निर्धनता उन्मूलन कार्यक्रमों में आपदा जोखिम उपशमन तकनीकों का समावेशन

वर्ष 2004 में, ब्रिटेन के अन्तरराष्ट्रीय विकास विभाग (डीएफआईडी) ने आपदाओं, विकास और निर्धनता के बीच स्पष्ट सम्बन्ध होने की बात स्वीकारी है। इसमें कहा गया है कि निर्धनता को हमेशा के लिए समाप्त करना एक दुर्लभ लक्ष्य होता जा रहा है और यह विशेष रूप से इसलिए है कि विकास की व्यूहरचना में आपदाओं का कोई अनुमान नहीं लगाया जाताकुछ समय पूर्व तक निर्धनता उन्मूलन एवं आपदाओं के जोखिम को कम करने वाले प्रयासों को अलग-अलग कर देखा जाता था और वे परस्पर एक-दूसरे से अलग-अलग ही लागू होते थे। परन्तु निर्धनता उन्मूलन और आपदाओं के जोखिम को कम करने के प्रयासों के बीच सीधे सम्बन्ध को देखते हुए गरीबी हटाने और आपदाओं के प्रकोप से बचने की तकनीक और रणनीति के प्रभाव के अध्ययन की आवश्यकता अब बढ़ गई है। विश्व बैंक ने ‘उभरती अर्थव्यवस्थाओं में आपदा-जोखिम-प्रबन्धन’ विषयक अपनी रिपोर्ट में कहा है कि विकास की प्रमुख आवश्यकता गरीबी कम करने के लिए आपदाओं के जोखिम में कमी लाना है। अर्नाल्ड एम. एवं क्रीमर ए. द्वारा सम्पादित 2000 की इस रिपोर्ट में इस बात की पुष्टि की गई है कि विकास और आपदाओं के प्रति संवेदनशीलता का परस्पर गहरा सम्बन्ध होता है। आगे वर्ष 2004 में, ब्रिटेन के अन्तरराष्ट्रीय विकास विभाग (डीएफआईडी) ने आपदाओं, विकास और निर्धनता के बीच स्पष्ट सम्बन्ध होने की बात स्वीकारी है। इसमें कहा गया है कि निर्धनता को हमेशा के लिए समाप्त करना एक दुर्लभ लक्ष्य होता जा रहा है और यह विशेष रूप से इसलिए है कि विकास की व्यूहरचना में आपदाओं का कोई अनुमान नहीं लगाया जाता (डीएफआईडी, 2004-06)।

प्रारम्भ में निर्धनता उपशमन को विकास के पूरक के रूप में देखा जाता था और इसीलिए सामाजिक व्यय के माध्यम से गरीबी दूर करने के प्रयास किए जाते रहे। आर्थिक उपायों पर अधिक बल दिया जाता था। आपदाओं को कभी-कभार होने वाली घटना के तौर पर देखा जाता था और इसके लिए केवल सरकारों और राहत एजेंसियों को ही हरकत में आना होता था। परन्तु, अब निर्धनता को इंसान की बुनियादी क्षमताओं को बनाए रखने के लिए आवश्यक संसाधनों के सुलभ न होने के रूप में देखा जाता है जबकि मानव-निर्धनता सूचकों और आपदा प्रबन्धन को खतरे के आकलन, उससे होने वाली हानि के विश्लेषण और आपदा के जोखिम की सम्भावना में कमी लाने के प्रयासों के तौर पर देखा जाता है।

इसीलिए, हमें निर्धनता उपशमन और आपदा प्रबन्धन की धारणाओं में एक व्यापक परिवर्तन दिखाई देता है।

