नेटाफिम टपक सिंचन प्रणालीः गन्ने की फसल के लिए वरदान

9 Oct 2019
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नेटाफिम टपक सिंचन प्रणालीः गन्ने की फसल के लिए वरदान
नेटाफिम टपक सिंचन प्रणालीः गन्ने की फसल के लिए वरदान

नेटाफिम टपक सिंचन प्रणाली

नेटाफिम टपक सिंचन प्रणाली की जननी होने के साथ-साथ अपने प्रगत तंत्रज्ञान और तुषार/ फुहारा सिंचन उत्पादनों की विस्तृत श्रेणी के साथ विश्व में प्रथम क्रमांक की कम्पनी है आज भारत में 7 लाख एकड़ से अधिक क्षेत्र में नेटाफिम टपक सिंचन प्रणाली कार्यरत होने के साथ ही 80 हजार से अधिक किसान नेटाफिम की सेवाओं का लाभ उठा रहे हैं।

इरिगेशन और फर्टिगेशन के लिए सर्वाधिक कार्यक्षम पद्धति

वर्तमान में कृषि व्यवसाय में टपक सिंचन और उसके द्वारा खाद डालने की पद्धति बहुत प्रभाव बना रही है। विगत 40 वर्षों से भारत के साथ ही विश्व में भी नेटाफिम की टपक सिंचन प्रणाली लाखों एकड़ गन्ने की फसल सफलतापूर्वक सिंचाई कर रही है। फसल के लाभदायक उत्पन्न के लिए किसान नेटाफिम टपक सिंचन प्रणाली को ही अपनी पहली स्वीकृति देते है। सभी प्रकार के खर्चों में बचत और उत्पादन में वृद्धि की करामात यह प्रणाली किस प्रकार करती है, इसकी जानकारी ले लेते हैं।

टपक सिंचन में ड्रिपर एक महत्त्वपूर्ण घटक है और उसकी कार्यक्षमता पर ही टपक सिंचाई की कार्यक्षमता निर्भर करती है। नेटाफिम के ड्रीपलाईन में ड्रिपर को लैटरल बनाते समय ही निश्चित दूरी पर बिठाते हैं।

  • अति उच्च स्तर के प्रीसीजन मोल्डेड इमीटर जिससे पानी और खाद समान मात्रा में दिया जाता है।
  • बहुत बड़ा और ढालू गहरा प्रवाह पथ जो अधिक प्रवाह क्षेत्र निर्मित करता है, जिससे ड्रिपर के बंद पड़ने का भय कम हो जाता है।
  • इमीटर का काँटेदार हिस्सा इससे प्रवाह में भंवर निर्माण होकर ड्रिपर में फँसा हुआ कचरा बाहर निकल जाता है।
  • ड्रिपर का विशिष्टतापूर्ण स्थान नेटाफिम कम्पना का ड्रिपर ड्रिपरलाईन में सर्वाधिक ऊँचाई पर होता है। इससे पाईप के मध्यभाग में से स्वच्छ जल ग्रिण किया जाता है और ड्रिपर बंद पड़ने की सम्भावना कम हो जाती है।
  • ड्रिप के अग्रभाग में लगा हुआ मायक्रो फिल्टर इससे जल छनकर ड्रिपर में प्रवेश करता है जिससे ड्रिपर के बंद पड़ने की सम्भावना कम हो जाती है।

नेटाफिम ड्रिपरलाईन गन्ने की सभी जातियों को, बोआई पद्धति को, उसी प्रकार प्रवाह की स्थिति और ड्रिपर के बीच की दूरी की विविध पर्यायों में उपलब्ध है।

