नदियों की सफाई भी बने चुनावी मुद्दा

आखिर कब होगी गंगा की धारा निर्मल? इस सवाल पर सुप्रीम कोर्ट ने एक बार फिर से कड़े तेवर दिखाए हैं। तीन दशक से गंगा को लेकर केन्द्र सरकार सफाई अभियान चला रही है। इन तीन दशकों में जनता के अरबों रुपयों का वारा-न्यारा हो गया, फिर भी गंगा अब तक साफ नहीं हो पाई।

आए दिन नदियों की सफाई को लेकर राजनीतिक दलों के बीच आरोप-प्रत्यारोप का दौर जारी रहता है। बावजूद इसके नदियों की सफाई कभी चुनावी मुद्दा क्यों नहीं बनती?

गंगा को निर्मल बनाने पर सैकड़ों करोड़ रुपए खर्च करने के बावजूद उसका पानी पीने की बात तो दूर, नहाने योग्य भी नहीं बचा है। एक सर्वेक्षण के अनुसार, आज भी प्रतिदिन दो करोड़ 90 लाख लीटर प्रदूषित कचरा गंगा में गिरता है।

760 औद्योगिक इकाइयों का मलबा भी गंगा में प्रवेश करता है, जबकि प्रदूषण फैलाने वाले कुछ और भी कारण हैं। इसी प्रकार शवों का गंगा किनारे होने वाला अन्तिम संस्कार तथा गंगा में फेंके जाने वाले सड़े-गले शव प्रदूषण को और अधिक बढ़ाते हैं।

यह विडम्बना नहीं तो और क्या है कि लोगों को जीवन देने वाली माँ गंगा का ही जीवन आज मौत के कगार पर है। हमें यह अच्छे से याद रखना होगा कि यदि गंगा को कुछ हुआ तो देश की एक तिहाई आबादी के अस्तित्व पर सवालिया निशान लग जाएगा, जिसका जीवन-चक्र ही इस पर टिका हुआ है।

हिमालय के ग्लेशियरों से निकलने के बाद गंगा देश के उत्तरी और पूर्वी इलाकों से गुजरते हुए ढाई हजार किलोमीटर की दूरी तय करती है और बंगाल की खाड़ी में मिल जाती है।

गंगा के आँचल तले करीब 40 करोड़ लोग शरण पाते हैं। अगर अरबों रुपए खर्च करने के बावजूद गंगा लगातार प्रदूषित होती चली गई तो आखिर क्यों? गंगा में गिरने वाले गन्दे नाले, फ़ैक्टरियों के प्रदूषित पानी और कचरे को रोकने के क्या उपाय किए गए? क्यों नहीं, सीवेज ट्रीटमेंट की परियोजनाएँ त्वरित गति से स्थापित की गईं? आखिर क्यों ढीलाढाला रवैया रहा?

केन्द्र सरकार ने सुप्रीम कोर्ट से कहा है कि गंगा सफाई अभियान 2018 तक पूरा कर लिया जाएगा, लेकिन बिना किसी योजना के इस तिथि तक गंगा का निर्मल हो पाना लगभग असम्भव-सा है। कोर्ट सरकार से लगातार सफाई अभियान का रोडमैप जानना चाहता है, लेकिन केन्द्र कोर्ट को सन्तुष्ट कर पाने में अक्षम साबित हो रहा है।

बहरहाल, केन्द्र सरकार ने कोर्ट को यह बताकर सन्तुष्ट करने की कोशिश की है कि ‘गंगा सफाई अभियान’ के लिए कड़े फैसले लिए गए हैं। पूजा सामग्री समेत अन्य सामग्री नदी में डालते हुए कोई पकड़ा गया तो उसे पाँच हजार रुपए जुर्माना देना होगा। पर यही सवाल खड़ा होता है कि गंगा तटों पर सरकार कितने लोगों को खड़ा करेगी, जो पूजा सामग्री फेंकने वालों पर निगरानी रख सकेंगे? गंगा की सफाई इतना आसान काम नहीं है। इसके लिए समयबद्ध तौर पर कुछ ठोस कार्यनीतियाँ अमल में लानी होंगी।

