पानी के लिये बढ़ते टकराव - अात्मनिर्भर व्यवस्था के विकल्प


पानी की बढ़ती कमी को ध्यान में रखते हुए पानी के प्रदूषण पर प्रभावी रोक लगनी चाहिए। उद्योगों पर अपना पानी संशोधित किये बिना नदियों में छोड़ने पर कड़ी पाबन्दी लगनी चाहिए। उद्योग अपना पानी बार-बार संशोधित करके उपयोग करें तो पानी भी बचेगा और जल प्रदूषण भी कम होगा। बाह्य हिमालय में औसत वर्षा 40 इंच से 90 इंच के बीच होती है। फिर भी पानी का संकट बना रहता है क्योंकि 70 प्रतिशत बारिश बरसात के तीन महीनों में ही हो जाती है। सम्पूर्ण देश में पानी के लिये टकराव बढ़ रहा है। यह बहुत छोटे स्तर से बहुत बड़े स्तर पर है। इसके पीछे के राजनीतिक विवाद भी वर्षों की लड़ाई का बड़ा कारण हैं। हमें इसके मूल कारण पर जाना होगा। जल संरक्षण और इसके समुचित इस्तेमाल के लिये देश में समृद्ध पारम्परिक व्यवस्था रही है। पुरानी व नई तकनीकों का वैज्ञानिक ढंग से प्रयोग कर हम अात्मनिर्भर व्यवस्था बना सकते हैं।

बाह्य हिमालय और शिवालिक क्षेत्र में जल संरक्षण लगातार महत्त्वपूर्ण मुद्दा बनता जा रहा है। बर्फबारी कम होते जाने के कारण बाह्य हिमालय में बहकर आने वाली कई सदानीरा नदियाँ और नाले पानी की स्थायी बहाव मात्रा कम होने से मौसमी बन कर रह गए हैं। इस क्षेत्र में पेयजल, सिंचाई और औद्योगिक प्रयोग के पानी के लिये संघर्ष बढ़ता जा रहा है।

हिमाचल प्रदेश के चम्बा और कांगड़ा जिला का ही उदाहरण लें तो छोटे नालों और खड्डों के पानी के लिये सूक्ष्म जलविद्युत परियोजनाओं, सिंचाई और पेयजल के लिये संघर्ष के फलस्वरूप टकराव बढ़ते जा रहे हैं। आन्दोलनों और मुकदमेबाजी की नौबत आ चुकी है। भटियात तहसील जिला चम्बा के गोरगु प्रोजेक्ट ने झूठे वादे करके बिठल- रजैं कुहल (21 किलोमीटर) को बन्द कर दिया। वादा किया कि फसल के मौसम में 15 दिन लिफ्ट करके पानी कूहल में डाल देंगे। किन्तु अब उस वादे का कोई गवाह नहीं।

धरवाई गाँव के किसानों ने सिंचाई के लिये पानी की कमी के चलते अपने स्रोत से पेयजल योजना का विरोध किया, उन्हें सालों तक मुकदमे में उलझना पड़ा। तहसील चम्बा की जडेरा पंचायत के लोग हुल नाला से उसके जलागम की जडेरा, सिल्ला, बरौर, आदि पंचायतों के लिये सिंचाई की पाइप लाइन बिछाना चाहते हैं, जिसका श्री गणेश जिला परिषद चम्बा के बजट से हो भी चुका है, किन्तु हुल-1 जल विद्युत परियोजना के दबाव में सिंचाई पाइप लाइन का काम आगे नहीं बढ़ पा रहा है।

इस टकराव में हुल-1 परियोजना का निर्माण करने वाली कम्पनी ने गुंडों से किसानों की शान्तिपूर्ण बैठक पर हमला करवाया और गोलियाँ चलवाई थीं। कम्पनी और गुंडा तत्वों का तो कुछ नहीं बिगड़ा, उलटे गरीब किसानों पर अदालत में मुकदमा चल रहा है, जिसमें 70-80 लोगों को झूठा फँसा कर परेशान किया जा रहा है।

नालागढ़ क्षेत्र में फैक्टरियों द्वारा गहरे ट्यूबवेल लगाकर भूजल का दोहन किया जा रहा है, इससे किसानों के कम गहरे ट्यूबवेल सूखने का खतरा पैदा हो गया है। बघेरी सीमेंट प्लांट के खिलाफ किसानों ने एनजीटी में मुकदमा करके कैप्टिव थर्मल पावर प्लांट को रुकवा दिया था। पूरे हिमालय में ऐसे संघर्ष हो रहे हैं, जिसके मूल में पानी की कमी और पानी की बढ़ती जरूरतें हैं। इस परिस्थिति में जलनीति में प्रदत्त पेयजल और सिंचाई को पहली और दूसरी प्राथमिकता को सच्चे अर्थों में लागू करने की जरूरत है।

औद्योगिक दबावों के आगे झुककर, पेयजल और सिंचाई की अनदेखी नहीं की जा सकती। इसके साथ-साथ पानी के उपयोग में किफायत बरतने और दुरुपयोग रोकने की खासी जरूरत है। कम पानी से ज्यादा क्षेत्र की सिंचाई करने के लिये स्प्रिंकलर और ड्रिप सिंचाई का ज्यादा-से-ज्यादा प्रचार होना चाहिए।

कम फसल से ज्यादा पैदावार लेने के लिये धान और गेहूँ के लिये फसल घनीकरण की श्री विधि का उपयोग होना चाहिए। बाजरा, कोदा, कंगनी जैसे कम पानी में होने वाले अनाजों को भी पानी की कमी वाले क्षेत्रों में प्रोत्साहित करना चाहिए। इन फसलों में ऐसे पौष्टिक तत्व हैं जो धान और गेहूँ में नहीं मिलते।

