नदियों की चिन्ता कैसी चिन्ता

प्रौद्योगिकी, ज्ञान व आमजन की स्थानीय नदियों के प्रति जो आस्था है उसको आधार मानकर उससे आगे बढ़ने की। आज यदि हम सभी नदियों के संकटों से आहत नहींं हैं तो साफ है कि कहीं-न-कहीं हम अपनी मानवीय संवेदाएँ खो चुके हैं व अपने पाँव पर अपने आप कुल्हाड़ी भी मार रहेहैं।

पूरे विश्व की नदियाँ आज मानव से जीवन व जीवन्तता के लिए ज्यादा ख़तरा महसूस कर रही हैं। इसके कई कारण हैं- प्रदूषण, नदियों का बाँधना, जलग्रहण क्षेत्रों का क्षरण, उन्हें सुरंगों में भेजना, बाढ़ और जलवायु परिवर्तन आदि। भारत में भी नदी की सफाई की योजनाएँ बनी हैं किन्तु इनके नतीजे सिफर के बराबर रहेहैं। गंगा सफाई योजना सन् 1985 में शुरू हुई थी।

अब तक अठारह सौ करोड़ रुपए ख़र्च होने पर भी गंगा का प्रदूषण कम नहींं हुआ है। यमुना की सफाई पर भी हजार करोड़ रुपए ख़र्च हो गए हैं। परन्तु यमुना गन्दे नाले-सा जीवन जी रही है। हरियाणा अपनी ओर पहुँचनेवाली यमुना नदी के प्रदूषण के मामले में दिल्ली व उत्तर प्रदेश को न्यायालय में खींचने को तैयार है।

सुप्रीम कोर्ट भी नदियों की तथाकथित सफाई की रफ्तार और उसमें हो रहे भ्रष्टाचार के आरोपों से पिछले दो दशकों से चिन्तित है। नदी सफाई की नवीनतम योजना की बात चेन्नई से सुनने में आई है। वहाँ की कूयम नदी के सफाई व पुनरोद्धार के लिए 1,200 करोड़ रुपए की योजना की घोषणा दिसम्बर 2009 में की गई है।

आज ऐसा लगता है कि मुख्य नदियों में उनकी सहायक नदियों के पानी से ज्यादा उनमें गिरने वाले नालों का गन्दा मल, मूत्र, कीचड़, विषैला कचरा युक्त पानी मिल रहा है। राजधानी दिल्ली अपने लिए यमुना से जितना जल लेती है उसका लगभग नब्बे प्रतिशत जल जब फिर से वापस यमुना में डालती है तो वह बेहद पू प्रदूषित और गन्दे नालों के रूप में होता है।

एक तरह से दिल्ली से बाहर निकलने वाली यमुना, पानी के मामले में नई और बदली हुई यमुना होती है। कारखानों, खानों व खदानों का कचरा व प्रदूषण भी नदियों को काला कर रहा है। नदियों में डालने से पहले नालों के गन्दे बहाव को उपचारित करने की बात जब तब की जाती रही है। किसी भी क्षेत्र की नदी की सफाई योजना में यह एक महत्वपूर्ण कार्यक्रम होता है।

परन्तु इसमें अन्य दिक्कतों के अलावा, बिजली की अनियमितता सबसे बड़ी बाधा होती है। एक समाचार के अनुसार मल उपचारित करने वाले लगभग आधे संयन्त्र काम ही नहींं कर रहे हैं। यह सिलसिला उत्तराखण्ड से ही शुरू हो जाता है। अभी हाल में इसकी सूचना कोर्ट को भी दी गई है।

बीते महाकुम्भ के समय हरिद्वार में तो पीने के पानी की बात छोड़िए नहाने के लिए भी पानी को उपयुक्त नहींं माना गया था। पतित पावनी व राष्ट्रीय धरोहर गंगा में करीब 26 हजार लाख लीटर बिना उपचार के गन्दा जल-मल पहुँच रहा है। हाल ही में इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने गंगा में गिरने वाले नालों के बारे में राज्य सरकार से रिपोर्ट भी माँगी थी। प्रदूषणों से नदियों के पानी में घुलनशील आॅक्सीजन में भी कमी आ जाती है।

