नदी जोड़ परियोजना : एक परिचय, भाग-1

pure drinking water
pure drinking water

एन.डब्ल्यू.डी.ए. ने भारत की नदियों को हिमालयीन घटक और दक्षिण भारतीय घटक में बांटा। हिमालयीन नदियों और दक्षिण भारत की नदियों से जुड़े उपर्युक्त बिंदुओं पर लगभग दो दशक तक अध्ययन किया गया। इस अध्ययन से संबंधित कुछ रिपोर्टें समय-समय पर भारत सरकार के जल संसाधन विभाग द्वारा प्रकाशित भी की गईं। इस सब जद्दोजहद के बावजूद नदी जोड़ योजना पर हाशिम कमीशन के प्रश्न चिन्ह लगाने के कारण, काफी समय तक असमंजस, अस्पष्टता और दिशाहीनता की स्थिति बनी रही।भारत की नदियों को आपस में जोड़ने का सपना उन्नीसवीं सदी में सर आर्थर काटन ने देखा था। वे इस स्वप्न को देखने वाले पहले व्यक्ति थे और उनका सपना था दक्षिण भारत की नदियों को आपस में जोड़ना, ताकि उनके बीच नौकायन (परिवहन) की व्यवस्था कायम हो सके। इसके बाद, केन्द्रीय मंत्री डाॅ. के.एल. राव ने सन 1972 में दक्षिण भारत के जल संकट को हल करने के लिए गंगा को कावेरी से जोड़ने की अवधारणा पेश की।

वे, पटना के पास से गंगा के 60,000 क्यूसेक पानी को उठाकर सोन, नर्मदा, ताप्ती, गोदावरी, कृष्णा, पेन्नार घाटियों के रास्ते ग्रेन्ड एनीकट के अपस्ट्रीम में कावेरी से जोड़ना चाहते थे। उनके प्रस्ताव के अनुसार जलमार्ग की लम्बाई 2640 किलोमीटर थी। गंगा से पानी का परिवहन, साल में 150 दिन किया जाना था और पानी को 450 मीटर से भी अधिक ऊँचा उठाना था। यह सही है कि सर आर्थर काटन और डाॅ. के.एल. राव काबिल इंजीनियर थे। सर आर्थर काटन का मुख्य उद्देश्य भारत की नदियों को जोड़कर, नौकायन के लिए आंतरिक जलमार्ग विकसित करना था, तो डाॅ के.एल. राव सिंचाई व्यवस्था को सुनिश्चित करना चाहते थे।

सन 1974 में इसी तरह का प्रस्ताव (गारलेन्ड केनाल) कैप्टन दिनशा जे. दस्तुर ने दिया। कैप्टन दिनशा जे. दस्तुर पेशे से पायलट थे। उपलब्ध जानकारी के अनुसार, लगभग तीन दशक तक उपर्युक्त प्रस्ताव खासकर डाॅ. के.एल. राव के प्रस्ताव ने समाज और सरकार का ध्यान आकर्षित किया था। प्रारंभिक परीक्षणों में, इन प्रस्तावों को तकनीकी और वित्तीय दृष्टि से अव्यावहारिक होने तथा अत्यधिक ऊर्जा की मांग के कारण सिरे से नकार दिया गया था।

गंगा-कावेरी लिंक प्रस्ताव को नकारने के बाद, अगस्त 1980 में ‘‘जल विकास के लिए राष्ट्रीय दृष्टिबोध प्लान’’ तैयार किया। इस प्लान पर आगे काम करने के लिए भारत सरकार ने सन 1982 में नेशनल वाटर डेवलपमेंट एजेंसी (एन.डब्ल्यू.डी.ए.) का गठन किया और उसे प्रत्येक नदी-घाटी में पानी की कमी या अधिकता ज्ञात करने और पानी सहेजने के लिए जल संचय संरचनाओं, जलमार्गों तथा पानी के परिवहन की संभावनाओं के अध्ययन की जिम्मेदारी सौंपी।

एन.डब्ल्यू.डी.ए. ने भारत की नदियों को हिमालयीन घटक और दक्षिण भारतीय घटक (दो वर्गों) में बांटा। हिमालयीन नदियों और दक्षिण भारत की नदियों से जुड़े उपर्युक्त बिंदुओं पर लगभग दो दशक तक अध्ययन किया गया। इस अध्ययन से संबंधित कुछ रिपोर्टें समय-समय पर भारत सरकार के जल संसाधन विभाग द्वारा प्रकाशित भी की गईं। इस सब जद्दोजहद के बावजूद नदी जोड़ योजना पर हाशिम कमीशन के प्रश्न चिन्ह लगाने के कारण, काफी समय तक असमंजस, अस्पष्टता और दिशाहीनता की स्थिति बनी रही।

भारत की नदियों को जोड़ने की पहल के पुनर्जन्म का आधार, रंजीत कुमार की सर्वोच्च न्यायालय में दायर जनहित याचिका है। यह याचिका भारत के राष्ट्रपति के 15 अगस्त 2002 के अवसर पर दिए भाषण के आधार पर दायर की गई थी। इस याचिका में रंजीत कुमार ने सर्वोच्च न्यायालय से प्रार्थना की थी कि नदियों की नेटवर्किंग बनाने के लिए राष्ट्रपति के सुझावों पर विचार करने हेतु एक उच्चस्तरीय कमेटी का गठन हो और उस कमेटी की रिपोर्ट मिलने के उपरांत निर्देश जारी किए जाएं ताकि नदियों की नेटवर्किंग के लक्ष्य को प्राप्त किया जा सके।