प्राकृतिक आपदाएँ जब भी घटती हैं, जानोमाल को काफी नुकसान पहुँचाती हैं। चाहे भूकम्प हो, या फिर चक्रवात, आकस्मिक बाढ़, सूखा, ज्वार का तूफान अथवा सुनामी, खतरे का स्तर सभी इंसानों के लिए एक जैसा ही होता है। परन्तु, समाज के विभिन्न वर्गों में खतरे से निपटने अथवा जूझने की क्षमता अलग-अलग होती है। गरीब और वंचित वर्गों के लोग आम लोगों की तुलना में प्रकृति के प्रकोप से अधिक प्रभावित होते हैं। सरकार ने गरीबी उन्मूलन अथवा उसे दूर करने के लिए अनेक कदम उठाए हैं। भारत सरकार ग्रामीण विकास मन्त्रालय के माध्यम से प्रति वर्ष गरीबी उन्मूलन के लिए भारी राशि खर्च करती है।

प्राकृतिक आपदाएँ जब भी घटती हैं, जानोमाल को काफी नुकसान पहुँचाती हैं। चाहे भूकम्प हो, या फिर चक्रवात, आकस्मिक बाढ़, सूखा, ज्वार का तूफान अथवा सुनामी, खतरे का स्तर सभी इंसानों के लिए एक जैसा ही होता है।साल-दर-साल ये कार्यक्रम चलते रहते हैं, तब भी गरीबी दूर करना अथवा उसे समाप्त करना एक दूर की कौड़ी लगती है। इसका एक कारण यह भी है कि प्राकृतिक आपदाएँ भी अब पहले की अपेक्षा अधिक आम हो गई हैं। जलवायु परिवर्तन भी एक स्थायी भाव बन गया है। अकल्पनीय जलीय आपदाएँ अब प्रायः नियमित रूप से अपना प्रकोप दिखाने लगी हैं। इनके कहर के बारे में पहले से कोई अनुमान लगाना सम्भव भी नहीं होता। इन सभी आपदाओं के शिकार अधिकतर निर्धन और वंचित वर्गों के लोग ही होते हैं। आपदाओं के कहर से वे बेघर हो जाते हैं, उनकी खड़ी फसल नष्ट हो जाती है, मवेशी खो जाते हैं और वे कर्ज में डूबकर गरीबी के दुष्चक्र में फंस जाते हैं। इसलिए इससे यह स्पष्ट है कि किसी भी प्रकार की आपदा से समाज के वंचित वर्गों के लोग सबसे अधिक प्रभावित होते हैं।

प्रस्तुत आलेख में यह तर्क देने का प्रयास किया गया है कि गरीबी दूर करने के ग्रामीण विकास मन्त्रालय के कार्यक्रमों एवं योजनाओं में आपदाओं के जोखिम को कम करने वाली रणनीतियाँ (डीआरआर) अपनाई जानी चाहिए। ग्रामीण विकास मन्त्रालय द्वारा ग्रामीण क्षेत्रों में गरीबी दूर करने के लिए चलाए जा रहे कार्यक्रमों में आपदाओं के जोखिम में कमी लाने वाले उपायों को शामिल किए जाने से इस उद्देश्य की सफलता में काफी मदद मिल सकती है। आपदा-जोखिम के शमन के उपायों में संरचनात्मक और गैर-संरचनात्मक उपाय शामिल हैं। गैर-संरचनात्मकता को आगे दो श्रेणियों- जोखिम से बचाव और जोखिम के फैलाव जैसे उपायों में विभाजित किया जा सकता है।

जोखिम से बचाव के उपाय


खतरों के ज्ञात क्षेत्रों में आवासीय बस्तियों, अधोसंरचनात्मक और आर्थिक गतिविधियों को प्रोत्साहित नहीं किया जाना चाहिए। इसके लिए निम्न उपाय अपनाए जाने चाहिए :

1. भूमि उपयोग नियमन/अध्यादेश,
2. वित्तीय प्रोत्साहन अथवा दण्ड,
3. जोखिम सम्बन्धी सूचनाओं का खुलासा,
4. सार्वजनिक अधोसंरचना नीति और
5. प्राकृतिक संसाधन प्रबन्धन नीति का निर्धारण।

