन्ताओं में काफी बेचैनी थी। आज गण्डक परियोजना की मूल समस्या जल जमाव, जल-निकासी और जल-ग्रहण क्षेत्र में वृक्षारोपण की है।

बागमती परियोजना : एक विहंगम दृष्टि


बागमती नदी नेपाल से भारत से सीतामढ़ी जिले के आदम बाँध के पास प्रवेश करती है तथा बैरगिनियाँ और मेजरगंज के प्रखण्डों को सीमा बनाते हुए बहती है। फिर यह दरभंगा-नरकटियागंज रेल लाइन को ढेंग स्टेशन से 2.5 किलोमीटर पश्चिम में पार करती है, फिर रामनगर, देवापुर, देकुली, रून्नीसैदपुर, कटरा, बेनीबाद होते हुए मुजफ्फरपुर-दरभंगा सड़क को पार करती है और हायाघाट पहुँचती है। वहाँ अधवारा-समूह की नदियों का पानी उसमें मिलता है, जहाँ से आगे वह करेह कहलाती है और मानसी-सहरसा रेल लाइन को बदलाघाट में पार करती है और उससे आगे थोड़ी दूर चल कर कोसी में मिल जाती है।

बागमती का जल-ग्रहण क्षेत्र नेपाल के नूनथर में 2,729 वर्ग किलोमीटर, रामनगर बैराज-स्थल पर 3,745 वर्ग किलोमीटर तथा कोसी के संगम स्थल पर 13,271 वर्ग किलोमीटर है। इस प्रकार सहायक नदियों को शामिल करके बागमती घाटी का नेपाल का जल-ग्रहण क्षेत्र 7,033 वर्ग किलोमीटर तथा शेष 6,245 वर्ग किलोमीटर भारत में पड़ता है।

बागमती की प्रकृति और स्थिति


बागमती के तल का ढाल नेपाल में नूनथर से भारत में ढेंग पुल तक औसतन 0.87 मीटर प्रति किलोमीटर है जो कि रामनगर और बदलाघाट के बीच घटकर 0.17 प्रति किलोमीटर से 0.07 प्रति किलोमीटर है। स्थल आकृति में इस आकस्मिक परिवर्तन के कारण बागमती की धारा स्थिर नहीं रहती और समय-समय पर इसकी प्रवाह-धारा में अत्यधिक गाद जमा होते रहने के कारण परिवर्तन हुआ करता है। इसके अतिरिक्त बागमती बेसिन में छोटी-मोटी अनेक नदियों का जाल बिछा हुआ है।

उपलब्ध रिकॉर्डों के आधार पर सन् 1785, 87, 93, 1806, 67, 71, 83, 93,96, 98, 1902, 06,10, 16, 17, 18, 19, 28, 44, 52, तथा 53 में इस क्षेत्र में आई बाढ़ों से जहाँ तबाही होती रही है, वहीं यह क्षेत्र सूखाग्रस्त भी रहा है। इसी इलाके में 1769, 70, 86, 87, 88, 91, 92, 1880, 66, 76, 89, 92, 96, 97, 1909, 17, 20, 24, 32, 48, 50, 51, 52 में सूखे की स्थिति बनी रही। (स्रोतः बिहार डिस्ट्रिक्ट गजेटियर)। इस इलाके में हथिया तथा चित्रा नक्षत्र में पानी न बरसने से बाढ़ और सूखे की परिस्थिति एक साथ बन जाती है- एक इलाके में सूखा दूसरे में बाढ़।

तटबन्ध निर्माण


इस नदी पर तटबन्ध निर्माण का विचित्र इतिहास है। 1953 में आई भयंकर बाढ़ के बाद बिहार सिंचाई विभाग के जलपथ विभाग ने एक विस्तृत अध्ययन इस नदी पर करवाया, जिसकी सिफारिश थी कि:

1. नेपाल के नूनथर के पास एक बहुउद्देशीय बाँध बनाया जाए।
2. बागमती और लाल बकेया नदी के संगम के नीचे एक बराज बनाया जाए।
3. वांछित स्लुइस गेटों के साथ नदी पर उन क्षेत्रों में तटबन्ध बनाया जाए जहाँ बाढ़ का आतंक ज्यादा है।
4. बागमती के पानी को ढेंग के पास वीयर बनाकर विभिन्न धाराओं में सिंचाई के लिए प्रवाहित कर दिया जाए।
5. जल निस्सरण को प्रभावी करके बहुत-सी उमड़ी धाराओं पर नियन्त्रण किया जाए।

लेकिन इन सिफारिशों की हकीक़त यह है कि नूनथर में डैम नही बन सका, बराज भी नहीं बन सका, यद्यपि आज भी तीस फाटकों वाला बैराज अब रामनगर में प्रस्तावित है। इसका शिलान्यास 24 मार्च, 1984 को बिहार के तत्कालीन मुख्यमन्त्री श्री चन्द्रशेखर सिंह ने किया था। बाँध भी नदी की पूरी लम्बाई पर नहीं बन सका है।

बाढ़ नियन्त्रण के उद्देश्य से बागमती के बाएँ तट पर सिरसिया से फुहिया तक (73 किलोमीटर) तथा दाहिने तट पर सुरमाहट से हायाघाट के बीच तटबन्ध (79 किलोमीटर) अभी तक नहीं बना है। नदी में जल प्रवाह की अद्यतन स्थिति ऐसी हो गई है कि रून्नीसैदपुर से हायाघाट तक तटबन्ध बन जाने पर हायाघाट के नीचे तटबन्ध बिलकुल नाकाम साबित होंगे।

फिलहाल तटबन्ध मुक्त होने के कारण रून्नीसैदपुर से हायाघाट तक के 100 से अधिक गाँव डूबते हैं। उनको डूबने से बचाने के लिए तटबन्ध बनेंगे तो हायाघाट से बदलाघाट तक लगभग चार जिलों के 400 गाँव डूबेंगे। अभियन्ता जानते हैं कि हायाघाट से नीचे के तटबन्ध सिर्फ 50,000 क्यूसेक प्रवाह के तात्कालिक लाभ को ध्यान में रखकर बनाए गए।

अगर रून्नीसैदपुर-हायाघाट मुक्त क्षेत्र में फैलने वाला पानी भी सीधे नदी में प्रवाहित होगा तो कुल 1,31,000 क्यूसेक जल प्रवाह को सम्भालने वाले तटबन्ध बनाने होंगे। उसके लिए एक विकल्प भी ढूँढा गया है। इसके तहत् देवापुर के पास बागतमी का 50,000 क्यूसेक प्रवाह बेलवाधार से निकालने और कलंजरघाट के पास पुनः बागमती की धारा से जोड़ने का प्रस्ताव है। लेकिन इस उपाय से बागमती के दाहिने और बेलवाधार के बाएँ किनारों के बीच की लगभग ढाई हजार एकड़ जमीन जलमग्न हो जाएगी। कुछ और भी तरीके सुझाए जा रहे हैं जैसे:

