नदियां क्यों बाढ़ लाती हैं

7 Oct 2009
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शहरीकरण के कूड़े ने समस्या को बढ़ाया है। यह कूड़ा नालों से होते हुए नदियों में पहुंचता है, जिससे नदी की जल ग्रहण क्षमता कम होती है। पिछले तीन दशकों में पूरे देश में यह रोग बुरी तरह से लगा कि पारंपरिक तालाब, बावड़ी सुखा कर उस पर रिहायशी कालोनी या व्यावसायिक परिसर बना दिए जाएं। प्राकृतिक रूप से बने तालाब व पहाड़ जल संचयन के सशक्त स्रेत और बाढ़ से बचाव के जरिए हुआ करते थे। प्रकृति के इस जोड़-घटाव को ना समझने का खामियाजा अब लोगों को भुगतना पड़ रहा है। ऐसा कई बार होता है कि जो सरकार सूखे के इंतजाम के लिए बजट जारी कर रही थी उसे तत्काल ही बाढ़ से बचाव की योजना बनानी पड़ी।

मई-जून के महीनों में जब देश की राजधानी दिल्ली सहित कई हिस्सो में पानी के लिए त्राहि-त्राहि मची हुई थी तभी पूर्वोत्तर राज्यों में बाढ़ से तबाही का दौर शुरू हो चुका था। चौमासे के महीनों में लोग समझ ही नहीं पाते हैं कि पानी मांगें या फिर उफनती नदियों से राहत!

ज्यों-ज्यों मानसून अपना रंग दिखाता है, वैसे ही देश के बड़े भाग में नदियां उफन कर तबाही मचाने लगती हैं। हालांकि सरकारी महकमें बाढ़ से निबटने के नाम पर लाखों रुपए की खरीद-फरोख्त कर पानी के आतंक को रोकने के लिए कागजों की बाढ़ लगाते हैं पर शायद उनका असली उद्देश्य बाढ़ से हुई तबाही के बाद पुनर्वास के नाम पर अधिक बजट प्राप्त करना मात्र होता है।

पिछले कुछ साल के आंकड़े देखें तो पाएंगे कि बारिश की मात्रा कम ही हुई है, लेकिन बाढ़ से तबाह हुए इलाके में कई गुना बढ़ोतरी हुई है। कुछ दशकों पहले जिन इलाकों को बाढ़ से मुक्त माना जाता था, अब वहां की नदियां भी मौसम बीतते ही, उन इलाकों में एक बार फिर पानी का संकट छा जाता है।

अनियोजित शहरीकरण बाढ़ की बढ़ती तबाही के लिए काफी हद तक दोषी है। वृक्षहीन धरती पर बारिश का पानी सीधा गिरता है और भूमि पर मिट्टी की ऊपरी परत, गहराई तक छेदता है। यह मिट्टी बह कर नदी-नालों को उथला बना देती है, और थोड़ी ही बारिश में ये उफन जाते हैं। वैसे शहरीकरण, वन विनाश और खनन तीन ऐसे प्रमुख कारण हैं जो बाढ़ विभीषिका में उत्प्रेरक का कार्य कर रहे हैं। जब प्राकृतिक हरियाली उजाड़ कर कंक्रीट जंगल सजाया जाता है तो जमीन की जल सोखने की क्षमता तो कम होती ही है, साथ ही सतही जल की बहाव क्षमता भी कई गुना बढ़ जाती है।

फिर शहरीकरण के कूड़े ने समस्या को बढ़ाया है। यह कूड़ा नालों से होते हुए नदियों में पहुंचता है, जिससे नदी की जल ग्रहण क्षमता कम होती है। पिछले तीन दशकों में पूरे देश में यह रोग बुरी तरह से लगा कि पारंपरिक तालाब, बावड़ी सुखा कर उस पर रिहायशी कालोनी या व्यावसायिक परिसर बना दिए जाएं। प्राकृतिक रूप से बने तालाब व पहाड़ जल संचयन के सशक्त स्रेत और बाढ़ से बचाव के जरिए हुआ करते थे। प्रकृति के इस जोड़-घटाव को ना समझने का खामियाजा अब लोगों को भुगतना पड़ रहा है।

फिर पहाड़ों पर खनन से दोहरा नुकसान है। इससे वहां की हरियाली उजड़ती है और फिर खदानों से निकली धूल और मलबा नदी -नालों में अवरोध पैदा करता है। हिमालय से निकलने वाली नदियों के मामले में तो मामला और भी गंभीर हो जाता है। हिमालय, पृथ्वी का सबसे कम उम्र का पहाड़ है। इसकी विकास प्रक्रिया जारी है, तभी इसे ‘जीवित-पहाड़’ भी कहा जाता है। इसकी नवोदित हालत के कारण यहां का बड़ा भाग कठोर चट्टानें न होकर, कोमल मिट्टी है। बारिश या बरफ से पिघलने पर, जब पानी नीचे की ओर बहता है तो साथ में पर्वतीय मिट्टी भी बहा कर लाता है। पर्वतीय नदियों में आई बाढ़ के कारण यह मिट्टी नदी के तटों पर फैल जाती है। इन नदियों का पानी जिस तेजी से चढ़ता है, उसी तेजी से उतर जाता है। इस मिट्टी के कारण नदियों के तट बेहद उपजाऊ हैं।

लेकिन अब इन नदियों को जगह-जगह बांधा जा रहा है, सो बेशकीमती मिट्टी अब बांधों में ही रुक जाती है और नदियों को उथला बनाती रहती है। बाढ़ महज एक प्राकृतिक प्रकोप नहीं, बल्कि मानवजन्य साधनों की त्रासदी है। इससे निपटने के लिए एक तो नदी तटों के नैसर्गिक स्वरूप को अक्षुण्ण बनाए रखने के लिए कुछ कड़े कदम उठाने होंगे, साथ ही बांधों, नदियों के जोड़ जसी परियोजनाओं का आकलन नए सिरे से करना होगा। इसके अलावा बाढ़ के बाद राहत बांटने की प्रवृत्ति से परे समस्या के स्थायी समाधान और लोगों के स्थायी पुनर्वास के लिए योजना बनाना जरूरी हो गया है।

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