भारत सरकार की ओर से नदियों की नेटवर्किंग में जवाबदावा (दीवानी नम्बर-512, सन 2002, संदर्भ-नदियों की नेटवर्किंग) केन्द्रीय जल संसाधन विभाग के उपायुक्त (बेसिन प्रबंध) ने पेश किया। सर्वोच्च न्यायालय ने सभी संबंधित पक्षों को नोटिस दिए। लगभग दो माह बाद 31 अक्टूबर 2002 को जब सर्वोच्च न्यायालय में उपरोक्त मामले की दुबारा सुनवाई प्रारंभ हुई तो केन्द्र सरकार और तमिलनाडु ने न्यायालय के सामने जनहित याचिका का समर्थन किया। सुनवाई की तारीख अर्थात 31.10.2002 तक बाकी राज्यों ने सर्वोच्च न्यायालय में किसी भी प्रकार के हलफनामे या जवाबदावे पेश नहीं किए। सर्वोच्च न्यायालय ने, उसी दिन, अर्थात 31 अक्टूबर 2002 को नदियों की नेटवर्किंग के पक्ष में न्यायिक सुझाव के रूप में अपना निर्णय सुना दिया।

गौरतलब है कि नदियों को जोड़ने के प्रस्ताव पर भारत सरकार का हलफनामा पूरी तरह सकारात्मक था। इस हलफनामे में पिछले 20 सालों के अध्ययन के साथ-साथ योजना के संभावित फायदों का उल्लेख था। इस उल्लेख में भारत सरकार ने संबंधित राज्यों की सहमति, ऊर्जा की न्यूनतम खपत के लिए वैकल्पिक जलमार्ग के सर्वेक्षण, बांध एवं जल वितरण प्रणाली जनित विस्थापन और वित्तीय नतीजों के समाधान की जरूरत को निम्नानुसार अवगत कराया कि-

1. अतिरिक्त पानी को, पानी की कमी वाले राज्यों को हस्तांतरित करने के लिए संबद्ध राज्यों से सहमति प्राप्त करने के लिए वार्ता करनी होगी और राज्यों के बीच समझौता कराना होगा।
2. परियोजनाओं की डी.पी.आर. (विस्तृत परियोजना रपट) तैयार करनी होगी।
3. भारत के योजना आयोग की अनुमति प्राप्त करनी होगी एवं तकनीकी तथा आर्थिक विषयों की समीक्षा करनी होगी।
4. परियोजना क्रियान्वयन के लिए आवश्यक धनराशियों की व्यवस्था करनी होगी।
5. परियोजना क्रियान्वयन के लिए एजेंसियों का निर्धारण करना होगा।

पाठक सहमत होंगे कि उपरोक्त सभी बिंदु किसी भी योजना की मंजूरी की सामान्य प्रक्रिया के आवश्यक अंग हैं। संभवतः इसी बात को आगे बढ़ाने या बल देने के उद्देश्य से, केन्द्रीय जल संसाधन विभाग ने सर्वोच्च न्यायालय को अवगत कराया कि नदियों को जोड़ने संबंधी परियोजना की प्रस्तुति दिनांक 5 अक्टूबर 2002 को भारत के प्रधानमंत्री के सामने और दिनांक 16 अक्टूबर 2002 को राष्ट्रपति के सामने की गई है।

गौरतलब है कि सर्वोच्च न्यायालय के न्यायिक सुझाव की पृष्ठभूमि में भारत की 37 प्रमुख नदियों को जोड़ा जाएगा। इसके लिए एन.डब्ल्यू.डी.ए. द्वारा हिमालय क्षेत्र की कुल 14 नदियों और दक्षिण प्रायद्वीप की कुल 16 नदियों को जोड़ने के लिए संभाव्यता रिपोर्ट तैयार की जाएगी। प्रस्तावित नदी जोड़ों का परिशिष्टवार विवरण निम्नानुसार है-

परिशिष्ट आर-1


दक्षिण प्रायद्वीप की नदियों के विकास के लिए जोड़
1. महानदी (मणिभद्रा) - गोदावरी (दौलेश्वरम) नदी जोड़
2. गोदावरी (पोलावरम) - कृष्णा (विजयवाड़ा) नदी जोड़
3. गोदावरी (इच्छमपल्ली) - कृष्णा (नागार्जुनसागर) नदी जोड़
4. गोदावरी (इच्छमपल्ली का निचला बांध) - कृष्णा (नागार्जुनसागर का पिछला तालाब) नदी जोड़
5. कृष्णा (नागार्जुनसागर) - पेन्नार (सोमसिला) नदी जोड़
6. कृष्णा (श्रीसेलम्) - पेन्नार नदी जोड़
7. कृष्णा (अलमाटी) - पेन्नार नदी जोड़
8. पेन्नार (सोमसिला) - कावेरी (ग्रेन्ड एनीकट) नदी जोड़
9. कावेरी (कट्टलाई) - वाईगई (गुंडुर) नदी जोड़
10. पार्वती - कालीसिन्ध - चम्बल नदी जोड़
11. दमणगंगा - पिंजल नदी जोड़
12. पार - ताप्ती - नर्मदा नदी जोड़
13. केन-बेतवा नदी जोड़
14. पांबा - एचनकोविल - वाईपर नदी जोड़
15. नेत्रवती - हेमवती नदी जोड़ एवं
16. बेदती - बरदा नदी जोड़

परिशिष्ट आर-2


हिमालयीन नदियों के विकास के लिए जोड़
1. कोसी - मेची नदी जोड़
2. कोसी - घाघरा नदी जोड़
3. गंडक - गंगा नदी जोड़
4. घाघरा - यमुना नदी जोड़
5. शारदा - यमुना नदी जोड़
6. यमुना - राजस्थान नदी जोड़
7. राजस्थान - साबरमती नदी जोड़
8. चुनार - सोन बैराज जोड़
9. सोन बांध - गंगा के दक्षिण की सहायक नदियों का जोड़
10. ब्रह्मपुत्र - गंगा लिंक (मनास-संको-तिस्ता-फरक्का)
11. ब्रह्मपुत्र - गंगा लिंक (जोगीघोपा-तिस्ता-फरक्का)
12. फरक्का - सुन्दरबन लिंक
13. गंगा - दामोदर - सुवर्णरेखा लिंक
14. सुवर्णरेखा - महानदी लिंक