1. तटबन्धों के बीच की दूरी बढ़ाई जाए, जो कि वर्तमान परिस्थिति में अव्यावहारिक और खर्चीला होगा, क्योंकि तटबन्ध पहले से ही बने हुए हैं और इनके बीच की दूरी बढ़ाने पर सुरक्षित क्षेत्रों में कुछ इलाके को तटबन्धों के बीच लाना होगा।
2. तटबन्धों की ऊँचाई बढ़ाकर उन्हें और मजबूत किया जाए। तटबन्धों की दूरी स्थिर रखकर उनकी ऊँचाई बढ़ाने से उच्चतम बाढ़ सतह स्पष्टतः ऊपर चली जाएगी, जिसके कारण:
क. नदी की सहायक धाराओं में पानी का स्तर बढ़ेगा, जिनमें से अनेक में तटबन्ध नहीं हैं।
ख. बाढ़ विरोधी स्लूइस गेट पहले से अधिक अक्षम सिद्ध होंगे, जिससे मैदानी क्षेत्र में नदी द्वारा जल निकासी में बाधा पैदा होगी, फलतः नए क्षेत्रों में बाढ़ का पानी फैलेगा।
ग. तटबन्धों पर पानी का दबाव बढ़ेगा, जिससे उनका रख-रखाव पहले से ज्यादा कष्टसाध्य और खर्चीला होगा। यदि दुर्योग से तटबन्ध कभी टूट जाए तो उनके द्वारा किया गया नुकसान प्रदत्त सुरक्षा से कई गुणा अधिक होगा।
3. नदी को और अधिक गहरा किया जाए। यह भी खर्च और खोदी गई मिट्टी के परिणाम को देखते हुए व्यावहारिक नहीं है।
4. इन सभी समाधानों के संयोग से कुछ किया जाए।

व्यावहारिक स्तर पर दूसरे समाधान, यानी तटबन्धों को ऊँचा तथा मजबूत करने का आश्रय लिया गया है, जिसकी सीमाएँ हमें ज्ञात हैं। हायाघाट के नीचे तटबन्ध ऊँचे कर दिए जाने के कारण उच्चतम बाढ़ स्तर लगभग ढाई फुट और ऊँचा होगा और यह पानी पीछे की ओर भी जल सतह को बढ़ाएगा।

हायाघाट रेल पुल की भी डिजाइन इस अधिक स्तर के अनुरूप बदलना होगा तथा जहाँ-जहाँ सड़कें बागमती को पार करती हैं वहाँ अतिरिक्त जल-प्रवाह के लिए व्यवस्था करनी पड़ेगी।

जल जमाव


दरभंगा में एकमी घाट से तिरनिया के बीच में घनी बस्ती है। अहिल्या, मुहम्मदपुर, तिनवारा, रामपट्टी, थलवाड़ा, हिछौल, सीमामुशहरी, शोभे पट्टी, नवटोल, अम्मा बाहुपट्टी, रुचौली और तिरनिया गाँव तो पानी में डूबे रहते हैं। यहाँ खरीफ की कोई फसल नहीं होती पर रबी हो जाया करती है। बरसात शुरू होने पर इन क्षेत्रों में बाढ़ का आतंक शुरू हो जाता है और अक्सर लोग ऊँची जगहों पर शरण लेने के लिए चले जाया करते हैं।

सीतामढ़ी के बैरगिनियाँ प्रखण्ड की जनता वर्ष में छह महीने अनिश्चितता और आतंक की जिन्दगी जीती है। 6 से 10 फुट गहरी झील बनती है। यह जानना काफी दिलचस्प होगा कि अब लगभग हर वर्ष कभी अधिकारियों को सूचना देकर, तो कभी जिलाधिकारी के आदेश से तो कभी बिना किसी को सूचना दिए लोग बाँध काट देते हैं। इसी प्रकार की कमोबेश स्थिति कमला सिंचाई सह बाढ़ नियन्त्रण परियोजना तथा अधवारा समूह की नदियों के साथ है।

अगर रून्नीसैदपुर-हायाघाट मुक्त क्षेत्र में फैलने वाला पानी भी सीधे नदी में प्रवाहित होगा तो कुल 1,31,000 क्यूसेक जल प्रवाह को सम्भालने वाले तटबन्ध बनाने होंगे। उसके लिए एक विकल्प भी ढूँढा गया है। इसके तहत् देवापुर के पास बागतमी का 50,000 क्यूसेक प्रवाह बेलवाधार से निकालने और कलंजरघाट के पास पुनः बागमती की धारा से जोड़ने का प्रस्ताव है। लेकिन इस उपाय से बागमती के दाहिने और बेलवाधार के बाएँ किनारों के बीच की लगभग ढाई हजार एकड़ जमीन जलमग्न हो जाएगी।

उपर्युक्त दो परियोजनाओं के संक्षिप्त विवरण और समीक्षा से स्पष्ट प्रतीत होता है कि ये परियोजनाएँ नदियों को केन्द्र में रखकर समग्र विकास के सुचिन्तित विचार का परिणाम तो हरगिज नहीं थीं। इन परियोजनाओं को जन-आकांक्षा की उतावली, वोट, देश-विदेश की राजनीति को ध्यान में रखकर और लोगों को बड़े-बड़े वायदों के सब्जबाग दिखाकर आधे-अधूरे ढंग से भयंकर भ्रष्ट अभियन्ताओं, ठेकेदारों और राजनेताओं के स्वार्थ के गठबन्धन के दबाव में लागू किया गया।

तटबन्धों के सन्दर्भ में वर्तमान परम्परागत वैज्ञानिक निष्कर्ष यह है कि बाढ़ नियन्त्रण के लिए पहले डैम बनाया जाए, फिर बराज बने, तब नदियों के किनारे तटबन्ध बनें, उनसे नहरों और जल-वितरण प्रणालियों के माध्यम से जल खेतों तक पहुँचाया जाए और जल-ग्रहण क्षेत्र में भू-क्षरण को रोकने एवं अनेक दृष्टियों से बड़े पैमाने पर वनीकरण हो। इस कसौटी पर बिहार की बाढ़ नियन्त्रण परियोजनाएँ कहीं भी खरी नहीं उतरतीं।

डैम तो नहीं बना, कई जगहों पर बराज भी नहीं बना, और जहाँ बना भी तो कुछ ही दिनों के बाद फाटकों के जाम होते जाने के कारण आधे-अधूरे ढंग से काम करने लगा, तटबन्ध भी पूरा नहीं बना, अनेक नदियों पर तटबन्ध आज तक नहीं बना, नहरें भी पर्याप्त मात्रा में नहीं बनीं और जो भी बनीं वह सिल्ट तथा रख-रखाव के अभाव में अपनी क्षमता खोती गईं।

कोसी पश्चिमी नहर परियोजना के बारे में तो सरकारी अभियन्ता भी अनौपचारिक तौर पर स्वीकार करते हैं कि इस नहर से रबी तथा गर्मा की सिंचाई सम्भव नहीं हो सकेगी और इसका उपयोग एक औसत वर्षा वाले मौसम में केवल खरीफ के मौसम में हथिया नक्षत्र की बारिश न होने के समय ही हो सकेगा। इस प्रकार कम-से-कम यह परियोजना तो एक तरह से सम्पूर्ण छलावा ही दिखती है।

1995 में बाढ़ की स्थिति


हम सोचने के लिए केवल पिछले वर्ष 1995 की हालत देखें। पूर्वी व पश्चिमी चम्पारण जिले के 4 प्रखण्ड इस बार बुरी तरह जलमग्न हुए। पश्चिम चम्पारण के दामोदरपुर-बथना स्थल पर तटबन्ध के ध्वस्त हिस्से की लम्बाई 1500 फीट से बढ़कर 3375 फीट हो गई। नौतन मंगलपुर पथ के भगमलही पुल का निर्माण-कार्य बाढ़ आने के पहले हो रहा था। पानी का एक धक्का भी वह बर्दाश्त नहीं कर सका और पुल ढह गया।

