नदी परियोजनायें: बेहतर विकल्प ढूँढें वैज्ञानिक और विशेषज्ञ

8 Sep 2009
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उत्तराखंड में गंगा और उसकी सहायक नदियों पर 200 जल विद्युत परियोजनायें प्रस्तावित हैं। इन परियोजनाओं को ‘रन ऑफ द रिवर’* कहा जा रहा है। मगर वास्तव में बाँध और तटबंधों द्वारा नदियों को एक के बाद एक सुरंगों में डाला जा रहा है। समूची घाटियों का पानी अब नदियों में नहीं, बल्कि सुरंगों में बहेगा और बीच-बीच में वह कहीं सतह पर दिखाई भी देगा तो ऊर्जा उत्पादन के लिये।

असली ‘रन ऑफ द रिवर’ योजना वह होती है, जिसमें इम्पेलर नदी के स्वाभाविक प्रवाह से चलता है। पूरे प्रदेश में ऐसी सिर्फ 26 योजनायें हैं। बाकी परियोजनाओं को ‘रन ऑफ द रिवर’ नहीं कहा जा सकता और वे करीब 18,000 मेगावाट बिजली का उत्पादन करेंगी। फिलहाल यह प्रदेश लगभग 3,000 मेगावाट बिजली का उत्पादन करता है और लगभग 2,000 मेगावाट बिजली इसे केन्द्र से प्राप्त होती है। दिल्ली को भी लगभग इतनी ही बिजली उपलब्ध है। अतः उत्तराखंड, जहाँ ऊर्जा की लगभग 90 प्रतिशत जरूरतें पारम्परिक ईंधन से पूरी होती हैं, की मुख्य समस्या बिजली की कमी नहीं है।

2007 में उत्तराखंड और हिमाचल की सरकारों ने दोनों प्रदेशों में जल विद्युत परियोजनाओं के रिव्यू के लिये ‘हाइड्रो तस्मानिया’ को नियुक्त किया। हालाँकि न्यूजीलैंड के इस प्रतिष्ठान को हिमालय की पारिस्थितिकी की कोई जानकारी नहीं थी, तो भी इसने अनुमान लगाया कि परियोजनाओं को तीन तरह की चुनौतियाँ; भूगर्भीय (भूकम्प आदि), हाइड्रोलॉजिकल (बहाव, बाढ़ आदि) तथा मलवे का भार (जिसके कारण हिमाचल में 1,000 मेगावाट की ‘रन ऑफ द रिवर’ नाथपा झाकरी परियोजना को बरसात के दौरान बन्द कर देना पड़ा था); हैं।

तकनीकी विशेषज्ञों ने इन आशंकाओं को खारिज कर दिया। मगर यदि कुल 50,000 हजार करोड़ रुपये के निवेश वाली इन परियोजनाओं का केवल एक फीसदी भी ‘तकनीकी सलाह’ के लिये उपलब्ध हो तो 500 करोड़ रुपये की राशि बहुत से ‘तकनीकी समर्थक’ पैदा करने के लिये पर्याप्त है। बल्कि यहाँ तो एशिया विकास बैंक की 30 करोड़ डॉलर की राशि भी दाँव पर लगी है। ‘हाइड्रो तस्मानिया’ ने तो यह भी कहा कि जल विद्युत परियोजनायें बनाने वाली अधिकांश निजी कम्पनियाँ न सिर्फ उत्तराखंड से अपरिचित हैं, बल्कि उन्हें जल विद्युत परियोजनाओं का भी कोई अनुभव नहीं है।

सारी की सारी, 200 जल विद्युत परियोजनाओं के आँकड़े सार्वजनिक रूप से उपलब्ध नहीं हैं। लेकिन भिलंगना पर बनने वाली छः परियोजनाओं; तपोवन विष्णुगाड़, विष्णुगाड़ पीपलकोटी, लोहारीनाग पाला, पाला मनेरी और कोटली भेल (तीन उप परियोजनाओं सहित) की पर्यावरणीय प्रभाव आँकलन रिपोर्ट प्राप्त कर उनका स्वतंत्र विशेषज्ञों द्वारा विश्लेषण कर लिया गया है। स्वाति पॉवर, टिहरी हाइड्रो डेवलपमेंट क़ॉरपोरेशन, उत्तरांचल जल विद्युत निगम, नेशनल थर्मल पॉवर क़ॉरपोरेशन और नेशनल हाइड्रो पॉवर क़ॉरपोरेशन आदि कम्पनियों के लिये ये रिपोर्टें एकर्स इण्टरनेशनल क़ॉरपोरेशन (एमहर्स्ट, न्यूय़ॉर्क) और वैपकोस, राइट्स आदि ने बनाई हैं।

