नदी जोड़ परियोजना - गम्भीर होती परिस्थितियों से तालमेल जरूरी


सन 1858 में सर आर्थर थामस कार्टन ने विदेशी माल ढुलाई का खर्च कम करने के लिये दक्षिण भारत की नदियों को जोड़ने का सुझाव दिया था। उसके बाद, सन 1972 में डॉ. केएल राव ने गंगा और कावेरी नदी को जोड़ने का सुझाव दिया। लगभग 30 सालों तक प्रस्ताव परीक्षणाधीन रहा और अन्ततः आर्थिक तथा तकनीकी आधार पर अनुपयुक्त होने के कारण खारिज हुआ।

सन 1982 में नेशनल वाटर डेवलपमेंट ऐजेंसी (एनडब्ल्यूडीए) का गठन हुआ। इस ऐजेंसी ने नदी जोड़ योजना के प्रस्ताव में नौकायन और सिंचाई इत्यादि घटकों को सम्मिलित कर पुनः प्रस्ताव तैयार किया। उस प्रस्ताव पर हाशिम कमीशन के प्रश्नचिन्ह लगाने के कारण मामला एक बार फिर फिस्स हो गया।

सन 2002 में जनहित याचिका दायर हुई। उस पर उच्चतम न्यायालय द्वारा दिये सुझावानुसार एनडब्ल्यूडीए (2005) ने देश की 37 प्रमुख नदियों को जोड़ने का प्रस्ताव तैयार किया। इस प्रस्ताव के अनुसार नदी जोड़ योजना के अन्तर्गत 30 जलमार्ग (लम्बाई लगभग 14,900 किलोमीटर) और पानी जमा करने के लिये 16 जलाशय हिमालयीन घटक में और 58 जलाशय दक्षिण भारत में बनाए जाएँगे।

अनुमान है कि नदी जोड़ योजना के पूरा होनेे पर 25.5 लाख (17 लाख हेक्टेयर हिमालय क्षेत्र में और 8.5 लाख हेक्टेयर दक्षिण भारत में) सूखे का असर कम होगा।

इस योजना से चार करोड़ किलोवाट बिजली पैदा होगी। इस योजना में तीन स्थानों (गंगा - सुवर्णरेखा जलमार्ग में 60 मीटर, सुवर्णरेखा - महानदी जल मार्ग में 48 मीटर और गोदावरी - कृष्णा जलमार्ग में 116 मीटर) पर पानी उठाया जाएगा। पानी उठाने में कुल 4000 मेगावाट बिजली खर्च होगी। अनुमान है कि स्टोरेज जलाशयों (बाँधों) के बनने के बाद बाढ़ की विभीषिका घटेगी। हिमालय और ब्रह्मपुत्र नदी तंत्र की बाढ़ के पीक फ्लड में 20 से 30 प्रतिशत कमी आएगी। यह योजना का घोषित पक्ष है।

नदी जोड़ योजना को तीन अलग-अलग कालखण्डों में प्रस्तावित किया गया है। कालखण्ड अनुसार प्रस्तावों की सम्भावित परिस्थितियाँ निम्नानुसार रही होंगी-

पहला प्रस्ताव सन 1858 में सामने आया था। उसका उद्देश्य दक्षिण भारत की नदियों द्वारा विदेशी माल की किफायती ढुलाई था। सन 1858 में कावेरी विवाद का अस्तित्व नहीं था। सन 1858 में दक्षिण भारत की नदियों में पर्याप्त जल प्रवाह रहा होगा। पेयजल कष्ट नहीं होगा। पानी साफ और निर्मल रहा होगा। विविध पर्यावरणी संकट अस्तित्व में नहीं थे।

दूसरा प्रस्ताव कावेरी नदी जल विवाद अभिकरण के गठन के 18 साल बाद सन 1972 में सामने आया। उसका सम्बन्ध, मुख्य रूप से कावेरी जल विवाद को समाप्त करना था। माना जा सकता है कि सन 1972 में दक्षिण भारत में पेयजल संकट, आज जैसा नहीं था। अधिकांश नदियाँ बारहमासी थीं। गंगा में पर्याप्त प्रवाह था। पानी लगभग साफ था पर पर्यावरणी संकट के संकेत मिलने लगे थे। जल परिदृश्य काफी हद तक ठीक था।

तीसरा प्रस्ताव सन 2005 में आया। इस समय तक पानी की कमी और सूखा सम्भावित इलाकों की समस्याएँ दस्तक देने लगी थीं। 2005 से 2014 तक का समय योजना की तैयारी में गुजर गया। इस अवधि में देश के दस राज्यों के सूखा सम्भावित जिलों में स्थिति गम्भीर हो गई। सूखा जैसे स्थायी मेहमान बन गया। इसके अलावा, सन 1997 की तुलना में सूखा सम्भावित इलाके का रकबा लगभग 57 प्रतिशत बढ़ गया। नदियों में प्रवाह में कमी दिखने लगी। नदी मार्ग के अनेक हिस्सों में प्रदूषण का असर दिखने लगा। इस कालखण्ड में नदियों के सूखने का सिलसिला प्रारम्भ हो चुका था।