जोखिम के बिखराव के उपाय


ये उपाय इस प्रकार हैं :
1. सम्पत्ति के नुकसान और राजस्व (आय) में ह्रास का बीमा,
2. फसल विविधीकरण अथवा अन्य फसलों की खेती और
3. जीवनशैली में आडम्बर अथवा अनावश्यक तत्वों का परित्याग।

जोखिम के प्रभाव में कमी लाने के उपाय


संरचनात्मक उपाय : प्राकृतिक प्रकोप के प्रभावों से बचाव के भौतिक उपायों में मौजूदा संरचनाओं का पुनः सुदृढ़ीकरण तथा उपयुक्त भवन निर्माण मानकों को लागू करना शामिल हैं, ताकि बाँधों, दीवारों और अन्य ढाँचों को तूफान के प्रभावों से क्षतिग्रस्त होने से बचाया जा सके। ग्रामीण विकास मन्त्रालय के कार्यक्रमों, स्वरोजगार कार्यक्रम (एसजीएसवाई, एनआरएलएम) वेतन रोजगार कार्यक्रम (मनरेगा), आवासीय कार्यक्रम (आईएवाई, पीएमजीवाई) ग्रामीण सड़क एवं सम्पर्क (पीएमजीएसवाई), क्षेत्र विकास कार्यक्रम (डीपीएपी, डीएवी) तथा ग्रामीण स्वच्छता अभियान को इस श्रेणी में विशेष रूप से शामिल किया जा सकता है।

भारत के ग्रामीण क्षेत्रों में गरीबी दूर करने अथवा उसके उन्मूलन के कार्यक्रम ग्रामीण विकास मन्त्रालय के माध्यम से चलाए जाते हैं। एसजीएसवाई का स्वरोजगार कार्यक्रम स्वयंसहायता समूह की धारणा पर आधारित है जिसके अन्तर्गत 10-15 गरीब महिलाएँ एक समूह बनाकर, अपनी कमाई से बचाई हुई राशि से बचत एवं ऋण गतिविधि का संचालन करती हैं। बाद में इस समूह के अनुशासन और बचत एवं ऋण गतिविधि के प्रदर्शन के आधार पर उन्हें लघु एवं मध्यम उद्यम (एसएमई) की स्थापना के लिए सब्सिडी दी जाती है। आमतौर पर इस प्रकार के उद्यमों में समूह की सभी सदस्य महिलाएँ हाथ बँटाती हैं। ये उद्यम हैं— दुधारू पशुपालन, बकरी/भेड़ पालन, कुक्कुट पालन, खेती, मत्स्य-पालन, दर्जीगीरी, छोटी-मोटी दुकान और इसी प्रकार के स्वरोजगार के अन्य प्रयास।

बुनियादी तौर पर, एसजीएसवाई का स्वरोजगार कार्यक्रम सूक्ष्म ऋण का ऐसा कार्यक्रम है जिसके बड़े पैमाने पर दोहराए जाने के रास्ते खुले होते हैं। इन उद्यमों में विभिन्न समूहों की अनेक गतिविधियों में प्रारम्भिक अथवा अन्तिम कड़ी के रूप में काम करने की सम्भावना बनी रहती है। प्रत्येक समूह का सम्पर्क किसी न किसी बैंक से जुड़ा रहता है जिससे गरीब और कमजोर वर्गों को वित्तीय सुविधा मिलना सुनिश्चित होता है। अधिकतर स्वसहायता समूह दुधारू पशुपालन, मिश्रित खेती, दर्जी, छोटी परचून दुकान जैसे व्यवसाय से सम्बन्धित होते हैं, जिनमें परिसम्पत्ति का सृजन उद्यम में ही अन्तर्निहित होता है।

