नदी पुराण

नदी
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आमतौर पर नदी वैज्ञानिक ही नदियों के जन्म या प्राकृतिक जिम्मेदारियों की हकीक़त को जानने का प्रयास करते हैं। आम नागरिक के लिये यह विषय बहुत आकर्षक नहीं है इसलिये वे उसे, सामान्यतः जानने का प्रयास नहीं करते। वास्तव में नदी की कहानी बेहद सरल और सहज है।

वैज्ञानिक बताते हैं कि प्रत्येक नदी प्राकृतिक जलचक्र का अभिन्न अंग है। उसके जन्म के लिये बरसात या बर्फ के पिघलने से मिला पानी जिम्मेदार होता है। उसका मार्ग ढ़ालू जमीन पर बहता पानी, भूमि कटाव की मदद से तय करता है। ग्लेशियरों से निकली नदियों को छोड़कर बाकी नदियों में बरसात बाद बहने वाला पानी ज़मीन के नीचे से मिलता है।

पूर्ति की कमी के कारण सूखे मौसम में प्रवाह अकसर घट जाता है पर यदि नदियों और झरनों को भूजल की पूर्ति बनी रहती है तो वे जिन्दा रहते हैं तथा अपना बारहमासी चरित्र कायम रख पाते हैं। भूजल का योगदान नदी की तली के ऊपर होना चाहिए अन्यथा वह सूख जाती हैं। यही नियम झरनों की निरन्तरता पर लागू है। यही प्राकृतिक व्यवस्था है।

मुख्य नदी का आगौर विशाल होता है। मुख्य नदी के आगौर में स्थित प्रत्येक छोटी नदी उसकी सहायक होती है। मुख्य नदी के आगौर में स्थित हजारों छोटी-छोटी नदियाँ अपने-अपने आगौर का पानी, मुख्य नदी को मुहैया कराती हैं। उद्गम से लेकर समुद्र में मिलने तक का समूचा आगौर मुख्य नदी का कछार कहलाता है। मुख्य नदी और उसके आगौर में स्थित समस्त सहायक नदियाँ, सम्मिलित रूप से, नदी तन्त्र कहलाती हैं।

नदी अपने आगौर पर बरसे पानी या बर्फ के पिघलने से मिले पानी या उनके मिलेजुले भाग को अन्ततः समुद्र अथवा झील में जमा करती है पर कई बार विशाल मरूस्थली इलाकों में कुछ नदियों का अन्त झीलों या दलदली ज़मीन में होता है। यह हालत उस समय पैदा होती है जब पानी की कमी के कारण नदी झीलों या दलदली जमीन से बाहर नहीं निकल पाती। इस हालत को प्राप्त होने वाली नदी का अस्तित्व खत्म हो जाता है। वह मरुस्थल में खो जाती है।

नदी कछार का विकास ढाल, क्षेत्रीय मौसम (मुख्यतः वर्षा) तथा नदी के रास्ते में आने वाली मिट्टी एवं चट्टानों की कटाव क्षमता पर निर्भर होता है। हर साल बाढ़ के दौरान नदी घाटी की साइज का विस्तार होता है तथा मिट्टी एवं चट्टानों के मुक्त हुए टुकड़े समुद्र की ओर बढ़ते हैं। कछार की प्रत्येक नदी का शुरुआती हिस्सा ढालू तथा अगले हिस्से क्रमशः कम ढालू होते जाते हैं।

अधिक ढाल वाले प्रारम्भिक मार्ग में नदी के प्रवाह का वेग बहुत अधिक होता है इसलिये उसमें बड़े बोल्डर, बजरी और मोटी रेत मिलती है। नदी जैसे-जैसे आगे बढ़ती है, कणों की साइज घटने लगती है। नदी मार्ग का ढाल और पानी के प्रवाह की गति ही कणों का साइज तय करती है। यही घटक कणों को सिलसिलेवार जमा करते हैं।

इसी कारण अत्यन्त महीन कण (सिल्ट) नदी की यात्रा के अन्तिम पड़ाव के निकट मिलते हैं। नदी द्वारा सारा मलबा समुद्र को सौंप दिया जाता है। इसके अलावा नदियों द्वारा बड़ी मात्रा में घुलित रसायनों को भी समुद्र में पहुँचाया जाता है।