यह चुनौती इतनी गम्भीर है कि महज मन्त्रालय का गठन करने और बजट आवण्टित कर देने से इससे पार नहीं पाया जा सकता। वर्ष 1986 से ‘गंगा एक्शन प्लान’ जैसी महत्वाकांक्षी योजनाओं पर अरबों रुपए खर्च किए जा चुके हैं लेकिन निराशा से अधिक कुछ हाथ नहीं आ सका है। इसलिए जरूरी है कि पीछे मिले सबक का गहराई से मूल्यांकन हो, समस्याग्रस्त जगहों की मुकम्मल पहचान हो और योजनाबद्ध तरीके से कार्रवाई चले।

योजना की समीक्षा और रिसर्च कार्य पर संकल्पित नजरिए से काम हो और खास नजर इस बात पर रहे कि कहीं से भ्रष्टाचार के कीड़े इसमें घुसने न पाएँ। सुप्रीम कोर्ट की यह सलाह व्यावहारिक है कि शुद्धिकरण अभियान को टुकड़ों से चलाया जाए और एक बार में सौ किलोमीटर के दायरे पर फोकस रहे। मानव मल-मूत्र और कारखानों के जहरीले रसायनों को गंगा में बहाया जाना तत्काल रोका जाए और अनदेखी करने वालों पर कठोरतम कार्रवाई हो।

गंगा के किनारे बसे करीब पचास बड़े शहरों से करीब तीन करोड़ लीटर मल-मूत्र की गन्दगी रोज निकलती है जबकि इसमें से करीब सवा सौ करोड़ लीटर का ही शोधन करने की क्षमता उपलब्ध है, इसी तरह कानपुर की चार सौ टेनरियों से रोजाना पाँच करोड़ का औद्योगिक कूड़ा-कचरा निकलता है जिसमें खतरनाक रसायन होते हैं। अगर गंगा को जहरीली बनाने वाली टेनरियाँ सुरक्षात्मक उपाय नहीं उठाती हैं तो इन्हें तत्काल बन्द कर दिया जाना चाहिए।

वस्तुतः गंगा को मैली करने में सरकारी योजनाएँ तो दोषी हैं ही, आम जनता भी कम जिम्मेदारी नहीं है। वर्षा ऋतु में गंगा का प्रवाह गन्दगी को बहा देता है, लेकिन वर्षा खत्म होते ही गंगा फिर से उसी अवस्था में पहुँच जाती है। गंगा तटों पर बने होटल, फैक्टरियाँ, आश्रम और बसे हुए शहर अपनी सारी गन्दगी गंगा में प्रवाहित करते हैं। शवों को गंगा में बहा दिया जाता है।

जब इतनी गन्दगी गंगा में डाली जाएगी तो जाहिर है कि वह मैली तो होगी ही। वास्तव में अगर सरकार को गंगा को निर्मल बनाना है तो इसे व्यावहारिक योजना बनाकर इसका क्रियान्वयन करना होगा और नागरिकों को भी इसमें सहयोग करना होगा। बिना इसके गंगा की सफाई की बात बेमानी ही होगी।

तो इसलिए होती है गंगा मैली


जनवरी 1986 में शुरू हुई गंगा कार्य योजना (जीएपी) इस नदी में मौजूद प्रदूषण को कम करने की एक कोशिश थी लेकिन 9,017 मिलियन रुपए खर्च करने के बाद भी गंगा प्रदूषण मुक्त नहीं हो पाई। इसलिए 31 मार्च, 2000 में इस योजना से हाथ खींच लिये गए। राष्ट्रीय नदी संरक्षण प्राधिकरण (एनआरसीए) की एक महत्वपूर्ण समिति ने सफाई कार्यक्रम में प्रगति की समीक्षा करने के बाद जो भी सबक सीखे और अनुभव हासिल किए, उसके मुताबिक जरूरी सुधार करने की कोशिश कितनी हुई, गंगा में मौजूद गन्दगी इसे खुद बयाँ करती है।