इससे उनमें रहने वाले जीव जन्तुओं, मछलियों आदि के जीवन पर भी ख़तरा बढ़ जाता है। इसी सन्दर्भ में गंगा-यमुना के डाॅलफिनों की मौत पर चर्चा हो रही है। नदियों का पानी पीना बीमारियों को न्यौता देना जैसा हो जाता है। लोग अब नदी जल आचमन से भी परहेश करने लगे हैं। यही नहींं, कई नदियों का पानी तो अब नहाने लायक भी नहींं रह गया है।

ईंधन की कमी के कारण अधजले शव भी नदियों में डाल दिए जाते हैं। बड़े स्नान पर्वों में व मूर्ति विसर्जन के दौरान भी नदियों का प्रदूषण बढ़ जाता है। नदियाँ सूख रही हैं व सुखाई भी जा रही हैं। नदियाँ बाँधी जा रही हैं।

नदियाँ सुरंगों में भी डाली जा रही हैं। नदियों के रास्ते बदले जा रहे हैं। नदियों के जिम्मे अब पुरख़ों को तारना हीनहींं है, बल्कि अब बाजार को भी तारना है। नदियों का व्यवसायीकरण लगातार बढ़ता जा रहा है। कई बार इससे स्थानीय लोगों के पारस्परिक कार्यकलापों व अधिकारों पर व नदी तटों तक जाने पर भी नियन्त्रण हो जाता है।

उत्तराखण्ड समेत कुछ अन्य राज्यों से भी नदियों के कुछ हिस्सों के बेचे जाने की ख़बरें अख़बारों में छपी हैं। डर यह भी है कि जिस अबाध गति से नदियों का दोहन हो रहा है उससे उनकी हालत भी ख़त्म होते जा रहे जंगलों की तरह हो जाएगी। नदियों के तटों पर कब्जे हो रहे है।

शौच के लिए भी उनका दुरुपयोग हो रहा है। नदियों के फैलने-पसरने के जगहों में कमी आ रही है। रिवर राफ्टिंग के नाम पर उत्तराखण्ड में देवप्रयाग से ऋषिकेश तक गंगा के रेतीले तटों पर गन्दगी भरा मानवीय दबाव बढ़ता जा रहा है। ऋषिकेश में गोवा बीच जैसा अनुभव मिलने को भी प्रचारित किया गया है। नदियों की बिगड़ी हालत के विरोध में उत्तराखण्ड समेत पूरे विश्व में जगह-जगह नदी बचाओ आन्दोलन व नदी अभियान चल रहे हैं।

अपने-अपने क्षेत्रों की नदियों को बचाना, लोगों को सीधे अपने को बचाना लग रहा है। नदियों को बचाने के लिए धार्मिक, पर्यावरणीय वैज्ञानिक, तकनीकी, सामाजिक व सांस्कृतिक दलीलों का सहारा लिया जाता है। कई मामलों में ये दलीलें राजनीतिक भी होती हैं।

दक्षिण भारत के राज्यों के बीच नदियों को लेकर होने वाली कहासुनी तो आम बात है। नदी जोड़, नदी मोड़ योजनाओं का भी विरोध होता रहा है। इन सबके बीच पर्यावरण कार्यकर्ताओं का एक समूह 2010 को नदियों को मुक्त करो वर्ष के रूप में मानने की घोषणा कर चुका है। परन्तु स्थानीय स्तर पर इन अभियानों के विरुद्ध भी लोगों को नदियों का दोहन स्थानीय विकास के हित में करने के लिए खड़े होते देखा जा सकता है। ऐसे विरोधीआन्दोलन अक्सर खड़े करवाए जाते हैं।

नदियों के तल पर जमा होता गाद भी नदियों को धीरे-धीरे मारने लगता है। इससे बरसातों में कम पानी आने पर भी बाढ़ का ख़तरा बढ़ जाता है। ऐसी स्थितियों में कई नदियाँ तटों को भी तोड़ देती है और अपना रास्ता भी बदल देती है। बिहार व पूर्वी उत्तर प्रदेश में ऐसा कई बार हुआ है। बिहार में कोसी नदी भी ऐसा उदाहरण प्रस्तुत करती है।