व्यवसाय का चयन इस प्रकार किया जाता है कि प्रत्येक लाभार्थी को व्यक्तिगत रूप से रु. 2,000 की मासिक आय हो सके। समूह के पास इसके अतिरिक्त अपनी बचत का पैसा भी रहता है और समूह की अपनी पूँजी के बराबर बैंक/सरकार द्वारा दी गई आवर्ती सहायता राशि भी उपलब्ध होती है, जिससे वे अपना व्यवसाय चलाते हैं। इस कार्यक्रम में, परिसम्पत्ति के रूप में और आवश्यक पूँजी के लिए बैंकों से सम्पर्क का प्रावधान किया गया है।

इस प्रकार, किसी आपदा की स्थिति में यदि परिसम्पत्ति की हानि हो, यानी बाढ़ अथवा चक्रवात के कारण पशुओं को नुकसान पहुँचने की स्थिति में सूक्ष्म ऋण का प्रावधान, व्यवसाय शुरू करने के लिए ऋण/अनुदान के लिए बैंक/बीडीओ को दी गई परियोजना प्रस्ताव में ही किए गए हैं। यदि परिसम्पत्ति किसी अन्य श्रेणी की हो तो सूक्ष्म बीमा का प्रावधान आमतौर पर नहीं होता जिससे परिसम्पत्ति के लिए जोखिम की सम्भावना बनी रहती है। परचून की दुकानें, दर्जी, अचार और पापड़ बनाने का काम आने वाली परिसम्पत्तियों का बीमा नहीं होने के कारण वे प्रकृति के प्रकोप का शिकार बन जाती हैं।

बाढ़ और चक्रवात के समय सूक्ष्म इकाइयों की गतिविधियों का अंश प्रभावित हो सकता है। मसलन— गाय, बकरी, भेड़ अथवा मुर्गियाँ मर सकती हैं अथवा खेत व फसल डूब सकती है। फसल की बीमा नहीं होने की स्थिति में बाढ़ और भारी बारिश से जो नुकसान होगा, वह पूरे समूह के लिए एक बड़ा झटका साबित हो सकता है। परन्तु समूह को निधि के रूप में मिलने वाली सूक्ष्म ऋण की सुविधा, ऐसे समय में बड़ी राहत देती है। समूह के सदस्य आवश्यकता पड़ने पर इस सामूहिक निधि (ग्रुप कॉर्पस) या आवर्ती ऋण का उपयोग परिसम्पत्तियों की हानि और ह्रास से पैदा होने वाली अनिश्चितताओं से छुटकारा पाने के लिए कर सकते हैं। परिसम्पत्ति के नष्ट होने से लघु एवं मध्यम इकाइयों से प्राप्त होने वाली मासिक आय प्रभावित होती है।

इसलिए, स्वरोजगार कार्यक्रम में सूक्ष्म ऋण की सुविधा आपदाओं के जोखिम के शमन का एक बहुत बड़ा साधन है। परन्तु इस सुविधा का अधिकतम उपयोग नहीं किया गया है। यदि फसल बीमा, पशुधन बीमा जैसी सुविधाओं का लाभ उठाकर सूक्ष्म, लघु और मध्यम उद्यमों व प्रमुख गतिविधियाँ की परिसम्पत्तियों का बीमा कराया जा सके तो आपदा के उपरान्त उनके पुनर्निर्माण का कार्य सरल हो जाएगा। बैंकों के माध्यम से सामूहिक निधि के सृजन के समय भी सम्भावित, आकस्मिक जोखिम के लिए कुछ प्रावधान पहले से ही कर लिया जाए तो बेहतर होगा। इससे निर्धन और वंचित महिलाओं को अपना कामकाज पुनः शुरू करने और आजीविका कमाने में ज्यादा देर नहीं लगेगी।

