नदी जल प्रदूषण की किसानों पर मार

30 Jan 2013
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किसान नहीं चाहते कि पाली के उद्योग अपना कचरा नदी में बहाएं। उनकी मांग है कि उद्योगों को खुद प्रदूषित जल साफ करने का संयंत्र लगाना चाहिए और इस साफ किए जल का स्वयं इस्तेमाल करना चाहिए। अदालत ने इस बात को स्वीकार किया और निर्देश दिया कि शोधित जल बांदी नदी में न डाला जाए। वास्तव में यह किसी एक शहर से जुड़ी घटना नहीं है। अदालत के तीन और ऐसे ही आदेश हैं, जिनमें कहा गया है कि फैक्ट्रियों से निकला पानी नदी में न डाला जाए और प्रदूषित जल साफ करने के बाद उन्हें खुद उसका इस्तेमाल करना चाहिए। कुछ साल पहले मैंने राजस्थान के टेक्सटाइल नगर पानी के बारे में लिखा था, जिसकी मौसमी नदी बांदी का पानी औद्योगिक कचरे के कारण पूरी तरह विषैला हो गया है। तब मैंने कहा था कि असली मुद्दा प्रदूषण नहीं, बल्कि किसानों का गुस्सा है जो तरल कचरे के कारण उनकी खेती की ज़मीन बर्बाद हो जाने से उपजा है। इस कचरे के चलते उनके कुओं का पानी विषैला हो गया था। किसानों के संघर्ष के बाद पाली नगर में देश का पहला जल शोधन संयंत्र लगाया गया। तब मैंने यह सवाल उठाया था- क्या हम जानते हैं कि जिन इलाकों में पानी का अभाव है, वहां रासायनिक प्रदूषण का निपटारा कैसे किया जाना चाहिए? इसका जवाब अभी भी नहीं है। लेकिन प्रदूषण पीड़ित किसानों का इस समस्या के विरुद्ध डटे रहना सुनिश्चित करता है कि सवाल के जवाब की तलाश जारी है।

पाली में 2006 में नदी जल को साफ करने के तीन संयंत्र लगा दिए गए और उनके लिए वहां बनने वाले कपड़े पर कर (टैक्स) लगा दिया गया। इन संयंत्रों के बावजूद बांदी का पानी प्रदूषित बना हुआ था। उस साल सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरन्मेंट के मेरे सहयोगी पाली गए और नदी के पानी के कुछ नमूने लाए। उन्होंने दिल्ली स्थित हमारी प्रदूषण निगरानी प्रयोगशाला में उनकी जांच की और पाया कि पानी में विष का उच्च स्तर है। नदी ही नहीं, पाली से 50 किलोमीटर आगे तक के कुओं का पानी भी विषैला पाया गया। विश्लेषण से यह स्पष्ट है कि पानी साफ करने के संयंत्र निर्धारित मानदंडों पर खरे नहीं उतरे हैं। नमूनों के पानी में घातक पदार्थ भारी मात्रा में पाए गए। मेरे सहयोगियों ने यह भी देखा कि जल शोधन संयंत्रों की नजर से बचाकर भी कचरा जल नदी में बहाया जा रहा है।

हमारी जांच रिपोर्ट आने पर स्थानीय किसानों ने एक बार फिर कमर कस ली। सरकार ने संयंत्रों को और कारगर बनाने के लिए 19 करोड़ रुपए की लागत मंज़ूर कर दी। समय के साथ बाजार की ज़रूरतों में बदलाव आया और उसके अनुसार पाली के उद्योगों ने करवट ली। पहले सूती कपड़े की मांग थी और इसी हिसाब से औद्योगिक इकाइयां लगी थीं। बाद में सिंथेटिक कपड़ों का चलन आ गया और कपड़ा रंगने वाली इकाइयों में तेजाब आधारित प्रक्रिया अपनाई जाने लगी। प्रदूषण निपटाने के लिए लगाए गए संयंत्र पुराने ढर्रे के थे और वे औद्योगिक बदलाव के साथ कदम मिलाने में विफल रहे। आशा की गई कि संयंत्रों पर 19 करोड़ रुपये खर्च किए जाने के बाद उनकी कुशलता में इज़ाफा होगा और मौजूदा समस्या समाप्त हो जाएगी।

लेकिन प्रदूषण समाप्त नहीं हुआ। किसानों के अनुसार पानी का स्तर पहले जैसा ही खराब है। किसानों के अनुरोध पर 2007 में मेरे सहयोगी फिर पाली गए। उन्होंने पानी के नमूने इकट्ठे किए और फिर उनका विश्लेषण किया गया। पानी में अनेक घातक तत्व पाए गए। इस बार के परिणाम पहले वर्ष से भी खराब थे। कारण था नगर की ड्रेनेज व्यवस्था जिसे बढ़ती जनसंख्या के मुताबिक दुरुस्त नहीं किया गया था और अधिकांश कचरा जल शोधन संयंत्रों से होकर नहीं गुजरता था।