इन छहों पर्यावरण प्रभाव आँकलन रिपोर्टों में क्या चीज सामान्य है ? पहली तो यही कि ये सब आवश्यक पर्यावरणीय अनुमति पाने की दृष्टि से तैयार की गई हैं। लेकिन आधे मामलों में परियोजनायें उस तरह नहीं बनाई जा रही हैं, जिस तरह वे शुरूआत में डिजाइन की गई थीं। उत्पादन क्षमता बढ़ा दी गई है औेर उसी के अनुरूप लागत, सुरंग की लम्बाई, दीवारों की ऊँचाई और टरबाइनों की संख्या में बढ़ोतरी हुई है। परियोजनाओं में इन संशोधनों के बाद नयी पर्यावरणीय प्रभाव आँकलन रिपोर्टें नहीं बनाई गई हैं।

सारे बाँध सेंट्रल थ्रस्ट के निकट भूकम्पीय जोन चार और पाँच में पड़ते हैं, जहाँ कठोर क्वार्ट्जाइट और गे्रनाइट की चट्टानों में भी दरारें पड़ी हैं। 2 से 13 किमी लम्बी ये सुरंगें भूगर्भीय दृष्टि से सक्रिय क्षेत्रों से होकर गुजरती हैं। वैकल्पिक निर्माण स्थलों के बारे में चिन्तन ही नहीं किया गया है। न जलाशय निर्मित भूकम्पों की आशंका का जिक्र किया गया है और न ही मौजूदा और सम्भावित भूगर्भीय क्षति का अभिलेखीकरण किया गया है। सुरंगों की खुदाई तथा अन्य निर्माण से बहुत सारा मलबा पैदा होगा, लेकिन कहीं भी यह स्पष्ट नहीं किया गया है कि इसका किया क्या जायेगा। एकाध जगह जिक्र है कि मलबे से भरे स्थानों को उपजाऊ मिट्टी से भरा जायेगा, लेकिन उपजाऊ मिट्टी का स्रोत नहीं बताया गया गया है। निर्माण स्थलों पर भारी मात्रा में सीमेंट, रेता, बोल्डर, लोहा, मशीनरी, विस्फोटक आदि पहुँचाने के लिये सम्पर्क मार्ग बनाये जायेंगे, कटान-खुदान होगा, विस्फोटकों का प्रयोग किया जायेगा और ढेर सारी धूल उड़ेगी। इस सबका कोई जिक्र इन रिपोर्टों में नहीं है।

अधिकांश स्थानों पर बालुई मिट्टी होने के कारण यहाँ पर सेडीमेंटेशन की दर बहुत अधिक है। इसकी कोई व्यवस्था नहीं है और इस बात का भय है कि यह नदियों में ही फेंका जायेगा और मानसून के समय पानी के साथ बह जायेगा। नदियों के पानी को सुरंगों में बहाने से गूलों और घराटों पर भी विपरीत प्रभाव पड़ेगा। पानी के सुरंगों मे बहने से उसे रोशनी और ताजी हवा नहीं मिलेगी और इससे उसकी गुणवत्ता प्रभावित होगी। ऐसे मुद्दों का पर्यावरणीय प्रभाव रिपोर्टों में कोई जिक्र नहीं है। यह अवश्य कहा गया है कि नदियों में न्यूनतम बहाव सुनिश्चित किया जायेगा। लेकिन यह न्यूनतम बहाव क्या और कितना होगा और क्या इस बहाव को नदी में छोड़े जाने के बाद कम पानी के वक्त टरबाइनों को चलाने के लिये पानी पर्याप्त होगा, इस बारे में बातचीत नहीं की गई है। बाढ़ आने की फ्रीक्वेंसी, अधिकतम बढ़ा हुआ पानी आदि हाइड्रॉलिक आँकड़ों के बारे में ये पर्यावरणीय प्रभाव रिपोर्टें पूरी तरह चुप्पी ओड़े हैं। प्रभावित होने वाले फ्लोरा और फौना (वनस्पति और प्राणि जगत), काटे जाने वाले पेड़ों के संख्या की सूची नहीं दी गई है। कहीं औषधीय महत्व वाली प्रजातियों का जिक्र है तो कम्पनसेटरी वृक्षारोपण में उनके लिये कोई योजना नहीं है। कुल कितने मजदूर काम करेंगे, उनमें कितने स्थानीय होंगे, उनके आवास और साफ-सफाई की क्या व्यवस्था होगी, इस बारे में कुछ नहीं बताया गया है। बस एकाध जगह सोक पिट और शौचालयों की बात की गई है। स्थानीय समाज के आर्थिक-सामाजिक का विवरण नहीं है और मौजूदा भू उपयोग की बात की गई है, विशेषकर सम्भावित डूब और विस्थापन के इलाकों के। परियोजनाओं के स्वास्थ्य पर होने वाले प्रभाव तथा ईंधन और चारे के नुकसान का भी अध्ययन नहीं किया गया है।

