नदी जोड़ का विकल्प : छोटी जल संरचनाएं

17 May 2014
0 mins read
water map
water map
नदियों में जल की मात्रा और गुणवत्ता हासिल करने के लिए फिर छोटी संरचनाओं और वनस्पतियों की ओर ही लौटना होगा। नदियों को धरती के ऊपर से नहीं, बल्कि धरती के भीतर से जोड़ने की जरूरत है। वर्षाजल संचयन के छोटी-छोटी संरचनाएं नदी जोड़ का सही विकल्प हैं। इस बात के प्रमाण देश भर में मौजूद हैं कि जहां समाज ने खुद अपने पानी का इंतजाम करने की ठान ली; वहीं पानी का इंतजाम हो गया। सूखी नदियां जिंदा हो गईं। मेरे जैसे अध्ययनकर्ता तो इतना जानते हैं कि बाढ़ और सुखाड़ के कारण कमोबेश एक जैसे ही हैं : जल संचयन संरचनाओं का सत्यानाश, जल बहाव के परंपरागत मार्ग में अवरोध, कब्जे, बड़े पेड़ व जमीन को पकड़कर रखने वाली छोटी वनस्पतियों का खात्मा, भूस्खलन, क्षरण और वर्षा के दिनों में आई कमी। इन मूल कारणों का समाधान किए बगैर बाढ़ और सुखाड़ से नहीं निपटा जा सकता। समस्या के मूल पर चोट करनी होगी।

नदियों में जल की मात्रा और गुणवत्ता हासिल करने के लिए फिर छोटी संरचनाओं और वनस्पतियों की ओर ही लौटना होगा। नदियों को धरती के ऊपर से नहीं, बल्कि धरती के भीतर से जोड़ने की जरूरत है। वर्षाजल संचयन के छोटी-छोटी संरचनाएं नदी जोड़ का सही विकल्प हैं।

इस बात के प्रमाण देश भर में मौजूद हैं कि जहां समाज ने खुद अपने पानी का इंतजाम करने की ठान ली; वहीं पानी का इंतजाम हो गया। सूखी नदियां जिंदा हो गईं। सात मौसमी नदियों के बारहमासी हो जाने का उदाहरण दिल्ली के बहुत करीब राजस्थान के जिला अलवर, जयपुर और करौली में मौजूद है।

प्रश्न यह है कि यदि राजस्थान का गरीब-गुरबा समाज अपने श्रम से अपनी सूखी नदियों को पानीदार बना सकता है, तो देश के और हिस्सों में यह क्यों नहीं हो सकता? यह संभव है। गढ़वाल के उफैरखाल में भी ऐसा उदाहरण मौजूद है। कैसे? यदि यह जानना हो माननीय प्रधानमंत्री जी को कभी जाकर देख आना चाहिए।

कम बारिश में भी सर्वश्रेष्ठ खेती, मवेशी और पीने के पानी का इंतजाम कैसे किया जाता है, इसके उद्धहरणों से देश भरा पड़ा है। वर्षाजल संचयन के बेहतरीन नमूने के लिए तो कहीं अन्यत्र जाने की भी जरूरत नहीं। दिल्ली का राष्ट्रपति भवन खुद इसका नायाब नमूना है।

मैं मानता हूं कि बारिश की बूंदों के रूप में कुदरत पानी के बीज बरसाती है। इन बीजों को एक से अनेक में बदलने की तकनीक यही है कि हम इन्हें संजोकर ठीक उसी तरह धरती के भीतर बो दें, जैसे अन्य बीज बोते हैं। फिर इनकी ठीक उसी तरह देखरेख करें, जैसे धरती के भीतर सोए अन्य बीजों की करते हैं।

फर्क सिर्फ इतना है कि अन्य बीज उचित गर्मी और नमी पाकर स्वतः जागकर उठ खड़े होते है। धरती के भीतर संजोकर रखे पानी के बीज अधिक हो जाएं, तो ही ऊपर की ओर कहीं झरना, तो कहीं झील-नदी बनकर फूटते हैं। सहज रूप से ये धरती के भीतर ही भीतर प्रवाहमान बने रहते हैं।

.सच पूछिए, तो यदि जल संचयन, जलोपयोग में अनुशासन व बागवानी के काम को ही पूरी ईमानदारी व सूझबूझ से कर लिया जाए, तो न ही बाढ़ बहुत विनाशकारी साबित होगी और न ही सूखे से लोगों के हलक सूखेंगे। ...तब न नदी जोड़ की जरूरत बचेगी, न भूगोल उजड़ेगा और देश भी कर्जदार होने से बच जाएगा। उद्योगों को भी पानी होगा और नदियां भी बर्बाद होने से बच जाएंगी।.. तब बाढ़ विनाश नहीं, विकास का पर्याय बन जाएगी। बस! शर्त यह है कि नीति और नीयत दोनो ईमानदार हो।

...तो फिर क्या नहीं चलनी चाहिए तालाब, झील व दूसरी जलसंरचनाओं को कब्जामुक्त कराने की मुहिम? क्या भारत का जल संसाधन मंत्रालय इस बाबत् सिविल अपील संख्या - 4787/2001, हिंचलाल तिवारी बनाम कमला देवी आदि में सुप्रीम कोर्ट द्वारा परित आदेश दिनांक-25.07.2001 में सुझाए गए रास्ते पर बढ़ने की कोई इच्छाशक्ति दिखाएगा।

इसे आधार बनाकर 08 अक्टूबर, वर्ष-2001 को उत्तर प्रदेश की राजस्व परिषद ने जंगल, तालाब, पोखर, पठार तथा पहाड़ को बचाने एक ऐतिहासिक व सख्त शासनादेश जारी किया था। क्या केंद्रीय समेत समस्त राज्य सरकारों के संबंधित मंत्री इससे प्रेरणा लेकर कुछ कागजी और कुछ जमीनी कदम उठाएंगे या नदी जोड़ के रास्ते पर आंख मूंद कर चलते जाएंगे?

माननीया नई सरकार! अंधानुकरण ठीक नहीं। यदि पूर्व की भांति अगले पांच साल भी भारत का पानी विश्व बैंक और यूरोपीयन कमीशन की भेंट चढ़ता गया, तो किस शासन से उम्मीद बचेगी? तंत्र के प्रति उम्मीद भी क्या खत्म नहीं हो जाएगी? जागिए! कुछ कीजिए। वरना् भविष्य आप पर भी उंगली उठाएगा।

Posted by
Get the latest news on water, straight to your inbox
Subscribe Now
Continue reading