योजना के दूसरे चरण में प्रदूषण के कामकाज को पूरा तो कर दिया गया, लेकिन इसका ग्राफ सन्तोषजनक नहीं है। पहले चरण में 10 लाख लीटर गन्दे पानी को रोकने, उसकी दिशा मोड़ने और उसे साफ करने का लक्ष्य तय किया गया था। कार्य योजना के दूसरे चरण को मंजूरी मिली और यह 1993 में आगामी विभिन्न चरणों को हरी झण्डी मिलने के साथ आगे बढ़ा। इस चरण में गंगा ही नहीं, यमुना, गोमती, दामोदर और महानन्दा जैसी सहायक नदियों में भी सफाई अभियान शुरू करने का संकल्प लिया गया। 2011 से इस कार्य योजना पर अब भी काम चल रहा है।

वैज्ञानिक और धार्मिक नेताओं का मानना रहा है कि एक नदी के भीतर खुद में जल को साफ रखने की नैसर्गिक प्रक्रियाएँ छिपी होती हैं और वे खुद सफाई कर लेती हैं। यहाँ तक कि नदियाँ पेचिश और कालरा पैदा करने वाले जलजनित बैक्टीरिया को नियन्त्रित करके बड़े पैमाने पर महामारी पैदा होने से पहले ही उन्हें रोक लेती हैं। लेकिन कुछ स्टडी से पता चला कि बाकी नदियों के मुकाबले गंगा में ऑक्सीजन की मात्रा ज्यादा होती है। पानी में बीमारियाँ पैदा करने वाले तत्व शायद इसी वजह से कम होते रहे हों, ऐसा गंगा की महिमा का वर्णन करते हुए हमारे धार्मिक ग्रन्थों में वर्णन मिलता है।

नेशनल रीवर गंगा बेसिन अथॉरिटी (एनआरजीबीए)


केन्द्र सरकार ने 20 फरवरी 2009 में एनआरजीबीए की स्थापना की थी। पर्यावरण सुरक्षा कानून, 1986 की धारा-3 के तहत् इसकी स्थापना की गई थी। इसी कानून के तहत् गंगा को भारत की राष्ट्रीय नदी घोषित किया गया है। यह कानून कहता है कि प्रधानमन्त्री और राज्यों के मुख्यमन्त्री अथॉरिटी की ओर से गंगा के प्रवाह पर निगरानी रखने के लिए जवाबदेह हैं। 2011 में विश्व बैंक ने एनआरजीबीए के लिए एक अरब डॉलर देना मंजूर भी किए थे।

यह चुनौती इतनी गम्भीर है कि महज मन्त्रालय का गठन करने और बजट आवण्टित कर देने से इससे पार नहीं पाया जा सकता। वर्ष 1986 से ‘गंगा एक्शन प्लान’ जैसी महत्वाकांक्षी योजनाओं पर अरबों रुपए खर्च किए जा चुके हैं लेकिन निराशा से अधिक कुछ हाथ नहीं आ सका है। आए दिन राजनीतिक दलों के बीच इसे लेकर आरोप-प्रत्यारोप का दौर जारी रहता है। बावजूद इसके नदियों की सफाई कभी चुनावी मुद्दा बनती नहीं दिखती!

उच्चतम न्यायालय के निर्देश


उच्चतम न्यायालय ने गंगा के तटों पर काम करने वाले ज्यादातर कल-कारखानों को बन्द करके उन्हें दूसरी जगह ले जाकर संचालित करने का निर्देश देने के अलावा नदी के तटों पर तुलसी के पौधे लगाने की सलाह दी है। साथ ही, 2010 में सरकार ने गोमुख और उत्तरकाशी के बीच के इलाके को पर्यावरण के दृष्टि से संवेदनशील क्षेत्र बनाने का ऐलान किया था।

‘नमामि गंगे’