ऐसी तमाम कमियों के बावजूद कम्पनियों को उदारतापूर्वक करों में रियायतें दी गई हैं। उनके लिये बहुत कम निवेश पर भारी मुनाफे की व्यवस्था की गई है।

इस संदर्भ में संयुक्त राज्य अमेरिका से तुलना करना दिलचस्प होगा, क्योंकि भारत में विकास का एजेंडा मुख्यतः अमेरिकी मॉडल पर ही आधारित है। 1986 में मार्क राइसनर द्वारा लिखित ‘कैडिलक डिजर्ट’ में बाँध निर्माण के क्षेत्र में ‘कोर ऑफ इंजीनियर्स’ (1794) तथा ‘ब्यूरो ऑफ रेक्लेमेशन’ (1902) के बीच की प्रतिद्वन्द्विता के बारे में प्रभावी ढंग से बताया गया है। इन दोनों द्वारा अकेले अमेरिका में ही 2,50,000 बाँध बनाये गये, जिनमें 50,000 बड़े बाँध थे और 2000 तो ‘विशालकाय’ थे। पुस्तक में बहुत स्पष्ट ढंग से बताया गया है कि ये राजनीतिज्ञों, नौकरशाहों और निर्माण कम्पनियों की मिलीभगत से सभी पर्यावरणीय और आर्थिक मुद्दों की उपेक्षा करते हुए बनाये गये।

पहला लक्ष्य सिंचाई (सूखी धरती को उपजाऊ बनाना) को बताया गया। उदाहरणार्थ, 1918 तक सैन फर्नाण्डो घाटी में सिंचित क्षेत्र 3,000 हजार एकड़ से बढ़ कर 75,000 एकड़ हो गया। लेकिन 1927 में पाया गया कि एक तिहाई किसान जमीन बेच कर जा चुके थे, क्योंकि पानी के बिल बहुत अधिक हो गये थे और जमीन का धंधा करने वाले खरीद-फरोख्त करने पहुँच गये थे। 1928 में सेंट फ्रांसिस बाँध ढह गया और लॉय एंजेलिस को डेढ़ करोड़ डॉलर मुआवजे के रूप में देने पड़े। यह वह समय था, जब जल विद्युत से प्राप्त राजस्व सिंचाई में सब्सिडी देने में व्यय किया जा रहा था, हालाँकि जाँच-पड़ताल से मालूम पड़ा कि ब्यूरो वास्तव में अमीर और शक्तिशाली वर्ग के हित में काम कर रहा था।

फ्रेंकलिन रूजवेल्ट ने राष्ट्रपति चुने जाने के बाद 1933 में अनेक निर्माण कार्यों को एक ही झटके में हरी झंडी दे दी। इनमें बहुत सारी परियोजनायें नदियों पर बननी थीं। रातोंरात ब्यूरो के कर्मचारियों की संख्या 3,000 से बढ़ कर 20,000 हो गई। 1940 तक ब्यूरो ने ‘रिवर बेसिन एकाउण्टिंग’ का सिद्धान्त खोज निकाला। इसका मतलब था कि एक नदी में सिंचाई, ऊर्जा, यातायात, मनोरंजन आदि परियोजनाओं से प्राप्त आय को एक फंड में जमा कर एक से दूसरे की मदद करना। हालाँकि पर्यावरणीय और आर्थिक प्रभावों को लेकर ऐसी कोई कोशिश नहीं की गई। 1932 से लेकर 1962 तक ब्यूरो ने ऐसी 228 नदी परियोजनायें बनाईं।