मधुबनी जिले के झंझारपुर के पास कमला-बलान तटबन्ध जगह टूट गया। मेरी प्रारम्भिक तहकीकात के अनुसार दो जगह बाँध पानी के दबाव से टूटा और चार जगह तटबन्ध के बाहर के लोगों ने तटबन्ध तोड़ दिया, क्योंकि उन्होंने अनुभव से यह देख लिया कि दो जगह तटबन्ध टूट जाने के कारण पानी तो उनके गाँव में आएगा ही आएगा, इसीलिये नदी की उपजाऊ मिट्टी खेतों में ले आने के लिए क्यों नहीं गाँव के आस-पास भी तटबन्ध तोड़ दिया जाय? और यह सोचकर उन्होंने तटबन्ध तोड़ डाले। निर्मला गाँव के खेतों में जाकर मैंने देखा है कि काफी उपजाऊ मिट्टी दूर-दूर तक फैल गई है। इसमें शक नहीं कि कुछ जमीन बालूमय भी हुई है, लेकिन वह भी अगले दो-तीन वर्षों में उपजाऊ हो जाएगी।

सीतामढ़ी जिले के 9 प्रखण्डों में इस वर्ष बाढ़ से एक लाख अड़तालीस हजार परिवार प्रभावित हुए, सबसे ज्यादा परिवार प्रखण्ड के 83 गाँवों के 38,000 परिवार प्रभावित हुए।

बांका जिले का तो अजीब हाल हुआ। 25 सितम्बर से वहाँ काफी वर्षा हो रही थी, लेकिन डी एम समेत किसी को यह आभास तक नहीं था कि यहाँ बाढ़ भी आ सकती है। अखबारी सूत्रों के अनुसार जब महिषाडीह, जीतारपुर तथा योगेन्द्र सिंह की मिल के पास चान्दन नदी का पश्चिमी तटबन्ध कई जगहों पर टूट रहा था और पानी शहर में फैल रहा था, तो सरकारी अधिकारी टूट-स्थल से काफी दूर अलीगंज मुहल्ले में बाँध के निकट चाय पी रहे थे।

कुछ ही देर में स्थिति इतनी बिगड़ गई कि डी एम तथा एस पी ने तो अपना आवास छोड़कर देवघर में पनाह ले ली। बांका शहर, बांका प्रखण्ड, अमरपुर, रजौन, धोरैया, बोंसी, कटोरिया, शम्भुगंज, फूलीडूमर, बारहाट, बेलहर प्रखण्डों के सैकड़ों गाँव में 5 से 10 फीट तक पानी आ गया।

कहने का अर्थ यह है कि अब तक जिन क्षेत्रों में बाढ़ नहीं आने के बारे में लोग पूरी तरह आशान्वित थे, वे क्षेत्र भी अब बाढ़ाक्रान्त होने लगे हैं। थोड़ी भी जमकर वर्षा तीन-चार दिन हो जाए तो ये तटबन्ध उसका दबाव बर्दाश्त नहीं कर पाते, जबकि अनुभव यह बताता है कि आज से तीस-पैंतीस वर्ष पहले मूूसलाधार वर्षा पाँच-सात दिनों के लिए अक्सर होती थी, इस तरह की वर्षा अब शायद ही कभी होती है।

मुंगेर जिले के बदुआ डैम में पानी नौ नवम्बर की रात लबालब भर गया। भारी वर्षा और चक्रवात भी चला। हवेली खड़गपुर, तारापुर, संग्रामपुर, धरहरा, कल्याणपुर, सुन्दरपुर, बाहाचैकी, हेमजापुर, शिवकुण्ड आदि क्षेत्र के बीच हजार एकड़ में लगी फसल डूब गई। गंगा पम्प नहर का बाढ़ निरोधक गेट न खोलने से भारी जल जमाव के कारण लाखों की खड़ी फसल नष्ट हो गई।

राजधानी पटना से कुछ ही किलोमीटर की दूरी पर स्थित दानापुर और दीघा के दियारा क्षेत्र के अनेक गाँव में 1975 से ही कटाव होने लगा था। इस बार स्थिति भयावह हो गई।

12,000 की आबादी वाली नकटा पंचायत की अधिकांश आबादी दीघा के रेलवे की जमीन पर आ गई। 16,000 की आबादी वाली पानापुर पंचायत भी खतरे के दायरे में थी। इस क्षेत्र के लगभग 14 गाँव 1980-81 में गंगा में पूरी तरह डूब गए थे।

दरभंगा जिले के कुशेश्वर स्थान में बाढ़ का पानी घर-घर में घुसा। लोगों के घरों का अनाज बहा, फसलें नष्ट हुईं। मछिसौत, सुभरैईन, तिलकेश्वर, झझड़ा, पताही, दिनमो, सलमगढ़, केवटगामा, सिमरटोला, गोलमा, उजुआ, इटहर, हिरणी, विसछरिया, भिण्डुआ, नदियाली, भदहर आदि पंचायतों की स्थिति भयावह बन गई।

सहरसा में सच है कि कोसी नदी का तटबन्ध नहीं टूटा, लेकिन तब भी बाढ़ की विभीषिका कम नहीं थी। बाढ़ग्रस्त व जलमग्न क्षेत्र में हजारों एकड़ खरीफ फसल नष्ट हुई। अतिवृष्टि, बाढ़ और जल-जमाव के कारण सैकड़ों घर कटनियाग्रस्त हुए, हजारों लोगों ने बेघर होकर तेज धूप और वर्षा में खुले आसमान के नीचे ऊँची जगहों पर शरण ली।

नवहट्टा, महिषी, सिमरी बख्तियारपुर और सलखुआ प्रखण्डों की 33 पंचायतों के कोई एक लाख लोग बाढ़ से ग्रस्त हुए। पूर्वी और पश्चिमी कोसी तटबन्ध के भीतर केदली, रामपुर (धोबियाही टोला), पहाड़पुर-छतवन, बेलवारा (शर्मा टोला), चानन-सिसवा, टेंगराहा, नवटोलिया, अलानी, कबीरा धाप, कठघड़ा, भेलवा, धनपुरा, घोघसम, आगुर, कठरूममर, तेलवा, आरापट्टी, ठिराजा, वीरगाँव, धनौज-धर्मपुर, मनुआर गण्डौल, सभानी, घोघेपुर, झाड़ा आदि गाँवों और पंचायतों की स्थिति बहुत बदतर हो गई।

उस पर तुर्रा यह कि तत्कालीन जिलाधिकारी श्री राधेश्याम पोद्दार ने जिले को बाढ़ग्रस्त या बाढ़ प्रभावित मानने से ही इन्कार कर दिया। जबकि दूसरी ओर उन्होंने स्वयं स्वीकार किया कि सिमरी बख्तियारपुर की बेलवारा पंचायत में शर्मा टोली के 93 परिवार, सलखुआ प्रखण्ड की भेजवा पंचायत के गौरी-पिपराही गाँव के 55 परिवारों तथा अलानी पंचायत के 38 परिवारों (कुल 186 परिवार) के घर नदी में कट जाने से इन परिवारों के लोग विस्थापित हो गए हैं।

मधुबनी जिले के झंझारपुर के पास कमला-बलान तटबन्ध जगह टूट गया। मेरी प्रारम्भिक तहकीकात के अनुसार दो जगह बाँध पानी के दबाव से टूटा और चार जगह तटबन्ध के बाहर के लोगों ने तटबन्ध तोड़ दिया, क्योंकि उन्होंने अनुभव से यह देख लिया कि दो जगह तटबन्ध टूट जाने के कारण पानी तो उनके गाँव में आएगा ही आएगा, इसीलिये नदी की उपजाऊ मिट्टी खेतों में ले आने के लिए क्यों नहीं गाँव के आस-पास भी तटबन्ध तोड़ दिया जाय? और यह सोचकर उन्होंने तटबन्ध तोड़ डाले। निर्मला गाँव के खेतों में जाकर मैंने देखा है कि काफी उपजाऊ मिट्टी दूर-दूर तक फैल गई है।

इस सवाल पर विचार किया जाना चाहिए कि क्या जब तक बाँध पूरी तरह टूट न जाए, तब तक लोग बाढ़ पीड़ित नहीं माने जाएँगे? बाढ़ पीड़ित/बाढ़ ग्रस्त/बाढ़ प्रभावित/बाढ़ प्रवण आदि शब्दों की स्वीकारोक्ति के लिए क्या सरकार ने अब तक कोई मानदण्ड बनाया है? क्या 1860 में गुलाम भारत में बने रिलीफ कोड पर इतनी भीषण परिस्थिति आ जाने के बावजूद 135 वर्ष बाद भी कोई अद्यतन व समग्र पुनर्चिन्तन या मूल्याँकन हुआ है? अगर नहीं तो क्यों नहीं हुआ?