महात्मा गाँधी ग्रामीण रोजगार गारण्टी कार्यक्रम एकमात्र दैनिक वेतन कार्यक्रम है जो परिवार के रोजमर्रा के खर्च के लिए वेतन की गारण्टी देता है। मनरेगा के अन्तर्गत अनुमत्य कार्यों की सूची से पता चलता है कि अधिकांश कार्य मिट्टी और जल ग्रहण क्षेत्र (वाटर शेड) के प्रबन्धन, लघु सिंचाई और बाढ़ नियन्त्रण गतिविधियों से सम्बन्धित होते हैं। इसलिए स्पष्ट है कि मनरेगा का प्रयास गाँवों में ऐसी परिसम्पत्ति का निर्माण करना है जो सूखा, बाढ़, चक्रवात जैसी प्राकृतिक आपदाओं के प्रकोप के शमन में मददगार साबित होते हैं। परन्तु, कार्यक्रम का जोर परिसम्पत्ति के निर्माण पर अधिक है न कि शमन की प्रक्रियाओं पर।वेतन रोजगार योजना के अन्तर्गत जो प्रमुख कार्यक्रम चलाया जा रहा है, वह है— महात्मा गाँधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारण्टी अधिनियम (मनरेगा)। इस कार्यक्रम का उद्देश्य अकुशल कार्य के इच्छुक ग्रामीण परिवार के प्रत्येक वयस्क सदस्य को पूरे वर्ष में कम से कम सौ दिन का रोजगार देकर उनकी आजीविका की गारण्टी देना है। गरीबी दूर करने के अन्य कार्यक्रमों के विपरीत मनरेगा संसद के एक कानून से बना कार्यक्रम है जिसमें प्रत्येक परिवार को 100 दिन का रोजगार देने की गारण्टी दी गई है। ग्रामीण परिवार के ऐसे वयस्क सदस्य जो अकुशल शारीरिक श्रम करने के इच्छुक हैं वे ग्राम पंचायत में आवेदन कर सकते हैं। ग्राम पंचायत उन्हें ‘जॉब कार्ड’ जारी करती है और आवेदन करने के 15 दिनों के अन्दर ही रोजगार दे दिया जाता है। यदि इस समय सीमा के अन्दर रोजगार नहीं दिया जा सके तो सम्बन्धित राज्य सरकारों द्वारा उन्हें बेरोजगारी भत्ता दिया जाएगा। श्रमिकों को राज्य के कृषि श्रमिकों हेतु न्यूनतम वेतन अधिनियम के अनुसार वेतन दिया जाता है। रोजगार आमतौर पर प्रार्थी के गाँव के पाँच किलोमीटर के दायरे में उपलब्ध कराए जाने का प्रावधान है।

महात्मा गाँधी ग्रामीण रोजगार गारण्टी कार्यक्रम एकमात्र दैनिक वेतन कार्यक्रम है जो परिवार के रोजमर्रा के खर्च के लिए वेतन की गारण्टी देता है। मनरेगा के अन्तर्गत अनुमत्य कार्यों की सूची से पता चलता है कि अधिकांश कार्य मिट्टी और जल ग्रहण क्षेत्र (वाटर शेड) के प्रबन्धन, लघु सिंचाई और बाढ़ नियन्त्रण गतिविधियों से सम्बन्धित होते हैं। इसलिए स्पष्ट है कि मनरेगा का प्रयास गाँवों में ऐसी परिसम्पत्ति का निर्माण करना है जो सूखा, बाढ़, चक्रवात जैसी प्राकृतिक आपदाओं के प्रकोप के शमन में मददगार साबित होते हैं। परन्तु, कार्यक्रम का जोर परिसम्पत्ति के निर्माण पर अधिक है न कि शमन की प्रक्रियाओं पर। इस कार्यक्रम के अन्तर्गत तालाबों, पोखरों और सिंचाई-नहरों से गाद निकालने का काम प्रतिवर्ष नियमपूर्वक किया जाता है। यद्यपि ऐसे अनेक पोखर, तालाब और नहरें हो सकती हैं जिनमें से गाद हटाने की आवश्यकता हो, परन्तु उनकी पहचान (मनरेगा के लिए) सुविधा के नजरिये से होती है, न कि जलग्रहण क्षेत्र के नजरिये से। यदि इन कार्यों का चयन जलग्रहण क्षेत्र के आधार पर किया जाए तो वही कार्य शमन का प्रयास भी बन सकता है। नहरों और तालाबों से निकाली गई गाद और रेत का उपयोग नहरों के तटों को मजबूत बनाने में किया जा सकता है, जिससे बाढ़ रोकने में भी मदद मिल सकती है।