एन.डब्ल्यू.डी.ए. (2005) के अनुसार इस परियोजना के अंतर्गत 30 कृत्रिम जलमार्ग (नहरें) और पानी इकट्ठा (जल संचय) करने के लिए बांध बनाए जाएंगे। इन 30 कृत्रिम नहरों की कुल संभावित लंबाई लगभग 14,900 किमी. होगी। इन कृत्रिम नहरों की मदद से हर साल लगभग 173 बिलियन क्यूबिक मीटर पानी को ट्रांसफर किया जाएगा। इस परियोजना के पूरा होने पर 35 मिलियन हेक्टेयर जमीन की सिंचाई (22 मिलियन हेक्टेयर हिमालयीन इलाके में और 13 मिलियन हेक्टेयर दक्षिण भारतीय इलाके में) संभव होगी। इसके लिए 16 जलाशय हिमालयीन घटक में और 58 जलाशय दक्षिण भारतीय घटक में बनाए जाएंगे।

नदी विज्ञान और नदी प्रबंध की समग्र समझ रखने वाले विद्वानों के लिए नदी का प्राकृतिक केनवास बहुत विशाल एवं बहुआयामी होता है। उनके अनुसार, नदी के तंत्र का इको-सिस्टम समझना अत्यंत चुनौतीपूर्ण और जटिल कार्य है। मोटेतौर पर किसी भी नदी के तंत्र के अध्ययन को बायोलाजिकल एवं भौतिक अध्ययन जैसे वर्गों में विभाजित किया जा सकता है।

इस परियोजना के अंतर्गत हिमालय क्षेत्र के अतिरिक्त पानी को दो पृथक-पृथक जलमार्गों की मदद से ट्रांसफर किया जाएगा। पहले जलमार्ग की मदद से ब्रह्मपुत्र नदी (जलसमृद्ध घाटी) के अतिरिक्त पानी को कावेरी नदी तक और दूसरे जलमार्ग की मदद से राजस्थान की ओर ले जाया जाएगा। अनुमान है कि इस योजना के निर्माण के बाद हिमालयीन इलाके में 1.7 मिलियन हेक्टेयर और दक्षिण भारतीय इलाके में 0.85 मिलियन हेक्टेयर जमीन पर सूखे के असर को कम किया जा सकेगा।

हर साल लगभग तीन करोड़ किलोवाट बिजली हिमालयीन घटक से और चार करोड़ किलोवाट बिजली दक्षिण भारतीय घटक से पैदा होगी। जलमार्गों में जलपोतों का आवागमन सुलभ होगा। परियोजना के अन्य फायदों में बाढ़ और सूखे का नियंत्रण सम्मिलित है। सन 2002 के अनुमानों के अनुसार योजना पर लगभग 5,60,000 करोड़ रुपए खर्च होंगे।

इस परियोजना के अंतर्गत पानी को तीन जलमार्गों (यथा गंगा-सुवर्णरेखा जलमार्ग में 60 मीटर, सुवर्णरेखा-महानदी जलमार्ग में 48 मीटर और गोदावरी-कृष्णा जलमार्ग में 116 मीटर) पर ऊपर उठाना होगा जिसके लिए लगभग 4000 मेगावाट बिजली की आवश्यकता होगी। शेष जलमार्गों का पानी अर्थात जल समृद्ध नदियों का पानी ढाल के सहारे चलकर गरीब नदियों में पहुँचाया जाएगा। अनुमान है कि प्रस्तावित जल मार्गों के रास्तों में बनने वाले स्टोरेज जलाशयों (बांधों) के निर्माण के उपरांत बाढ़ की विभीषिका कम होगी। अनुमान है कि हिमालय तथा ब्रह्मपुत्र नदी तंत्र की बाढ़ के फ्लड पीक में 20 से 30 प्रतिशत की कमी आएगी।

आजादी के बाद, सिंचाई सेक्टर में अनेक बड़ी परियोजनाओं को क्रियान्वित किया गया है पर नदी जोड़ परियोजना, आधुनिक भारत की सबसे बड़ी, सबसे विशाल एवं अकल्पनीय सिंचाई परियोजना है। नेशनल वाटर डेवलपमेंट एजेंसी (एन.डब्ल्यू.डी.ए.) से अपेक्षा है कि वह अपना काम 2016 तक पूरा करें। गौरतलब है कि हिमालय से निकलने वाली कुछ नदियों के उद्गम स्थान और/या उनके कैचमेंट भारत के बाहर हैं अतः हिमालयीन नदियों के 14 जलमार्गों का काम नेपाल, भूटान और बांग्लादेश से हमारे रिश्तों, नियमों और जल बँटवारे से जुड़ी आपसी समझ से नियंत्रित होगा। दक्षिण प्रयद्वीप में भी बनने वाले जल मार्ग और पानी का बंटवारा राज्यों के बीच की समझदारी और आपसी संबंधों से नियंत्रित होगा।

भारत की संभावित सकल जलविद्युत उत्पादन क्षमता 84,000 मेगावाट है। अभी तक इस संभावित क्षमता के विरुद्ध लगभग 22,000 मेगावाट जलविद्युत उत्पादन क्षमता ही पैदा की जा सकी है। अनुमान है कि नदी जोड़ परियोजना के क्रियान्वयन से लगभग 34,000 मेगावाट जलविद्युत का उत्पादन संभव होगा। ऊर्जा क्षेत्र के जानकारों के अनुसार देश में ताप (थर्मल) एवं जल विद्युत के बीच बिजली उत्पादन का अनुपात 60:40 होना चाहिए। भारत में फिलहाल यह अनुपात 75:25 है। अतः नदी जोड़ परियोजना के अंतर्गत बनने वाले पनबिजली जलाशयों के निर्माण एवं पैदा होने वाली बिजली मिलने के उपरांत, आशा की जाती है कि यह अनुपात ठीक हो जाएगा।

सर्वोच्च न्यायालय के न्यायिक सुझाव के अनुसार परियोजना का पहला दायित्व सूखे का समाधान है। इस कारण सिंचाई की सुविधा को प्राथमिकता दी जानी चाहिए। इस क्रम में पेयजल आपूर्ति, स्वच्छता जरूरतें और पनबिजली पैदा करने के लिए हाइड्रो-इलेक्ट्रिक बांधों को वांछित मात्रा में पानी उपलब्ध कराना है। सरकार का अनुमान है कि विभिन्न नदी घाटियों के बीच पानी के ट्रांसफर से राजस्थान, हरियाणा, मध्य प्रदेश, आंध्र प्रदेश, गुजरात, कर्नाटक और तमिलनाडु के लगभग 25 लाख हेक्टेयर रकबे में सूखे के असर को कम करने में मदद मिलेगी।