जनता को यह जानने का भी अधिकार है कि सरकार किन विवशताओं से घिरी हुई है? आखिर कब तक जनता इन सब मामलों में सूचनाओं की पहुँच और उसकी सहज उपलब्धता से वंचित रखी जाएगी? क्या यह अच्छा, आवश्यक और उचित नहीं होगा कि सरकार ऐसी हर प्राकृतिक या मानव निर्मित विपदा की समाप्ति के बाद एक पूरी व्यापक रपट जनता की जानकारी, समझदारी व मन्तव्य-निर्माण की दृष्टि से सार्वजनिक करें, जिसमें व्यापक सूचनाओं के साथ उन सीमाओं (Constraints) का उल्लेख हो, जिसका सामना सरकार को करना पड़ता है और जिसे वह अकेले ही झेलती है।

1995 में बाढ़-स्थिति पर बिहार सरकार की रपट


स्वयं बिहार सरकार के राहत एवं पुनर्वास विभाग के सूत्रों ने ‘सन् 95 में सितम्बर के प्रथम सप्ताह में स्वीकार किया कि बाढ़ से बिहार के 16 जिले के 91 प्रखण्डों के 2472 गाँव प्रभावित हुए हैं तथा 972.71 लाख रुपए के अनुमानित मूल्य की फसल की क्षति हुई है तथा बाढ़ प्रभावित जिलों में 23 करोड़ रुपए राहत के लिए मुहैया कराए गए हैं। नवम्बर 95 के तीसरे सप्ताह में केन्द्रीय अध्ययन दल का दौरा बिहार में हुआ।

उस दल के विचार के लिए जो नवीनतम माँगपत्र सरकार ने तैयार किया, उसके अनुसार बाढ़ से हुई बर्बादी के लिए 14 अरब रुपए की माँग की गई। उसमें दिए आँकड़े के अनुसार लगभग 1 अरब 95 करोड़ रुपए की फसलें बर्बाद हुईं। 528 व्यक्तियों की मौत हुई। 1 अरब 3 करोड़ रुपए से अधिक की सिंचाई एवं बाढ़ नियन्त्रण के साधनों की बर्बादी हुई, 9500 से अधिक विद्यालय, भवनों तथा शिक्षा विभाग की लगभग 85 करोड़ रुपए की सम्पत्ति नष्ट हुई।

इसी प्रकार 1 अरब 60 करोड़ रुपए के राष्ट्रीय पथों, राजकीय पथों, ग्रामीण सड़कों, पुलों तथा पुलियों की बर्बादी हुई। 3 लाख 30 हजार से अधिक मकान नष्ट हुए, जिसके निर्माण में लगभग 74 करोड़ रुपए खर्च होंगे।

राज्य सरकार ने बाढ़ नियन्त्रण हेतु बिहार के 3465 किलोमीटर लम्बे तटबन्धों की मरम्मत एवं उच्चीकरण के लिए कुल 500 करोड़ रुपए की योजना का प्रारूप तैयार किया है। बिहार सरकार के सिंचाई मन्त्री ने उस प्रारूप पर योजना आयोग के तत्कालीन सलाहकार श्री बी एन नवलवाला से वार्ता करते हुए यह प्रस्ताव किया कि ब्रह्मपुत्र के तटबन्धों के लिए बने पैटर्न पर बिहार के तटबन्धों की मजबूती एवं उच्चीकरण की जिम्मेदारी केन्द्र सरकार ले ले।

1996 में बाढ़ की स्थिति


कटिहार जिले के मनिहारी अनुमण्डल के पास महानन्दा का नया तीसरा बाँध लगभग तीन सौ फुट की लम्बाई में टूट जाने से अमदाबाद प्रखण्ड के अधिकांश भाग जलमग्न हैं। भागलपुर जिले के पीरपैंती, सन्हौला, कहलगाँव और सबौर प्रखण्डों के करीब तीन सौ गाँव गंगा की बाढ़ की चपेट में आ गए हैं।

बेगूसराय जिले के जिलाधिकारी विमलकीर्ति सिंह ने बताया कि बाढ़ से बछवारा प्रखण्ड के चमथा और रूपसपुर बाजार में दो लोगों की मृत्यु हुई और तेघरा प्रखण्ड के मधरापुर पुवारी टोला में एक व्यक्ति की मृत्यु हुई है। इस जिले के छह प्रखण्डों की 32 पंचायतें बाढ़ प्रभावित हैं। भागलपुर जिले की केवल 9 पंचायत के 40,000 लोग बाढ़ पीड़ित हैं, नाथनगर प्रखण्ड के 50 लाख रुपए की फसल बर्बाद हुई है और सबौर प्रखण्ड की 10,000 एकड़ जमीन बाढ़ में डूबी है।

सहरसा जिले में कोसी नदी की बाढ़ से चार लाख से भी अधिक लोग प्रभावित हुए हैं, करीब तीन दर्जन लोगों की जानें गईं हैं, दस हजार हेक्टेयर से अधिक भूमि में लगी लाखों रुपए मूल्य की फसलें बर्बाद हुई हैं। सीतामढ़ी जिले के रून्नीसैदपुर थाना, प्राथमिकी स्वास्थ्य केन्द्र, पशु चिकित्सालय, बाजार मेला क्षेत्र सहित अन्य कई कार्यालय-अहातों में जलनिकासी न होने के कारण झील का दृश्य उपस्थित हो गया है। समस्तीपुर जिले के शाहपुर टहोरी की 22 पंचायतें बाढ़ की चपेट में हैं।

गोपालगंज जिले के खवाजेपुर, मंझरिया, जोगरी टोला, कटघरवाँ आदि पंचायत के बाढ़ पीड़ितों के आक्रोश को देखते हुए दो सितम्बर 96 को गोपालगंज के बी डी ओ और अंचलाधिकारी अपना कार्यालय छोड़कर भाग खड़े हुए। गत् 24 अगस्त 1996 तक सरकारी अनुमानों के अनुसार राज्य के 19 जिलों के 128 प्रखण्डों की एक हजार तीन सौ सन्तावन पंचायतों में चार हजार सात सौ तैंतालीस गाँवों की 61.77 लाख आबादी बाढ़ से प्रभावित है। लेकिन वास्तविकता इससे कई गुणा अधिक की होगी।

कुल मिलाकर परिस्थिति इस बार 1984 और 1987 से कम भयावह नहीं है और आप फतुहा से बरौनी, बेगूसराय होते हुए मानसी, सहरसा पहुँचे तो कई जगहों पर आपको झील और समुन्दर की याद आएगी। बदलाघाट और धमाराघाट के बीच की लगभग पन्द्रह किलोमीटर की दूरी जून-सितम्बर में कोई ट्रेन से सफर करे (बस से सफर का तो सवाल ही पैदा नहीं होता, क्योंकि रेल लाइन को छोड़कर जमीन-दर्शन का सवाल ही उन दिनों पैदा नहीं होता) तभी बिहार के विकास की जमीनी हकीकत महसूस की जा सकती है।