वर्ष 2008 में नेपाल में भारी बरसात और उसके बाद आई बाढ़ के बाद कहते हैं कि कोसी फिर से अपने ढाई सौ वर्ष पुराने रास्ते पर चली गई है। ब्रह्मपुत्र ने भी कई बार रास्ते बदले हैं। अतः नदियों के संरक्षण के लिए उनके जल ग्रहण क्षेत्रों का भी पर्यावरणीय संरक्षण बहुत जरूरी है।

नदियों के तल पर जमा होता गाद भी नदियों को धीरे-धीरे मारने लगता है। इससे बरसातों में कम पानी आने पर भी बाढ़ का ख़तरा बढ़ जाता है। ऐसी स्थितियों में कई नदियाँ तटों को भी तोड़ देती है और अपना रास्ता भी बदल देती है। बिहार व पूर्वी उत्तर प्रदेश में ऐसा कई बार हुआ है।

नदियों पर संकट आने से जैव विविधता, खाद्य सुरक्षा व मानव स्वास्थ्य पर भी ख़तरा आ जाता है। अब यह विचार भी प्रचारित हो रहा है कि नदियों को चाहे कितना भी बाँधें, उनसे इधर-उधर नहरों के लिए चाहे कितना भीपानी निकालें फिर भी उनमें कम से कम इतना पानी तो अवश्य बचाए रखें या छोड़ दें जिससे उनकी पर्यावरणीय व पारिस्थितिकीय भूमिका कुप्रभावित न हो। इतना पानी नहरों को तो मिले जिससे कि सिंचाई हो सके।

नदियों को बिजली पैदा करने के लिए भी दुहा जाता है। इसके लिए उन्हें जगह-जगह बाँधा जा रहा है या सुरंगों के भीतर डाला जा रहा है। लोगों का कहना है कि बन्धा हुआ पानी भी नदियों को, जलचरों को मार रहा है। परन्तुजब नदियाँ सुरंगों से भेजी जा रही हैं तो कभी-कभी तो ऐसा लगता है कि चलो खुली नदियों में डाले जाने वाले अथाह गन्दगी से तो निजात मिली।

सुरंगों में नदियों को भेजे जाने से नदी के पास रह रहे आमजन के अलावा नाविक, मछुआरे, धोबी, नदी पर अन्यथा निर्भर रहने वाले तबकों के जीवनयापन पर इसका बुरा असर पड़ता है। ख़ासकर पहाड़ों में उन गाँवों के निवासियों के जीवन व सम्पत्तियों पर ख़तरे बढ़ जाते हैं, जिनके गाँव इन सुरंगों के ऊपर आ जाते हैं।

उत्तराखण्ड में जगह-जगह नदियाँ सुरंगों में डाली जा रही हैं। उत्तरकाशी में भगीरथी, पाला-मनेरी जलविद्युत परियोजना के लिए सुरंग के ऊपर के औंगी, क्यार्क, सैंज जैसे गाँवों के निवासी भयभीत हैं। उत्तराखण्ड में तो छोटी-बड़ी सैकड़ों परियोजनाओं के नाम पर जो कुछ हो चुका है और जो कुछ प्रस्तावित है उससे लगता है कि वहाँ की नदियाँ या तो कई सौ किलोमीटर सुरंगों के भीतर होंगी या जलाशयों में समाएँगी। इससे जंगली जानवर भी प्रभावित हो रहे हैं। सुरंगों में नदियों को डाले जाने से आस-पास के भूमिगत जल भण्डारों पर भी इसका बुरा असर पड़ता है।

सन्तोष की बात यह है कि केन्द्र सरकार अब इस तरह के ख़तरों के प्रति गम्भीर है और चलती हुई परियोजनाओं को भी स्थगित करने में नहींं सकुचा रही है। हिमनदों पर जलवायु परिवर्तन के प्रभावों व स्थानीय स्तर पर हिमनदों के पास मानवीय गतिविधियों के बढ़ने से भी नदियों को संकट झेलना पड़ रहा है। इस कारण अलकापुरी के पास अलकनन्दा, जिस ग्लेशियर से निकलती है वह भी संकट में है।