एन.डब्ल्यू.डी.ए. द्वारा नदी जोड़ योजना के बारे में बताई खास-खास बातों को जानने के बाद पाठक, संभवतः सबसे पहले नदी के तंत्र के बारे में मूलभूत बातें और फिर नदियों को जोड़ने की प्रस्तावित योजना के बारे में अलग-अलग लोगों के विचार जानना चाहेंगे। इस क्रम में सबसे पहले नदी तंत्र को ही समझा जाए।

नदी विज्ञान और नदी प्रबंध की समग्र समझ रखने वाले विद्वानों के लिए नदी का प्राकृतिक केनवास बहुत विशाल एवं बहुआयामी होता है। उनके अनुसार, नदी के तंत्र का इको-सिस्टम (नदी संबंधी इकोलाजी) समझना अत्यंत चुनौतीपूर्ण और जटिल कार्य है। मोटेतौर पर किसी भी नदी के तंत्र के अध्ययन को बायोलाजिकल (स्ट्रीम इकोलाजी, सरोवर विज्ञान, मछली शास्त्र, जलीय कीट विज्ञान, बेन्थिक इकोलाजी, एक्वेटिक टाक्सिकोलाजी एवं भूआकृतिक इकोलाजी) एवं भौतिक (हाइड्रोलाजी, हाइड्रोडायनामिक्स, सिविल इंजीनियरिंग, नदी संबंधी भूआकृति विज्ञान, क्वाटर्नरी भूविज्ञान एवं हाइड्रालिक्स) अध्ययन जैसे वर्गों में विभाजित किया जा सकता है। इसके अलावा संस्कृति, इतिहास एवं समाज की मान्यताओं पर आधारित परंपराएं भी नदी तंत्र के अध्ययन के दायरे में आने वाले विषय हैं। बेहतर होगा कि नदी जोड़ योजना पर बात करने के पहले नदी और उससे जुड़े विभिन्न पहलुओं को थोड़ा बहुत समझ लें क्योंकि नदी प्रबंध का अर्थ केवल जल प्रबंध नहीं है, वास्तव में वह ईको-सिस्टम का कुशल प्रबंध है।

सबसे पहले नदी के तंत्र की आकृति की बात करें। नदी के तंत्र को आकृति प्रदान करने में क्षेत्रीय भूसंरचना की अत्यंत महत्वपूर्ण भूमिका होती है। यह क्षेत्रीय भूसंरचना मुख्यतः जलवायु और भूविज्ञान से नियंत्रित होती है, इसलिए नदी तंत्र की राह में पड़ने वाले प्रत्येक बिंदु पर नदी तंत्र में घट रही सभी प्रक्रियाओं और बदलते घटकों का प्रभाव पड़ता है। हकीकत में, नदियां कुदरती जलचक्र का अभिन्न अंग होती हैं इसलिए नदी के तंत्र के किसी भी बिंदु पर, कुदरती जलचक्र में व्यवधान पैदा करने या दखल देने का मतलब, कुदरती जलचक्र के साथ छेड़छाड़ करना है।

यह कुदरती विशेषता, उसके जलग्रहण इलाके के पानी और इलाके की भूसंरचना पर सक्रिय पानी की भौतिक, रासायनिक और जैविक प्रतिक्रियाओं का मिलाजुला परिणाम है। इस अनुक्रम में जलग्रहण इलाके में हो रही समस्त प्रक्रियाओं का सीधा संबंध नदी तंत्र के जल प्रवाह (सतही जल एवं भूमिगत जल) से है। दूसरे शब्दों में, नदी के जल प्रवाह का चरित्र, जलग्रहण इलाके के पानी के चरित्र पर निर्भर होता है। इस कारण नदी पथ के किसी भी बिंदु के प्राकृतिक जलप्रवाह पर डाले व्यवधान का असर नदी तंत्र की निरंतरता एवं व्यवधान बिंदु के नीचे के इलाके पर पड़ता है।

किसी भी नदी तंत्र का जल प्रवाह मुख्य रूप से रन-ऑफ, भूजल के योगदान और दोनों के मिले-जुले योगदान से नियंत्रित होता है। मौसम के हिसाब से इसमें लगातार बदलाव दर्ज होते हैं और लंबी कालावधि के हिसाब से कई बार गंभीर बदलाव देखे जाते हैं। इस योगदान और बदलाव का प्रभाव नदीतंत्र में बहने वाले पानी के तापमान, उसकी गुणवत्ता, उसमें पलने वाले जीव-जंतुओं और जलीय वनस्पतियों पर पड़ता है।

किसी भी नदी की भूआकृतिक संरचना उसके तंत्र को मुख्य रूप से तीन भागों में बांटती है। पहले भाग में पानी में घुले खनिज पदार्थ, कटी मिट्टी और उसके उपजाऊ तत्व इत्यादि उसमें प्रवाहित होते हैं। दूसरा भाग, डेल्टा और पहले भाग के बीच का मध्य भाग होता है। इस मध्य भाग में नदी की मुख्य गतिविधि पानी को आगे बढ़ाने और नदी घाटी के विकास की है। अंतिम भाग में नदी की मूल ज़िम्मेदारी पानी एवं पानी के साथ लाए पदार्थों को समुद्र को सौंपना है। नदी की इस ज़िम्मेदारी को जमीन के ढाल और बहते पानी द्वारा अर्जित ऊर्जा की मदद से पूरा किया जाता है। कैचमेंट में भूमि कटाव के कारण सभी घटकों में परिवर्तन होते हैं और नदी किसी जीवित व्यक्ति की तरह बाल्यावस्था, युवा अवस्था और बुढ़ापे के दौर से गुजरती है।