लोगों से जानकारी मिली कि अनन्त विस्तार तक फैले हुए पानी के बीच में अनेक ऊँचे टीले हैं जहाँ लोग रहते-बसते हैं, असहनीय पीड़ा की निरन्तरता और बारम्बारता अब इतनी हो गई है कि अब पीड़ा का अहसास किए बिना उसे जीवन की नियति मानकर लोग जीने लगे हैं।

कुछ सवाल जो बाढ़ पीड़ित क्षेत्र में बनने लगे हैं


बाढ़ समस्या और बाढ़ पीड़ितों के हालात पर मधुबनी जिले के मधेपुर प्रखण्ड में व्यथा-प्रदर्शन और अनिश्चितकालीन धरना का कार्यक्रम गत् जुलाई अगस्त 96 को हुआ जिस पर पुलिस ने अकारण लाठियाँ बरसाईं और आठ लोग गिरफ्तार हुए। फिर स्थानीय संघर्षों के नेतृत्व की ओर से भूख हड़ताल प्रारम्भ किया गया। अनुमण्डल पदाधिकारी, झंझारपुर ने जाँच का आश्वासन दिया तब कहीं जाकर भूख हड़ताल खत्म हुई। इस कार्यक्रम की ओर से प्रकाशित पर्चे में कहा गया कि अगर जनता के हित में तटबन्ध है, तो जनता तटबन्ध क्यों काटेगी? और अगर तटबन्ध जनता के हित में नहीं है तो क्यों नहीं काटेगी? नीचे वे चन्द सवाल हैं, जो जनता सरकार से और नीति निर्माताओं से पूछ रही है-

1. तटबन्ध और राहत की राजनीति कब से और किस तरह शुरू हुई?
2. तटबन्ध किसके हित में और किसके खिलाफ बना?
3. तटबन्ध बनते समय किसी ने या किसी गाँव ने विरोध किया था या नहीं? अगर विरोध किया था, तो उस समय की सरकार और सरकारी पदाधिकारियों ने क्या-क्या आश्वासन देकर लोगों को शान्त किया? उस समय जो आश्वासन दिये गए, उसमें से कितने पूरे हुए?
4. आश्वासन नहीं पूरा करने वाले बाढ़ पीड़ित जनता को अपना नागरिक एवं अपना वोटर मानते हैं कि नहीं?
5. बाढ़ या तटबन्ध के प्रारम्भ में जिस तरह से घर-घर राशन और राहत पहुँचाया जाता था वैसा आज क्यों नहीं हो रहा है?
6. कोसी तटबन्ध से बाहर और कमला तटबन्ध के बाहर के लोग बाढ़-पीड़ित क्यों है?

बाढ़ नियन्त्रण परियोजनाओं के कुल निष्कर्ष व परिणाम


कुछ वर्ष पहले बिहार के पूर्व मुख्यमन्त्री श्री लालू प्रसाद ने बिहार में बाँधों की उपयोगिता पर सवाल खड़ा किया था, लेकिन उस सवाल को सरकार बहस का मुद्दा नहीं बना सकी। सरकारी तन्त्र की ओर से पूरी चुप्पी साध ली गई। 1994 में ए एन सिन्हा सामाजिक अध्ययन संस्थान, पटना में श्री दिनेश कुमार मिश्र लिखित पुस्तक बन्दिनी महानन्दा का विमोचन करते हुए बिहार विधान परिषद् के तत्कालीन कार्यकारी सभापति श्री रघुवंश प्रसाद सिंह ने एक अनुभव सुनाते हुए कहा कि सीतामढ़ी जिले में एक जगह जब ग्रामीण ने उन्हें पूरी तरह तर्कों से आश्वस्त किया कि बाँध तोड़ देने में ही फायदा है तो उन्होंने घोषणा की कि बाँध तोड़ने के लिए पहला कुदाल मैं चलाता हूँ ताकि प्राथमिकी दर्ज अगर होती है तो मेरा नाम उसमें पहले शामिल हो और इस गम्भीर जिम्मेदारी वाले कार्य (असामाजिक?) में ग्रामीणों के साथ रह सकूँ और बाँध तोड़ दिया गया। अनुभव अभी ऐसा है कि बाँध ग्रामीण तोड़ देते हैं, लेकिन कानूनी भय से वे स्पष्ट स्वीकार करने से हिचकिचाते हैं। पुलिस वाले, अभियन्तागण और सरकार भी इस कथ्य व तथ्य को अच्छी तरह समझ रही है, लेकिन उनकी बाढ़ नियन्त्रण की कार्यनीतियों पर खुल्लमखुल्ला सप्रमाण प्रश्नचिन्ह लग जाने के भय से वह इसे स्वीकार करने से हिचकिचाती है।

लेकिन यह हिचकिचाहट कब तक चलेगी? इससे किसका कितना भला होगा? क्या यह ज्यादा अच्छा नहीं होगा कि हम विकट परिस्थिति से आँखें मिलाकर सामना करें और सम्पूर्ण परिस्थिति पर जनोन्मुखी व नए मापदण्डों के साथ सम्पूर्ण मूल्याँकन करें? पिछले कई वर्षों से खासकर अगस्त, 1987 में आई बाढ़ के बाद बाढ़ पीड़ित क्षेत्र के लाखों-करोड़ों लोगों के मन में अपने-अपने अनुभवों के आधार पर एक सवाल उमड़-घुमड़ रहा है कि क्या कहीं अब बाँध भी तो उनके विकास को नहीं रोक रहा है?

कई जगह लोग बाँधों को तोड़ देने का मन बना रहे हैं। कितना फायदा और कितना नुकसान- इस शब्दावली में लोग बाँधों के बारे में सोचने लगे हैं। सोचने में इस प्रकार की शब्दावली का इस्तेमाल पाँचवें और छठे दशक में नहीं था। शब्दावली में कुछ आशंकाएँ उन दिनों भी थी, लेकिनक सपने थे, उमंग थी और उत्साह का संचार भी था, जो अब नहीं रहा। तटबन्धों को लेकर वे सपने, उमंग व उत्साह जैसे अब धू-धू कर जल रहे हैं। यह एक खास फर्क आठवें और नवें दशक के आते-आते लोगों के जनमानस में आ गया है।

बाँधों की देशी-विदेशी राजनीति की साजिश और उच्च टेक्नालाॅजी की आन्तरिक आवश्यकताओं के दबाव से शायद वे परिचित नहीं भी हों, लेकिन मकान, खेती, उद्योग, संस्कृति और अपने रहन-सहन के स्तर और तौर-तरीकों में आए क्षरण से तो वे अपरिचित नहीं हैं, बल्कि उसे वे भुगत रहे हैं और उसमें तटबन्धों के दुष्परिणामों की भूमिका का अनुभव भी कर रहे हैं।

इतिहास साक्षी है इस तथ्य का कि इस क्षेत्र में पिछले चार-पाँच हजार वर्षों में केवल गंगा के किनारे इलाहाबाद, वाराणसी, पटना आदि बड़े शहर बने, क्योंकि गंगा नदी दूसरी नदियों की तुलना में अपेक्षाकृत शान्त नदी रही है। उसमें गाद की वैसी समस्या नहीं रही है। उसने अपनी मुख्यधारा भी नहीं के बराबर बदली है और जमीन का कटाव भी कम रहा है। उत्तर बिहार में उन दिनों भी जनसंख्या कम नहीं थी, लेकिन शहर और बाँध उस तरह नहीं बने जिस तरह आज बन गए हैं।