10 जुलाई, 2014 को वित्त मन्त्री अरुण जेटली ने संसद में बजट पेश करते हुए ‘नमामि गंगे’ के तहत् एकीकृत गंगा विकास प्रोजेक्ट शुरू करने के घोषणा की थी। इस काम के लिए 2,037 करोड़ रुपए का आवण्टन किया गया। इस प्रोग्राम के एक हिस्से के रूप में केन्द्र सरकार ने गंगा के इर्द-गिर्द करीब 48 औद्योगिक इकाइयों को बन्द करने का आदेश दिया था। जो भी हो, गंगा और उसके घाट न सिर्फ हमारी समृद्ध सांस्कृतिक विरासत हैं, बल्कि इनके साथ धर्मसम्मत परम्पराएँ भी जुड़ी हुई हैं।

इन घाटों और तटों पर आज भी आस्था स्पन्दित होती है। केदारनाथ, हरिद्वार, कानपुर, इलाहाबाद और वाराणसी में गंगा घाटों को स्वच्छ रखने व उनके सौन्दर्यीकरण पर 100 करोड़ रुपए आवण्टित किए गए जिससे गंगा की निर्मलता की बहाली पक्की हो सके।

‘नमामि गंगे’ पर संगठनों से माँगे गए रुचि पत्र


गंगा की अविरल एवं निर्मल जल धारा सुनिश्चित करने के लिए ‘नमामि गंगे’ योजना को अमलीजामा पहनाने के तहत् सरकार ने प्रतिष्ठित संगठनों एवं एनजीओ से ‘रुचि पत्र’ आमन्त्रित किए हैं ताकि त्योहारों के समय और सामान्य दिनों में गंगा में फूल, पत्ते, नारियल, प्लास्टिक एवं ऐसे ही अन्य अवशिष्ट बहाने की आदत को नियन्त्रित किया जा सके।

जल संसाधन, नदी विकास एवं गंगा संरक्षण मन्त्रालय के एक अधिकारी ने कहा कि राष्ट्रीय स्वच्छ गंगा मिशन के अन्तर्गत ऐसे प्रतिष्ठित संगठनों एवं एनजीओ से रुचि पत्र आमन्त्रित किए गए हैं जिन्हें अवशिष्ट प्रबन्धन का अनुभव हो। इस सम्बन्ध में सम्पूर्ण दस्तावेजों समेत रुचि पत्र जमा करने की अन्तिम तारीख 23 फरवरी 2015 है।

जल संसाधन, नदी विकास एवं गंगा संरक्षण मन्त्रालय ने समन्वित गंगा संरक्षण मिशन गठित करने का प्रस्ताव किया है जिससे नमामि गंगे का नाम दिया गया है। इसके तहत् मन्त्रालय ने कई पहल को आगे बढ़ाने का प्रस्ताव किया है जिसमें विभिन्न धार्मिक स्थलों एवं शहरों में गंगा में फूल, पत्ते, नारियल, प्लास्टिक एवं ऐसे ही अन्य अवशिष्टों को बहाने को रोकना शामिल है।

मन्त्रालय जिन प्रमुख शहरों एवं धार्मिक स्थलों पर विचार कर रहा है, उनमें केदारनाथ, बद्रीनाथ, ऋषिकेश, हरिद्वार, गंगोत्री, यमुनोत्री, मथुरा, वृन्दावन, गढ़मुक्तेश्वर, इलाहाबाद, वाराणसी, वैद्यनाथ धाम, गंगासागर शामिल हैं। जल संसाधन मन्त्रालय से प्राप्त जानकारी के अनुसार, गंगा की सफाई की देखरेख के सम्बन्ध में गंगा कार्य बल के गठन का निर्णय किया गया है।

किन-किन ने यमुना को किया बदरंग


यमुना नदीयमुना हिमालय पर्वत पर स्थित यमुनोत्री से निकलकर 1,370 किलोमीटर की लम्बाई में बहते हुए इलाहाबाद में गंगा से मिलकर संगम बनाती है। इस तरह यमुना गंगा की सबसे बड़ी सहायक नदी है। अपने बहाव क्षेत्र में यमुना उत्तराखण्ड, हरियाणा, दिल्ली और उत्तर प्रदेश से बहती हुई इलाहाबाद में गंगा में मिल जाती है।