मनरेगा में ग्राम पंचायतें जो कार्य कराती हैं, उनमें सूखा प्रबन्धन कार्यों को भी शामिल किया जाना चाहिए। जल ग्रहण क्षेत्रों का पुनरुद्धार, वर्षा जल संचय की संरचना, वर्षा के अतिरिक्त जल को रोकने के लिए मिट्टी के चेक डैम का निर्माण और पर्कोलेशन तालाब (एक-दूसरे से जुड़े ऐसे तालाब जिनमें एक से होकर दूसरे में पानी जाता रहता है), जैसे कार्यों को मनरेगा के कार्यों की सूची में शामिल करने से बाढ़ एवं सूखा जैसी आपदाओं के जोखिम में कमी आ सकती है।

भारी वर्षा, बाढ़, सूखा और चक्रवात की स्थिति में सबसे अधिक प्रभाव कृषि पर पड़ता है और फसल का नुकसान होने से गरीब किसानों की आय की क्षमता और स्रोत प्रभावित होते हैं। अन्य किसानों के खेतों में काम करने वाले खेतिहर मजूदर के पास उस समय कोई काम नहीं होता है जब भारी वर्षा होती है या बाढ़ आती है।गरीबी रेखा से नीचे के अधिकतर परिवार सीमान्त किसानों, कृषि श्रमिकों अथवा शिकमी कृषकों के होते हैं। भारी वर्षा, बाढ़, सूखा और चक्रवात की स्थिति में सबसे अधिक प्रभाव कृषि पर पड़ता है और फसल का नुकसान होने से गरीब किसानों की आय की क्षमता और स्रोत प्रभावित होते हैं। अन्य किसानों के खेतों में काम करने वाले खेतिहर मजूदर के पास उस समय कोई काम नहीं होता है जब भारी वर्षा होती है या बाढ़ आती है। इसी प्रकार, बाढ़ का पानी भर जाने अथवा विपरीत परिस्थितियों के कारण छोटी जोत वाले सीमान्त किसान भी खेती नहीं कर पाते। शिकमी किसान की स्थिति तो और भी दयनीय होती है। वह अपना पैसा खर्च करके भू-स्वामी के खेतों को जोतकर और खाद देकर तैयार करता है और बाढ़ अथवा भारी वर्षा की मार से उसकी फसल चौपट हो जाती है। यही स्थिति सूखे के समय भी होती है, जब अपर्याप्त वर्षा और सिंचाई के अभाव में फसल नष्ट हो जाती है।