इन दिनों लोग पानी में रहते हैं या गर्जन-तर्जन कर रहे पानी के पास रहते हैं और भयभीत रहते हैं। उन दिनों लोग पानी के साथ रहते थे और कोसी या बागमती में वैसा गर्जन-तर्जन नहीं होता था जैसा आज हो रहा है। आज नदी का तल उठ गया है, जल-जमाव हो गया है, उपजाऊ मिट्टी समुद्र में जा रही है। यह तीनों ही स्थितियाँ 1953 के पहले नहीं थीं और साथ ही यह भी एक ऐतिहासिक तथ्य है कि 1850 के पहले इस समाज में कोई मजदूर नहीं था जबकि आज लगभग 40 प्रतिशत मजदूर हो गए।

आँकड़े बताते हैं कि 1953 में बिहार की 0.97 मेगाहेक्टेयर जमीन बाढ़ से प्रभावित थी और 1984 में 2.64 मेगाहेक्टेयर जमीन प्रभावित हो गई अर्थात् तीस वर्षों में बाढ़-प्रवण जमीन का क्षेत्रफल ढाई गुणा बढ़ गया। इसी प्रकार 1974 में 2.5 मेगाहेक्टेयर जमीन बाढ़-प्रवण थी। वह क्षेत्रफल 1988 में 6.4 मेगाहेक्टेयर हो गया अर्थात् केवल 9 वर्षों में तीन गुणा की बढ़ोतरी हो गई। दूसरी ओर इन्हीं समय-अवधियों में लगभग 3400 किलोमीटर बाँध बनाने में लगभग 375 करोड़ रुपए और उनके रख-रखाव में लगभग 475 करोड़ रुपए खर्च किए गए।

ऊपर के कथन एक सवाल बनाते हैं। क्या बाँधों से कहीं सुरक्षा का झूठा भ्रम तो नहीं बन रहा है? इस सवाल को पूरे विस्तार से बनाने, समझने और समझाने की आवश्यकता है।

जल-प्रबन्धन के समुचित व समग्र नियोजन के अभाव में अनुभव यह है कि कम वर्षा होने पर भी बाढ़ की स्थिति बनती है और वर्षा नहीं होने पर सूखे की स्थिति बनती है। नदियों और जलाशयों में पानी रहने पर भी खेतों तक जल पहुँचाने की व्यवस्था का अभाव इसका मूल कारण है। इस बाढ़ और सूखा का एक चक्रव्यूह है जिससे उत्तर बिहार आक्रान्त है।

बाढ़ और सूखे के लगातार हमले के कारण इस क्षेत्र का केवल कृषि-आधारित औद्योगिक विकास ही अवरुद्ध) नहीं हुआ है। बल्कि उसका घातक असर लोगों की मानसिकता, मनोवृत्ति और सांस्कृतिक मूल्यों पर भी पड़ा है। राहत, पाखण्ड, चाटुकारिता और परावलम्बन जैसी विकृत भावनाओं का तेजी से फैलाव हुआ है। कुछ मिलाकर अपने रचनात्मक अभिक्रम के प्रति एक गहरी उदासीनता समाज में फैल गई है, फैलती जा रही है।

उत्तर बिहार का कुल क्षेत्रफल 58.51 लाख हेक्टेयर है, जिसमें 44.47 हेक्टेयर क्षेत्र बिहार सरकार के जल संसाधन विभाग के 1991-92 के एक प्रतिवेदन के अनुसार बाढ़ प्रभावित हैं, दूसरी ओर उत्तर बिहार में कार्यरत आबादी 1991 की जनगणना के अनुसार मात्र 30.56 प्रतिशत है। ए एन सिन्हा इंस्टीट्यूट के भूतपूर्व निदेशक डॉ. सच्चिदानन्द की बिहार का पिछड़ापन: समस्या और निदान पुस्तक के अनुसार, ‘आँकड़ों के विश्लेषण से पता चलता है कि 1960-61 के बाद प्रति व्यक्ति आय की दर में बिहार में निरन्तर कमी आई है।

राज्य में घरेलू उत्पादन में 1960-61 और 1970-71 के बीच वृद्धि बिलकुल ही कम हुई। उत्तर बिहार की जनसंख्या का घनत्व देश के औसत से तीन गुणा है। यहाँ की भूमि बहुत उर्वरा है, पर बाढ़ के प्रकोप से और प्रति परिवार भूमि कम होने से यह क्षेत्र अत्यन्त पिछड़ा हुआ है। इसमें रोगों से प्रभावित लोगों की संख्या भी अधिक है। यद्यपि राज्य के पूँजी निवेश का 30 प्रतिशत हिस्सा नियोजन के शुरू में ही सिंचाई और बाढ़ में लगा है, फिर भी उत्पादकता दूसरे राज्यों की अपेक्षा कम है। सिंचित भूमि में औसत उत्पादन प्रति हेक्टेयर सिर्फ 14 क्विण्टल है जबकि सारे देश का औसत 22 क्विण्टल है।

कुल मिलाकर क्षेत्र में परिस्थिति यह है कि पढ़े-लिखे और अनपढ़ दोनों में भयानक बेरोजगारी है, उद्योग विहीनता है, निम्न-मध्यम किसान-मजदूर हो रहे हैं और मजदूरों को अतिअसम्मान सहित चार महीने से ज्यादा काम नहीं है।

बिडम्बना यह है कि इस दारूण परिस्थिति के दशकों से चलते रहने के बावजूद गरीबों में खलबली और उत्तेजना नहीं है या यूँ कहें कि अगर कहीं-कहीं है भी तो उसका क्रियात्मक राजनीतिक प्रभाव नहीं है। बल्कि इसके विपरित राहत की मानसिकता है। और इसीलिये राहत की राजनीति का सर्वत्र वर्चस्व है। विश्वास नहीं होता, लेकिन विश्वास करना ही पड़ता है इस दृश्य पर कि नंगे-अधनंगे पुरूष, महिला और छोटे-छोटे बच्चे कड़ी धूप और बरसात में एक या दो किलो अनाज मिलने की झूठ-सच अफवाहों के उड़ जाने पर भी पाँच से दस किलोमीटर चलकर सरकारी कार्यालय या किसी सार्वजनिक जगह पर घण्टों खड़े रहते हैं।

कई जगह लोग बाँधों को तोड़ देने का मन बना रहे हैं। कितना फायदा और कितना नुकसान- इस शब्दावली में लोग बाँधों के बारे में सोचने लगे हैं। सोचने में इस प्रकार की शब्दावली का इस्तेमाल पाँचवें और छठे दशक में नहीं था। शब्दावली में कुछ आशंकाएँ उन दिनों भी थी, लेकिनक सपने थे, उमंग थी और उत्साह का संचार भी था, जो अब नहीं रहा। तटबन्धों को लेकर वे सपने, उमंग व उत्साह जैसे अब धू-धू कर जल रहे हैं। यह एक खास फर्क आठवें और नवें दशक के आते-आते लोगों के जनमानस में आ गया है।