वैज्ञानिकों का मानना है कि दुनिया की प्रमुख नदियों (कछार का क्षेत्रफल 1040 लाख वर्ग किलोमीटर) द्वारा हर साल लगभग 800 करोड़ टन मलबा समुद्र में पहुँचाया जाता है। उसका लगभग 30 प्रतिशत भाग घुलित रसायनों के रूप में होता है। वैज्ञानिकों का अनुमान है कि नदी कछार के एक वर्ग किलोमीटर इलाके से हर साल औसतन 80 टन मलबा बहता है।

नदी अपनी पूरी यात्रा में गुरुत्व बल के सहारे ऊँचे इलाके से निचले इलाके की ओर बहती है। अपनी यात्रा के दौरान वह कभी भी गुरुत्व बल के सिद्धान्त का उल्लंघन नहीं करती अर्थात नदी का पानी कभी भी निचले इलाके से ऊपर के इलाकों की ओर नहीं बहता। नदी पथ का ढाल ही उसके प्रवाह की दिशा का नियन्ता है। कुछ लोग अनजाने में पानी प्राप्त करने के लिये नदी मार्ग को गहरा कर देते हैं। ऐसा करने से उसमें नदी तल के नीचे बहने वाला पानी मिल जाता है। इस अनुमान के अनुसार 8.61 लाख वर्ग किलोमीटर रकबे वाले गंगा कछार द्वारा हर साल लगभग 688.8 लाख टन मलबा समुद्र में जमा किया जाता है। नर्मदा कछार (98769 वर्ग किलोमीटर क्षेत्रफल) के लिये यह आँकड़ा लगभग 79 लाख टन के आसपास सम्भावित है। उपर्युक्त मात्राएँ केवल एक साल के लिये हैं। लम्बी अवधि में यह मात्रा कितनी होगी, अकल्पनीय है।

यदि उसे नदी पथ में रोक दिया जाये तो उसका क्या होगा? अकल्पनीय है। क्या नदी पथ या कछार में मलबे की इतनी विशाल मात्रा का निरापद प्रबन्ध करना मनुष्य के बूते का है? शायद नहीं। इतनी विशाल मात्रा का निरापद प्रबन्ध केवल प्रकृति द्वारा ही सम्भव है। वही इस काम को धरती के जन्म के बाद से कर रही है।

यह कहना सही है कि मलबा रोकने वाले कामों और नदी कछारों की हर साल होने वाली उपर्युक्त साफ-सफाई ही मानव सभ्यताओं के निरापद भविष्य की गारंटी है। यह सवाल मौजूँ है कि यदि नदी कछारों की उपर्युक्त साफ-सफाई नहीं होती तो क्या हमारी धरती रहने लायक बचती? उत्तर होता शायद या बिलकुल नहीं।

नदी अपनी पूरी यात्रा में गुरुत्व बल के सहारे ऊँचे इलाके से निचले इलाके की ओर बहती है। अपनी यात्रा के दौरान वह कभी भी गुरुत्व बल के सिद्धान्त का उल्लंघन नहीं करती अर्थात नदी का पानी कभी भी निचले इलाके से ऊपर के इलाकों की ओर नहीं बहता। नदी पथ का ढाल ही उसके प्रवाह की दिशा का नियन्ता है। कुछ लोग अनजाने में पानी प्राप्त करने के लिये नदी मार्ग को गहरा कर देते हैं। ऐसा करने से उसमें नदी तल के नीचे बहने वाला पानी मिल जाता है।

लोगों को लगता है कि नदी जिन्दा करने का यह सबसे आसान तरीका है पर कुछ साल बाद स्थिति यथावत हो जाती है। गहरे किये नदी पथ को प्रकृति फिर मिट्टी से भर देती है। इसलिये कहना उचित होगा कि मानवीय प्रयासों से हालिया परिणाम भले ही प्राप्त हो जाएँ पर प्रकृति द्वारा नियन्त्रित व्यवस्था के विरुद्ध कार्य कर स्थायी परिणामों की अपेक्षा करना सम्भव नहीं है। यदि प्रकृति द्वारा नियन्त्रित व्यवस्था के विपरीत कुछ किया जाता है तो वह अन्ततः अस्थायी, खर्चीला तथा नुकसान देय ही होता है।

नदीतन्त्र के पानी का उपयोग उसकी प्राकृतिक भूमिका के निर्वाह, निर्भर प्राणियों, मनुष्यों, जलचरों एवं वनस्पतियों के इष्टतम विकास के लिये होना चाहिए। इसी कारण दुनिया भर के वैज्ञानिक नदी-तन्त्र में पर्यावरणीय प्रवाह की मौजूदगी को आवश्यक तथा व्यवधानों को अनुचित मानते हैं।
 

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