नदियाँ : बूँदों का सफरनामा

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विश्व नदी दिवस, 27 सितम्बर 2015 पर विशेष


किसी विशाल वट वृक्ष और किसी बहती नदी को देखकर जो अनुभूति होती है उसमें कहीं-ना-कहीं कुछ साम्य नजर आता है। जब वृक्ष को देखते हैं तो महसूस होता है इसका इतिहास वहाँ से प्रारम्भ होता है जहाँ एक नन्हें से बीज ने अपने जीवन के अस्तित्व की बाजी लगा दी थी और न जाने कितने सूखे, अतिवृष्टि, ओलावृष्टि, पाला आदि सहते हुए वह बीज पहले नन्हा पौधा और फिर इस विशाल वट वृक्ष में परिवर्तित होता चला गया।

एक वृक्ष न जाने कितनी प्रतिकूलताओं को सहने और उनसे पार पाते हुए आगे बढ़ने की एक सफल कहानी ही तो है। इसी तरह किसी बहती नदी को देखकर जब विचार इसके उद्भव भाव की ओर जाते हैं तो हमें नदी ‘बूँद-बूँद’ में दिखाई देने लगती है।

कविवर भवानी प्रसाद मिश्र की वही ‘बूँद’ जिसके लिये उन्होंने लिखा था- बूँद टपकी नभ से/किसी ने झुककर झरोखे से कि जैसे हंस दिया हो/ठगा सा कोई किसी का रूप देखे रह गया हो/उस बहुत से रूप को रोमांच रोके सह गया हो/बूँद टपकी एक नभ से...।

दरअसल विशाल वट वृक्ष का जैसे बीज से गहरा नाता है, कमोबेश नदी का बूँद से ही कुछ यूँ गहरा रिश्ता है। दरअसल बूँद-बूँद के दिलचस्प सफरनामे की कड़ी-दर-कड़ी एक दास्तान का नाम ही तो है नदी!

नदी और बूँद के बीच क्या-क्या साम्य हो सकता है, यह देखा एक जल यात्रा में। कोई 14 साल पहले देवास जिले के सतवास क्षेत्र में पानी रोको आन्दोलन के तहत विभावरी संस्था ने गाँवों में जल जागृति का अलख जगाया। सतवास क्षेत्र के बाशिंदों को आह्वान किया कि वे उनके घर-आंगन, खेत और क्षेत्र में आई बूँदों की ‘पूजा’ करें। इसका कारण बताया : ये बूँदें ही जाकर समीप की नर्मदा नदी में मिलती हैं।

एक तरह से नर्मदा के जल ग्रहण क्षेत्र में आसमान से आने वाली हर बूँदों से भी तो नर्मदा-नदी बनती है। इन बूँदों की पूजा अर्थात नदी की पूजा। अब ‘पूजा’ कैसे करें? नर्मदा नदी को सदानीरा बनाए रखने के लिये जरूरी है कि इन बूँदों की मनुहार की जाये। बूँद-बूँद को रोका जाये! इस प्रभावशाली संवाद का असर यह हुआ कि गाँव वालों ने चुटकियों में अनेक तालाब तैयार कर दिये जिन्हें आज भी देखा जा सकता है।

नर्मदा की इन बूँदों की मनुहार से क्षेत्र की तस्वीर और तकदीर बदल गई सो अलग। यह जल यात्रा पानी चिन्तकों के लिये एक व्यवहारिका सीख छोड़ गई। नदी की पूजा वास्तविक तौर पर बूँदों की पूजा से है। नदी की पूजा कैसी? उसमें हार, नारीयल, दीपक छोड़ने से नहीं, वास्तविक पूजा तो उसके जलग्रहण क्षेत्र में अधिक-से-अधिक तालाब बनाकर बरसात की उन बूँदों को रोकने से है जो वर्षा बाद रिसन के माध्यम से नदी को सदानीरा रख सकती है।

नदी, बूँदों के सफरनामे की एक महत्त्वपूर्ण कड़ी होती है। इसे कुछ यूँ आसानी से समझा जा सकता है- नदी का जलग्रहण क्षेत्र बड़ा व्यापक होता है। प्राय: जितना हम समझते हैं उससे भी कहीं ज्यादा! ग्लेशियर से निकलने वाली नदियों को छोड़कर देखा जाये तो आसमान से टपकने वाली बूँदें प्राय: पहाड़ी क्षेत्र से ही नदी के उद्भव की रूपरेखा तैयार कर लेती हैं।