टपक सिंचाई के फायदे

  • उत्तम उगाही
  • फसल की एक जैसी वृद्धि 
  • पौधों की संख्या अधिक
  • पानी की बचत
  • खाद की बचत 
  • मजदूरी खर्च में बचत
  • बिजली खर्च में बचत 
  • फसल के उत्पादन में वृद्धि 
  • शक्कर/ चीनी की अधिक निष्पत्ती 
  • कम उपजाऊ जमीन पर भी उपयोगी 
  • क्षारयुक्त जल का प्रयोग सम्भव
  • मृदा का सत्त्व बना रहता है।

भूमि/जमीन

गन्ने के लिए मध्यम से लेकर भारी/उच्च श्रेणी की, और अच्छी निकासी की भूमि ही योग्य होती है। उसी प्रकार अच्छे उत्पादन के लिए भूमि क्षेत्र कि मात्रा 6 से 8 के बीच होना चाहिए।

भूमि की देखभाल

गन्ने की जड़े सतह के 20 से 40 सें.मी. में ही बढते है। इसलिए भूमि को अच्छी तरह से पोला या भुरभुरा कर लें। गन्ने की अच्छी फसल पाने हेतु भूमि की योग्य देखभाल करना आवश्यक है।

बोआई की पद्धति

एक कूँड पद्धति इसमें साधारणतः 2.5 फीट की दूरी पर कूँड बनाए जाते हैं। गन्ने की बोआई एक कूँड छोड़कर की जाती है। इससे ड्रिपर लाईन में 4 फीट (यानी 9.5 मीटर) की दूरी बनी रहती हो। पट्टा पद्धति इस पद्धति में साधारणतः 9.5-2.0X4-6X9.5-2 फुट दूरी पर कूँड बनाए जाते हैं। दो कूँड़ो में बोआई (1.4-2.0 फुट) करने के बाद एक कूंड बनाए जाते हैं। दो कूंडो में बोआई करने के बाद एक कूंड (5 फुट) खाली रखा जाता है। इससे दो ड्रिपलाईन के बीच की दूरी क्रमशः 1.8, 2.4 और 2.1 मीटर होती है।

बोआई

गन्ने की बोआई के लिए एक आँख/ गाँठ पद्धति या दो गाँठ/आँख पद्धति का इस्तेमाल किया जाता है। इसके लिए साधारणतः 2 से 5 टन प्रति हेक्टर गन्ने की आवश्यकता होतीत है। एक अक्ष पद्धति में दो आँखो/ गाठों के बीच 30 से 40 सें.मी. की दूरी हो। दो गाँठ/ आँख पद्धति में बोआई करते समय गन्ना का टुकड़ा जोड़कर करें। इस पद्धति में एकड़ में 10000 से 20000 गन्ने के टुकड़ों की बोआई आवश्यक है।

बीज प्रक्रिया

अच्छा उत्पादन प्राप्त करने के लिए बीजों का रोगमुक्त एवं कीड़ों से मुक्त होना आवश्यक होता है। बोआई करने से पहले बीजों को बावीस्टीन 2 से 3 ग्राम /लीटर अथवा क्लोरोपायरीफोस 1 मिली/ लीटर द्रव में पाँच मिनट डूबो कर रखे। बोआई करने के तुरन्त बाद ही सिंचन करे।

अधिक मात्रा में उत्पादन प्राप्त करने के लिए नेटाफिम की सलाह

  • पट्टा पद्धति का इस्तेमाल करें।
  • दो पंक्तियों के लिए एक ड्रिपलाईन का इस्तेमाल करें।
  • दो ड्रिपलाईन के बीच की दूरी 1.8 मीटर या 2. 25 मीटर हो।
  • प्रवाह की स्थिति 1.4 से 2.0 लीटर प्रति घंटा हो।
  •  भूमि, फसल, जलवायु पर आधारित सिंचन पद्धति।
  • आवश्यक पोषक द्रवों की फर्टीगेशन द्वारा पूर्ति।
  •  एकीकृत कीट/ रोग नियंत्रण ।
  • आवश्यकतानुसार एवं समयसारिणीनुसार रोग नियंत्रण कार्यक्रम।

 

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