अतः जैसा बाढ़, चक्रवात, भारी वर्षा और सूखा जैसी प्राकृतिक आपदाओं के प्रभाव से स्पष्ट है, ग्रामीण अर्थव्यवस्था का कृषि क्षेत्र गम्भीर रूप से प्रभावित होता है। इससे सीमान्त किसानों, कृषि श्रमिकों और शिकमी किसानों की आजीविका का ह्रास होता है और उनकी खाद्य सुरक्षा जोखिम में पड़ जाती है। मनरेगा के अन्तर्गत कार्यों की स्वीकृत सूची में ‘भूमि विकास’ भी शामिल है, परन्तु उस पर शायद ही ध्यान दिया जाता है। बेहतर सिंचाई के लिए खेतों, सीमान्त किसानों को अपने खेतों में जुताई, बुवाई, मेड़ बंधाई और सिंचाई नालियों का निर्माण आदि जैसे विकास कार्य स्वयं ही करने चाहिए ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि उसके खेत में बाढ़ का पानी जमा न हो सके। यदि सम्बन्धित किसान गर्मियों के महीनों में ये काम अपने-अपने खेतों में करेंगे तो इससे बेहतर शमन कार्य और कोई नहीं हो सकता, क्योंकि उसे अपने कार्य से होने वाले लाभ की पूरी-पूरी जानकारी होती है। उसे यह भी पता होता है कि यदि वर्षा/चक्रवात/सूखा के पूर्व ये कार्य पूरे नहीं हुए तो उनका क्या परिणाम हो सकता है।

आवास श्रेणी के अन्तर्गत, गरीबी रेखा से नीचे के परिवारों को इन्दिरा आवास योजना, पीएमजीवाई ऋण युक्त सब्सिडी योजना जैसी आवासीय योजनाएँ उपलब्ध हैं। लाभार्थियों को कार्य की प्रगति के अनुरूप किस्तों में वित्तीय सहायता दी जाती है। यह योजना लाभार्थियों को उन्मुख करके ही बनाई गई है और इससे लाभार्थी को स्वयं ही अपने मकान के निर्माण में हाथ बँटाना होता है। लाभार्थी को 45,000 चार किस्तों में दिए जाते हैं ताकि मकान का निर्माण सुनिश्चित हो सके। मकान के निर्माण के लिए यह राशि अपर्याप्त है। इसलिए लाभार्थी अन्य स्रोतों से कर्ज लेता है और उस अतिरिक्त राशि के लिए चल/अचल सम्पत्ति को गिरवी रखता है। जैसाकि देखा गया है, इस योजना के अन्तर्गत मकान के निर्माण की कोई मानक योजना अथवा डिजाइन नहीं है और यह व्यक्तिगत लाभार्थी की समझ पर ही छोड़ दिया जाता है। यद्यपि रु. 45,000 की राशि मकान बनाने के लिए पर्याप्त नहीं होती, यह आशा की जाती है कि लाभार्थी को अपने कुशल/अकुशल श्रम का योगदान करना होगा। उसके परिवार को भी श्रमदान करना होगा और मकान पूरा करने के लिए अपनी जेब से खर्च करना होगा। योजना के दिशा-निर्देशों से स्पष्ट है कि यह गरीबों को ठीक-ठाक आश्रय देने का प्रयास है और इसीलिए उन पर मकान के निर्माण की शैली और प्रकृति को लेकर कोई शर्तें नहीं थोपी गई हैं।

अब, कुछ चर्चा गरीबी उन्मूलन कार्यक्रमों में शामिल डीआरआर के विभिन्न प्रयासों के बारे में भी कर लेनी चाहिए, जिससे उन्हें आपदा से अप्रभावित रखा जा सके।

यह एक स्थापित तथ्य है कि अधिकतर आपदाओं के दौरान मकान आंशिक रूप से या पूर्णरूप से नष्ट हो जाते हैं और निर्धन परिवारों को राहत शिविरों में रहना पड़ता है। प्राकृतिक आपदा के प्रकार के अनुसार मकान को नुकसान पहुँचता है और यह बहुत कुछ मकान अथवा आवासीय इकाई के प्रकार पर भी निर्भर होता है। उपलब्ध जनगणना के अनुसार ग्रामीण मकानों को तीन श्रेणियों में विभाजित किया जा सकता है—

(1) कच्चा उत्तम, ढाँचा— कच्ची छत,
(2) पक्का उत्तम ढाँचा— कच्ची छत,
(3) पक्का उत्तम ढाँचा— पक्की छत, जिसमें मोटे तौर पर छप्पर वाला मकान, मिट्टी और छप्पर की छत वाला मकान, खपरैल वाला मकान, चिनाई की दीवारें, चादर वाली छत और चिनाई की दीवारें और आरसीसी की छत वाले मकान आते हैं।