तब तक पर्यावरणीय मुद्दों पर नागरिकों का प्रतिरोध शुरू होने लगा था। 1952 में सिएरा क्लब ने अपना पहला सी.ई.ओ. नियुक्त किया और साठ के दशक की शुरूआत में आँकड़ों से साबित हुआ कि कोलेरेडो में पानी के अत्यधिक शोषण के कारण रसायनों की मात्रा अविश्वसनीय ढंग से बढ़ कर 6,300 पी.पी.एम. हो गई थी। 1965 में सिएरा क्लब ने पाया कि ब्यूरो पुराने बड़े बाँधों से प्राप्त आय का प्रयोग नये खर्चीले बाँध बनाने में कर रहा है। तब जन जागरूकता के लिये बड़े बाँधों, विशेषकर ग्राण्ड कैनयन बाँध के विरोध में बहुत बड़ा प्रचार अभियान चला। बहुत से समुदाय अपनी नदियों का पानी खराब होने के विरोध में शिकायतें भेजने लगे थे।

अन्ततः 1966 में कांग्रेस ने ‘वाइल्ड एंड सीनिक रिवर्स एक्ट’ और 1969 में ‘नेशनल एनवायर्नमेंट पॉलिसी एक्ट’ पारित किया, जिससे समस्त परियोजनाओं के लिये पर्यावरणीय प्रभाव रिपोर्ट बनाना अनिवार्य हो गया। टेक्सास के मतदाताओं टेक्सास वाटर प्लान के 35 अरब डॉलर का प्रयोग रुकवा दिया। 1970 के दशक में किसानों ने एक डाइवर्जन स्कीम के विरोध में मत दिया। बढ़ी योजनाओं के विरोध में बहुत कुछ लिखा जाने लगा और जॉर्जिया के गवर्नर के रूप में जिमी कार्टर को पर्यावरणीय आधार पर एक बड़े बाँध को रुकवाना पड़ा। कैलीफोर्निया के गवर्नर रोनाल्ड रीगन ने एक दूसरे बड़े बाँध को रुकवाया।

कई बार उत्तराखंड में सड़कें और पॉवर प्लाण्ट लगाने के लिये उस गर्भवती महिला का उदाहरण दिया जाता है, जिसे चिकित्सा की जरूरत है। लेकिन रोगी को क्लीनिक तक पहुँचाने का एक विकल्प यह हो सकता कि हैल्थ केयर को रोगी के दरवाजे तक पहुँचाया जाये। प्रशिक्षित दाइयाँ और ए.एन.एम. प्रत्येक गाँव में हों। अन्यथा ‘जरूरतमंद औरत’ का बहाना एक ऐसे विकास को वैधता प्रदान करने का रास्ता खोल देगा, जिसमें सैकड़ों गाँव बर्बाद होंगे और हजारों लोग विस्थापित होंगे।

ये पर्यावरणीय मसले अन्ततः आर्थिकी में बदल गये। 1977 में कार्टर के राष्ट्रपति बनने तक अमेरिका का ऋण दस खरब डॉलर को पार गया था। अकेले फेडरल वाटर ब्यूरोक्रेसी ही 5 अरब डॉलर प्रति वर्ष व्यय कर रही थी। कार्टर ने जल परियोजनाओं में कटौती करने की कोशिश की। कांग्रेस ने बाँधों की सूची को खारिज तक कर दिया। लेकिन निर्माण कम्पनियों का दबाव इतना था कि कार्टर को अन्ततः बिल पर दस्तखत करने पड़े। 1979 में जाकर ही वे कुछ परियोजनाओं को वीटो करने का साहस दिखा पाये।

1967 तक ब्यूरो ने अमेरिका से बाहर निकल कर यू.एस.एड. के तहत पूरे विश्व में बाँध बनाना शुरू कर दिया था। जो एशिया विकास बैंक और विश्व बैंक आज कर रहा है, यह उसकी शुरूआत थी। लेकिन पर्यावरणीय खर्चे बढ़ते रहे। सबसे जोरदार उदाहरण टेटन बाँध का है। यह 1967 में 30 लाख के बजट से शुरू हुआ, पर्यावरणीय विरोध के कारण स्थगित कर देना पड़ा, 1972 में और एक करोड़ डॉलर लगा कर इसका निर्माण नये सिरे से शुरू हुआ। 1973 में इडाहो एन्वायरनमेंट काउन्सिल द्वारा इसकी आलोचना के बाद इसे परियोजना को एक करोड़ डॉलर और दे दिये गये। आखिरकार यह 1976 में बन कर तैयार हुआ और जलाशय में पानी भरने के 10 हफ्तों के भीतर ही ढह भी गया।