इस सारे विवरण को पेश करने का उद्देश्य पाठकों के ध्यान में लाना है कि बहती नदी का पानी मौसम, हवा, रोशनी, धरती, जीव-जंतुओं और अनेकानेक घटकों के संपर्क में आने और प्रकृति द्वारा उसे सौंपे दायित्वों को पूरा करने के कारण, पाइप में से बहने वाले पानी से सभी अर्थों में बहुत अलग है। यही अंतर नदी जोड़ योजना पर विचार एवं उसको लागू करते समय याद रखने योग्य है। इस संक्षिप्त विवरण के उपरांत विभिन्न क्षेत्रों के जानकारों और प्रमुख लोगों की प्रतिक्रियाओं को जानना और फिर योजना के विभिन्न पक्षों पर खुली चर्चा करना उचित होगा।

गौरतलब है कि नदी जोड़ परियोजना का प्रारंभ उस समय हो रहा है जब देश का जल परिदृश्य और जल संकट के आयाम के मायने और दायरे बदल गए हैं। इस बदलाव के कारण खेती, पेयजल, नगरीय इलाकों में नागरिक सुविधाओं और औद्योगिक इकाइयों में पानी की मांग लगातार बढ़ रही है, अनेक इलाकों में बारहमासी नदियों की संख्या घट रही हैं, पानी की गुणवत्ता खराब हो रही है और भूजल स्तर गिरने तथा अतिदोहित, क्रिटिकल तथा सेमी-क्रिटिकल विकास खंडों की संख्या तेजी से बढ़ रही है जलवायु परिवर्तन का असर कहीं-कहीं समझ में आ रहा है।

चूंकि इस मेगा प्रोजेक्ट पर बहुत बड़ी राशि व्यय की जाना प्रस्तावित है इसलिए समस्याओं के निराकरण की अपेक्षाएं भी व्यय के अनुपात में कम नहीं हो सकती हैं। उपरोक्त संक्षिप्त विवरण एवं जल संकट के मौजूदा आयाम की पृष्ठभूमि में इस योजना के विभिन्न पक्षों पर राजनीतिक पार्टियों, प्रभावित आबादी सहित अन्य लोगों यथा राज्य सरकारों, सिविल सोसाइटी, भूवैज्ञानिकों, प्रबुद्ध वर्ग, सामाजिक कार्यकताओं, प्रबंधकों इत्यादि के विचार जानना सामयिक एवं समझदारी होगा।

सबसे पहले जल संकट, सूखा और जलवायु परिवर्तन की पृष्ठभूमि में पानी की कमी झेल रहे राज्यों के बारे में बात करें। चूँकि इस योजना को पानी के संकट के समाधान के रूप में पेश किया गया है इसलिए मतदाताओं को प्रसन्न रखने या लुभाने की मजबूरी के कारण, कोई भी राज्य सरकार या विरोधी दल इस योजना से असहमत हो ही नहीं सकता। अलबत्ता, यह कहना सही हो सकता है कि कई बार अपनी नदियों के पानी को दूसरे राज्यों को देने के मामले में राज्य सरकारों और राजनीतिक दलों की असहमति, औचित्य के स्थान पर राजनीतिक फायदे-नुकसान से अधिक नियंत्रित होंगी।

राजनीतिक दलों को राजनीति करने और समाज की सहानुभूति पाने के लिए यह योजना लोक लुभावन एवं आकर्षक मुद्दा है। उल्लेखनीय है कि हर मामले में असहमत रहने वाली सभी राजनीतिक पार्टियां, अधिकांश आबादी की सहानुभूति बटोरने वाले इस मुद्दे पर आश्चर्यजनक रूप से एकमत हैं। इस अनुक्रम में राजनीतिक दलों के विचारों को पूरा-पूरा सम्मान तो देना होगा, पर कई बार उसमें औचित्य खोजना शायद बहुत कठिन होगा।

अनेक विद्वानों ने पानी के मामले में अमीर (सरप्लस) और गरीब (डेफिसिट) नदियों की अवधारणा पर प्रश्न चिन्ह लगाए हैं। कुछ लोगों को तो सरकार का रवैया ही समझ में नहीं आता। उनके अनुसार, एक कालखंड में जिस परियोजना को सरकार ने विभिन्न कारणों से अनुपयुक्त करार दिया था और जिसे, भारत सरकार द्वारा नियुक्त हाशिम कमीशन ने तकनीकी आधार पर नकार दिया था, वहीं परियोजना रातों-रात मनमोहक ही नहीं हर नजरिए से उपयुक्त कैसे और क्यों हो गई? अनुपयुक्तता के सारे मापदंड अचानक कैसे बदल गए? उच्चतम न्यायालय में सकारात्मक जवाबदावा क्यों पेश किया गया? क्या अनुपयुक्त योजना के संदर्भ में कल्याणकारी सरकार का दायित्व एवं राजधर्म यही है?

उच्चतम न्यायालय के पूर्व मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति बी.एन. कृपाल ने, जो नदियों की नेटवर्किंग की सुनवाई कर रही बैंच के अध्यक्ष थे, 7 दिसम्बर 2002 को बेंगलुरु में बताया था कि उच्चतम न्यायालय ने दिनांक 31 अक्टूबर 2002 के फैसले में भारत सरकार को नदियों की नेटवर्किंग के बारे में सुझाव दिया है। न्यायमूर्ति बी.एन. कृपाल के अनुसार उच्चतम न्यायालय के इस सुझाव को हस्तक्षेप नहीं माना जा सकता।

उच्चतम न्यायालय के इस निर्णय को भारत सरकार के जल संसाधन विभाग के पूर्व सचिव रामास्वामी आर. अय्यर, (इकोनाॅमिक एंड पालिटिकल वीकली, 16.11.02 में प्रकाशित लेख) में न्यायिक सक्रियता या ज्यूडिशियल एक्टिविज्म का ऐसा उदाहरण मानते हैं जिसका बचाव नहीं किया जा सकता। नवधान्य, नई दिल्ली के प्रकाशन ‘लिंकिंग आफ इंडियन रिवर्स-कुछ प्रश्न’ (जल स्वराज-जल संप्रभुता श्रृंखला नम्बर 1, मार्च 2003) में रामास्वामी अय्यर ने इस योजना के बारे में तीन प्रश्न उठाए हैं-

1. क्या उच्चतम न्यायालय का इस तरह के निर्देश देना सही है?
2. भारत सरकार की प्रतिक्रिया इतनी त्वरित और उत्साहवर्धक क्यों है?
3. क्या दो नदी घाटियों के बीच पानी के ट्रांसफर का विचार सही है?