गोमुख के पास मानवीय गतिविधियों को प्रतिबन्धित व नियन्त्रित करने की माँग भी इसी संदर्भ में की जा रही है। अलकनन्दा व भगीरथी दो मुख्य नदियाँ हैं जो देवप्रयाग में मिलकर गंगा नदी बनती हैं। गंगा का करीब एक-तिहाई जल हिमनदों का होता है। यमुना नदी भी गंगा की ही तरह उत्तराखण्ड में यमुनोत्री से निकलने वाली हिमपोषित नदी है।

उत्तराखण्ड के पहाड़ों से बाहर निकलते ही इन नदियों पर आवासीय मल-मूत्र, कूड़ा-कचरा व कारखानों के तरल व ठोस अवशेषों के नाले मिल जाते हैं और इस बीच नहरों के लिए भी उनसे इतना पानी निकाल लिया जाता है कि मूल जलराशि नगण्य हो जाती है। केवल हरिद्वार में ही गंगा में एक दर्जन से ज्यादा शहरी गन्दगी के नाले मिलते हैं। आहत नदियों की आरती उतारकर उनकी पीड़ा कम नहींं की जा सकती है।

नदियों के तटों पर होने वाले कब्जे या उन पर होने वाली गतिविधियाँ आज नदियों के लिए ख़तरे के रूप में उभर रहे हैं। दूसरी तरफ यह भी सत्य है कि सैलानियों व तीर्थ स्थलों के संदर्भ में नदियों के किनारे की जमीनों की ज्यादा व्यावसायिक कीमत होती जा रही है।

नदियों को बचाने के लिए व नदियों से होने वाले नुकसानों को कम करने के लिए नदियों के तटों को एक निश्चित दूरी तक खाली रखने या उसके सही पर्यावरणीय प्रबन्धन की आवश्यकता है। नदियों के कुल चौड़ाई केलगभग तीन-गुना क्षेत्र नदियों के दोनों किनारे पर नदियों के फैलाव के लिए छोड़ने के प्रावधान का भी कानूनी उपयोग होना चाहिए।

गंगा के किनारे उसके रेतीले पाट पर तम्बुओं व उनमें रहने वालों की भीड़ बढ़ती जा रही है। इससे रेतीले पाटों पर मल-मूत्र व कूड़े-कचरे का अंबार भी बढ़ता जा रहा है। नदियों को बचाने के सन्दर्भ में कुछ बातें तो साफ लग रही हैं।

नदियाँ बनी रहें इसके लिए बंधी नदियों के बाद भी आगे की राह में प्रवाह के लिए पानी बचना चाहिए। नदियों कीस्वतन्त्रता का कम-से-कम हनन होना चाहिए। नदियों के पाटों को काफी दूर तक आवासीय दबावों से मुक्त रखना चाहिए। जलग्रहण क्षेत्रों के जलस्रोतों व हरितिमा को बचाया जाना चाहिए। इसके लिए निश्चित रूप से प्रौद्योगिकी, वित्त एवं मानव संसाधन की जरूरत होगी।

नदियों को मारने में सरकारें ही कटघरे में नहींं हैं, बल्कि आमजन भी कटघरे में हैं। कई कार्यशालाओं में भी ये बात साफ हो चुकी है। केवल रैलियों-नाटकों से नदियाँ नहींं बचेंगी। हर किसी में इतनी चेतना है कि वो कहे किनदियों को या जलस्रोतों को गन्दा नहींं करना चाहिए या जंगलों को नहींं काटना चाहिए।

जरूरत है अब तक जो कानून बने हैं, प्रौद्योगिकी, ज्ञान व आमजन की स्थानीय नदियों के प्रति जो आस्था है उसको आधार मानकर उससे आगे बढ़ने की। आज यदि हम सभी नदियों के संकटों से आहत नहींं हैं तो साफ है कि कहीं-न-कहीं हम अपनी मानवीय संवेदाएँ खो चुके हैं व अपने पाँव पर अपने आप कुल्हाड़ी भी मार रहेहैं।

लेखक सामाजिक कार्यकर्ता व पर्यावरण वैज्ञानिक हैं।
ई-मेलः vkpainuly@rediffmail.com

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