इसका सर्वाधिक प्रभाव महिलाओं व बच्चों पर है। सिवाय इसके कि 6 से 14 वर्ष के लड़के - लड़कियाँ मजदूर बन जाएँ। उनके पास न कोई दूसरी परिस्थिति है, न विकल्प है और न कोई सपना है। 1991 की जनगणना के अनुसार इन बाल मजदूरों की जनसंख्या 60 लाख से ऊपर है। एक ओर तो इन बाल मजदूरों के अभिभावकों ने अघोषित लेकिन खुलेआम घोषणा कर रखी है कि वे अपने बच्चों की न्यूनतम जिम्मेदारी भी नहीं वहन कर सकते, दूसरी ओर यही बच्चे निर्यात करने योग्य सामानों का निर्माण कर भारत सरकार को पिछले पचास वर्षों से प्रतिवर्ष करोड़ों रुपए की विदेशी मुद्रा दे रहे हैं।

अब ऐसे में तटबन्धों के विकास के पिछले पैंतीस वर्षों से बाढ़ पीड़ित एक भुक्तभोगी मजदूर अगर यह निष्कर्ष निकाले कि सरकार, नीति निर्मातागण और नियोजनकर्ताओं ने इस तरह अवैज्ञानिक, अतार्किक और सामान्यजन की लाभ-हानि का बिना विचार किए उत्तर बिहार में तटबन्ध इसलिए बनाए कि लोग इतने गरीब हो जाएँ कि उनके और उनके बच्चों के पास तथाकथित विदेशी मुद्रा सरकार को अर्जित कराने के लिए अपना सुख, अपना श्रम, अपना सपना व अपनी अस्मिता को कुर्बान कर देने के अलावा कोई रास्ता नहीं बचे और यह भी कि विदेशी मुद्रा-आधारित भारत और बिहार के विकास के लिए इससे पक्की और सुरक्षित व्यवस्था दूसरी कोई हो ही नहीं सकती, तो किसी भी जिम्मेदार व संवेदनशील व्यक्ति, संस्था व सत्ता को इसका बुरा नहीं मानना चाहिए।

बाढ़-पीड़ितों के विश्लेषण के इसी बिन्दु पर चिन्ता व चिन्तन सहित राजनैतिक तौर पर हस्तक्षेप की आवश्यकता है। एक सम्पूर्ण सन्दर्भ-परिवर्तन विकास के मानदण्डों में, टेक्नोलोजी के चयन में और जनमानस के विश्लेषण के निष्कर्षों में किस प्रकार हो सकता है, यह हम सब (सरकार समेत) क्रियाशील समूहों के चिन्तन का विषय होना चाहिए।

हम क्या कर सकते हैं, कैसे कर सकते हैं?


इसके लिए कई मोर्चे पर काम करने की जरूरत है, जिनमें से एक है सरकार की बाढ़ नियन्त्रण परियोजनाओं का मूल्याँकन करना, इसकी वैकल्पिक व्यवस्था की खोज व उसकी व्यावहारिकता पर विचार करना एवं इसके लिए लोकमत बनाना व जगाना।

अतः इस सन्दर्भ में मुख्य रूप से निम्न मुद्दों पर विचार करने तथा ठोस कार्यक्रम की आवश्यकता है:

1. इस तरह की परियोजनाएँ क्या सम्पूर्णतया विशेषज्ञों, अभियन्ताओं तथा राजनेताओं के द्वारा लिए गए निर्णयों से बनेंगी या उसमें लोकमत और लोक-हस्तक्षेप भी आवश्यक होगा? क्या लोकहित के कार्यों का फैसला बिना लोकमत के सिर्फ राजनीतिक वोट के आधार पर किया जाएगा?

2. उत्तर बिहार में समग्र जल-विकास नीति क्या हो सकती है? कैसे बनेगी यह नीति? उसमें लोकमत भी चाहिए और लोकशिक्षण भी चाहिए। यह कार्य एक व्यापक अभियान, सर्वेक्षण, सेमिनार और परियोजना निर्माण की विस्तृत प्रक्रिया को समझने से ही सम्भव है।

3. वर्तमान में जल जमाव और जल-निकासी उत्तर बिहार की इस सन्दर्भ में सबसे बड़ी समस्या है। इसमें (क) जल-निकासी की समस्या, (ख) चौर जल निकासी, (ग) नदी जल निकासी और (घ) बरसात के जल का निकास मुख्य समस्या है। यह जानना भी आवश्यक होगा कि जल-जमाव का फसलों पर, लोगों के स्वास्थ्य पर और मिट्टी की लवणता पर क्या असर पड़ता है? इसके अतिरिक्त यह अध्ययन करना भी आवश्यक है कि सड़क, रेल लाइन के कारण भी क्या जल प्रवाह अवरुद्ध होकर जल जमाव में परिणत होता है? इस सन्दर्भ में सरकारी तौर पर आज तक कोई गम्भीर प्रयत्न नहीं हुए और न ही उसकी कोई रपट उपलब्ध है।

4. क्या यह सच है कि विभिन्न कारणों से सही सरकारी आँकड़ों को जान-बूझकर छिपाया जाता है और उपलब्धियों के गलत दावे किए जाते हैं?

5. बड़े बाँध, जलाशय, बराज, नहर और नदियों की प्रकृति आदि के बारे में लोक शिक्षण की दृष्टि से छोटी पुस्तिकाएँ, पर्चे, पैप्फलेट आदि निकाले जाएँ।

6. सिंचाई क्षमता के आँकड़ों का सत्यापन करने की आवश्यकता है। इसके लिए जल-ग्रहण के ऊपरी क्षेत्र में जैसे वाल्मीकिनगर के नहर क्षेत्र में, नमूने का सर्वेक्षण किया जाए और लोकमत प्राप्त किया जाए।

7. यह जानना भी आवश्यक है कि प्रतिवर्ष नहर में कितना पानी आने का सरकारी दावा किया जाता है, कितना पानी वास्तव में आता है, उसका अधिकतम उपयोग होता है कि नहीं?

8. किसी तटबन्ध या नहर के निर्माण में रूपांकन से उपलब्धि मिलने तक में कितना समय लगा, कितना धन लगा, कितने लोग लाभान्वित हुए, कितनी जमीन सिंचित हुई, उस जमीन से कितनी फसल मिली और इस प्रकार परियोजना निर्माण व रख-रखाव में खर्च और उपलब्धि का अनुपात (Input-Output Ratio) क्या रहा?

9. जल-ग्रहण क्षेत्र में वनीकरण।

10. इन परियोजनाओं की पृष्ठिभूमि में देशी-विदेशी राजनीति की भूमिका।

11. तटबन्धों की क्षमता और उपयोगिता पर गम्भीर परिसंवाद तथा लोक-शिक्षण।

12. जिन नदियों पर बाँध बना हुआ है और जिन पर बाँध नहीं बना है, उसका एक सर्वांगीण तुलनात्मक अध्ययन आवश्यक है ताकि तटबन्धों की उपस्थिति और उपयोगिता पर एक वस्तुपरक लोकनीति निर्धारित करने के लिए एक आधार उपलब्ध हो सके।

13. कुछ सीमित क्षेत्र-विशेष में समुचित तकनीक आधारित सिंचाई का प्रबन्ध।

14. नदी जल विकास नीति का भयंकर दुष्परिणाम इस क्षेत्र की संस्कृति व पर्यावरण पर पड़ा है। सांस्कृतिक अवमूल्यन को रोकने के लिए स्थानीय सृजनात्मक विधाओं को प्रोत्साहन देना तथा पर्यावरण संरक्षण के लिए कार्यक्रमों का नियोजन।