रामास्वामी अय्यर ने अपने लेख में टास्क फोर्स से उम्मीद जताई थी कि वो नदी जोड़ की तजबीज के अलावा योजना के तकनीकी औचित्य और अवधारणा के बौद्धिक पक्ष पर ध्यान देगी। इस उल्लेख का अर्थ है योजना से असहमति। जाहिर है, भारत सरकार के जल संसाधन विभाग के पूर्व सचिव रामास्वामी अय्यर की नजर में मामला सामान्य नहीं है।

सेंटर फॉर साइंस एंड एन्वायरनमेंट, नई दिल्ली की पर्यावरणविद् सुनीता नारायण का कहना है कि जिस समय ब्रह्मपुत्र में बाढ़ का अतिरिक्त पानी होगा, उन्हीं दिनों गंगा और महानदी में भी अधिक पानी होगा। इस कारण जल संग्रहण क्षेत्र उलटकर बहने लगेंगे।

हिमालयीन नदियों के साथ बहुत बड़ी मात्रा में आने वाली रेत और मिट्टी के जमाव से होने वाली समस्या से निपटने की तरकीब का खुलासा आवश्यक है। यह सिल्ट, जलमार्गों और उप-जलमार्गों के उपयोगी जीवनकाल और जल परिवहन के लिए गंभीर खतरा है। इस बारे में कोसी की बाढ़ के साथ आने वाली सिल्ट का उदाहरण हमारे सामने है। दक्षिण प्रायद्वीप के जलमार्गों पर भी यह खतरा है परंतु उसकी मात्रा अपेक्षाकृत कम है।टीईआरआई. (TERI) के आर.के. पचौरी का कहना है कि बहुत सी नहरें राष्ट्रीय उद्यानों और पक्षी विहारों से होकर गुजरेंगी। उनमें से कितनों को हटाया जाएगा? पेड़, पौधे, जीव-जन्तु और मिट्टी किस प्रकार प्रभावित होगी? सुप्रसिद्ध पत्रकार शंकर अय्यर का कहना है कि नेपाल, भूटान एवं बांग्लादेश की सहमति लेने की आवश्यकता होगी। राज्यों का सहयोग सरलता से नहीं मिलेगा और 79,292 हेक्टेयर जंगल पानी में डूब जाएँगे।

प्रसिद्ध पर्यावरणविद डेरिल डि मोंटे का मानना है कि उत्तर की नदियों से दक्षिण की ओर पानी ले जाने के लिए काफी बिजली की आवश्यकता होगी। इस काम में लगने वाली बिजली का उत्पादन पनबिजली से करना पड़ेगा - इससे पूरी की पूरी परियोजना ही बेकार हो जाएगी। टास्क फोर्स के सुरेश प्रभु स्वीकारते हैं कि इस परियोजना की लागत में 200 अरब डालर अर्थात लगभग 10,00,000 करोड़ रु. तक का इजाफा हो सकता है। उनके अनुसार पनबिजली उत्पादन और जहाजरानी के क्षेत्रों में निजी क्षेत्र कार्य करेगा। भारत के जल संसाधन मंत्रालय की अतिरिक्त सचिव राधा सिंह के मुताबिक निजी क्षेत्र इसमें प्रवेश करेगा।

नवधान्य के प्रकाशन जल स्वराज (जल संप्रभुता श्रृंखला नम्बर 2) में वंदना शिवा और कुंवर जलीस (पेज 5) कहते हैं कि इंजीनियरों की लंबी चौड़ी महत्वाकांक्षाएं और नौकरशाहों तथा ठेकेदारों के बीच सांठगांठ के कारण इस बात की संभावना ज्यादा रहेगी कि आम जनता को पानी की सुरक्षा का सपना दिखाकर लुभाया जा सके। इतनी बड़ी परियोजना, वास्तव में ऐसे हालात पैदा कर देगी जिसमें बड़े पैमाने पर पानी के निजीकरण के सिवाए और कोई चारा नहीं बचेगा। अर्थात ऐसे भविष्य की ओर आंख मूंदकर बढ़ना ही वास्तविक खतरा है। अनुमान है कि इस परियोजना के लिए मूल कर्ज की सालाना ब्याज राशि 20,000 से लेकर 30,000 हजार करोड़ के बीच होगी।

ओर.एन.जी.सी. के पूर्व भू-भौतिकीविद डी.के. त्रेहन एवं प्रोफेसर वी.के. खन्ना (2006) के साइंस कांग्रेस में पढ़े परचे के अनुसार- नदी जोड़ योजना का पूरा हिमालयीन घटक, भूकंपों की दृष्टि से अत्यंत संवेदनशील इलाके में स्थित है। इस इलाके में स्थित अरुणाचल प्रदेश का इलाका तो भूकंप की दृष्टि से दुनिया का सर्वाधिक सक्रिय इलाका माना जाता है। इस क्षेत्र में सन 1897 में शिलांग में 8.7 तीव्रता का, सन 1905 में कांगडा में 8.6 तीव्रता का, सन 1934 में बिहार में 8.4 तीव्रता का, सन 1950 में असम में 8.7 तीव्रता का, सन 1954 में नेपाल में 6.5 तीव्रता का, सन 1991 में उत्तरकाशी में 6.6 तीव्रता का भूकंप आ चुका है।