तीनों प्रस्तावों का तुलनात्मक अध्ययन इंगित करता है कि अब देश के समूचे सूखा सम्भावित इलाकों को ध्यान में रख काम करना चाहिए। बाँध आधारित योजनाएँ, उनकी तकनीकी आवश्यकताओं के कारण, इलाके की पूरी जमीन को लाभान्वित नहीं करतीं। कैचमेंट छूट जाते हैं। सभी जानते हैं कि बाँध आधारित योजनाओं के तीन घटक होते हैं।

पहला घटक कैचमेंट (पानी देने वाला इलाका) होता है। दूसरा घटक जलाशय होता है। जलाशय में कैचमेंट का पानी जमा होता है। तीसरा घटक कमाण्ड होता है। कमाण्ड को पानी का पूरा-पूरा लाभ मिलता है। कैचमेंट को जलाशय से कुछ नहीं मिलता। यही वह इलाका है जिसके नागरिक अपने हिस्से का पानी को देकर सदा-सदा के लिये पानी की कमी, सूखे और पलायन का दुख भोगते हैं।

इसके अतिरिक्त कैचमेंट के कुछ इलाके अतिदोहित, क्रिटिकल और सेमी क्रिटिकल की श्रेणी में आते हैं। यह बताया जाना चाहिए कि उन इलाकों की सूखती और प्रदूषित होती नदियों तथा उन इलाकों में बसने वाले नागरिकों का क्या भविष्य है? क्या वे बिना पानी या कम पानी में सुरक्षित होंगे? अनुमान है कि योजना के कारण लगभग आठ लाख हेक्टेयर जमीन डूब में आएगी और 55 लाख नागरिक विस्थापित होंगे।

नदी जोड़ योजना के सकल कैचमेंट और सकल कमाण्ड के रकबों की यदि तुलना की जाये तो पता चलता है कि लाभान्वित इलाका बेहद कम और वंचित सूखा इलाका बहुत अधिक है। अनेक मामलों में लाभान्वित इलाका एक प्रतिशत के आसपास है। उदाहरण के लिये मध्य प्रदेश के बारना प्रोजेक्ट में कैचमेंट की तुलना में कमाण्ड एरिया एक प्रतिशत से कम है। बरगी के लिये यह मात्र 1.5 प्रतिशत है। ओंकारेश्वर के लिये यह आधा प्रतिशत है।

लगभग यही स्थिति देश के अन्य बाँधों के लिये है। इससे जाहिर है कि बाँध योजनाओं से लाभान्वित इलाका बेहद कम होता है। एनडब्ल्यूडीए को चाहिए कि वह सिंचित तथा वंचित इलाके की हकीकत को देश और समाज के सामने लाये और बताए कि नदी जोड़ योजना को क्रियान्वित करने से देश का कितने प्रतिशत इलाका हमेशा-हमेशा के लिये संकटग्रस्त वर्षा आश्रित इलाका बन जाएगा।

इन सम्भावनाओं के कारण कहा जा सकता है कि नदी जोड़ योजना पूरी होने के बाद भी देश के बहुत बड़े इलाके में भीषण जल संकट होगा। ग्लोबल वार्मिंग, अनियमित बारिश और भूजल स्तर की गम्भीर गिरावट के कारण संकट अकल्पनीय हो सकता है। इसके अतिरिक्त, योजना के क्रियान्वयन से देश में दो प्रकार के विस्थापित होंगे। पहले वर्ग में बाँधों के डूब क्षेत्र में रहने वाले लोग और दूसरे वर्ग में पानी की कमी के कारण बने जल शरणार्थी। जल शरणार्थी होने का दर्द बुन्देलखण्ड और मराठवाड़ा के लोगों से अधिक कोई नहीं जानता। उन्हें ध्यान में रख योजनाएँ बनना चाहिए।

सब जानते हैं कि बाँधों और उनके नेटवर्क को पूरा होने में 25 से 30 साल लगते हैं। इसलिये कहा जा सकता है कि सारी मशक्कत के बावजूद नदी जोड़ योजना के फायदे 25 से 30 साल के पहले नहीं मिलेंगे। इसलिये पहला प्रश्न यह है कि क्या जल संकट जूझ रहे नागरिकों को 25 से 30 साल इन्तजार करने के लिये कहा जाना चाहिए। दूसरा प्रश्न यह है कि कैचमेंट के वंचित लोगों के लिये एनडब्ल्यूडीए की क्या योजना है?

उपर्युक्त सवाल, नदी ड़ योजना पर प्रश्नचिन्ह लगाते हैं क्योंकि वह देश के सूखा प्रभावित इलाकों में जल संकट के हल का समग्र रोडमैप प्रस्तुत नहीं करती। देश को बेहतर समाधान चाहिए। यही मौजूदा परिस्थितियों की जायज माँग है।
 

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