बीमार हैं पूरे देश की नदियाँ

16 से 18 फरवरी 2008 तक सेवाग्राम में मौजूद 12 राज्यों के प्रतिनिधियों के अनुभव सुन कर मालूम हुआ कि योजनाकार और सत्ताधीश सारे देश में ही नदियों को बेच कर नष्ट करने को तुले हुए हैं। कहीं खनिजों के बेशकीमती भंडार के दोहन के लिये औद्योगिक घरानों और बड़ी कम्पनियों को लाया जा रहा है तो कहीं बिजली उत्पादन बढ़ाने के नाम पर स्थानीय ग्रामीणों को उनके पारम्परिक जलस्रोतों से बेदखल किया जा रहा है। ऐसी लालची विकास नीतियों से कहीं नदियों की भूग्रहण क्षमता कम हो गई है तो कहीं सूखा और अकाल के प्रकोप बढ़ गये हैं। उड़ीसा में हीराकुड बाँध के लिये 57 गाँवों के जिन 22,144 परिवारों को सन् 1955 में हटाया गया था, उनमें से 3,540 परिवार आज भी विस्थापित नहीं हो पाये हैं और भिखारियों जैसा जीवन व्यतीत कर रहे हैं। बिहार में बागमती, कमला, बलान, महानन्दा, कोसी, गंडक आदि सभी नदियाँ बुरी हालत में हैं। पिछले साल जबर्दस्त अतिवृष्टि हुई। चाँदन नदी में तीन बार आयी बाढ़ से 150 एकड़ जमीन को बालूमय कर सम्पन्न किसानों को खेत मजदूर बना दिया। इस गति से चाँदन के दोनों किनारे कुछ ही वर्षों में रेगिस्तान बन जायेंगे। गंडक नदी के चम्पारण तटबंध ने चन्द्रावत के उद्गम और संगम को बाँध दिया है। इससे पूरी घाटी में जल भराव होने लगा है। सिकहरना नदी मर रही है।

कर्नाटक में शरावथी नदी को बचाने के लिये स्थानीय लोग जुटे हुए हैं। सुप्रसिद्ध जोग फॉल का अस्तित्व खतरे में पड़ गया है। तमिलनाडु में कोयम्बटूर के औद्योगिक आस्थानों के प्रदूषण से नौयल दम तोड़ रही है। जलागम क्षेत्र में जंगलों के अनियंत्रित कटान तथा रेता खदान से पचारू नदी सूख रही है। केरल में सबरीमाला तीर्थ से लगी, दक्षिण की गंगा कही जाने वाली पम्पा का भविष्य भी अवैध खनन और जंगल कटान से खतरे में है। चालाकुडी नदी पर बन रही 163 मेगावाट की अथिरापिल्ली जल विद्युत परियोजना के विरोध में स्थानीय लोग डट कर आन्दोलन कर रहे हैं। गोआ में दूधसागर (खांडेपार) नदी के किनारे बरसात समाप्त होने के बाद होने वाली धान की खेती अब नहीं होती।


1970 और 80 के दशकों में चले प्रतिरोधों ने ये तथ्य उजागर किये कि किस तरह जैव विविधतायें समाप्त हो रही हैं। सेडीमेंटेशन की दर उम्मीद से भी ज्यादा थी। विशालकाय कॉरपोरेशन सिंचित भूमि का अधिकतम स्वयं हथिया ले रहे थे। बाढ़ की स्वाभाविक रोक माने जाने वाले प्राकृतिक दलदल सूख रहे थे और उन पर अतिक्रमण होने लगा था। अकेले केम द्वारा 30,000 हजार एकड़ धरती डुबा दी गई और उसमें 1,000 गैलन रोटेनोन उँडेलना पड़ा, ताकि मांसभक्षी प्रजातियाँ डेल्टा जक पहुँच कर सालमन मछली को न खा सकें। यूमा का डिसेलिनेशन का नुकसान 30 करोड़ रुपया आँका गया, जिससे ऊर्जा की लागत कुछ ही वर्षों में बढ़ कर एक अरब डॉलर हो गई।

