पानी के संकट में फँसा हुआ देश


देश में पानी की उपलब्धता का आकलन करने और एकत्रित सूचना के आधार पर रिपोर्ट तैयार करने के उद्देश्य से केन्द्रीय जल आयोग की टीम पूरे देश में भेजी गई है। इस बात से आपको देश में जल संकट की वर्तमान स्थिति की गम्भीरता का अनुमान हो गया होगा। सूखा, बाढ़ और चक्रवात ने पिछले कुछ सालों में देश के अलग-अलग हिस्सों में जिस तरह कहर बरपाया है और हाल के दशकों में इस तरह की घटनाओं में जिस तरह वृद्धि हुई है, यह सब आने वाले किसी बड़े खतरे का संकेत जैसा ही है।

केन्द्र सरकार पहले मान चुकी है कि देश गम्भीर सूखे की चपेट में है। इस सूखे की चपेट में देश की 33 करोड़ आबादी है। उत्तर प्रदेश के पचास जिलों में साठ फीसदी से कम बारिश हुई। इन जिलों को सूखाग्रस्त घोषित कर दिया गया है। मराठवाड़ा से सूखे से पीड़ित किसानों ने मुम्बई की राह पकड़ ली है। इस वक्त देश के पचास फीसदी जिले पानी के संकट से जूझ रहे हैं।

अधिकांश जिलों का तापमान 45 डिग्री सेल्सियस को पार कर गया है। सबसे गम्भीर हालात महाराष्ट्र, असम, कर्नाटक, उत्तर प्रदेश, तेलंगाना, झारखण्ड के हैं। सरकार अब सूखा राहत के लिये कार्यक्रम भी चला रही है। जिन किसानों की फसल बर्बाद हुई है, उन्हें सरकार सहायता राशि भी दे रही है। गाँव-गाँव में जागरुकता अभियान चलाया जा रहा है। जिन स्थानों पर पानी की कमी है, वहाँ रेल से पानी पहुँचाया जा रहा है।

कुल मिलाकर राहत के लिये जो भी कदम उठाए जा रहे हैं, वह तात्कालिक हैं। जिनका सम्बन्ध सिर्फ वर्ष 2016 के सूखे से है और ये सारे सरकारी प्रयास सिर्फ पीने के पानी के संकट को दूर करने से सम्बन्धित हैं जबकि समस्या पीने के पानी के संकट से कहीं अधिक गम्भीर है क्योंकि यह संकट देश की आधी से भी अधिक उस आबादी के रोजगार से जुड़ा है, जिसे किसान कहते हैं।

पानी की समस्या किसानों की खेती से जुड़ी है। सूखे ने देश की फसलों को भी बर्बाद किया है। भारतीय खाने की थाली में चावल और गेहूँ का महत्त्वपूर्ण योगदान है। इन फसलों को बहुत सारा पानी पीने की आदत है। वर्षा नहीं होने से सूखे की स्थिति इसी तरह बनी रही और जमीन के अन्दर का पानी पाताल में धँसता रहा और पानी की ऊँचाई के स्तर में हम सुधार नहीं कर पाये तो सिर्फ सिंचाई के भरोसे हमारी खेती सूखे का मुकाबला नहीं कर पाएगी।

सरकारी आँकड़ों में सिंचित भूमि में उत्साहित करने वाला सुधार देखने को नहीं मिलता। वर्तमान में 630 लाख हेक्टेयर जमीन पर सिंचाई हो रही है, जो खेती की जमीन का महज 45 फीसदी हिस्सा है। जम्मू-कश्मीर, मध्य प्रदेश, राजस्थान और असम जैसे राज्यों ने जरूर हाल के वर्षों में अपने यहाँ सिंचाई में महत्त्वपूर्ण विकास और परिवर्तन किये हैं।

यदि आँकड़ो से समझने की कोशिश करें तो पिछले दस सालों में सिंचाई की बड़ी परियोजनाओं में साढ़े तीन गुना वृद्धि हुई है। वहीं छोटी सिंचाई परियोजनाओं में यह वृद्धि ढाई गुना की है। खासतौर से यह खर्च वहाँ बढ़ा है, जहाँ नहर के माध्यम से सिंचाई हो रही है। आगे जब सरकार सिंचित कृषि योग्य भूमि का क्षेत्रफल बढ़ाने पर जब विचार करे तो उसे परियोजना पर होने वाले खर्च और परियोजना के रख-रखाव पर होने वाले खर्च की भी समीक्षा करनी चाहिए।

खेती के लिये डीप और स्प्रिंकलर सिंचाई संयम के साथ खेती में पानी बरतने की दिशा में मील का पत्थर है। अब यह बात कई शोध के माध्यम से भी सामने आई है कि डीप इरिगेशन के माध्यम से हुई सिंचाई में परम्परागत सिंचाई की तुलना में सत्तर से अस्सी फीसदी से अधिक पानी फसलों तक पहुँचता है।

अलग-अलग अध्ययनों में यह बात साबित हुई है कि सिंचाई की बड़ी परियोजनाओं की तुलना में माइक्रो इरिगेशन से पानी की बचत होती है। लागत में कमी आती है और फसल भी अच्छी मिलती है।

प्रधानमंत्री कृषि सिंचाई योजना की तारीफ विशेषज्ञों द्वारा की जा रही है। इस योजना में सिंचाई से जुड़ी बड़ी और छोटी दोनों परियोजनाओं को शामिल किया गया है। पानी के मुद्दे पर इजरायल से हाथ मिलाने का भारत का फैसला भी स्वागत योग्य है। भारत जल सप्ताह 2016 में भारत और इजरायल पानी के मुद्दे पर साथ आये। इजरायल में पानी की जबरदस्त किल्लत है। उम्मीद है आने वाले समय में इजरायल से हमें पानी को बरतने की कला सिखने को मिलेगी।

दक्षिण पश्चिम मानसून के आने पर मौसम विभाग ने अच्छी बारिश की भविष्यवाणी की है। प्रधानमंत्री ने भी इस आने वाली बारिश का जिक्र इस बार ‘मन की बात’ में किया। समय कम है लेकिन समय की यह माँग है कि मानसून के आने से पहले जल संरक्षण और कम पानी में अच्छी खेती का पाठ गाँव-गाँव तक पहुँचाने का प्रयास किया जाये। वरना अधिक बारिश होने पर हम यूँ ही डूबते रहेंगे और बारिश नहीं होने पर हम जल संकट पर यूँ ही चिन्ता व्यक्त करते रहेंगे।
 

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