कोई भी नदी सदानीरा कैसे रहे, इसके लिये आवश्यक है कि बूँदों के सफर में हर मुकाम पर उनकी मनुहार की जाये। पहाड़ी क्षेत्र में, जंगलों में वृक्षों की बहुतायत प्राकृतिक रूप से बूँदों के ‘वंदनवार’ होते हैं। हर पेड़ नदी के संरक्षण का मुख्य पहरेदार होता है। जहाँ पेड़ हैं, समझो वह अपने क्षेत्र में किसी नदी को नदी बनाने की दिशा में कोई अहम योगदान दे रहा है। इसलिये जब हम वृक्ष लगाते हैं तो समझिए किसी नदी की पूजा कर रहे होते हैं। पहाड़ी क्षेत्र में आने वाली बूँदे- वहाँ मौजूद जंगल से सबसे पहले रूबरू होती हैं। सबसे पहले ये वृक्षों की पत्तियों, डालियों, तनों आदि से टकराती हैं। इसके बाद जड़ों के अवरोध से ये धीरे-धीरे पहाड़ में समाती जाती हैं। शेष बूँदे धीरे-धीरे नीचे बहते हुए तलहटी की ओर जाती हैं। यहाँ भी इन्हें जड़ों, सूखी पत्तियों आदि के अवरोध मिलते हैं।

पहाड़ों पर घने जंगल की वजह से ये पहाड़ पानी के बैंक बन जाते हैं। यदि जंगल घना है तो बरसात चाहे जितनी तेज हो, बूँदे तो अपनी गति इन अवरोधों के बहाने कम करती हुई मिट्टी के कणों के सामने ‘नम्रता’ से प्रस्तुत होती हैं। वृक्षों के कारण जब बूँदों का मिट्टी से सम्पर्क होता है तो गति और बल पर ब्रेक लग जाता है।

वृक्षों के कारण पहाड़ों से ज्यादा मिट्टी नीचे नहीं बह पाती है। ये बूँदें तलहटी के कुओं, तालाबों में जलस्तर बढ़ाती हैं। बूँदों का यह पड़ाव भी नदी के सन्दर्भ में महत्त्वपूर्ण है। तालाबों में एकत्रित बूँदों की विशाल राशि छोटी-छोटी रिसन से नीचे की ओर बहती जाती है। कभी यह सतही धारा तो कभी अन्तर्धारा के रूप में छोटे-छोटे नालों का रूप धारण करती है। यही प्रवाह आगे जाकर नदियों में भी मिलता है और उन्हें समृद्ध करता है।

जंगल, पहाड़, तालाब की बूँद, नदी के प्रवाह का प्रमुख स्रोत होती है। मैदानी इलाकों में आई बूँदें भी नदी का अहम किरदार हैं। खेतों में बरसात की बूँदें नीचे की ओर एक धारा के रूप में बहती हैं। खेतों से निकली इन धाराओं को ‘छापरा’ कहते हैं। कई छापरे मिलकर एक नाला बनाते हैं। कई नाले बाद में जाकर इन नदियों में समाहित हो जाते हैं।

हर नदियों का अपना एक उद्गम स्थल होता है। नदी का उद्गम पहाड़, जंगल आदि क्षेत्र में होता है। पहाड़ों और जंगल का यह पानी एक धारा के रूप में प्रारम्भिक तौर पर सामने आता है जो आगे चलकर विशाल नदी में परिवर्तित हो जाता है। प्रावह पथ पर बूँदों की और भी बारातें इस नदीं में ‘समाहित’ होती रहती हैं। नदी का अपना एक शास्त्र होता है जो बूँदों की वर्णमाला से लिखा होता है। इस शास्त्र में हर बूँद का महत्त्व है।

कोई भी नदी सदानीरा कैसे रहे, इसके लिये आवश्यक है कि बूँदों के सफर में हर मुकाम पर उनकी मनुहार की जाये। पहाड़ी क्षेत्र में, जंगलों में वृक्षों की बहुतायत प्राकृतिक रूप से बूँदों के ‘वंदनवार’ होते हैं। हर पेड़ नदी के संरक्षण का मुख्य पहरेदार होता है। जहाँ पेड़ हैं, समझो वह अपने क्षेत्र में किसी नदी को नदी बनाने की दिशा में कोई अहम योगदान दे रहा है। इसलिये जब हम वृक्ष लगाते हैं तो समझिए किसी नदी की पूजा कर रहे होते हैं।

इसी तरह खेत से नाले की ओर दिशा में तालाब आदि के माध्यम से जब हम बूँदों की मनुहार करते हैं तो भी हम किसी नदी को समृद्ध करने की कोशिश कर रहे होते हैं। जहाँ-जहाँ हम बूँदों की इस तरह की पूजा कर रहे होते हैं वहाँ-वहाँ हम ईश्वर को प्रसन्न कर रहे होते हैं।

भागवत पुराण में ईश्वर के विराट स्वरूप में इन नदियों को भगवान की धमनियाँ बताया गया है। यदि धमनियाँ स्वस्थ रहेंगी तो ईश्वर प्रसन्न रहेगा। यदि ऐसा होता है तो मानव समुदाय भी नदी को समृद्ध बनाते-बनाते खुद भी स्वस्थ और समृद्ध होगा।

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