एक ओर विरोधियों को भ्रमित और विभाजित करने के लिये झूठ, अफवाह और पैसा फैलाया जा रहा था, दूसरी ओर एक सरकारी रिपोर्ट ने यह तथ्य उजागर किया कि भारी धनराशि बट्टे खाते में डाल दी जा रही थी। अधिकांश सब्सिडी सबसे बड़े किसानों को गई। यहाँ यह बताना भी प्रासंगिक होगा कि अमेरिका में छोटे किसानों का मतलब 160 एकड़ तक के किसान होता था। उत्पादकों की लॉबी ने 1982 में इसे बढ़ा कर 960 एकड़ करवा दिया। अन्ततः राष्ट्रपति रीगन ने कोर ऑफ इंजीनियर्स की अनेक परियोजनाओं को इस आधार पर वीटो करने की धमकी दी कि राष्ट्र अब और अधिक ऋण का भार नहीं उठा सकता।

1990 तक अमेरिका ने बड़े बाँध बनाने के सारे प्रयास खत्म कर दिये।

अमेरिकी अनुभवों से हमें यह शिक्षा लेनी है कि एक ‘विकसित’ समाज होने के लिये उन्होंने जो गलतियाँ कीं, उन्हें हम न दोहरायें। हम अभी से सामाजिक और पर्यावरणीय खर्चों के बारे में हिसाब रखना शुरू कर दें और एक बेहतर भविष्य के लिये रास्ता बनायें। अगर हम एक भिन्न तरीके से सोचें तो ऊर्जा और पानी के लिये बेहतर विकल्प उपलब्ध हैं।

कई बार उत्तराखंड में सड़कें और पॉवर प्लाण्ट लगाने के लिये उस गर्भवती महिला का उदाहरण दिया जाता है, जिसे चिकित्सा की जरूरत है। लेकिन रोगी को क्लीनिक तक पहुँचाने का एक विकल्प यह हो सकता कि हैल्थ केयर को रोगी के दरवाजे तक पहुँचाया जाये। प्रशिक्षित दाइयाँ और ए.एन.एम. प्रत्येक गाँव में हों। अन्यथा ‘जरूरतमंद औरत’ का बहाना एक ऐसे विकास को वैधता प्रदान करने का रास्ता खोल देगा, जिसमें सैकड़ों गाँव बर्बाद होंगे और हजारों लोग विस्थापित होंगे। जब नदियाँ सूखेंग तो नौले, गूल, घाट, घराट और देवता भी बेकार हो जायेंगे। नदी घाटियों में खेती खत्म होगी, जानवरों का चारा लापता होगा, जमीन सूखेगी और पहाड़ों से पलायन और ज्यादा तीव्र हो जायेगा।

हिमालय की कमजोर पारिस्थितिकी में, जहाँ भूस्खलन नियमित रूप से होते रहते हैं और भूकम्प अवश्यम्भावी हैं, क्या इस तरह से, इतनी संख्या में लम्बी सुरंगें और गहरे जलाशयों वाले बाँध बनाना क्या समझदारी का फैसला है ? इन सुरंगों के भीतर बहने वाले जिस पानी को ताजी हवा और सूरज की रोशनी नहीं मिलेगी, क्या वह अपनी प्राकृतिक शुद्धता बनाये रख सकेगा ? क्या मछलियाँ और मेंढक इस पानी में जिन्दा रह पायेगे ? क्या पशु-पक्षी यह पानी पी सकेंगे ? दूसरी ओर यदि इतनी ही धनराशि का निवेश उत्तराखंड की ग्रामीण जनता के बीच कर दिया जाये तो प्रति एकड़ जमीन पर 40,000 हजार रुपया लगाया जा सकता है। हर परिवार को 2.5 लाख रुपये का ऋण दिया जा सकता है या हर गाँव को अपने गाँव की योजना के लिये 3 करोड़ रुपये की निधि दी जा सकती है।

वैज्ञानिकों और तकनीकी विशेषज्ञों के सामने यह चुनौती है कि धन, जल, जंगल, जमीन और प्राकृतिक संसाधनों का इस तरह इस्तेमाल करने का तरीका ढूँढें कि यह पृथ्वी जीवित रह सके और इसके साथ हम सब मनुष्य भी रह सकें। उन्हें इस चुनौती को स्वीकार करना होगा, ताकि मानवता में रचे-बसे सांस्कृतिक और सभ्यता के मूल्य बचे रह सकें।

*Run Of The River

Run-of-the-river hydroelectricity is a type of hydroelectric generation whereby the natural flow and elevation drop of a river are used to generate electricity. Power stations of this type are built on rivers with a consistent and steady flow, either natural or through the use of a large reservoir at the head of the river which then can provide a regulated steady flow for stations down-river (such as the Gouin Reservoir for the Saint-Maurice River in Quebec, Canada).

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