चूँकि यह पूरा का पूरा इलाका अत्यंत संवेदनशील है इसलिए इस इलाके में अधिक तीव्रता के भूकंपों के आने से नदी तंत्र नष्ट हो सकता है, नदियों की दिशा बदल सकती है, धरती धंस सकती है और ढाल बदल सकते हैं। उल्लेखनीय है कि सन 1897 के असम भूकंप के दौरान ब्रह्मपुत्र नदी 7.6 मीटर ऊपर उठ गई थी जिसके कारण उसके प्रवाह की दिशा बदल गई थी। असम के भूकंप में 43,000 वर्ग किलोमीटर इलाके और 1950 के अरुणाचल प्रदेश के भूकंप में 35,500 वर्ग किलोमीटर इलाके की जमीन छिन्न-भिन्न हो गई थी और उसमें दरारें पड़ गईं थीं।

त्रेहन एवं खन्ना के आलेख में टाइम्स ऑफ इंडिया, नई दिल्ली में दिनांक 23.10.2006 को छपे समाचार के हवाले से बताया गया है कि चीन की मंशा, ब्रह्मपुत्र नदी के किनारे बसे शुओमातान नामक स्थान पर बांध बनाने की है। यह स्थान तिब्बत के इलाके में है। शुओमातान नामक स्थान पर प्रस्तावित बांध से हर साल 200 बिलियन क्यूबिक मीटर पानी को यलो नदी में ट्रांस्फर करने की योजना है। यह बांध बनने के बाद भारत और बांग्लादेश को मिलने वाले पानी की मात्रा में भारी कमी आएगी। तब हमारे प्रस्तावों और वायदों का क्या होगा?

दक्षिण भारत के घटक के इलाके में रन आफ कच्छ, पश्चिमी घाट और सोन-नर्मदा ग्रेबन भूकंप की दृष्टि से अत्यंत संवेदनशील हैं। कच्छ के इलाके में सन 1819, 1903, 1956 और 2001 में क्रमशः 7.8, 6.0, 6.1 और 7.7 तीव्रता के भूकंप आ चुके हैं। इस इलाके में हिमालयीन घटक का पानी दिया जाना प्रस्तावित है, अतः प्रस्तावित जलमार्ग पर भूकंप का खतरा है। सोन-नर्मदा इलाके में सन 1927 में रीवा में 6.5 तीव्रता का, सन 1938 में सतपुड़ा में 6.3 तीव्रता का और सन 1997 में जबलपुर में 6.0 तीव्रता का भूकंप आ चुका है। मध्य प्रदेश के खंडवा इलाके में भूकंप की घटनाएं अक्सर होती रहती हैं।

सन 1938 के भूकंप का असर 10 लाख वर्ग किलोमीटर इलाके में अनुभव किया गया था। भू-वैज्ञानिकों द्वारा इस इलाके में भविष्य में बड़े भूकंप की आशंका जताई गई है। पश्चिमी घाट खासकर सह्याद्रि पर्वत के निचले इलाके को भूवैज्ञानिक संवेदनशील मानते हैं। उन नदियों पर जो फाल्ट लाईन पर बहती हैं और बांध से संबद्ध हैं, भविष्य में भूकंप आने की आशंका है। दामनगंगा-पिंजल जलमार्ग भी सक्रिय भूकंप पट्टी पर स्थित है। इस इलाके में 5.7 तीव्रता का भूकंप आ चुका है। त्रेहन एवं खन्ना के अनुसार भूकंप प्रवण जोन चार और पांच में यह खतरा सबसे अधिक है।

इंडियन स्कूल ऑफ माइन्स, धनबाद के व्यावहारिक भूविज्ञान के पूर्व प्रोफेसर के. एल. राय (2006) के अनुसार नदी घाटियों के जल विज्ञान एवं भूजल विज्ञान के अध्ययन, क्षेत्र पर प्रभाव डालने वाले विभिन्न भूवैज्ञानिक घटकों, पर्यावरणीय परिणामों, वायुमंडलीय एवं मौसम विज्ञान संबंधी परिवर्तनों और सामाजिक, वित्तीय, कानूनी और राजनीतिक नजरिए से पूरी योजना का अध्ययन आवश्यक है। उनके अनुसार, भूकंप, प्रवण क्षेत्रों में संभावित भूकंपों से जलाशयों और जलमार्गों की तबाही से इंकार नहीं किया जा सकता। यह तबाही कई हजार वर्ग किलोमीटर इलाके में धरती फटने, नदियों के जलमार्गों में अविश्वसनीय बदलावों, भूस्खलन जलाशय जनित भूकंपों और जमीन धंसने जैसे परिणामों से आना संभावित है। क्या यह खतरा उठाने के लिए समाज तैयार है? क्या सूखे को कम करने के लिए सारे विकल्प तलाशे जा चुके हैं? क्या और कोई चारा नहीं है?

प्रोफेसर राय कहते हैं कि योजना के क्रियान्वयन से विभिन्न समस्याएं यथा बड़े पैमाने पर विस्थापन, जलाशयों और जलमार्गों में गाद जमा होना, वाटरलागिंग, सीपेज, मिट्टी का खारापन इत्यादि पैदा होंगी। योजना के कारण 6,25,000 हेक्टेयर जमीन नहरों में और 1,050,000 हेक्टेयर जमीन जलाशयों के डूब में आएगी। विभिन्न रासायनिक गुणधर्मों वाले नदियों के पानी के आपस में मिलने से पानी का रसायनशास्त्र बदलेगा और जलचरों तथा वनस्पतियों पर असर डालेगा।

हर नदी के डेल्टा और नदी तट संबंधी पारिस्थितिकी में बदलाव आएगा। इस बदलाव का अध्ययन किया जाना चाहिए एवं संभावित दूरगामी परिणामों से बचने की रणनीति पर काम किया जाना चाहिए। डाॅ. राय के अनुसार, योजना के असर से बंगाल की खाड़ी और अरेबियन सागर के पानी का खारापन, तापमान और वाष्पीकरण बदलेगा। जलवायु में परिवर्तन आने और बरसात के चरित्र में बदलाव की संभावना है।