भूकम्प आने की स्थिति में इन सभी श्रेणियों के मकान नष्ट हो सकते हैं या उनको नुकसान पहुँच सकता है, जबकि चक्रवात की स्थिति में झोपड़ी की छत, खपरैल और चादर वाले मकानों को नुकसान पहुँचेगा।

इसलिए, डीआरआर प्रयासों के अन्तर्गत यदि इन्दिरा आवास योजना और पीएमजीआई कार्यक्रमों में भूकम्परोधी डिजाइन वाले मकानों के निर्माण को भी शामिल कर लिया जाए तो भूकम्प, चक्रवात, आकस्मिक बाढ़ आदि के खतरे से सफलतापूर्वक निपटा जा सकता है। इसके साथ ही, मकानों के बीमा को अनिवार्य करना भी एक अच्छा विचार होगा ताकि नुकसान होने पर उसके बदले दूसरा मकान मिल सके।

भूकम्परोधी अथवा भूकम्प से सुरक्षित मकानों की डिजाइन को योजना में शामिल करना और समाज के गरीब तथा कमजोर वर्गों द्वारा आवासीय मकानों को अंजाम देना, कुछ ज्यादा ही उम्मीद करना होगा। परन्तु, गरीबों के लिए आपदा से अप्रभावित मकानों की किफायती डिजाइनों के लिए कोई सरल तरीके ढूँढे जाने चाहिए, ताकि वे बार-बार आने वाली प्राकृतिक आपदाओं को झेल सकें। हमें पता है कि भीषण चक्रवात, आकस्मिक बाढ़ आदि जैसी प्राकृतिक आपदाएँ अब प्रायः हर साल घटित होने लगी हैं और इनसे घरों-परिवारों को मामूली से लेकर भारी नुकसान उठाना होता है। भारी वर्षा और तेज हवाएँ जैसी कुछ कम तीव्रता वाली आपदाओं से मकानों का नुकसान कुछ थोड़ा कम होता है। मिट्टी की दीवार ढह जाती हैं या फिर छप्पर की छतें उड़ जाती हैं। इस आंशिक नुकसान की भी मरम्मत कराने में गरीब को अपनी गाढ़ी कमाई से पैसा खर्च करना होता है। चूँकि यह अब बारम्बार होने लगा है, उनकी गाढ़ी कमाई का अधिकांश हिस्सा अपने घर की मरम्मत कराने में ही खर्च होता रहता है।

इन परिस्थितियों में यदि आपदा से अप्रभावित मकानों के निर्माण को वरीयता दी जाए तो यह आपदा के जोखिम को कम करने में अधिक कारगर हो सकता है। यह सही है कि यह सामान्य निर्माण प्रक्रिया से परे है, परन्तु इन्दिरा आवास योजना/पीएमजीवाई जैसी सरकार प्रायोजित योजनाओं और ऋण-युक्त अनुदान योजनाओं के माध्यम से इन्हें धरातल पर उतारा जा सकता है। केन्द्र सरकार तो रु. 45,000 देती ही है, प्रायः राज्य सरकारें भी अपना अंशदान करती हैं, और 325 वर्ग फुट से बड़े मकानों के निर्माण में लाभार्थी स्वयं अतिरिक्त लागत वहन करता ही है, तो सभी के मिले-जुले प्रयास से इस विचार को मूर्तरूप दिया जा सकता है। इससे आपदाओं के जोखिम को काफी हद तक सीमित किया जा सकेगा।

(लेखक पुडुचेरी सरकार में संयुक्त सचिव, उच्च शिक्षा हैं)
ई-मेल : jpdpiapon@nic.in

Posted by
Get the latest news on water, straight to your inbox
Subscribe Now
Continue reading