नेटवर्किंग


उपरोक्त कार्यक्रमों का क्रियान्वयन उत्तर बिहार के क्रियाशील समूहों, जन संगठनों, स्वैच्छिक संस्थाओं एवं जागरूक व्यक्तियों के सामूहिक प्रयत्न से ही सम्भव है। यह सम्भव, उचित और व्यावहारिक नहीं दिखता कि कोई अकेला संगठन अपनी शक्ति के बल पर इस जन-अभियान को सम्पूर्णतया सम्भाल ले। ध्यान देने की बात यह होगी कि इन संगठनों एवं समूहों का आपसी समन्वय व सहयोग किस प्रकार हो। इस अभियान के लिए नेटवर्किंग, कार्यपद्धति, वित्तीय व्यवस्था, जन सहयोग, अभिप्रेरण एवं मूल्याँकन के तौर-तरीके आदि के बारे में कुछ क्रियात्मक निर्णय लेने होंगे, मुख्य बात यह होनी चाहिए कि क्रियान्वयन का ‘कोर-ढाँचा’ कम-से-कम विस्तार का हो और अभियान का स्वरूप एक जन-अभियान की तरह दिखे।

इस तरह एक जन-अभियान चलाने की कोशिश कोसी पर बने तटबन्धों के दुष्परिणामों को लेकर ‘कोसी कन्सोर्टियम’ नाम से एक प्रभावकारी शुरूआत पिछले वर्षों में हुई थी और वह कोशिश उत्तर बिहार की कई संस्थाओं तथा बाढ़ - समस्या के गहन ज्ञाता श्री दिनेश कुमार मिश्र आदि के सहयोग से आज भी जारी है। जरूरत इस बात की है कि इन सभी प्रयत्नों को सामूहिक सहयोग व समर्थन मिले। इस जन अभियान की नेटवर्किंग के सन्दर्भ में चिन्तन के मुख्य चार बिन्दु हैं - (1) एक शिक्षार्थी की हैसियत से इस समस्या को व्यापक व समग्र रूप में लगातार स्वयं भी समझने की कोशिश करना, (2) बदलते सन्दर्भों में अभियान के दबाव-बिन्दुओं की बदलने की तैयारी रखना, (3) जनमत से सीखना और जनमत बनाना, (4) परम्परागत व दलगत नेतृत्व के मानदण्डों को अस्वीकार कर सामूहिक नेतृत्व के वास्तविक कारकों को स्वीकार करना। इन कारकों को अपनाने और इन्हें विकसित करने की भी आवश्यकता है।

और अन्त में


प्राकृतिक व मानवनिर्मित विपदाओं की बारम्बारता भारत ही नहीं, पूरी दुनिया में लगातार बढ़ रही है। अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर संयुक्त राष्ट्र संघ की ओर से भी इस मुद्दे पर कुछ पहल हो रही है। हमारे बिहार में बाढ़, सूखा, भूकम्प व आग लगना- ये चार विपदाएँ कमोबेश हर वर्ष रहती हैं, लेकिन इन विपदाओं से निपटने की पूर्व तैयारी खासकर दीर्घ अवधि की पूर्व तैयारी न के बराबर होती है। सामाजिक व तकनीकी सन्दर्भों में इन विषयों का अध्ययन भी हमारी शिक्षण संस्थाओं में नहीं होता।

राजस्थान के कोटा जिले में 1995 में पहली बार बाढ़ आई और वहाँ की सरकार ने सरकरी सामाजिक शोध संस्थान में तुरन्त कुछ महीने के अन्दर इसकी एक फैकल्टी खोल दी। जापान में हर साल भूकम्प का एक दिन पूर्वाभ्यास होता है, जिसकी प्रत्यक्ष बागडोर कण्ट्रोलरूम में जाकर प्रधानमन्त्री खुद 24 घण्टे के लिए सम्भालते हैं। लेकिन हमारे बिहार में जब घटना घट जाती है, घरों में पानी आ जाता है, मवेशी बह जाते हैं, फसलें बर्बाद हो जाती हैं, खासकर महिलाएँ और बच्चे दर-दर की ठोकर खाने लग जाते हैं, तब कहीं जाकर हमारी तन्द्रा थोड़ी भंग होती है। लेकिन कुछ ही दिन के बाद सब कुछ सामान्य हो जाता है। 1987 में उत्तर बिहार में भूकम्प से लोग कम बेहाल नहीं हुए, लेकिन चाहे सरकार-नई हो या पुरानी, सत्तापक्ष की हो या विपक्ष की- किसी ने आज तक भूकम्प को बिहार का एजेण्डा माना ही नहीं।

जब तक बिहार के राजनैतिक एजेण्डे में वस्तुपरक भूल्याँकन आधारित विकास के एजेण्डे नहीं आएँगे, बिहार को पिछड़ा होने से नहीं रोका जा सकता।

आज एक ऐसे जनोन्मुखी अभियान व कार्यक्रम की जरूरत है, जो बिहार के राजनीतिक एजेण्डे को बदले और तटबन्ध जैसे भयावह व बुनियादी सवाल को सत्ता-संघर्ष से परे एक क्रियात्मक राजनीति सवाल बनाए।

बाढ़ और बिहार : संक्षिप्त परिचय


बिहार का कुल क्षेत्रफल                                                               

94.183 लाख हेक्टेयर

बिहार में कुल बाढ़ प्रभावित क्षेत्र                           

68.80 लाख हेक्टेयर                                           

उत्तर बिहार का क्षेत्रफल                                                               

51.462 लाख हेक्टेयर

दक्षिण बिहार का क्षेत्रफल                                     

42.721 लाख हेक्टेयर

उत्तर बिहार में बाढ़ प्रभावित क्षेत्र                           

44.46 लाख हेक्टेयर

दक्षिण बिहार में बाढ़ प्रभावित क्षेत्र 

24.34 लाख हेक्टेयर

बिहार में बाढ़ प्रभावित क्षेत्र का प्रतिशत

73.06

उत्तर बिहार में बाढ़ प्रभावित क्षेत्र का प्रतिशत

86.4

दक्षिण बिहार में बाढ़ प्रभावित क्षेत्र का प्रतिशत

5.97

बिहार में कुल तटबन्ध की लम्बाई

3430 किलोमीटर                                               

उत्तर बिहार में तटबन्ध की कुल लम्बाई                  

2952 किलोमीटर

दक्षिण में कुल तटबन्ध की कुल लम्बाई                 

478 किलोमीटर

उत्तर बिहार में बाढ़ सुरक्षित क्षेत्र                            

27.16 लाख हेक्टेयर

दक्षिण बिहार में बाढ़ सुरक्षित क्षेत्र                          

2.00 लाख हेक्टेयर

बिहार में कुल सुरक्षित क्षेत्र                                   

29.16 लाख हेक्टेयर

बिहार में कुल असुरक्षित क्षेत्र                                

39.64 लाख हेक्टेयर

उत्तर बिहार में बाढ़ असुरक्षित क्षेत्र 

17.30 लाख हेक्टेयर

दक्षिण बिहार में बाढ़ असुरक्षित क्षेत्र                      

22.34 लाख हेक्टेयर

उत्तर बिहार में बाढ़ सुरक्षित क्षेत्र का प्रतिशत

61

दक्षिण बिहार में बाढ़ सुरक्षित क्षेत्र का प्रतिशत

9 (लगभग)

उत्तर बिहार में बाढ़ असुरक्षित क्षेत्र का प्रतिशत

39

दक्षिण बिहार में बाढ़ असुरक्षित क्षेत्र का प्रतिशत

9

बिहार की कुल आबादी                                                               

8 करोड़ 28 लाख 879 (2001)

बिहार प्रति व्यक्ति वार्षिक आय                             

3707 रुपए (2001)

प्रति व्यक्ति आय का राष्ट्रीय औसत                      

12,985 रुपए (2001)

एक औसत भारतीय एवं बिहारी का अन्तर             

साढ़े तीन गुणा (2001)



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