नाराज़ किसानों ने अदालत की शरण ली और उच्च न्यायालय ने उनके पक्ष में फैसला सुनाया। अदालत ने सरकार को निर्देश दिया कि वह प्रत्येक औद्योगिक इकाई से निकलने वाले प्रदूषित जल को मापने के लिए मीटर लगाए। उन गैर कानूनी इकाइयों को बंद करे, जो जल साफ करने वाले संयंत्रों से नहीं जुड़ी हैं। नए उद्योगों के लिए एक और संयंत्र लगाए और सुनिश्चित करे कि समस्त प्रदूषित जल संयंत्रों से होकर गुजरे। यह कोई मामूली विजय नहीं थी।

इसके बाद भी प्रदूषण की समस्या बनी हुई है। वास्तव में यह समस्या अत्यधिक जटिल है। पाली में मौसमी नदी है जिसमें साल के अधिकांश महीनों में जल नहीं होता। आंशिक रूप से साफ किए पानी (यह मान भी लिया जाए कि उन्नत संयंत्र निर्धारित मापदंडों पर खरा है और नगर का सारा प्रदूषित जल इनसे होकर गुजरता है) से भी प्रदूषण फैलेगा क्योंकि इसे शुद्ध करने के लिए जल ही नहीं है। किसानों के संगठन ने हमें फिर बुलावा भेजा। इस बार मेरे सहयोगियों ने किसानों और औद्योगिक इकाइयों के प्रतिनिधियों की मौजूदगी में पानी की जांच की। पानी में घातक तत्व पाए गए। इसके बाद पाली के टाउन हाल में एक सार्वजनिक सभा हुई जिसमें राजनीतिज्ञ, प्रशासक, किसान और उद्योगपति मौजूद थे। साफ-साफ कहा गया कि उद्योग महत्वपूर्ण हैं किंतु नदी को प्रदूषित करने या जनस्वास्थ्य या किसानों की कीमत पर उन्हें चलाने की इजाज़त नहीं दी जानी चाहिए। इस समस्या का हल अब अलग ढंग से खोजे जाने की जरूरत ।

किसान नहीं चाहते कि पाली के उद्योग अपना कचरा नदी में बहाएं। उनकी मांग है कि उद्योगों को खुद प्रदूषित जल साफ करने का संयंत्र लगाना चाहिए और इस साफ किए जल का स्वयं इस्तेमाल करना चाहिए। अदालत ने इस बात को स्वीकार किया और निर्देश दिया कि शोधित जल बांदी नदी में न डाला जाए। वास्तव में यह किसी एक शहर से जुड़ी घटना नहीं है। अदालत के तीन और ऐसे ही आदेश हैं, जिनमें कहा गया है कि फैक्ट्रियों से निकला पानी नदी में न डाला जाए और प्रदूषित जल साफ करने के बाद उन्हें खुद उसका इस्तेमाल करना चाहिए। पाली के निकटवर्ती बलोतरा में भी ऐसा ही मुकदमा दर्ज हुआ और अदालत ने पीड़ितों के पक्ष में फैसला सुनाया। दूसरा मामला तमिलनाडु के प्रसिद्ध कपड़ा उद्योग नगर तिरुपुर का है, जहां प्रदूषण से प्रभावित किसानों के पक्ष में अदालत ने फैसला दिया और साफ-साफ कहा कि दूषित जल नदी में न डाला जाए। तीसरा मामला पंजाब के लुधियाना शहर का है जहां अदालत ने नोटिस जारी किया कि समस्त इलेक्ट्रोप्लेटिंग व कपड़ा रंगने की औद्योगिक इकाइयों को स्वयं या मिलकर जल शोधन संयंत्र लगाने चाहिए।

सवाल प्रदूषण से निपटने के कारगर कदम उठाने से जुड़ा है। तथ्य यह है कि जल शोधन और उसे दोबारा इस्तेमाल के लायक बनाने की तकनीक काफी महंगी है। इसके लिए उच्च कोटि के जल की भी जरूरत पड़ती है। इससे भी अधिक महत्वपूर्ण बात यह है कि जल शोधन के बाद प्राप्त कचरे का निपटारा कैसे किया जाए। तिरुपुर में सरकार इस कचरे को ठिकाने लगाने का उपाय खोजने में जुटी है, किंतु अभी यह खोज जारी है। सच यह है कि जनप्रतिरोध के कारण सरकार और उद्योगों पर इस समस्या का समाधान खोजने का दबाव बढ़ता जा रहा है। हमारी व्यवस्था के अनुकूल एक किफायती प्रणाली विकसित करने की दिशा में काफी कुछ किया जाना शेष है। पाली, बलोतरा, तिरुपुर के किसान और अन्य इलाकों के प्रदूषण से प्रभावित जनता इस समस्या का समाधान खोजकर ही रहेगी।

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