दुनिया में लगभग 12 हजार खाद्य पौधे हैं। इनमें से केवल 15-20 फसलों को ही 90 प्रतिशत खाद्य जरूरतों को पूरा करने के लिये प्रयोग किया जाता है। इसमें भी 70 प्रतिशत माँग चावल, गेहूँ, और मक्की से ही पूरी होती है। कम पानी में होने वाली फसलों के चयन की अपार सम्भावना विद्यमान है, जिसका दोहन होना चाहिए।

वर्षाजल संग्रहण के कई तरीके उपलब्ध हैं। कम ढलान वाले इलाकों में परम्परागत तालाबों को बड़े पैमाने पर पुनर्जीवित करके नए तालाब भी बनाने चाहिए। तालाब कमी के समय पानी उपलब्ध करवाने के अलावा भूजल भरण में भी उपयोगी सिद्ध होंगे। नालों और खड्डों पर छोटे-छोटे बन्ध बनाकर पानी रोकने से बाढ़ नियंत्रण, भू-कटाव रोकने के साथ पानी भी मिलेगा। भूजल भरण में भी लाभ होगा। पेयजल के लिये वर्षाजल सबसे शुद्ध जल होता है।पानी की बढ़ती कमी को ध्यान में रखते हुए पानी के प्रदूषण पर प्रभावी रोक लगनी चाहिए। उद्योगों पर अपना पानी संशोधित किये बिना नदियों में छोड़ने पर कड़ी पाबन्दी लगनी चाहिए। उद्योग अपना पानी बार-बार संशोधित करके उपयोग करें तो पानी भी बचेगा और जल प्रदूषण भी कम होगा। बाह्य हिमालय में औसत वर्षा 40 इंच से 90 इंच के बीच होती है। फिर भी पानी का संकट बना रहता है क्योंकि 70 प्रतिशत बारिश बरसात के तीन महीनों में ही हो जाती है।

सर्दियों में हिम-रेखा लगातार पीछे जा रही है। इसके कारण नदी नालों का स्वरूप भी मौसमी होता जा रहा है। इसलिये जल संग्रहण के अन्य उपाय करना भी जरूरी हो गया है। हिमाचल प्रदेश में 40 प्रतिशत परति भूमि है। इस क्षेत्र को मिश्रित वनरोपण द्वारा जल संरक्षण के योग्य बनाया जा सकता है। इससे भूक्षरण भी रुकेगा और उपजाऊ शक्ति भी बढ़ेगी।

हिमाचल में केवल 10 प्रतिशत ही कृषि भूमि है उसमें भी केवल 25 प्रतिशत पर ही सिंचाई सुविधा उपलब्ध है। सिंचित भूमि पर भी गर्मियों में पानी की कमी पड़ जाती है। इसलिये लाभकारी सब्जियों आदि की खेती असम्भव होती जा रही है। ऐसे हालत में कुछ परम्परागत और कुछ नए तकनीकी उपायों से भी जलसंरक्षण की जरूरत पड़ गई है।

वर्षाजल संग्रहण के कई तरीके उपलब्ध हैं। कम ढलान वाले इलाकों में परम्परागत तालाबों को बड़े पैमाने पर पुनर्जीवित करके नए तालाब भी बनाने चाहिए। तालाब कमी के समय पानी उपलब्ध करवाने के अलावा भूजल भरण में भी उपयोगी सिद्ध होंगे। नालों और खड्डों पर छोटे-छोटे बन्ध बनाकर पानी रोकने से बाढ़ नियंत्रण, भू-कटाव रोकने के साथ पानी भी मिलेगा। भूजल भरण में भी लाभ होगा। पेयजल के लिये वर्षाजल सबसे शुद्ध जल होता है।

घरों की छतों से पानी एकत्रित करके फेरो सीमेंट के टैंकों में संग्रह कर लेना चाहिए। फेरो-सीमेंट टैंक सस्ता भी पड़ता है। सिंचाई के लिये खेतों में तालाब बनाने चाहिए। कच्चे तालाब में पानी ठहराव के लिये तालाब के तल पर 200 माइक्रोन की पोली-शीट बिछाकर उसके ऊपर 20 सेंटीमीटर मिट्टी की परत चढ़ाकर थोड़ी-थोड़ी दूरी पर ईंटें रख कर उसे दबा देना चाहिए। इससे पोली-शीट धूप में खराब नहीं होगी और पानी संचित रहेगा। भूजल भरण के लिये उपयुक्त स्थलों पर परकोलेटिंग कुएँ बनाने चाहिए।

ये छोटे-छोटे उपाय जलवायु परिवर्तन के इस दौर में बहुत गम्भीरता से करने की जरूरत है। क्योंकि बर्फबारी कम होगी, तापमान बढ़ेगा, ग्लेशियर कम होते जाएँगे, खेती के लिये पानी की माँग बढ़ती जाएगी। पानी की खपत बढ़ने से पानी के लिये टकराव भी बढ़ेंगे। अत: खाद्य सुरक्षा और पेयजल के हालात नियंत्रण में रखने के लिये ये छोटे-छोटे विकेन्द्रित उपाय बहुत उपयोगी साबित होंगे। पानी की विकेन्द्रित आत्मनिर्भर व्यवस्था कायम करके ही भविष्य को सुरक्षित करने के साथ-साथ सम्भावित टकरावों को टाला जा सकेगा।

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