इसकी पानी इतना स्वच्छ रहता आया है कि वह सैकड़ों वर्षों तक नीला दिखता है। लेकिन इसमें प्रदूषण बढ़ने का सबसे ज्यादा सिलसिला दिल्ली में ही होता है। राजधानी दिल्ली की ओर से यमुना में करीब 57 प्रतिशत कचरा डाला जाता है। इसे रोकने के इरादे से उच्चतम न्यायालय ने प्रतिकूल टिप्पणी करते हुए कहा था कि ‘गौर से देखें तो यमुना मैली है लेकिन गंगा तो नाला बन चुकी है।’

कहाँ-कहाँ होती है यमुना मैली


यमुना अपने प्रदूषण के कारण अब अपनी गन्दगी की वजह से विश्व फलक पर चर्चा में आ चुकी है। साथ ही, पर्यावरणविदों के लिए भी यह चिन्ता की बात है। बड़े-बड़े कल-कारखाने, उद्योग-धन्धे और लोगों की कॉलोनियों के अलावा झुग्गियाँ और हजारों गाँव यमुना के किनारे बसे हैं।

इतना ही नहीं, इस नदी का पानी एक साल में करीब नौ महीने ठहरा रहता है, इसी से नदी का प्रदूषण और भी सिरदर्द हो जाता है साथ-ही-साथ, खेतों में इस्तेमाल के बाद बचे अवशेषों और कीटनाशकों की वजह से भी नदी का पानी और प्रदूषित होता जाता है। यमुना के कई किनारे ऐसे भी हैं जहाँ लोग यमुना के तटों पर न सिर्फ बर्तन माँजते हैं, बल्कि साबुन लगाकर कपड़े भी साफ करते हैं। इन सबसे यमुना में प्रदूषण और बढ़ता जा रहा है।

यमुना को सबसे ज्यादा प्रदूषित करने के लिए दिल्ली क्यों दोषी


यमुना दिल्ली से सटकर कुल करीब 22 किलोमीटर बहती है जो यमुनोत्री से इलाहाबाद में संगम तक के उसके कुल बहाव का सिर्फ 2 प्रतिशत ही हैं लेकिन यमुना में डाले जाने वाले समूचे प्रदूषण तत्वों का 70 प्रतिशत इसी दिल्ली से उसमें पड़ता रहा है। सरकारी आँकड़ों के अनुसार, दिल्ली शहर से ऐसे 18 बड़े नाले भी यमुना में मिलते हैं जो नदी में करीब 90 प्रतिशत प्रदूषक तत्व ले जाते हैं।

इसे और सरल शब्दों में समझने के लिए हम कह सकते हैं कि प्रतिदिन दिल्ली के ये 18 बड़े नाले 3,684 एमएलडी (मिलियन लीटर्स पर डे) कचरा यमुना में उड़ेलते हैं और आगरा तक पहुँचते-पहुँचते नदी में पहुँचने वाले इस प्रदूषण की मात्रा 90 प्रतिशत हो जाती है। ओखला की ओर से यमुना में औद्योगिक कचरा और सीवेज का गन्दा पानी मिल जाने से बायोकेमिकल ऑक्सीजन डिमाण्ड 1.3 मिलीग्राम प्रति लीटर कम हो जाता है।

इसका मतलब है कि यहाँ पानी में प्रदूषण के बढ़ने के कारण पानी को फिल्टर कर पाना कतई मुमकिन नहीं रह जाता। दिल्ली जल बोर्ड का कहना है कि दिल्ली की 143 अवैध कॉलोनियों और 1080 झुग्गी-बस्तियों और गाँवों के अवशिष्ट नालों के जरिए यमुना में गिरते हैं। वे गन्दे अपशिष्ट पानी है जिन्हें सीधे नदी में उड़ेला जा रहा है।

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