नदी-मुखेनैव समुद्रम् आविशेत्

9 Mar 2011
0 mins read
सुबह या शाम के समय नदी के किनारे जाकर आराम से बैठने पर मन में तरह-तरह के विचार आते हैं। बालू का शुभ्र विशाल पट हमेंशा वहीं का वहीं होता है, फिर भी वहां का हर एक कण पवन या पानी से स्थान भ्रष्ट होता है। इतनी सारी बालू कहां से आती है और कहां जाती है? बालू के पट पर चलने से उसमें पांवों के स्पष्ट या अस्पष्ट निशान बनते हैं। किन्तु घड़ी दो घड़ी हवा बहने पर उनका ‘नामो-निशान’ भी नहीं रहता। दो किनारों की मर्यादा में रहकर नदी बहती है, वह कभी रुकती नहीं। पानी आता है और जाता है, आता है और जाता है। छुटपन में मन में विचार आता था कि ‘मध्यरात्रि के समय यह पानी सो जाता होगा और सुबह सबसे पहले जागकर फिर से बहने लगता होगा। सूरज, चांद और अनगिनत तारे जिस प्रकार विश्रांति लेने के लिए पश्चिम की ओर उतरते हैं, उसी प्रकार यह पानी भी रात को सो जाता होगा। विश्रांति की हरेक को आवश्यकता रहती है।’ बाद में देखा, नहीं, नदी के पानी को विश्रांति की आवश्यकता नहीं है। वह तो निरन्तर बहता ही रहता है।

नदी को देखते ही मन में विचार आता है- यह आती कहां से है और जाती कहां तक है? यह विचार या यह प्रश्न सनातन है। नदी का आदि और अंत होना ही चाहिये। नदी को जितनी बार देखते हैं, उतनी ही बार यह सवाल मन में उठता है। और यह सवाल ज्यों-ज्यों पुराना होता जाता है, त्यों-त्यों अधिक गंभीर, अधिक काव्यमय और अधिक गूढ़ बनता जाता है। अंत में मन से रहा नहीं जाता, पैर रुक नहीं पाते। मन एकाग्र होकर प्रेरणा देता है। और पैर चलने लगते हैं। आदि और अंत ढूंढना-यह सनातन खोज हमें शायद नदी से ही मिली होगी। इसीलिए हम जीवन-प्रवाह को भी नदी की उपमा देते आये हैं। उपनिषद्कार और अन्य भारतीय कवि मैथ्यू आर्नोल्ड जैसे यूरोपियन कवि और रोमां रोला जैसे उपन्यासकार जीवन को नदी की ही उपमा देते हैं। इस संसार का प्रथम यात्री है नदी। इसीलिए पुराने यात्री लोगों ने नदी के उद्गम, नदी के संगम और नदी के मुख को अत्यंत पवित्र स्थान माना है।

जीवन के प्रतीक के समान नदी कहां से आती है और कहां तक जाती है? शून्य में से आती है और अनंत में समा जाती है। शून्य यानी अत्यल्प, सूक्ष्म किन्तु प्रबल, और अनंत के मानी है। विशाल और शांत। शून्य और अनंत, दोनों एक से गूढ़ है, दोनों अमर हैं। दोनों एक ही हैं। शून्य में से अनंत-यह सनातन लीला है। कौशल्या या देवकी के प्रेम में समा जाने के लिए जिस प्रकार परब्रह्म ने बालरूप धारण किया, उसी प्रकार कारूण्य प्रेरित होकर अनंत स्वयं शून्यरूप धारण करके हमारे सामने खड़ा रहता है। जैसे-जैसे हमारी आकलन-शक्ति बढ़ती है, वैसे-वैसे शुन्य का विकास होता जाता है और अपना ही विकास-वेग सहन न होने से वह मर्यादा का उल्लंघन करके या उसे तोड़कर अनंत बन जाता है-बिंदु का सिंधु बन जाता है।

मानव-जीवन की भी यही दशा है। व्यक्ति से कुटुंब से जाती, जाति से राष्ट्र, राष्ट्र से मानव्य और मानव्य से भूमा विश्व-इस प्रकार हृदय की भावनाओं- का विकास होता जाता है। स्व-भाषा के द्वारा हम प्रथम स्वजनों का हृदय समझ लेते हैं और अंत में सारे विश्व का आकलन कर लेते हैं। गांवों से प्रांत, प्रांत से देश और देश से विश्व, इस प्रकार हम ‘स्व’ का विकास करते-करते ‘सर्व’ में समा जाते हैं।

नदी का और जीवन का क्रम समान ही है। नदी स्वधर्म-निष्ठ रहती है और अपनी कुल-मर्यादा की रक्षा करती है, इसीलिए प्रगति करती है। और अंत में नाम-रूप को त्यागकर समुद्र में अस्त हो जाती है। अस्त होने पर भी वह स्थगित या नष्ट नहीं होती, चलती ही रहती है। यह है नदी का क्रम। जीवन का और जीवनमुक्ति-का भी यह क्रम है। क्या इस परसे हम जीवनदायी शिक्षा के क्रम के बारे में बोध लेंगे?

Posted by
Get the latest news on water, straight to your inbox
Subscribe Now
Continue reading