पाखंड से प्रदूषित हमारी नदियां

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नदी की सफाई के साथ आम लोगों को भी प्रदूषण मुक्ति के अभियान से जोड़ना चाहिए। लोगों को जागरूक करना चाहिए। नदियों की सबसे ज्यादा दुर्दशा धर्म और आस्था के नाम पर होती है। लोगों को समझाना होगा कि पूजा और पाखंड में फर्क है। अगर मूर्ति विसर्जन से गंगा गंदी होगी तो गणपति बप्पा शायद ही सुख-समृद्धि का वरदान दे पाएं। अगर यह बात आम आदमी की समझ में आ जाए तो वह पूजा-पाठ के नाम पर गंदगी को नदियों में डालने के बजाए उन्हें स्वच्छ बनाने में लग जाएगा। नदियों की सफाई के नाम पर अरबों रुपए खर्च हो गए। यह नई बात नहीं है। नई बात यह है कि बाकी हर जगह पर सरकार से अपने पैसे का हिसाब मांगने वाला आम आदमी इस मुद्दे पर कभी कोई हिसाब नहीं मांगता। वह उदासीन इसलिए नहीं है क्योंकि नदी साफ करना उसके बूते का नहीं है। इस चुप्पी की वजह है उसके धार्मिक संस्कार जिन्होंने नदी को गंदा करना सिखाया है।

पिछले दिनों नदी को प्रदूषण से मुक्त की योजना एक बार फिर बनी। इसे केंद्र व प्रदेश सरकार को मिलकर पूरा करना है पर सरकारों की इन योजनाओं के साथ जब तक आम आदमी की नदियों की प्रति सोच नहीं बदलेगी तब तक कोई भी अभियान सफल होने से रहा। इसी सप्ताह गंगा नदी के एक घाट पर जाना हुआ तो इस बात का अहसास और पुख्ता हो गया।

बदायूं जिले में एक जगह है कदला। यहां गंगा नदी बहती है। नदी पर बने पुल पर रेलगाड़ी व वाहन बारी-बारी से निकलते हैं। वाहनों को पुल पार करने में एक-एक घंटा तक लग जाता है। इसी जगह दो पुल निर्माणाधीन हैं। एक तरह से कदला एक पर्यटक स्थल के रूप में जाना जाता है। इसी जगह घाट पर मेला लगता है। तरह-तरह के रंग यहां देखने को मिलते हैं। घाट पर मुंडन समेत शुभ कामों के लिए लोग पहुंचते हैं।

गंगा स्नान करने वाले तो आते ही रहते हैं। मैं भी एक मुंडन संस्कार में शामिल होने कछला पहुंचा था। मुंडन संपन्न होते ही किसी ने सलाह दी कि लोई को गंगा में प्रवाहित कर दीजिए। मैं चौंका। एक साथी ने उन्हें रोका, इसे गाड़ी में रख लीजिए। आगे कहीं डाल देंगे। पड़ोस में खड़े एक सज्जन मंशा भांप गए। बोले, आपके ऐसा न करने से क्या गंगा गंदगी से मुक्त हो जाएगी? मैंने कहा, नहीं, पर ऐसा करने में बुराई क्या है?

अगर इसी तरह कुछ लोग यह बात समझने लगें तो इसका फर्क आने वाले समय में जरूर दिखेगा बहरहाल मैं तो इसी में विश्वास रखता हूं कहावत भी है राई-राई जोड़ने से पहाड़ बन जाता है। वह बोले, बात तो सही कहते हो पर क्या नदी के किनारे नहीं गए हो। गर नहीं गए हो तो हो आओ। असलियत समझ में आ जाएगी। उसकी बात सुनकर मेरे मन में गंगा का किनारा देखने की जिज्ञासा प्रबल हो गई।

मैं साथियों के साथ गंगा के किनारे गया। कुछ दूर टहलने के बाद निराशा हुई। मुझे लगा कि लोग आज भी आदिम युग में जी रहे हैं। वे पाखंड के नाम पर गंगा को नर्क बना रहे हैं। नदी किनारे आए हैं पूजा-पाठ करने और फैला रहे हैं गंदगी। धूप जलाई वह तो हवा में उड़ी और उसका पैकेट, कागज सब बहकर नदी में गए।

नवरात्र और गणेश पूजा के बाद नदियों का जो हाल होता है, आंखों के सामने घूम गया। इसी गंगा में यहां के दर्जनों लोग कपड़े भी धोते हैं। इनके पास इस गंदगी को गंगा से दूर रखने का विकल्प नहीं है या इस विकल्प तक जाने की चेतना नहीं है? नदियों के प्रति हमारे यहां शुरू से ही मान्यता यह रही है कि यह हमारी (तन-मन की) गंदगी अपने साथ बहा ले जाएगी। अब यही सोच नदियों की सांसे रोक रही है।

इसी बीच मेरे कुछ साथी गंगा में उतरे। एक बोला, इतना सब होने के बावजूद आज भी गंगा का पानी दूसरी नदियों से साफ है। मैं सोच रहा था कि क्या एक नदी की सफाई का पैमाना दूसरी नदियों की गंदगी है। फिर बात नदियों को प्रदूषण मुक्त करने की ओर मुड़ गई। उस दोस्त की सब ने तारीफ की जिसने लोई को नदी में जाने से रुकवा दिया। पर यहां तो आए दिन मुंडन होते हैं फिर कैसे वह तमाम लोइयां नदी में जाने से रोकी जाएं? क्या इसके लिए भी केंद्र और राज्य को योजना बनानी चाहिए? सरकारी खजाने से पैसा जारी होना चाहिए।

नहीं। नदी की सफाई के साथ आम लोगों को भी प्रदूषण मुक्ति के अभियान से जोड़ना चाहिए। लोगों को जागरूक करना चाहिए। नदियों की सबसे ज्यादा दुर्दशा धर्म और आस्था के नाम पर होती है। लोगों को समझाना होगा कि पूजा और पाखंड में फर्क है। अगर मूर्ति विसर्जन से गंगा गंदी होगी तो गणपति बप्पा शायद ही सुख-समृद्धि का वरदान दे पाएं। अगर यह बात आम आदमी की समझ में आ जाए तो वह पूजा-पाठ के नाम पर गंदगी को नदियों में डालने के बजाए उन्हें स्वच्छ बनाने में लग जाएगा। वे प्रदूषण करने वालों के खिलाफ आवाज उठाएंगे।

ऐसे में किसी भी सरकार को नदियों को प्रदूषण से बचाने की जरूरत नहीं होगी और न ही कोई नदी प्रदूषण की जद में आएगी। मैंने तो कदला जाकर इस पाखंड से दूर रहने का संकल्प ले लिया है। अब बारी आपकी है।

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