हिमालयीन नदियों के साथ बहुत बड़ी मात्रा में आने वाली रेत और मिट्टी (सिल्ट) के जमाव से होने वाली समस्या से निपटने की तरकीब का खुलासा आवश्यक है। यह सिल्ट, जलमार्गों और उप-जलमार्गों के उपयोगी जीवनकाल और जल परिवहन के लिए गंभीर खतरा है। इस बारे में कोसी की बाढ़ के साथ आने वाली सिल्ट का उदाहरण हमारे सामने है। दक्षिण प्रायद्वीप के जलमार्गों पर भी यह खतरा है परंतु उसकी मात्रा अपेक्षाकृत कम है। सिल्ट के अलावा गंदगी, विषैले पदार्थ और औद्योगिक कचरा भी जलमार्गों में मिलेगा और नई-नई जगह अपना प्रभाव फैलाएगा। अनेक भूविज्ञानियों की राय में परियोजना के पैरोकारों द्वारा भूवैज्ञानिक पक्ष की अनदेखी अनुचित है। इस अनदेखी का समाज पर बुरा असर पड़ेगा।

डाॅ. के. पी. घोष, संपादक, ने न्यूज लेटर, (अक्टूबर 2005 एवं मार्च 2006) में लिखा है कि देश के चुनिंदा वैज्ञानिकों यथा यू. सी. मोहन्ती (आईआईटी दिल्ली), आर. रमेश (पी. आर. एल. अहमदाबाद), प्रसन्न कुमार (नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ ओसोनोग्राफी), आर.के. कोहली (इंडियन इंस्टीट्यूट आफ ट्रापीकल मीटीरियालॉजी) एवं जी. एस. भट्ट (आई.आई.एस.सी. बेंगलुरु) इस योजना के पक्ष में नहीं, हैं, वहीं एन.डब्ल्यू.डी.ए. नदी जोड़ के काम को आगे ले जा रही है।

घोष के अनुसार पूरी दुनिया में बंगाल की खाड़ी एकमात्र खाड़ी है जिसके पानी की ऊपरी 10 से 20 मीटर मोटी परत कम खारी है। इस परत के कारण बंगाल की खाड़ी में बहुत अधिक मात्रा में नमी पैदा होती है। यह नमी ही भारत की बरसात का आधार है। इसी कारण दुनिया की सकल बरसात का 4 प्रतिशत भाग भारत के हिस्से में आता है। नदी जोड़ योजना बनने के बाद नदियां बंगाल की खाड़ी में कम पानी पहुंचाएंगी, साफ पानी की परत की मोटाई घटेगी, समुद्री पानी का खारापन बढ़ेगा, कम नमी बनेगी और कालांतर में भारत में बरसात की मात्रा में कमी आएगी।

बरसात के कम होने से इलाके की धान का उत्पादन कम होगा। घोष अपने संपादकीय में आगे कहते हैं कि कम खारे पानी की परत के समाप्त होने से फायटोप्लेंक्टान (समुद्री जीव) की संख्या में इजाफा होगा और वे समुद्र जल की ऑक्सीजन को समाप्त कर देंगे। वे बड़ी मात्रा में वायुमंडल में नाइट्रस ऑक्साइड छोड़ेंगे। ग्रीन हाउस गैस के रूप में नाईट्रस ऑक्साइड लगभग बीस गुना अधिक प्रभावी है। इस गैस के कारण ग्लोबल वार्मिंग की गति बढ़ेगी और ओजोन की परत घटेगी। क्या इन नुकसानों की भरपाई संभव है?

नदी जोड़ योजना पर आए फैसले के बाद प्रोफेसर वैद्यनाथन और वर्ल्ड वाइल्ड लाइफ फंड (डब्ल्यू. डब्ल्यू. एफ.) के तत्कालीन डायरेक्टर जनरल की प्रतिक्रिया बहुत महत्वपूर्ण थी। प्रोफेसर वैद्यनाथन के अनुसार नदी जोड़ परियोजना, पानी के मामले में अमीर और गरीब घाटी की काल्पनिक अवधारणा पर आधारित है। इस अवधारणा में माना गया है कि बाढ़ के अतिरिक्त पानी को भौतिक रूप में, कम खर्चीले एवं व्यावहारिक तरीके से एक बेसिन से दूसरी बेसिन में, बिना विपरीत प्रभाव डाले ट्रांसफर किया जा सकता है।

प्रोफेसर वैद्यनाथन कहते हैं कि जब नेशनल वाटर डेवलपमेंट एजेंसी द्वारा निर्धारित सरप्लस पानी के आंकड़ों पर राज्यों को गंभीर आपत्ति है तो किसने और कैसे अमीर और गरीब घाटी और सरप्लस पानी की मात्रा का निर्धारण किया है? वैद्यनाथन के अनुसार भारत की सभी नदियों में सरप्लस पानी केवल बरसात के महीनों में उपलब्ध रहता है जबकि इसकी सबसे अधिक जरूरत सूखे मौसम में होती है। इसलिए समस्या केवल सरप्लस पानी के ट्रांसफर की नहीं है अपितु उस विशाल मात्रा को वांछित अवधि तक संजोए रखने की है। वैद्यनाथन के अनुसार सबसे गंभीर समस्या सरप्लस पानी की विशाल मात्रा को वांछित अवधि तक बांधों में सहेजकर रखने के अलावा पर्यावरण तथा आबादी पर पड़ने वाले प्रभाव की है।

डब्ल्यू. डब्ल्यू. एफ. के तत्कालीन डायरेक्टर जनरल के अनुसार “इकोलॉजिकल प्रभावों की उपेक्षा कर, पाइप लाइनों की तर्ज पर, नदियों को जोड़ने के खतरनाक परिणाम होंगे। नदी मात्र पानी तक सीमित नहीं होती वरन उसमें ढेर सारी जैवविविधता होती है जो उसमें और उसके आसपास रहने वाले जीव-जंतुओं की आजीविका का आधार होती है।” ए.वैद्यनाथन (2003) कहते हैं कि नदी घाटी में सरप्लस पानी की गणना करते समय विभिन्न घटकों की मात्रा के अनुमानों में हल्के से परिवर्तन (अंतर) से परिस्थितियों में उल्लेखनीय बदलाव संभव है।

Posted by
Get the latest news on water, straight to your inbox
Subscribe Now
Continue reading